Thursday, March 28, 2024

स्पीकरों की मनमानी से आयाराम-गयाराम की चांदी

माना जाता रहा है कि विधानसभा अध्यक्ष पद पर आसीन होते ही व्यक्ति दलीय भावना से ऊपर उठ जाता है। लेकिन वास्तविकता में स्पीकर का अधिकतर मामलों में कोई भी निर्णय पार्टी लाइन से अलग नहीं हो पाता है। इस वजह से भी मिली जुली सरकारों में सबसे बड़ी पार्टी अपना ही स्पीकर बनवाना चाहती है। इसके लिए संवैधानिक मूल्यों को भी ताक पर रख दिया जाता है। इसी कारण विधानसभा अध्यक्ष को दिए गए विशेष रूप से दलबदल सम्बंधी अधिकारों, को लेकर हमेशा प्रश्न चिंह लगते रहे हैं।

स्पीकरों की मनमानी की कुछ बानगियाँ देखें –

-उच्चतम न्यायालय ने मंगलवार को गोवा विधानसभा स्पीकर को एक महीने के भीतर कांग्रेस के 10 बागी विधायकों की अयोग्यता पर फैसला लेने का निर्देश देने की मांग करने वाली याचिका पर नोटिस जारी किया। गोवा के कांग्रेस अध्यक्ष गिरीश चोडणकर द्वारा दायर याचिका पर चीफ जस्टिस एसए बोबडे, जस्टिस एएस बोपन्ना और जस्टिस एमआर शाह की पीठ ने तीन सप्ताह के भीतर जवाब देने के लिए नोटिस जारी किया।

-द्रविड़ मुनेत्र कषगम यानी द्रमुक ( डीएमके ) ने तमिलनाडु में 2017 में हुए विश्वास मत में मुख्यमंत्री के पलानीस्वामी के खिलाफ मतदान करने वाले उप मुख्यमंत्री ओ पन्नीरसेल्वम समेत अन्नाद्रविड़ मुनेत्र कषगम (एआई डीएमके) के 11 विधायकों को अयोग्य करार दिए जाने के लिए स्पीकर को कार्यवाही करने के निर्देश देने के लिए एक बार फिर उच्चतम न्यायालय  का रुख किया है।

-उच्चतम न्यायालय ने मार्च 20 विशेष शक्तियों का इस्तेमाल कर दलबदल मामले में मणिपुर के कैबिनेट मंत्री को हटाया।

– मणिपुर हाईकोर्ट ने सोमवार को कांग्रेस के सातों बागी विधायकों के विधानसभा परिसर में प्रवेश करने पर तब तक के लिए रोक लगा दी है, जब तक कि विधानसभा अध्यक्ष का ट्रिब्यूनल उनकी अयोग्यता के मामले की सुनवाई पूरी नहीं कर लेता। ये सभी विधायक 2017 में बीजेपी में शामिल हो गए थे।

इसके अलावा कर्नाटक और मध्यप्रदेश में दलबदल का ऐसा रूप सामने आया जिसने दलबदल कानून को ही निरर्थक बना दिया। इन दोनों राज्यों में इतने विधायकों का इस्तीफा भाजपा के इशारे पर हुआ कि कर्नाटक में कांग्रेस और जनता दल सेकुलर की कुमारस्वामी सरकार अल्पमत में और मध्यप्रदेश में कांग्रेस की कमलनाथ सरकार अल्पमत में आ गयीं और उन्हें इस्तीफा देना पड़ा।दोनों प्रदेशों में भाजपा की सरकार बन गयी। यहां स्पीकर सत्ता पार्टी के थे और इस्तीफों पर राजनीति भी हुई पर उच्चतम न्यायालय के हस्तक्षेप पर स्पीकर को तत्काल फैसले सुनाने पड़े पर गोवा विधानसभा, तमिलनाडु विधानसभा और मणिपुर विधानसभा का मामला क्यों लटका है यह शोध का विषय बनता जा रहा है।

उच्चतम न्यायालय ने मंगलवार को गोवा विधानसभा स्पीकर को एक महीने के भीतर कांग्रेस के 10 बागी विधायकों की अयोग्यता पर फैसला लेने का निर्देश देने की मांग करने वाली याचिका पर नोटिस जारी किया। याचिका में कहा गया है कि अयोग्य ठहराए जाने वाली याचिका अगस्त 2019 से पहले लंबित है, उस पर स्पीकर को शीघ्रता से फैसला करना चाहिए। याचिका में 10 विधायकों को भाजपा विधायकों और मंत्रियों के रूप में कार्य करने से रोकने की मांग भी की गई है। वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल चोडणकर की ओर से पेश हुए और मामले को जल्द सूचीबद्ध करने की मांग की।

याचिका में कहा गया है कि स्पीकर ने अयोग्यता का फैसला करने के लिए 3 महीने की समय सीमा का उल्लंघन किया है जिसे सुप्रीम कोर्ट ने मणिपुर विधायक दलबदल के मुद्दे से संबंधित अपने हालिया फैसले में निर्धारित किया है। जुलाई 2019 में गोवा में 15 कांग्रेस विधायकों में से दस ने पार्टी छोड़ दी और भाजपा में विलय कर लिया, जिससे सत्तारूढ़ पार्टी की ताकत 27 से बढ़कर 40 हो गई। विपक्षी दल द्वारा 10 विधायकों के खिलाफ दायर अयोग्यता याचिका अगस्त 2019 से विधानसभा स्पीकर राजेश पटनेकर के समक्ष लंबित है। चोडणकर की याचिका में कांग्रेस के 10 विधायकों के भाजपा के साथ विलय को चुनौती दी गई है, क्योंकि पार्टी या गोवा इकाई में कोई “विभाजन” नहीं था।

उच्चतम न्यायालय ने तमिलनाडु में 2017 में हुए विश्वास मत में मुख्यमंत्री के पलानीस्वामी के खिलाफ मतदान करने वाले उप मुख्यमंत्री ओ पन्नीरसेल्वम समेत अन्नाद्रविड़ मुनेत्र कषगम (एआई डीएमके) के 11 विधायकों को अयोग्य करार दिए जाने के लिए स्पीकर को कार्यवाही करने के निर्देश देने के मामले में दायर द्रविड़ मुनेत्र कषगम यानी द्रमुक ( डीएमके ) की याचिका की सुनवाई 15 दिनों के लिए टाल दी। वैसे विधानसभा स्पीकर ने कुछ विधायकों को नोटिस भी जारी किया है।

दरअसल 14 फरवरी को इसी तरह की याचिका पर उच्चतम न्यायालय ने सुनवाई बंद कर दी थी। चीफ जस्टिस एसए बोबडे ने कहा था कि स्पीकर ने कार्यवाही शुरू कर दी है और वो कानून के मुताबिक कार्यवाही करेंगे। सुनवाई में तमिलनाडु के एडवोकेट जनरल ने पीठ को बताया था कि तीन साल पुराने इस मामले में विधानसभा स्पीकर ने सभी 11 विधायकों को नोटिस जारी किया है इसके बाद पीठ ने मामले की सुनवाई बंद कर दी। चार फरवरी को हुई सुनवाई में मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे की अध्यक्षता वाली पीठ ने विधानसभा स्पीकर पर सवाल उठाए थे।

तमिलनाडु के उप मुख्यमंत्री ओ पन्नीरसेल्वम और 10 अन्य विधायकों के खिलाफ अयोग्यता के मामले में चीफ जस्टिस ने स्पीकर से पूछा था कि आखिर वो अयोग्यता पर कब फैसला करेंगे। पीठ ने पूछा था कि पिछले तीन वर्षों में 11 विधायकों के खिलाफ अयोग्यता याचिकाओं पर कोई कार्रवाई क्यों नहीं हुई। एक स्पीकर 3 साल तक ऐसी याचिकाओं पर नहीं बैठ सकता ।

मणिपुर हाईकोर्ट ने सोमवार 12 जून, 20 को कांग्रेस के सातों बागी विधायकों के विधानसभा परिसर में प्रवेश करने पर तब तक के लिए रोक लगा दी है, जब तक कि विधानसभा अध्यक्ष का ट्रिब्यूनल उनकी अयोग्यता के मामले की सुनवाई पूरी नहीं कर लेता। ये सभी विधायक 2017 में बीजेपी में शामिल हो गए थे। इन सात विधायकों की मदद से बीजेपी ने मणिपुर में सरकार बना ली थी। इन विधायकों में ओनिम लोखोई सिंह, केबी सिंह, पीबी सिंह, संसाम बीरा सिंह, नग्मथंग हाओकिप, गिन्सुनाऊ और वाईएस सिंह शामिल हैं। कांग्रेस ने उस समय उच्चतम न्यायालय तक में अपील की थी, क्योंकि इन विधायकों ने पार्टी की सदस्यता से इस्तीफा नहीं दिया था और तकनीकी तौर पर कांग्रेस के ही एमएलए थे।.

इसके पहले मार्च 20 में उच्चतम न्यायालय ने अपनी विशेष शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए मणिपुर के वन विभाग के कैबिनेट मंत्री टीएच श्याम कुमार को तत्काल हटाने का आदेश दिया और अगले आदेश तक उनके विधानसभा में प्रवेश पर रोक लगा दी थी। श्याम कुमार 2017 में कांग्रेस के एक उम्मीदवार के तौर पर विधानसभा चुनाव जीते थे लेकिन बाद में भाजपा सरकार में शामिल हो गए थे। उन्हें अयोग्य ठहराने संबंधी अर्जी अभी भी विधानसभा अध्यक्ष के पास लंबित है। उच्चतम न्यायालय  ने 21 जनवरी को जनप्रतिनिधियों को अयोग्य ठहराने संबंधी 13 अर्जियों पर निर्णय करने में अत्यधिक देरी को संज्ञान में लिया था जो अप्रैल 2017 से लंबित हैं।

उच्चतम न्यायालय एंटी-डिफ़ेक्शन लॉ यानी दल बदल विरोधी क़ानून के तहत विधायक टी श्यामकुमार सिंह को मणिपुर विधानसभा से अयोग्य ठहराने की माँग पर  कह चुका है कि विधानसभा सदस्यों को अयोग्य क़रार देने का अधिकार एक स्वतंत्र निकाय के पास हो। हालाँकि, यह काम कोर्ट ने संसद पर छोड़ दिया है। इसने कहा कि संसद यह तय करे कि विधायकों को अयोग्य ठहराने का अधिकार सदन के स्पीकर यानी अध्यक्ष के पास हो या नहीं। कोर्ट की यह सलाह उस याचिका पर सुनवाई के दौरान आई है जिसे कांग्रेस नेताओं ने दायर की है।

दल बदलने वाले विधायकों की सदस्यता को अयोग्य ठहराने को लेकर हमेशा विवाद होने की स्थिति में स्वतंत्र निकाय बनाने का सुप्रीम कोर्ट का यह सुझाव काफ़ी महत्वपूर्ण है । इस दल बदल विरोधी क़ानून के तहत अयोग्य क़रार देने का अधिकार विधानसभा के स्पीकर के पास होता है। लेकिन अक्सर देखा गया है कि इसका इस्तेमाल राजनीतिक फ़ायदे के लिए अपने-अपने तरीक़े से किया जाता है। यह इसलिए होता है क्योंकि स्पीकर किसी न किसी राजनीतिक दल का होता है और वह अपनी पार्टी लाइन पर ही फ़ैसले लेता है। इस मामले में कई बार सदन के स्पीकर द्वारा नियमों की धज्जियाँ भी उड़ाई जाती हैं।

एक मार्च 1985 में दल बदल विरोधी क़ानून लागू हुआ और इसे संविधान संशोधन कर 10वीं अनुसूची में शामिल किया गया। यह क़ानून तब लागू होता है जब यदि कोई निर्दलीय निर्वाचित सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है। यदि कोई निर्वाचित सदस्य अपनी मर्जी से किसी राजनीतिक दल की सदस्यता को छोड़ देता है। यदि कोई सदस्य सदन में पार्टी लाइन के ख़िलाफ़ वोट करता है। यदि कोई सदस्य ख़ुद को वोटिंग से अलग रखता है। छह महीने की समाप्ति के बाद यदि कोई मनोनीत सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है।

गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश में 1996 में बसपा और भाजपा  का तालमेल हुआ और दोनों दलों ने छह-छह महीने शासन चलाने का फ़ैसला किया था। मायावती के छह महीने पूरे होने के बाद बीजेपी के कल्याण सिंह 1997 को मुख्यमंत्री बने। महज एक महीने के अंदर ही मायावती ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया। कल्याण सिंह को बहुमत साबित करने का आदेश दिया गया। बसपा, कांग्रेस और जनता दल में भारी टूट-फूट हुई। तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष केसरीनाथ त्रिपाठी ने सभी दलबदलू विधायकों को हरी झंडी दे दी।

दल बदल विरोधी क़ानून के तहत उन्हें अयोग्य नहीं क़रार दिया गया, लेकिन तब के विधानसभा अध्यक्ष त्रिपाठी ने विधानसभा का कार्यकाल ख़त्म होने तक कोई फ़ैसला नहीं सुनाया। एक तर्क यह था कि इस मामले में फ़ैसला सुनाने की कोई समय सीमा निर्धारित नहीं है। यानी इस हिसाब से सब कुछ संविधान और क़ानून के अनुरूप ही हुआ। बाद में अन्य राज्यों के कई विधानसभा अध्यक्ष भी इसी तर्क का हवाला देकर दल बदल के मामलों में चुप्पी साधे रहे।

 (जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल इलाहाबाद में रहते हैं।)

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