Wednesday, April 24, 2024

विधानसभा चुनाव : बहस से गायब नई शिक्षा नीति

करीब एक महीने तक चले पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों का समापन होने जा रहा है। केवल उत्तर प्रदेश में 7 मार्च को अंतिम चरण का चुनाव बाकी है। चुनावों के दौरान चली बहस का ज्यादातर हिस्सा पार्टियों/नेताओं के बीच होने वाले आरोप-प्रत्यारोपों की भेंट चढ़ गया। अखबारों, पत्रिकाओं, ऑनलाइन, सोशल मीडिया और टीवी चैनलों में चुनावी मुद्दों पर जो बहस हुई, उसमें नई शिक्षा नीति पर चर्चा पढ़ने-सुनने को नहीं मिली। मैंने खुद पता किया और पुष्टि के लिए प्रोफेसर अनिल सदगोपाल से भी पूछा कि क्या चुनावों में हिस्सा लेने वाली किसी राष्ट्रीय या क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टी ने अपने घोषणापत्र में नई शिक्षा नीति का मुद्दा उठाया है? हमारी जानकारी के अनुसार ऐसा नहीं हुआ।

संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) से जुड़े 22 किसान संगठनों में से कुछ ने मिलकर संयुक्त समाज मोर्चा नाम से राजनीतिक पार्टी बना कर पंजाब विधानसभा चुनावों में हिस्सेदारी की। लेकिन उनके घोषणापत्र/भाषणों में नई शिक्षा नीति का मुद्दा शामिल नहीं था। एसकेएम नेतृत्व ने भाजपा को हराने की अपील के साथ चुनावों में सक्रिय भूमिका निभाई। उनके बयानों/प्रेस वार्ताओं में भी नई शिक्षा नीति कोई मुद्दा नजर नहीं आया। पंजाब में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच शिक्षा के पंजाब मॉडल और शिक्षा के दिल्ली मॉडल की जिरह विधानसभा चुनावों के पहले से ही शुरू हो गई थी। लेकिन वह जिरहबाजी ‘मेरा स्कूल/क्लासरूम तेरे स्कूल/क्लासरूम से ज्यादा स्मार्ट है’ के स्तर तक सीमित थी। शिक्षा जैसे गंभीर विषय और नई शिक्षा नीति जैसे विवादास्पद मुद्दे के लिए उस सतही जिरह में अवकाश नहीं था।     

उत्तर प्रदेश में चौथे चरण के चुनाव के आस-पास संकेत उपाध्याय ने एनडी टीवी इंडिया पर रोजगार और शिक्षा के सवाल पर युवाओं के बीच एक कार्यक्रम किया था। संकेत उपाध्याय जमीनी रिपोर्टिंग करते हुए लोगों के बीच अच्छी और सुखद बहस का आयोजन करते हैं। बहस के दौरान न वे खुद उखड़ते हैं, न उनके साथ बहस करने वाले किसी भी पक्ष के लोग नाराज हो पाते हैं। उस कार्यक्रम में भाजपा, सपा, बसपा और कांग्रेस के युवा प्रतिभागी शामिल थे। सब प्रतिभागियों ने अपनी-अपनी पार्टियों के रंग-वस्त्र पहने हुए थे। एक सपा प्रतिभागी ने सिर पर ‘समाजवादी छात्र सभा’ की लाल टोपी लगाई हुई थी। वह बिना अपनी बारी के जोर-जोर से बोल कर भाजपा प्रतिभागी को कड़ी टक्कर दे रहा था। उत्तर प्रदेश में शिक्षा और रोजगार के सवाल पर आयोजित युवाओं के बीच होने वाली उस बहस में नई शिक्षा नीति का मुद्दा किसी प्रतिभागी ने नहीं उठाया। कार्यक्रम में कांग्रेस का मोर्चा लड़कियों ने सभाला हुआ था। उन्हीं में से एक लड़की ने आधा वाक्य नई शिक्षा नीति के विरोध में कहा। लेकिन न मॉडरेटर ने, न अन्य किसी प्रतिभागी ने नई शिक्षा नीति के मुद्दे को बहस में आने दिया।

चुनावों के दौरान राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर के किसी छात्र अथवा युवा संगठन ने नई शिक्षा नीति के विरोध अथवा समीक्षा की मांग नहीं उठाई। देश भर के शिक्षक संगठनों की भी यही स्थिति रही। चुनाव अभियान के दौरान साल 2022-2023 का बजट संसद में पेश हुआ। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जोर देकर बताया कि बजट में नई शिक्षा नीति को प्रभावी रूप से लागू करने के लिए विशिष्ट प्रावधान किए गए हैं। उन्होंने नई शिक्षा नीति के हवाले से यह भी स्पष्ट किया कि ऑनलाइन/डिजिटल शिक्षा ही देश में सबको गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की गारंटी है। प्रधानमंत्री के संसद में दिए गए भाषण से संकेत लेकर भी चुनावों में व्यस्त किसी पार्टी/नेता ने नई शिक्षा नीति को अपने बयान अथवा भाषण का विषय नहीं बनाया।

कोरोना महामारी के दौरान दो साल तक देश के सभी विश्वविद्यालय बंद रखे गए। इस बीच नई शिक्षा नीति को लेकर सरकार ने विश्वविद्यालय अधिकारियों के साथ मिल कर नई शिक्षा नीति के पक्ष में धुआंधार ऑनलाइन प्रचार किया। विश्वविद्यालयों, विशेषकर दिल्ली विश्वविद्यालय को बंद रखने के पीछे एक कारण यह माना जा रहा था कि विश्वविद्यालय खुलते ही नई शिक्षा नीति के विरोध का दरवाजा भी खुल जाएगा। दिल्ली विश्वविद्यालय के साथ एक ही शहर में करीब सौ कॉलेज/संस्थान जुड़े हुए हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के अलावा यहां पांच और विश्वविद्यालय हैं। दिल्ली देश की राजधानी भी है। लिहाजा, यहां होने वाले विरोध प्रदर्शनों की गूंज पूरे देश में होती है। विधानसभा चुनावों के दौरान दिल्ली के सभी विश्वविद्यालय खुल गए। लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय समेत नई शिक्षा नीति के खिलाफ कहीं कोई प्रदर्शन देखने को नहीं मिला।

भविष्य में भारत की शिक्षा व्यवस्था पर निर्णायक प्रभाव डालने वाली नई शिक्षा नीति के गुण-दोषों का विवेचन मैंने अन्यत्र किया है। यहां केवल एक प्रश्न है। क्या नई शिक्षा नीति, और उसके पूर्व के अन्य कई सरकारी फैसलों के तहत, हमने शिक्षा के निजीकरण/बाजारीकरण/साम्प्रदायीकरण के साथ शिक्षा का तुच्छीकरण भी स्वीकार कर लिया है? ऐसा करके क्या आधुनिक भारत के मौलिक शिक्षाविदों के वारिस होने की जिम्मेदारी से हमने अपने को हमेशा के लिए मुक्त कर लिया है? 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों का सेमी-फाइनल माने जाने वाले पांच विधानसभा चुनावों की बहस से नई शिक्षा नीति का मुद्दा ही गायब होना तो यही संकेत करता है।

प्रेम कुमार (वरिष्ठ पत्रकार हैं दिल्ली में रहते हैं।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles