Thursday, March 28, 2024

असंगठित क्षेत्र और दिहाड़ी मज़दूरों की परवाह से ही पटरी पर लौटेगी अर्थव्यवस्था

भारत के 90 फ़ीसदी लोगों का गुज़र-बसर असंगठित क्षेत्र और दिहाड़ी मज़दूरी के ज़रिये ही होती है। अर्थव्यवस्था में इस तबके का वही मतलब है जो शरीर की कोशिकाओं का है। देश के 90 फ़ीसदी लोगों का भरण-पोषण यही क्षेत्र करता है। कोशिकाओं को ख़ून से पोषण मिलता है। स्वस्थ ख़ून के लिए सन्तुलित भोजन और सही पाचन तंत्र का होना ज़रूरी है। तभी उस ताक़तवर ख़ून का उत्पादन होगा, जिसे दिल हरेक कोशिका तक पहुँचाकर पूरे शरीर को तंदुरुस्त रखता है। इसीलिए कोरोना संकट की वजह से तबाह असंगठित क्षेत्र और दिहाड़ी मज़दूरों की परवाह किये बग़ैर चरमरा चुकी भारतीय अर्थव्यवस्था के दिन नहीं फिरने वाले। ये तबका जितना और जितनी देरी तक बदहाल रहेगा, भारत की दुर्दशा का दौर उतना ही लम्बा खिंचता रहेगा।

देश के कई इलाकों से जैसे-जैसे लॉकडाउन में ढील दिये जाने की ख़बरें आने लगीं वैसे ही ये ख़बरें भी आ रही हैं कि मज़दूर नदारद हैं। यानी, अर्थव्यवस्था के पहिये को घुमाने वाले असंगठित क्षेत्र के मज़दूर अब नहीं मिल रहे हैं। साफ़ है कि निकट भविष्य में अर्थव्यवस्था के पटरी पर लौटने के आसार नहीं हैं। कोरोना संकट के पहले से अर्थव्यवस्था पर गहराई चौतरफ़ा मन्दी और बढ़ती बेरोज़गारी का कहर ग़रीबों के बाद अब मध्य वर्ग पर सितम ढाने को तैयार है। अर्थव्यवस्था के हरेक सेक्टर के सामने अब लाखों-करोड़ों मज़दूरों का टोटा मुँह बाए खड़ा है। आने वाले महीनों में मज़दूरों का संकट और बड़ा तथा व्यापक होता जाएगा। कोरोना संकट से पहले जैसी भी ख़ुशहाली हुआ करती थी, वो भी ख़ासतौर पर ग़रीब मज़दूरों के पसीने और शोषण से ही पैदा हो रही थी।

अब मज़दूर अपने गाँवों में लौटकर तब तक अपनी दुर्दशा का सामना करेंगे जब तक कि उनके फिर से शहरों में पलायन के हालात नहीं बन जाएँ। ज़ाहिर है, गाँवों की कृषि आधारित अर्थव्यवस्था उनका बोझ उठाने में जब कोरोना से पहले सक्षम नहीं थी तो अब कहाँ से हो जाएगी? ग़रीब मज़दूरों के लिए गाँवों में रोज़ी-रोटी की गुंज़ाइश होती तो बेचारे शहरों की ओर पलायन ही क्यों करते? गाँवों में पहले भी या तो मज़दूरी की गुंज़ाइश नहीं थी, या फिर मज़दूरी इतनी कम थी कि ग़ुजारा मुश्किल था।

लिहाज़ा, अब जब अर्थव्यवस्था चरमरा चुकी है तो मज़दूरी और नीचे ही गिरेगी। अर्थशास्त्रियों का अनुमान है कि कोरोना ने देश के 12 करोड़ लोगों को वापस ग़रीबी रेखा के नीचे धकेल दिया है। अब इस अतिरिक्त आबादी में भी कुपोषण, अशिक्षा और सेहत सम्बन्धी तकलीफ़ें बढ़ेंगी। ये संकट देश की उस 60 फ़ीसदी आबादी को अपने आगोश में लेगा जिसे हम असंगठित क्षेत्र के कामगारों और दिहाड़ी मज़दूरों के रूप में देखते हैं।

अर्थव्यवस्था में माँग के कमज़ोर पड़ने का सबसे भारी असर ग़रीबों पर ही पड़ता है। क्योंकि मध्यम वर्ग की जब आमदनी घटने लगती है या जब उस पर बेरोज़गारी की मार तगड़ी होती है, तब वो अपने बचत के सहारे ही दिन काटता है। ऐसे कठिन दिनों में वो कम से कम खर्च करना चाहता है। इससे माँग ज़ोर नहीं पकड़ती। इससे सप्लाई साइड पर उत्पादन को नहीं बढ़ाने या घटाने का दबाव पड़ता है। क्षमता से कम उत्पादन होने पर लागत बढ़ जाती है। इसीलिए चीज़ें सस्ती नहीं होतीं। उधर, कम से कम ख़र्च करने की मज़बूरी में लोग नये सामान की ख़रीदारी टालते रहते हैं और कम से कम में गुज़ारा करने की कोशिश करते हैं। ऐसे चक्र की वजह से असंगठित क्षेत्र और दिहाड़ी मज़दूरों की दशा और बदतर होने लगती है।

संकट की ऐसी घड़ी में सरकार और बैंकों का सहारा होता है। लेकिन ये दोनों भी तभी मदद कर सकते हैं जब इनका ख़ुद का हाल अच्छा हो। आमदनी गिरने से बचत गिरती है और बचत गिरने से निवेश गिरता है। उधर, सरकार राजस्व के लिए तरसती है तो टैक्स बढ़ाने लगती है। पेट्रोल-डीज़ल जैसे ज़रूरी चीज़ के अतिशय महँगा होने से महँगाई उछलने लगती है। महँगाई बढ़ने और आमदनी के लगातार कम होते जाने से मध्यम वर्ग पर अपने खर्चों को और घटाने का दबाव बनता है। इससे उत्पादन और धीमा होता है तथा असंगठित क्षेत्र और दिहाड़ी मज़दूरों की दशा और बदतर होने लगती है।

उधर, बैंक उन निवेशकों के लिए तरसते हैं जो उनसे कर्ज़ लें और अर्थव्यवस्था के पहिए में रफ़्तार डालने के लिए आगे आएँ। लेकिन निवेशक तो पहले से ही माँग के गिरने और लागत बढ़ने से कराह रहा होता है। कष्ट के ऐसे दौर में रिश्वतख़ोर और बेईमान नौकरशाही और बेरहम हो जाती है। इसीलिए निवेशक नया जोख़िम उठाने से और डरते हैं। यही आर्थिक मन्दी का कुचक्र है। इसमें भँवर और दलदल दोनों के गुण होते हैं। 

मन्दी से उबरने का बस एक ही टिकाऊ तरीका है कि सम्पन्न वर्ग अपनी कमाई या सम्पत्ति को अपने कर्मचारियों के बीच बाँटने के लिए ज़्यादा से ज़्यादा आगे आये। जब तक ये तबका अपने मुनाफ़े को अपने कर्मचारियों में बाँटने के लिए आगे नहीं आएगा, तब तक न तो बैंक सुधर पाएँगे, ना सरकार का राजस्व और ना ही ग़रीबों की दुर्दशा। सम्पन्न तबका जब अमीर-ग़रीब की खाई को घटाने के लिए आगे आने लगेगा तभी अर्थव्यवस्था में गति दिखायी देगी। अलबत्ता, ये बात भी दीगर है कि एक बार जब अर्थव्यवस्था चल पड़े तो सम्पन्न वर्ग फिर से उसी दौर में लौटने की सोच सकता है, जहाँ से वो और धनवान बनने की अनन्त यात्रा पर आगे जा सके।

अभी कोरोना की आड़ में मुट्ठी भर कम्पनियों ने ऐलान किया कि वो अपने कर्मचारियों की तनख़्वाह नहीं काटेंगी। लेकिन दूसरी ओर, कितने ही बड़े-बड़े औद्योगिक घरानों ने अपने कर्मचारियों के वेतन में कटौती करने का रास्ता थाम लिया। ऐसी कटौतियाँ करने वाले उद्यमी ना तो अपने बिज़नेस का भला कर रहे हैं और ना ही कष्ट उठाकर, दबाव झेलकर, तनाव को बर्दाश्त करके देश की ही सेवा कर रहे हैं। इन्हें सिर्फ़ अपनी सम्पत्ति और सम्पन्नता का ख़्याल है। संकट काल में भी ऐसे सम्पन्न लोगों को अपने ही उन कर्मचारियों, मज़दूरों तथा इनके परिवारों की कोई परवाह नहीं है, जिनके पुरुषार्थ से ही ये सम्पन्न होते रहे हैं।

दिलचस्प बात ये है कि इन सम्पन्न लोगों पर भारी से भारी टैक्स लगाकर भी न तो समाज में बदलाव लाया जा सकता है और ना ही अर्थव्यवस्था में गति। क्योंकि ज़्यादा टैक्स से सिर्फ़ सरकारी लूट और भ्रष्टाचार बढ़ता है। सरकार का राजस्व तो तभी बढ़ता है जब टैक्स की दर कम से कम या इतनी नहीं हो कि वो लोगों को चुभने लगे। टैक्स-दर के ऊँचा होते ही लोगों में इसकी चोरी की प्रवृत्ति बढ़ती है। इससे टैक्स-संग्रह गिरता है। लिहाज़ा, सरकार तभी कल्याणकारी योजनाओं पर ज़्यादा खर्च कर पाएगी जब टैक्स की दरें कम हों, महँगाई कम हो, आर्थिक गतिविधियाँ बढ़ें और इनकी बढ़ोत्तरी से कुल टैक्स-संग्रह बढ़े। इसीलिए अर्थव्यवस्थाएँ ज्यों-ज्यों उन्नत होती हैं, त्यों-त्यों ऐसे आर्थिक सुधार अपनाती हैं जो आर्थिक गतिविधियों को और बढ़ा सकें। इसी से विकास दर बढ़ती है।

अब सवाल ये है कि सम्पन्न लोग कैसे समाज में अपनी सम्पत्ति का ज़्यादा बँटवारा करें? कैसे अमीर-ग़रीब के बीच की खाई को पाटने के काम पर आगे बढ़ा जाए? इसका पहला तरीका तो ये है कि ये उन लोगों के यथासम्भव उदारतापूर्वक मज़दूरी दें जो उनके लिए काम करते हैं। इससे न सिर्फ़ कामगारों की आमदनी बेहतर होगी, बल्कि देखते ही देखते बहुत कुछ बेहतर होने लगेगा। दूसरा तरीका है कि सम्पन्न लोग अपनी सम्पत्ति का ख़ासा हिस्सा समाज में स्कूल, अस्पताल, मज़दूर बस्तियाँ वग़ैरह बनवाने पर खर्च करें। कमज़ोर तबके के होनहार छात्रों को वज़ीफ़ा वग़ैरह देकर प्रोत्साहित करें। उन तमाम गतिविधियों पर धर्मार्थ खर्च करने के लिए आगे आयें जिसका लाभ परोक्ष रूप से कमज़ोर तबकों को मिले। इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है।

हफ़्तों से चर्चा है कि अर्थव्यवस्था में जान फूँकने के लिए सरकार कुछ पैकेज़ देने की तैयारी कर रही है। लेकिन सही मायने में भारत में ग़रीबों की विकराल आबादी को देखते हुए बड़े से बड़े पैकेज़ से भी फ़ौरी राहत के सिवाय और कुछ भी हासिल नहीं होगा। क्योंकि आख़िर सरकार भी पैकेज़ के लिए रकम कहाँ से लाएगी? आर्थिक मन्दी के बाद कोरोना संकट की वजह से राजस्व-संग्रह ध्वस्त हो चुका है। सरकार के पास अपने कर्मचारियों को वेतन देने के लिए पैसे नहीं हैं। बाक़ी विकास तो भूल ही जाइए। ख़ज़ाना खाली है। बैंक पहले से ही बदहाल हैं। तो फिर विकल्प क्या हैं? नये नोट छापिए या कर्ज़ लीजिए या सरकारी सम्पत्ति बेचिए। 

नये रुपये छापने से रुपये की क़ीमत गिरती है। महँगाई बढ़ती है। इससे ग़रीब और बदहाल होता है। मन्दी आती है। कर्ज़ लेना विकल्प है, लेकिन ऐसे दौर में जब अमीर देश भी आर्थिक बदहाली से ही गुज़र रहे हों तब कर्ज़ देने वाले भी मुश्किल से मिलते हैं। कर्ज़ की अर्थव्यवस्था भी तभी ठीक है, जब आपके पास उसकी किस्तें भरने के लिए आमदनी या राजस्व हो। वर्ना, यदि आपको पाकिस्तान की तरह कर्ज़ चुकाने के लिए भी कर्ज़ लेना पड़े तो आप गर्त में डूबते जाएँगे। सरकारी सम्पत्तियाँ या कम्पनियों को बेचने का विकल्प भारी राजनीतिक क़ीमत माँगता है। इससे पूँजीपतियों को भारी फ़ायदा होता है। सरकार की बहुत बदनामी होती है। इस विकल्प की भी सबसे बड़ी ख़ामी ये है कि आप लम्बे समय तक सरकारी सम्पत्तियाँ बेचकर सरकारी खर्चों की भरपाई नहीं कर सकते।

आख़िरकार, आपके पास अर्थव्यवस्था में नयी जान फूँकने के अलावा कोई टिकाऊ विकल्प नहीं होता। इसीलिए, दुआ कीजिए कि भारत के सम्पन्न वर्ग को सदबुद्धि आये, वो दूरदर्शिता से काम ले और राजनीतिक नेतृत्व उसे ग़रीबों के प्रति उदारता दिखाने के लिए प्रेरित करे। क्योंकि अर्थशास्त्र का ये भी नियम है कि पैसे का काम तो पैसे से ही होगा। पैसा वही देगा, जिसके पास होगा। लिहाज़ा, बेहतर है कि जिनके पास पैसा है वो अपने आसपास के लोगों को उसका हिस्सा देने का ज़रिया बनाएँ। अर्थव्यवस्था रेंगने लगेगी तभी इसके दौड़ने के हालात बनेंगे। इसीलिए असंगठित क्षेत्र और दिहाड़ी मज़दूरों की परवाह किये बग़ैर किसी का भला नहीं होने वाला। अमीरों की अमीरी के लिए ग़रीबों का ज़िन्दा और स्वस्थ रहना बेहद ज़रूरी है।

(मुकेश कुमार सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles