Wednesday, April 24, 2024

‘थप्पड़’ के बहानेः महिला हिंसा के खिलाफ मुहिम की जरूरत

मैं फिल्म समीक्षक नहीं हूं, लेकिन फिल्म ‘थप्पड़’ को लेकर मेरे मन के भीतर कुछ उमड़ घुमड़ रहा है। डायरेक्टर साहब ये क्यों भूल गए कि फिल्म 2020 में रिलीज कर रहे हैं। कुछ कमियां जो मुझे खटकीं, अमृता बनी तापसी के कपड़े और रूटीन।

आज की हाउस वाइफ ऐसी कहां होती है भाई? एक दिन भी उनका रूटीन ब्रेक नहीं होता। पार्टी की रात साड़ी छोड़कर शलवार-कुर्ता ही पहनती हैं। घर और सोसायटी जैसी दिखाई गई है उसमें ड्रेस और रूटीन बिल्कुल फिट नहीं बैठता।

नयिका के थप्पड़ पड़ने से पहले जब उनकी हाउस हेल्पर आकर बताती है कि आज मेरे पति ने मारा है तो उससे उस पर बातचीत करने बजाये काम करने को कह देती हैं। एक बार भी नहीं कहती हैं कि ये गलत है, क्यों सहती हो, क्यों मार खाती हो, बोलती क्यों नहीं या मैं चल कर बात करूंगी तुम्हारे पति से।

जब अपने पर थप्पड़ पड़ता है तो अपना स्वाभिमान जाग जाता है। जब फिल्म ये मैसेज देती है कि आज की औरत थप्पड़ नहीं सहेगी तो किसी और को खाता सुनकर चुप भी नहीं रहेगी। ये नहीं कहेगी कि अच्छा चलो पराठे बनाओ।

नायिका को पराठा बनाना और गाड़ी चलाना नहीं आता ये कोई बहुत हैरान करने वाली बात नहीं है पर जो परवरिश और ससुराल का परिवेश दिखाया गया है उसमें गाड़ी चलाना न आए ये थोड़ी अतिशयोक्ति लगती है।

नायक की छवि जैसी गढ़ी गई है, लगता है नायक ही खलनायक हो गया। इतना इनसेंसिटिव कैसे कोई हो सकता है कि थप्पड़ मारने के बाद उस पर उससे बात ही न करे। नायक की मां भी काम पर बात तो करती हैं पर थप्पड़ पर नहीं, जैसे बात न करने से आई गई बात हो जाएगी।

अब बात आती है वकील साहिबा की, जिनके पति अपने रुतबे का एहसान जताते रहते हैं। न चाहते हुए भी किस करने की कोशिश करते हैं और वकील साहिबा ये सब सहती रहती हैं। हैरानी तो तब होती है जब अपने पति को छोड़कर जाती हैं तो अपने प्रेमी को भी छोड़ कर चली जाती हैं। ये शायद इसलिए कि आत्मनिर्भर हैं।

बाकी फिल्म अच्छी है, एक ऐसे विषय पर बनाई गई है, जिस कोई पर बात करना नहीं चाहता। एक वर्किंग लेडी तो अपने लिए ऐक्शन ले लेती है पर हाउस वाइफ नहीं। जैसे वो चारदीवारी में फंसी रहती है वैसे ही आसपास का महौल होता है, संकुचित, लोग क्या कहेंगे पर ये फिल्म इस स्टिरियोटाइप को तोड़ती है। बहुत हाय-तौबा नहीं होती कि बेटा क्यों मायके आ गई।

थप्पड़ के बाद किस तरह सबकी कहानियां सामने आती हैं। नायिका के माता-पिता का संवाद बहुत गजब का है। ये सीन अपने-आप में डुबोता है। नायिका के पिता के सवाल पर मां कहती हैं, “क्यों मैंने भी तो अपना मन मारा है। मुझे हारमोनियम सीखना था, कहां सीख पाई सबकी देखरेख के चक्कर में?”

भाई भी अपनी बीवी से सॉरी बोलता है। दोनों गले लग जाते हैं। प्रेग्नेंसी का पता लगने पर गोद भराई की रस्म के बाद जब नायिका अपनी सास से बात करते समय सबकी गल्तियां बताती है तो सभी बड़ी सहजता से सुनते और स्वीकार करते हैं, जबकि रीयल लाइफ में मुंह बनाया जाता।

क्या इस फिल्म के बाद पुरूष अपने बारे में सोचेंगे गम्भीरता से, क्या याद करेंगे वो दिन जिस दिन अपनी बीवी को घर से निकालने की धमकी दी हो, मारा हो, घसीटा हो, लताड़ा हो, क्या फिल्म देखते समय ये सब उनके सामने घूम गया होगा?

क्या वो महिलाएं जिन्होंने कभी ये सहा, रोई होंगी या पछतावा महसूस कर रही होंगी? वो लड़कियां जिन्होंने अपनी मां को पिटते देखा है क्या उन्होंने फिल्म देखते समय प्रण लिया होगा कि अब मां को मार नहीं खाने देंगे।

क्या इस फिल्म के बाद महिलाएं थप्पड़ नहीं खाएगी। एक कैंपेन चलाना चाहिए- नो थप्पड़ या अब नहीं मार सकते। इस फिल्म के असर का प्रभाव भी पता चलता और महिलाएं जागरूक भी हो जाएंगी। महिलाओं की बड़ी संख्या है जिनके बीच फिल्में नहीं पहुंचती हैं, उन्हें तो पता ही नहीं कि पति मार नहीं सकता।

वो तो इच्छा न होने पर पति के साथ सेक्स न करने पर भी थप्पड़ खाती हैं। महिलाओं के लिए कानून तो हैं पर महिला कार्रवाई कहां कर पाती हैं? डराया जाता है कि घर बर्बाद हो जाएगा। रिश्ते टूट जाएंगे फिर तुम्हें कौन पूछेगा। दूसरी शादी होने पर इज्जत नहीं होती। औरत हमेशा रिश्ते-नाते निभाती रही है।

हे पुरुष, तुमको आत्मग्लानि हो! हे पुरुष, तुम्हें शर्म आए! हे पुरुष, तुमको फिल्म देखकर थप्पड़ लगे!!

शालिनी श्रीनेत

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles