भाजपा भारी बहुमत से दिल्ली की विधानसभा में वापस आ गई है। इसके लिए उसे 27 वर्षों तक इंतजार करना पड़ा। भाजपा की वापसी से ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल है आम आदमी पार्टी परिघटना का उभरना और पराभव की तरफ आगे बढ़ जाना। हम जानते हैं कि समय के विकास के क्रम में संघ और अजीत डोभाल द्वारा संचालित विवेकानंद फाउंडेशन से संबद्ध केजरीवाल टीम भाजपा से टकरा जाने के लिए मजबूर हुई थी। हालांकि आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस विरोधी राजनीति से अपनी यात्रा शुरू की।
2013 के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में अन्ना नामक पुतले के साथ एक आरटीआई कार्यकर्ता पूर्व आईटियन नौकरशाह केजरीवाल का राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरना अपने आप में ही भारतीय समाज में चल रही अंतः क्रियाओं की एक खास विशेषता को अभिव्यक्त करता है। केजरीवाल की पूरी चिंतन प्रक्रिया मध्यवर्गीय समाज के रोमांटिसिज्म के एक खास मॉडल का रूप थी। जिसमें गुडगवर्नेंस, सादगी, भ्रष्टाचार मुक्त राजनीति का तड़का लगा था। इस मध्यवर्गीय रोमांटिक विशिष्ठता के एक मंजिल पर पहुंच कर राजनीतिक ताकत बनने और अंततः हिंदुत्व की वैचारिक राजनीति के दलदल में उलझ जाने के बाद दिल्ली की सत्ता से बाहर होना एक दिलचस्प कहानी है।
अरविंद केजरीवाल ब्यूरोक्रेट से धीरे-धीरे सूचना अधिकार आंदोलन के कार्यकर्ता के रूप में सामाजिक जीवन में सक्रिय हुए। मैग्सेसे पुरस्कार मिलने के बाद वह उच्च मध्यवर्गीय समाज में चर्चित व्यक्तित्व बने। हालांकि इसके पहले अपने एनजीओ के माध्यम से वह झुग्गी झोपड़ियों के गरीबों के बीच में सुधारवादी आंदोलन या कार्यक्रम को संचालित करते रहे थे। 2009 में सत्ता में वापसी के बाद मनमोहन सिंह सरकार एक मौके पर आकर वित्तीय पूंजी के हितों के अनुकूल कड़े फैसले लेने और कॉर्पोरेट लॉबी के मुनाफे की हवस को संतुष्ट करने की स्थिति में नहीं रह गई थी। इसलिए 2010-11 तक आते-आते मनमोहन सिंह भारतीय शासक वर्ग के लिए अप्रासंगिक हो चले थे।
ऐसी जानकारियां मिल रही हैं कि इसी समय संघ और विवेकानंद फाउंडेशन के नेतृत्व में नौकरशाही के अंदर संघ विचारधारा में दीक्षित अधिकारियों के समूह द्वारा भ्रष्टाचार विरोधी नरेटिव खड़ा करने का कार्यक्रम तैयार किया गया। इसके लिए” इंडिया अगेंस्ट करप्शन”, नामक संगठन का निर्माण हुआ। हम जानते हैं कि मुनाफे की व्यवस्था की नाभि में भ्रष्टाचार का अमृत होता है। जिसके बल पर ही यह व्यवस्था टिकी होती है। जो समाज में न्यू नॉर्मल के रूप में सक्रिय है। शायद ही कोई ऐसा भारतीय नागरिक हो जिसे अपने जीवन में भ्रष्टाचार के तंत्र के अनुभव से न गुजरना पड़ता हो। इसलिए मनमोहन सिंह की नीतियों के अंदर मौजूद विसंगतियों का फायदा उठाने की रणनीति तैयार की गई।
कुछ लोगों का तो यहां तक कहना है कि तत्कालीन कैग प्रमुख विनोद राय (जाने अनजाने) के दौर में इसके लिए तार्किक आधार तैयार किए गए। महाराष्ट्र में कुछ भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन चला चुके सेना के पूर्व ड्राइवर अन्ना हजारे को संघ और कारपोरेट जगत ने एक महान संत के रूप में आगे कर बड़ी राजनीतिक जनगोलबंदी शुरू की। इंडिया अगेंस्ट करप्शन नामक संगठन के बैनर तले आंदोलन की शुरुआत हुई। जिसमें चर्चित आईपीएस किरण बेदी, पूर्व नौसेना अध्यक्ष रामदास, पूर्व थल सेना अध्यक्ष वीके सिंह, प्रशांत भूषण, प्रो. आनंद कुमार, योगेंद्र यादव के साथ केजरीवाल प्रमुख केंद्र बने। इसमें तटस्थ दिखने वाली अनेक नामचीन हस्तियां भी शामिल थीं। इस संगठन ने भ्रष्टाचार से मुक्ति के लिए लोकपाल नियुक्त करने का सवाल केंद्रीय मुद्दा बनाया गया ।जिसे भ्रष्टाचार से मुक्ति के लिए सर्व रोग हर दवा के रूप में पेश किया गया। बाद में बाबाओं, सन्यासियों के साथ मध्यवर्गीय समाज की एक पूरी टीम ही आंदोलन में शामिल हो गई।
भ्रष्टाचार व काले धन के खात्मे और विदेश में जमा काले धन की वापसी के सवाल के साथ महंगाई जैसे मुद्दे को जोड़कर जन आंदोलन की शक्ल दी गई। इस समय तक मीडिया कॉर्पोरेट के हाथ में जा चुका था और उस पर हिंदुत्व की वैचारिकी हावी हो चुकी थी। वस्तुत: आंदोलन जनता के बुनियादी सवालों को संबोधित तो कर रहा था। लेकिन संघ और कॉरपोरेट नियंत्रण के कारण अंतर्वस्तु में जनतांत्रिक चेतना के कमजोर होने के कारण इस आंदोलन द्वारा समाज को और ज्यादा दक्षिणपंथी दिशा में ले जाने में सफलता मिली। केजरीवाल इसी प्रक्रिया की उपज थे।
दूसरी बात बाबरी मस्जिद ढहाने और एलपीजी के आने के बाद भारतीय समाज दक्षिण पंथ की तरफ मुड़ गया था। स्वतंत्रता आंदोलन की साम्राज्यवाद विरोधी चेतना के कमजोर होने और सोवियत संघ के बिखरने के बाद भारतीय समाज में हिंदुत्व का प्रभाव बहुत तेजी से बढ़ा। 1992 से 2002 के बीच के10 वर्ष के संक्रमण काल के समाप्त होते ही हिंदुत्व भारतीय राज्य सत्ता के केंद्र में स्थापित हो गया। गुजरात नरसंहार के बाद कॉर्पोरेट लॉबी को एक ऐसा नेता मिल चुका था जो उनके हितों के अनुकूल लोकतांत्रिक संस्थानों को निर्ममता पूर्वक खत्म कर सके। खैर इसे यहीं छोड़ते हैं।
यहां एक तथ्य याद रखने की जरूरत है कि 1955 के आस-पास जेपी सर्वोदय आंदोलन में आये। उनके आने के बाद सर्व सेवा संघ गांधी शांति प्रतिष्ठान या इस तरह की संस्थाएं (जो विभिन्न स्तर पर गांधी जी के सुधारवादी सामाजिक कार्यक्रमों जैसे अछूतोद्धर, खादी का प्रचार-प्रसार तथा आदर्शवादी दक्षिण पंथी सनातनी आश्रम पद्धति मार्का संस्करण) धीरे-धीरे कांग्रेस विरोधी दिशा में जाने लगीं। साथ ही ये संस्थाएं साम्राज्यवादी वित्तीय पूंजी पर आश्रित होती गईं।
विकासशील देशों में साम्राज्यवादी वित्तीय पूंजी के सहयोग से सामाजिक कल्याण शिक्षा के विस्तार लैंगिक समानता पर्यावरणीय अनुकूलता तथा आदिवासियों पिछड़ों और दलितों के उत्थान और विकास के नाम पर एनजीओ के जाल फैलने लगे। इंदिरा गांधी के खिलाफ जेपी आंदोलन के मुख्य संचालक शक्ति जहां छात्र युवा थे। वही उसमें इन सर्वोदयी व गांधीवादी संस्थाओं का बड़ा योगदान था। जिन्हें वित्तीय पूंजी के युग में विदेशी फंडिंग पर ज्यादा आश्रित रहना पड़ता था। बाद के दिनों में जेपी आंदोलन से निकली छात्र युवा संघर्ष वाहिनी जैसे गैर राजनीतिक संगठन सामाजिक कार्य के लिए विदेशी फंडिंग या कॉरपोरेट पूंजी पर आश्रित होते गए। जिस कारण से इनकी लोकतांत्रिक चेतना छीजना शुरू हो गई।
बाद के दिनों में तो एनजीओ आदर्शवादी प्रगतिशील नौजवानों के लिए कैरियर और कैपिटल गेनिंग का मंच बन गये। लेकिन इन संस्थानों में एक टिकाऊपन भी था। वे कांग्रेस के भ्रष्टाचार कॉर्पोरेट परस्ती अलोकतांत्रिक कार्रवाई साम्राज्यवादी पूंजी के साथ गठजोड़ तथा विश्व व्यापार संगठन आईएमएफ विश्व बैंक आदि द्वारा लायी गई नीतियों के समक्ष जब भारतीय राज्य ने समर्पण कर रहा था। उसके खिलाफ जन जागरण में उतर गए थे। ये संगठन महाशय डंकल द्वारा तैयार की गई नीतियों, उदारीकरण, वैश्वीकरण, निजीकरण के खिलाफ मुखर आवाज और आंदोलनकारी ताकत भी बने।
इसके अलावा असम में चले विदेशी हटाओ आंदोलन, बिहार प्रेस बिल, 59वां संविधान संशोधन, राजीव गांधी के खिलाफ भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में इन संगठनों की सक्रिय भागीदारी रही। 90 के दशक में स्वदेशी आंदोलन में संघ के साथ इन संगठनों की भी भूमिका होने से इनमें आपसी अंतर संबंध भी बनने लगे थे। धर्मनिरपेक्ष समावेशी लोकतांत्रिक अवधारणा के चलते स्वयंसेवी संस्थाओं को अंततः बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद आरएसएस और भाजपा के विरोध में जाने के लिए बाध्य होना पड़ा।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने पाखंडी गैर राजनीतिक आवरण के पीछे हजारों संस्थाओं का संचालन करता रहा है। जो सामाजिक चेतना के हिंदूकरण के साथ अल्पसंख्यक व धर्मनिरपेक्ष प्रगतिशील समावेशी मूल्य विरोधी विचारों के प्रचार में लगी रहती हैं। यह संस्थाएं शिक्षा क्षेत्र से लेकर सामाजिक समूहों (जैसे दलितों आदिवासियों और हासिये के समाजों, नृजातीय समूहों) में समरसता कायम करने के नाम पर हिंदूकरण और सर्वोपरि जमीन तक सामाजिक विभाजन के एजेंडे के साथ अल्पसंख्यक विरोधी तथा लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ सक्रिय हैं। संघ तथ्य, तर्क रहित, आधारहीन घटनाओं सामंती वर्णवादी श्रेष्ठता के पृष्ठ गामी मूल्यों तथा हिंदू धर्म के मानवीय चरित्र को खत्म करते हुए आक्रामक हिंसक और सैन्यीकरण की दिशा में ले जाने के लिए एनजीओ के आवरण का इस्तेमाल करता रहा है।
तथ्य यह है कि 2013 के दौरान में भारत में फैले स्वयंसेवी संस्थाओं के जाल कांग्रेस विरोधी आंदोलनों के केंद्र बन गए। हालांकि इस कालखंड में वाम जनवादी ताकतें भी कांग्रेस की लोकतंत्र विरोधी, जन विरोधी साम्राज्यवाद परस्त नीतियों के खिलाफ जनता के राजनीतिकरण के लिए संघर्ष कर रही थीं। लेकिन गैर राजनीति का चोला ओढ़े हुए यह स्वयंसेवी संस्थाएं वस्तुतः अतर्वस्तु में धुर वामपंथ विरोधी हैं और दक्षिणपंथी मूल्य के प्रवक्ता के रूप में ही काम करती हैं। इसलिए अन्ना आंदोलन को साम्राज्यवाद विरोधी बुनियादी दिशा से हटाकर निरपेक्ष रूप से भ्रष्टाचार के सीमित दायरे में ले जाने का हर संभव प्रयास हुआ। जिसमें उन्हें कामयाबी मिली।
एनजीओ आंदोलन की आंतरिक विशिष्टता को समझते हुए संघ परिवार इन्हें अपने काम में लगा लेने में कामयाब हुआ। 2013 का अन्ना आंदोलन संघ और एनजीओ के युग्म का योगफल था। जो अपने अंतर्वस्तु में दलित अल्पसंख्यक आदिवासी तथा मेहनतकश वर्गों के साथ प्रगतिशील लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष मूल्यों का विरोधी था। इस आंदोलन की दो उपलब्धियां थी।एक आम आदमी पार्टी का गठन और दिल्ली विधानसभा में केजरीवाल का पहुंचना। दूसरा केंद्रीय सत्ता पर हिंदुत्व के सबसे आक्रामक कॉर्पोरेट परस्त सांप्रदायिक नेतृत्व का धड़ल्ले से जा बैठना। 2013 में अन्ना हजारे के अलावा रामदेव मार्का सन्यासियों को आगे कर चले आंदोलन की यह दो बड़ी उपलब्धियां थीं। यह भारतीय समाज के उदारवादी समूह की असफलता ही है कि वह इस आंदोलन के खतरनाक परिणाम को समझ नहीं सके और आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाते रहे।
इस संदर्भ में देखें तो आम आदमी पार्टी परिघटना कोई स्थाई राजनीतिक प्रवृत्ति नहीं है। इसे वस्तुत: कॉर्पोरेट हिंदुत्व गठजोड़ के विस्तृत दायरे में ही देखना होगा। इसलिए इसे एक मंजिल के बाद हिंदुत्व की मूल विचारधारा में विलीन हो जाना ही है। आज केजरीवाल के रास्ते दिल्ली की सत्ता पर बीजेपी की वापसी इसी परिघटना की स्वाभाविक परिणिति है ।
जहां तक केजरीवाल के बेहतर प्रबंधक होने, स्कूल, बिजली, स्वास्थ्य जैसे सवालों को केंद्रीय मुद्दा बनाने के प्रयास ने आकर्षण तो पैदा किया था।( मोदी मार्का काम कम मार्केटिंग ज्यादा की नीति)! लेकिन दिल्ली में घट रही सांप्रदायिक विध्वंस की घटनाओं पर तटस्थ रहने के दृष्टिकोण से स्पष्ट हो जाता है कि आम आदमी पार्टी विचारधारा विहीन विशुद्ध परिणाम वादी पार्टी है। जिसे कट्टर हिंदुत्व के आक्रामक दौर में अंततोगत्वा आत्मसमर्पण करना ही था।
दूसरा पक्ष कि मोदी सरकार ने आम आदमी पार्टी के नेतृत्व पर जिस तरह से दमन और हमला किया। वह ऐसी पहेली नहीं है जिसे समझा न जा सके। भारत के हिंदुत्व कॉर्पोरेट गठजोड़ मार्का फासीवाद सहित दुनिया में फासीवाद का बुनियादी चरित्र रहा है कि वह जिन शक्तियों के सहयोग से सत्ता में पहुंचते हैं। सबसे पहले उन्हें ही अपने रास्ते से हटाने की कोशिश करते हैं। भाजपा में कई बड़े नेताओं के हश्र को देखकर के आप यह बात समझ सकते हैं।
चूंकि आम आदमी पार्टी दिल्ली की सत्ता में आने के बाद एक खास मंजिल पर पहुंचकर भाजपा से टकराने के लिए मजबूर हो गई। इसके दो कारण हैं।
एक सत्ता पाने के बाद केजरीवाल ने भारत में उदारवादी जमीन को अपने कब्जे में लेकर एक नयी चुनौती देने का असफल प्रयास किया। दूसरा एनजीओ समूहों के लिए आने वाली सारी फंडिंग को मोदी सरकार ने नई नीतियां बनाकर सीधे अपने हाथ में ले लिया।और इसका बहुत बड़ा भाग संघ से संबंधित विभिन्न संस्थाओं के पास जाने लगा। जिस कारण से विभिन्न स्वयं सेवी सामाजिक संगठनों को मोदी सरकार के विरोध में जाना ही पड़ा। चाहे वह पर्यावरण से संबंधित रही हो। या सामाजिक सौहार्द, न्याय, लोकतंत्र के लिए आवाज उठाने वाले या दलित, पिछड़ा और अल्पसंख्यकों के अधिकारियों के लिए काम करने वाली संस्थाएं हों। या नागरिक अधिकारों व मानवाधिकारों की रक्षा के लिए आवाज उठाने वाले समूह रहे हों। सबको एक मंजिल में भाजपा के खिलाफ खड़ा होना पड़ा जो। अन्ना आंदोलन की संचालक शक्तियां थीं।
इसलिए राज्य मशीनरी का प्रयोग करते हुए दमन के द्वारा नियंत्रित करने की मोदी अमित शाह शैली का खामियाजा इन सभी संगठनों सहित आम आदमी पार्टी को भी भुगतना पड़ा। हम जानते हैं कि वर्तमान भाजपा सरकार विपक्ष और असहमति मानव अधिकार सामाजिक न्याय तथा अल्पसंख्यकों के अधिकारों आदि का किसी तरह का सम्मान नहीं करती है।
वैचारिक विरोध को वह निजी शत्रुता के रूप में लेती है। इस कारण मोदी सरकार से किसी भी तरह के लोकतांत्रिक व्यवहार की उम्मीद करना बेमानी है। इसी संदर्भ में हमें आम आदमी पार्टी पर हुए दमन को देखना चाहिए ।
आप पर चले दमन को देखकर यह नहीं समझना चाहिए कि केजरीवाल कोई स्वतंत्र लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष राजनीति का प्रतिनिधित्व करने लगे हैं । या भारतीय जनतंत्र को नई लोकतांत्रिक दिशा में ले जाने की उनके अंदर कोई क्षमता है। आम आदमी पार्टी द्वारा शुरुआती संस्थापक नेताओं के साथ किए गए सलूक इस बात की तस्दीक करते हैं कि वह किसी भी पैमाने पर लोकतांत्रिक व्यक्तित्व वाले राजनेता नहीं हैं। वह वस्तुतः एक विचारधारा विहीन परिणामवादी मैनेजर ही हो सकते थे। साम्राज्यवादी वित्तीय पूंजी के काल में ऐसी शक्तियां क्षणिक बुलबुला ही साबित होती है।इसका मतलब यह नहीं कि इस तरह की प्रवृत्ति भारतीय राजनीति में मौजूद नहीं रहेगी। एक विशाल विविधता वाले मुल्क में ऐसी प्रवृत्तियों का अवशेष के रूप में बने रहना स्वाभाविक है।
अगर हम दिल्ली विधानसभा के चुनाव जीतने के बाद मोदी के शब्दों को ही पलट कर उद्धृत करें तो सरकार परिवर्तन भारत के लिए आपदा के बाद विपदा ही होने जा रहा है। दिल्ली विजय के बाद आक्रामक हिंदुत्व भारत में लोकतंत्र और लोकतांत्रिक ताकतों के हासिए के समूहों ,अल्पसंख्यकों तथा दलितों-पिछड़ों के लिए त्रासदी ही साबित होगा । कुछ विश्लेषकों का यह कहना कि आम आदमी पार्टी को 44% वोट मिले हैं। यह एक बहुत बड़ा सामाजिक समूह है।
इसलिए इस ताकत पर खड़ा होकर केजरीवाल मोदी शाह के आक्रामक हिंदुत्व का मुकाबला करने की स्थिति में हैं। हमारा मानना है कि केजरीवाल को मिले वोट वस्तुतः भाजपा विरोधी वोट हैं। जो कांग्रेस के पुनर्जीवन के अभाव में न चाहते हुए भी आम आदमी पार्टी को मिले। आम आदमी पार्टी ने तीन मौके पर अपनी लोकतांत्रिक प्रतिबद्धता धर्मनिरपेक्षता और समावेशी राजनीति के साथ विश्वास घात किया था। इस कारण दिल्ली के एक बड़े समाज के लिए वह मजबूरी की वोटिंग थी।
जेएनयू के छात्रों पर हुए एबीवीपी के हमले, लोकतंत्र के लिए शाहीन बाग की महिलाओं द्वारा चलाए गए बेमिसाल संघर्ष और दिल्ली में भाजपा प्रायोजित अल्पसंख्यकों के कत्लेआम के समय केजरीवाल सरकार ने तटस्थता का बाना धारण करके भाजपा को ही मजबूत किया। जब एक बार किसी पत्रकार ने केजरीवाल से शाहीन बाग के लोकतांत्रिक संघर्ष के बारे में पूछा तो उन्होंने सीधे-सीधे कहा कि हमारे एजेंडे में स्कूल बिजली पानी जैसे सवाल हैं। इसका मतलब साफ था कि वह हिंदुत्व के विध्वंसक मॉडल के खिलाफ कहीं से भी लड़ने के लिए प्रतिबद्ध नहीं दिखे।
बल्कि लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को कमजोर करते हुए पार्टी को अपने निजी संस्थान में बदल दिया ।आम आदमी पार्टी की मुख्य धारा की राजनीति में हिंदुत्ववादी उच्च वर्गीय लोगों का ही वर्चस्व था। जिसमें कुछ अवांछनीय तत्व संजय सिंह, गोपाल राय जैसे अभी भी रह गये हैं। जिनका संगठन में कोई प्रभाव नहीं था। प्रशांत भूषण, प्रोफेसर आनंद कुमार और पत्रकार आशुतोष, एडमिरल रामदास जैसे लोगों को तो पहले ही पार्टी से बाहर कर दिया गया है। पूरी पार्टी केजरीवाल-मनीष सिसोदिया जैसे संघ के करीबी लोगों के हाथ में ही थी । (केजरीवाल का संघ को पत्र लिखना)।
अंत में आतिशी सिंह को मुख्यमंत्री बना करके केजरीवाल ने संकेत दे दिया था कि उनकी भी लोकतांत्रिक समझ लालू यादव या नीतीश कुमार से ज्यादा आगे नहीं जाती। यानी केजरीवाल को भी पार्टी में जड़ विहीन खुशामदी लोगों की ही आवश्यकता है। जो उनका महिमा मंडन करने में दिन-रात लगे रहे। यह बात बहुत साफ है कि मोदी के व्यक्ति वादी अहंकार से भाजपा आज जिस तरह ग्रसित है। आप की भी स्थिति केजरीवाल के नेतृत्व में कमोबेश वैसी ही है ।
कांग्रेस के कमजोर होने के बाद उदारवादी हिंदुत्व की राजनीतिक भूमि खाली हो गई थी।उस जगह को भरने के लिए ही योजना बंद ढंग से 2013 के आंदोलन को गांधीवादी मुहावरे में चलाया गया। 2013 के आंदोलन का मुख्य नारा था “अन्ना नहीं यह गांधी है।”जहां एक धुर दक्षिणपंथी हिंदुत्व वादी पार्टी भाजपा आरएसएस के प्राधिकार में काम कर रही थी ।वहीं छुपे तौर पर उदारवादी हिंदुत्व के स्पेस को भरने के लिए आम आदमी पार्टी का गठन किया गया। एक ऐसी पार्टी का निर्माण किया गया जो उदारवादी हिंदुत्व के ताने-बाने में कॉर्पोरेट हिंदुत्व गठजोड़ की राजनीति को ही सशक्त बनाए ।( यहां सिर्फ षड्यंत्र थ्योरी को न देखा जाए बल्कि तत्कालीन परिस्थितियों की विशेषताओं को भी नजर में रखना होगा)।
आंदोलन के शुरुआती दिनों में केजरीवाल बार-बार राजघाट जाकर गांधी जी की समाधि पर माथा टेकते थे। जिससे वे गांधी की विचार भूमि की संस्थाओं को अपने पक्ष में करने में कामयाब भी हो गए । लेकिन सत्ता में आने के बाद केजरीवाल गांधी जी की तस्वीर की जगह नोटों पर लक्ष्मी जी की तस्वीर लगाकर आर्थिक संकट को हल करने की वकालत करने लगे। आप ने किसी राजनीतिक संस्था में इतने कम समय में इतना बड़ा महाविचलन कभी देखा है ।इसके अलावा भाजपा के जय श्री राम की जगह पर बजरंगबली के भक्त होने का दिखावा करने के लिए वह ‘हनुमान जी ‘के मंदिरों की यात्रा करने लगे।
मतलब स्पष्ट है कि 2013 के बाद आम आदमी पार्टी तथा भाजपा एक ही फील्ड में एक ही तकनीक कला लक्ष्य के साथ गेंद को अपने पास रखने की कोशिश करने लगे ।जिससे कांग्रेस या अन्य विचार धारा वाले किसी खिलाड़ी को खेलने का मौका ही न मिले। एक राजनीतिक विश्लेषक ने पंजाब के चुनाव की चर्चा करते हुए यह कहा था कि भाजपा और उसके सहयोगियों ने कांग्रेस का रास्ता रोकने के लिए अप्रत्यक्ष रूप से आम आदमी पार्टी को जिताने में पूरी ताकत झोंक दी थी। बात साफ है कि चाहे जिन भी स्थितियों में आम आदमी पार्टी को भाजपा से टकरा जाना पड़ा हो या मोदी शाह की जोड़ी को आम आदमी पार्टी के नेताओं का उत्पीड़ित करने की दिशा में आगे बढ़ाना पड़ा हो। लेकिन दोनों एक ही विचार केंद्र से निर्देशित हो रहे हैं।
फिर भी आम आदमी पार्टी की पराजय से जनतांत्रिक शक्तियों और लोकतांत्रिक आंदोलन को धक्का लगा है। आप के दिल्ली की सत्ता में रहने से चाहे जितना ही कमजोर प्रतिरोध रहा हो। दिल्ली विधान सभा से भाजपा के बाहर रहने के कारण उत्तर प्रदेश या मध्यप्रदेश की तरह बुलडोजर न्याय का रास्ता साफ नहीं हुआ था। बस इस अर्थ में ही आम आदमी पार्टी की सरकार दिल्ली में बनी रहे ।यह लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष और न्याय पसंद लोगों की आकांक्षा थी। विगत 13 वर्षों में केजरीवाल उनकी टीम ने बार-बार जन आकांक्षाओं के साथ विश्वास घात किया था। जिस कारण से आज दिल्ली की गद्दी पर डबल इंजन की सरकार आ गई है।
आम आदमी पार्टी की हार के दूरगामी परिणाम भी होंगे। जिस इंडिया गठबंधन ने जून 2024 के चुनाव में भाजपा के साम दाम दंड भेद तकनीक और धर्म के योग फल पर खड़ी चुनावी यात्रा को रोक दिया था ।अब फिर उन शक्तियों को पुनर्विचार करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। जिन्होंने किन्ही कारणों से दिल्ली विधानसभा के चुनाव में इंडिया गठबंधन के महत्व को कम करने का प्रयास किया ।आज यह बात बहुत साफ हो गई है कि भारत के जन-गण उन सभी राजनीतिक सामाजिक शक्तियों की एकता को देखने और उसका स्वागत करने के लिए तैयार बैठे हैं। जो संवैधानिक गणतांत्रिक भारत की रक्षा के लिए संघर्ष कर रही हैं।
दिल्ली चुनाव परिणाम की आवाज को सामाजिक न्याय से लेकर मध्यवर्ती राजनीतिक ताकतों और क्षेत्रीय दलों के नेता अगर सुन सकें। तो आइडिया ऑफ़ इंडिया के साथ-साथ भारत की लोकतांत्रिक समावेशी विचार प्रक्रिया को जिंदा रखा जा सकेगा। उम्मीद है कि वे सभी तरह के लोग जो हिंदुत्व कॉर्पोरेट गठजोड़ के विध्वंसक कामों को देख रहे हैं। निश्चय ही लोकतांत्रिक समाज की आवाज को सुनेंगे और अपनी सकारात्मक भूमिका निभाने के लिए दृढ़ संकल्प के साथ आगे आएंगे। फासीवाद की इस महा विपदा का एकताबद्ध जवाब देने के लिए व्यापक एकता के मंच का निर्माण करने के लिए आवश्यक कदम उठाएंगे।
(जयप्रकाश नारायण किसान नेता और राजनीतिक कार्यकर्ता हैं।)
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