संयुक्त मोर्चा की कठमुल्लावादी समझ

कल के ‘टेलिग्राफ़’ में प्रभात पटनायक की एक टिप्पणी है — सीमित रणनीति (Limited Strategy) । दिमित्राफ और फासीवाद के ख़िलाफ़ उनकी संयुक्त मोर्चा की कार्यनीति पर एक टिप्पणी।

टिप्पणी का पूर्वपक्ष है कि यदि फासिस्टों के प्रतिरोध के लिए अन्य पूंजीवादी ताक़तों के साथ संयुक्त मोर्चा अपरिहार्य है तो फासिस्टों के सत्तासीन होने तक प्रतीक्षा क्यों की जाए?

इस पर प्रभात पटनायक का प्रतिपक्ष है कि यदि ऐसा करेंगे तो पूंजीवाद की विफलताओं का लाभ फ़ासिस्टों को आसानी से मिल जाएगा। इसीलिए उनकी दलील है कि कोई भी संयुक्त मोर्चा शर्त-सापेक्ष होना चाहिए, अर्थात् उसका एक साफ़ एजेंडा होना चाहिए। ऐसा एजेंडा जो उसके इस दुष्परिणाम को काट सके।

उनकी दलीलों का तात्पर्य साफ़ है कि अन्य पूँजीवादी शक्तियों के साथ मोर्चा क़ायम करने में प्रकारांतर से पूँजीवाद के अंत का एजेंडा भी शामिल होना चाहिए!

मतलब जिन्हें (ग़ैर-फासीवादी पूँजीवादियों को) साथ लाना है, उनसे स्वयं की मौत को स्वीकारने की शर्त को मनवा कर ही मोर्चे की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए!

अर्थात्, यही समझा जाए कि पूंजीवादियों का शुद्धीकरण करके उन्हें पहले क्रांतिकारी बनाना चाहिए और तब उनके साथ कोई मोर्चा तैयार करना चाहिए।

है न यह एक मज़ेदार बात!

जो पूंजीवाद आज सारी दुनिया में शासन में है, जिसकी चंद लाक्षणिकताओं के कारण उसे भले ‘नव-उदारवाद’ कहा जाता है, प्रभात चाहते हैं कि पूंजीवादी ताक़तों को पहले उसी से अलग करना चाहिए और तब उन्हें लेकर फासिस्टों के ख़िलाफ़ संयुक्त मोर्चा बनाना चाहिए।

देखिए, वही सनातन सैद्धांतिक समस्या — पहले मुर्ग़ी को माना जाए या पहले अंडे को !

कहना न होगा, प्रभात की समस्या आधार और अधिरचना के बारे में चली आ रही तथाकथित मार्क्सवादी अवधारणा से जुड़ी हुई समस्या है, जिसमें सामाजिक विकास में अर्थनीति को आधार और निर्णायक माना जाता है और बाक़ी तमाम विषयों को अर्थनीति के अंतर्गत, अधीनस्थ। इसीलिए, अगर कोई नव-उदारवादी (पूंजीवादी) होगा तो वह फासीवाद-विरोधी नहीं हो सकता क्योंकि फासीवादी भी नव-उदारवादी ही होते हैं। उनके लिए आर्थिक नीतियों में समानता के रहते अन्य मामलों में भेद का कोई विशेष अर्थ नहीं रह जाता है।

मार्क्सवादियों के एक तबके की यही वह ‘क्रांतिकारी’ समझ है जो फासीवाद-विरोधी संयुक्त मोर्चा की कार्यनीति पर उन्हें कभी भी मन से काम नहीं करने देती है।

आधार और अधिरचना संबंधी मार्क्सवादी अवधारणा को जब तक एक को प्रथम और अन्य को द्वितीय स्थान पर रखने के विचार से मुक्त करके दोनों की पूर्णत: सामंजस्यपूर्ण और परस्पर-निर्भर श्रृंखला की ऐसी गांठ के रूप में विकसित नहीं किया जाता है जिसमें प्रमाता के अतीत की धारा और उसके वर्तमान का स्वरूप भी समान रूप से गुंथा हुआ हो, तब तक गतिशील सामाजिक यथार्थ के विश्लेषण में वह सिर्फ एक बाधा ही बनी रहेगी ।

लकानियन मनोविश्लेषण में चित्त के विन्यास में प्रतीकात्मक (symbolic), यथार्थ (real) और चित्रात्मक (imaginary) आयामों की गांठ के एक सामंजस्यपूर्ण स्वरूप पर ‘पिता का नाम’ के वंशानुगत आयाम को जोड़ कर जिस बोरोमियन गांठ (borromean knot) की जो अवधारणा पेश की गई है, उसी तर्ज़ पर समाज की आंतरिक गत्यात्मकता की एक नई अवधारणा से आधार और अधिरचना संबंधी यांत्रिक समझ से मुक्ति ज़रूरी जान पड़ती है।

(अरुण माहेश्वरी लेखक और चिंतक हैं। आप आजकल कोलकाता में रहते हैं।)

अरुण माहेश्वरी
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