Friday, April 19, 2024

भारत जोड़ो यात्रा और भारत में उदार वादी राजनीति का भविष्य

राहुल गांधी यानि कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा 28 सौ किलोमीटर चलकर दिल्ली पहुंची है। सवाल यह है इस यात्रा को मिल रहे जनसमर्थन या इसके द्वारा उठाए गए सवालों की स्वीकार्यता इस देश में किस स्तर तक होने जा रही है। खास कर उस दौर में जब भारतीय लोकतंत्र के मौजूदा स्पेस पर दक्षिणपंथी और अनुदारवादी राजनीति का कब्जा हो गया है। ऐसे दौर में मध्य मार्गी उदारवादी राजनीति को केंद्र में रखकर किए जा रहे भारत जोड़ो यात्रा के क्या कोई ठोस परिणाम निकलेंगे या यह यात्रा एक इवेंट बन कर रह जाएगी।

हमें याद रखना चाहिए कि 90 के दशक में वैश्विक परिस्थिति में हुए परिवर्तन के बाद कांग्रेस के नेतृत्व द्वारा ही भारत को अनुदारवादी रास्ते पर ले जाने की परियोजना तैयार की गई। इस दौर में कांग्रेसी नेतृत्व ही नेहरू कालीन भारतीय समन्वय वादी मध्य मार्गीय राजनीति को हिकारत की नजर से देखने लगा था। धर्म निरपेक्षता समाजवादी विकास का मार्ग और समन्वयवादी विचारक गाली के पात्र बन गए थे।

यह वह दौर था जब दुनिया में लोकतंत्र की (बुर्जुआ लोकतंत्र) जननी कहे जाने वाले देश दक्षिण पंथ की तरफ बढ़ रहे थे। अमेरिका के नेतृत्व में वैश्विक संस्थायें लोकतंत्र के मंचों से खुलेआम घोषणा कर रही थीं कि विकास के वर्तमान मॉडल के तहत लोकतांत्रिक मूल्यों संस्थाओं से समझौता किया जा सकता है और ऐसा किया जाना चाहिए। 

उस समय एलपीजी की नीतियों को स्वीकार करने का दबाव विकासशील और पिछड़े देशों पर डाला जा रहा था। भारत जैसे देश आर्थिक संकट से फंसे थे। इन देशों के संकट की रामबाण दवा के रूप में एलपीजी को आगे किया गया। अमेरिका के नेतृत्व में संचालित डब्ल्यूटीओ, आईएमएफ और विश्व बैंक जैसी संस्थाओं ने इन नीतियों को लागू करने की कमान संभाल ली थी। 

यह वही समय है जब विश्व में आईटी क्रांति (सूचना तकनीक) ने  दक्षिणपंथी विचारों के प्रसार के लिए परिस्थिति अनुकूल बना दी। समाज बाजारवाद और उपभोक्ता जीवन प्रणाली की तरफ बढ़ चला। कारपोरेट पूंजी और बाजार के संयुक्त मेल ने राष्ट्रों को नियंत्रित और संचालित करना शुरू किया। वित्तीय पूंजी का स्वर्ण युग शुरू हुआ। ग्लोबल विश्व की परिकल्पना और वैश्विक बाजार के निर्माण के विचार ने पिछड़े से पिछड़े देशों की जनता को बुरी तरह से प्रभावित किया। सचमुच ऐसा लगने लगा कि लोकतंत्र, और न्यायपूर्ण समाज की परिकल्पना अब अतीत कालके विचार हो गए हों।

लोकतंत्र, समता, न्याय पूर्ण समाज और  समावेशी विचार जैसे मूल्यों को पिछड़ी सोच से जोड़ते हुए इसके प्रति घृणा अभियान चला। सोवियत संघ के विघटन में इसके लिए भौतिक परिस्थिति निर्मित कर दी। सूचना तकनीकी के हथियारों से लैस साम्राज्यवादी प्रचार तंत्र इतिहास के अंत और पूंजी की शाश्वतता की उद्घोषणा करने लगा।

भारत में उदारवादी मध्य मार्गीय राजनीति का सबसे बड़ा मंच” जिसने स्वतंत्रता संघर्ष का नेतृत्व किया था।” इस बदले हुए दौर में धीरे-धीरे अपने स्थान से बहिष्कृत होने लगा। उसके कई आंतरिक और वाह्य कारण थे। खुद कांग्रेस पार्टी सांगठनिक और वैचारिक तौर पर एक दक्षिणपंथी हिंदुत्व वादी विचारधारा वाली पार्टी रही है। नेहरू के दौर में इस तरह की ताकतें वायरस की तरह पार्टी के अंदर बनी रहीं। लेकिन नेहरू के न होने के बाद उन्होंने कांग्रेस पर कब्जा करने की कोशिश की। इंदिरा गांधी ने शुरुआत में इनसे निर्णायक लड़ाई की थी।

70 के दशक में कांग्रेस की रूढ़िवादी दक्षिणपंथी ताकतों को भारी धक्का लगा था। लेकिन ज्यों ही आर्थिक संकट ने इंदिरा सरकार को घेरना शुरू किया परिस्थिति पलट गई। बांग्लादेश युद्ध के बाद बढ़ते आर्थिक संकट के कारण इंदिरा गांधी की लोकप्रियता और लोकलुभावन नारों की प्रासंगिकता खत्म हो गई। इंदिरा गांधी ने अथॉरिटेरियन (निरंकुश) रास्ता अख्तियार किया। जिसने जनाक्रोश को बढ़ा दिया। 1977 में आपातकाल खत्म होते ही उनकी सत्ता चली गई। 

पुनर्वापसी के बाद इंदिरा गांधी उस रास्ते पर आगे बढ़े जो हिंदुत्व और अंतरराष्ट्रीय साम्राज्यवादी ताकतों  द्वारा तैयार किया गया था और पंजाब के अलगाववादी आंदोलन का शिकार हो गई। पंजाब के आतंकवाद के सवाल पर हिंदुत्व की ताकतों ने इंदिरा गांधी की हौसला अफजाई की थी। राजीव गांधी के आने के बाद कांग्रेस पूर्णतया स्वतंत्रता आंदोलन के बुनियादी उसूलों से पल्ला झाड़ते उस हिन्दुत्व के साथ धर्मनिरपेक्षता का संतुलन साधने के द्वंद्व में फंसते चले गए। जिससे आज के हिंदुत्व वादियों को सत्ता पर पहुंचना आसान कर दिया।

बाद का भारत बाबरी मस्जिद का ताला खुलने, रामजन्म मुक्ति आंदोलन के लिए चले तूफानी अभियान, दंगे, बाबरी मस्जिद का विध्वंस और अल्पसंख्यकों के नरसंहारों के रास्ते से इस तरह से आगे बढ़ा कि आज के हिंदुत्ववादी (संघ का राजनीतिक विंग भाजपा)  सत्ता तक पहुंच गए। मंडल की राजनीति भी कोई ठोस वैचारिक, आर्थिक, राजनीतिक दिशा निर्धारित नहीं कर सकी और अतीत और वर्तमान के कॉरपोरेट पूंजीवादी दुनिया के द्वंद्व के बीच झूलती हुई अब लगभग अप्रासंगिक हो गई है। हालांकि कुछ मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी पुरानी लकीर पीटने में अभी भी मशगूल हैं।

90 के दशक में निर्मित हुई दलित और पिछड़ों की एकता बिखर कर अनेक अवसरवादी राजनीतिक गुटों को उगने फलने फूलने के लिए जमीन तैयार की। जिनके सभी विमर्श वर्ण व्यवस्था और जाति के भीतरी अंतर विरोधों को ही हल करने तक सीमित हो गए। जाति विनाश का एजेंडा ठंडे बस्ते में रख दिया गया।

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस में हुए परिवर्तन को इस तरह से रेखांकित किया जा सकता है।

एक, पूंजी विस्तार और बाजार की ताकतों को खुला छूट देना।

दो, भारत में विकास को वैचारिक बंधन से मुक्त किया (जैसे समाजवाद) जाना।  हालांकि मुक्त व्यापार के साथ-साथ पीपीपी मॉडल की चर्चा जरूर होती रही। जो मूलतः निजी पूंजी और बाजार की स्वच्छंदता का काफी सुधरा नाम है।

      3, विदेशी पूंजी निवेश को ऐसी रामबाण दवा के बतौर प्रस्तुत करना।  जिससे डूबती हुई अर्थव्यवस्था को बचाया जा सकता है ।

     4, आजादी से निकली समानता, बराबरी और आत्मनिर्भर भारत की अवधारणा तथा नेहरू के द्वारा रखी गई विकास और लोकतंत्र के मध्यमार्गीय (मिश्रित अर्थव्यवस्था )आधार शिला को पलटते हुए इसे पूर्णतया दक्षिणपंथी बाजारवादी अर्थव्यवस्था की तरफ मोड़ देना।

       5,हिंदुत्व के नरसंहारी और विध्वंसक मॉडल से किसी भी तरह से टकराने से बच कर निकल जाना और वित्तीय पूंजी के विस्तार के द्वारा जाति धर्म के उन्मादियों को पीछे धकेलने की रणनीति पर चलना।

        6, अंतर्राष्ट्रीय पूंजी और भारतीय कारपोरेट के गठजोड़ को पूर्णतया मुक्त होकर काम करने के लिए जन पक्षधर कानूनों को पलट देना। बाजार नियमन के सभी बंधनों को समाप्त करना। विकास के नाम पर मजदूर वर्ग किसान हितैषी कानूनों नीतियों को पलट देना।

      7, आजादी के आंदोलन से निर्मित हुए लोकतांत्रिक संस्थाओं को लगातार कमजोर करते हुए उनकी संगठित प्रतिरोधक शक्ति को कमजोर करते जाना। जो कारपोरेट हिंदुत्व गठजोड़ के खिलाफ संघर्ष की अग्रिम पंक्ति थी।

      8, गांधी जी की हत्या, समय-समय पर उन्मादी विध्वंसक अभियान, गुजरात नरसंहार, बाबरी मस्जिद का विध्वंस और इस्लामिक आतंकवाद के अंतरराष्ट्रीय वैचारिक धुंध के बीच में भारत में सिलसिले वार हुए बम विस्फोटों की घटनाओं में संलिप्त ताकतों की शिनाख्त होते ही मनमोहन कालीन कांग्रेस के हाथ पांव फूल गए। अंत में हेमंत करकरे की हत्या के बाद कांग्रेस मनमोहन सिंह के नेतृत्व मे कारपोरेट हिंदुत्व गठजोड़ का किसी भी तरह का प्रतिरोध करने की क्षमता खो बैठी थी।

      9, यहां तक आते-आते कांग्रेस ऐसी पार्टी बन चुकी थी जो लोकतांत्रिक संस्थाओं,जनता की लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, भाईचारा को बचाने की लड़ाई लड़ने की बजाए हमलावर कारपोरेट हिंदुत्व गठजोड़ के समक्ष 2013 तक आते-आते आत्मसमर्पण कर दी।

     10, 2014 में मोदी के आक्रामक चुनावी अभियान के सामने कांग्रेस असहाय हो गई। जो आज अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है।

  11 , कांग्रेस के सामने दो ही रास्ता बचा है। या तो वह एक रेडिकल जनतांत्रिक वाम रास्ते की तरफ बढ़े या अपनी आज की नियत को स्वीकार कर ले।

कांग्रेस में मची हुई भगदड़ ने भाजपा में नेताओं का टोटा पूरा किया है। हेमंत विश्व शर्मा जगदीप धनखड़ ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे नेताओं को देखकर लगता है कि कांग्रेस की आंतरिक बुनावट में हिंदुत्व का उग्रवादी स्वरूप किस कदर से हावी रहा होगा। इससे एक तथ्य और उभर कर सामने आता है कि कांग्रेस के अंदर ही छिपे हुए आस्तीन के सांप थे जो हिंदुत्व के लिए लगातार काम करते हुए कांग्रेस को कमजोर कर रहे थे।

इसी संदर्भ में एक बात ध्यान रखना चाहिए जब हेमंत करकरे के नेतृत्व में एसआईटी जांच करते हुए संघ के अनुषांगिक संगठनों के बहुत करीब पहुंच चुकी थी तो आडवाणी सहित बीजेपी के कई नेताओं ने सरकार को चेतावनी दी थी कि देश में कानून व्यवस्था का माहौल खराब हो जाएगा।

अतीत में गोविंद बल्लभ पंत, मोरारजी देसाई ,एस के पाटिल,नीलम संजीव रेड्डी , टंडन जी और बाद के समय में प्रणब मुखर्जी जैसे नेताओं और राजघरानों के औलादों के समक्ष कांग्रेस आत्मसमर्पण करता रही। जो मूलतः हिंदुत्व और दक्षिणपंथी राजनीति के छिपे खिलाड़ी थे।

इसलिए कांग्रेस के पुनर्जीवन के लिए अहम सवाल है कि वह मनमोहन सिंह कालीन उदारवादी नीतियों पर चले या रेडिकल जनतांत्रिक वाम दिशा अख्तियार करें। जिसको स्वतंत्रता आंदोलन और उसके बाद भारत के निर्माण के लिए नेहरू ने स्वीकार किया था। 

संभवत राहुल गांधी के इस वक्तव्य में कि “जिसे कांग्रेस से जाना हो वह जा सकता है” इस बात का संकेत निहित था कि 2019 की हार के बाद कांग्रेस ने पुनर्गठन का रोडमैप तैयार कर लिया है। लगता है इस रोड मैप के ही रास्ते कांग्रेस को आगे ले जाने की कोशिश होगी। कन्याकुमारी से कश्मीर तक की “भारत जोड़ो यात्रा “शायद उस रोड मैप को ही व्यवहारिक धरातल पर उतारने की एक कोशिश है।

हमें याद रखना चाहिए कि गांधीजी के आने के बाद असहयोग आंदोलन, डांडी मार्च, सामाजिक सुधार( अछूतोद्धार )सविनय अवज्ञा, भारत छोड़ो आदि से आंदोलनों के बाद ही कांग्रेस जन पार्टी बनी थी। 19 सौ 19/20 के असहयोग आंदोलन के गर्भ से हजारों नेता, कार्यकर्ता, स्वयंसेवक, कांग्रेस ने तैयार किए।  उन्होंने कांग्रेस को गांव-गांव, शहर शहर, विभिन्न भाषाएं क्षेत्रीय इलाकों तक पहुंचाया था।

दूसरा, असहयोग आंदोलन दांडी मार्च और भारत छोड़ो के रास्ते कांग्रेस में एक प्रगतिशील वामपंथी राष्ट्रवादी नेतृत्व उभरा था। जिसने कांग्रेस के विचार को मजदूरों, किसानों, छात्रों नौजवानों, आदिवासियों, दलितों तक ले जाने का काम किया। लेकिन उस दौर में- वैचारिक विभाजन स्पष्ट न होने और स्वतंत्र भारत कैसा होगा – की संपूर्ण अवधारणा को स्पष्ट रूप से राष्ट्र के समक्ष न रख पाने के कारण कांग्रेस के अंदर धार्मिक रूढ़िवादी से लेकर आधुनिक प्रगतिशील विचारों वालों के साथ समाज सुधारक तक बने रहे और कांग्रेस एक मंच की तरह काम करती रही।

 कांग्रेस में हिंदू महासभा से लेकर सोशलिस्ट वामपंथी और धार्मिक लोग आते गए और कांग्रेस के महत्वपूर्ण पदों पर आसीन होते रहे।

भारत विभाजन और गांधी जी की हत्या के बाद हिंदुत्ववादी विचारों वाले कांग्रेस के संगठन के ढांचे में वायरस की तरह जगह पलते रहे। यह वायरस अंदर अंदर कांग्रेस में काम करता रहा और ज्यों ही कांग्रेस कमजोर हुई वे  कांग्रेस को मृतप्राय छोड़कर अपने मूल स्थान पर चले गये।

इसलिए राहुल गांधी की इस यात्रा से कुछ निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं।

एक, राजीव गांधी का यह कहना कि जब संसद और विधानसभा में जनता की आवाज को उठाने ना दिया जाए तो सड़क ही वह एक मात्र जगह है जहां से जनता के सवालों को उठाया जा सकता है।

दो, दूसरा कांग्रेस को संसद और सड़क के संघर्षों को एकतावद्ध करते हुए दृढ़तापूर्वक लोकतांत्रिक मूल्यों को बुलंद करने की तरफ बढ़ सकती है ।

तीसरा, कांग्रेस को देश के दबे कुचले दलितों आदिवासियों और खासकर अल्पसंख्यकों के अधिकारों की सुरक्षा की गारंटी देनी होगी। अतीत कालीन अपनी गलतियों कमजोरियों से मुक्त होना होगा। दृढ़ता पूर्वक ऐलान करना होगा कि किसी लोकतांत्रिक देश की पहली प्रतिबद्धता वहां के कमजोर दबे कुचले और अल्पसंख्यक लोगों के प्रति होती है और कांग्रेस दृढ़ता पूर्वक इनके पक्ष में खड़ी रहेगी।

 चौथा, कांग्रेस को एक बृहत्तर मोर्चे के निर्माण की कोशिश करनी चाहिए। जिसमें गांधीवादी कार्यकर्ताओं संगठनों से लेकर रेडिकल वामपंथी कतारों तक के वृहत्तर वर्णपट को उचित सम्मान के साथ उस मंच में जगह दी जानी चाहिए। जैसा कि राष्ट्रीय आंदोलन के दौर में हुआ था और आज बिहार के महा गठबंधन में जिसकी झलक मिल रही है।

उस समय भारत की जनता का प्रधान शत्रु ब्रिटिश साम्राज्यवाद था। इसलिए सभी शक्तियों को एक मंच पर आना ऐतिहासिक जरूरत थी। आज फासीवाद के दौर में प्रधान शत्रु के चिन्हित हो जाने पर ऐसी स्थिति पैदा हो चुकी है।

 पांचवां, भारतीय लोकतंत्र फासीवाद की गिरफ्त में आ चुका है। लोकतांत्रिक संस्थाएं जिसमें न्यायालय से लेकर चुनाव आयोग तक अंतिम सांसें गिन रहे हैं। इसलिए लोकतंत्र और देश की एकता को बचाने के लिए बड़े सामाजिक राजनीतिक मोर्चे की जरूरत है। आज के समय में कांग्रेस और विपक्ष के साथ सामाजिक न्याय की ताकतों व वाम जनवादी शक्तियों के समक्ष बहुत बड़ी जिम्मेदारी है कि वे संकीर्णता अतिवादी रुढ़िवादिता को मोर्चा निर्माण के रास्ते में बाधा न बनने दें।

कांग्रेस को इस अर्थ में अपना पुनर्मूल्यांकन करना चाहिए और नए लोकतांत्रिक आधारों पर खड़ा होने की हर संभव कोशिश करनी चाहिए। कमरतोड़ महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, खाद्य सुरक्षा की गारंटी, स्वास्थ्य, शिक्षा दलितों अल्पसंख्यकों महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा के साथ संवैधानिक गणतंत्र को सुरक्षित रखने जैसे सवालों को आगे करके भारत में एक बड़े लोकतांत्रिक आंदोलन की पृष्ठभूमि तैयार करें। नहीं तो फासीवाद राष्ट्रीय आंदोलन की उपलब्धियों और 75 साल से भारत निर्माण की हुई सभी सकारात्मक कोशिशों को निगल जाएगा।

इस ऐतिहासिक मोड पर कांग्रेस तीस के दशक के वैचारिक राजनीतिक और संघर्ष के दिशा पर निश्चय ही विचार करती होगी। जहां से भारत के स्वतंत्रता संघर्ष को ताकत मिली थी और आज उसी दिशा में जाकर फासीवाद के आक्रामक विध्वंसक अभियान को रोका जा सकता है। उम्मीद है कांग्रेस के नेता और विचारक इस दिशा में अवश्य सोच रहे होंगे। कांग्रेस बुर्जुआ वर्ल्ड का प्रतिनिधित्व करती है  उसके लिए आत्म संघर्ष इतना आसान नहीं होगा।

लेकिन इतना तो तय है कि 2023, 2022 से ज्यादा विध्वंसक होने जा रहा है। फिर भी उम्मीद सड़कों पर हो रहे विमर्श और प्रतिरोध पर जाकर केंद्रित हो गई है। यही हमारे लिए सबसे सकारात्मक अनुभव और उपलब्धि है। नव वर्ष की गर्मजोशी भरी शुभकामनाएं।

 (जयप्रकाश नारायण अखिल भारतीय किसान महासभा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं।)

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