Tuesday, April 23, 2024

नागरिकता कानून की सुप्रीम कोर्ट में अग्नि परीक्षा

नागरिकता संशोधन कानून लागू होते ही उच्चतम न्यायालय में करीब 12 याचिकाएं दाखिल हो चुकी हैं। सभी याचिकाओं में इस कानून को असंवैधानिक, मनमाना और भेदभावपूर्ण करार देते हुए रद्द करने का अनुरोध किया गया है।

इस मामले में टीएमसी सासंद महुआ मोइत्रा के अलावा कांग्रेसी नेता जयराम रमेश ने भी याचिका दाखिल की है। इतने विरोध के बीच मोदी सरकार ने संसद में नागरिकता संशोधन बिल पेश करके पास कराने और राष्ट्रपति के आनन-फानन में बिल पर हस्ताक्षर करके इसे कानून की शक्ल देने से राजनीति के साथ-साथ संवैधानिक सवाल भी उठ रहे हैं। इसे चीफ जस्टिस रंजन गोगोई के हटने के बाद उच्चतम न्यायालय की सरकार के प्रति प्रतिबद्धता के परीक्षण के रूप में भी विधिक क्षेत्रों में देखा जा रहा है।

आने वाले समय में जनता आर्थिक दुरावस्था पर मोदी सरकार के विरुद्ध वोट करेगी या हिंदुत्व पर, यह तो भविष्य के गर्भ में छिपा है, पर मोदी-शाह ने नागरिकता कानून के माध्यम से कट्टर हिंदुत्व पर चलने का संदेश अपने समर्थक वर्गों को दे दिया है। इसमें कोई संदेह की गुंजाईश नहीं है। वैसे भी हिंदुत्व के मुद्दे के आलावा भाजपा के पास अब कुछ बचा नहीं है। 

संसद में पारित हो जाने के बाद नागरिकता कानून के मामले में सारा दारोमदार उच्चतम न्यायालय पर आ गया है। वैसे संसद में भी अनुच्छेद 14 को लेकर विधेयक की संवैधानिकता पर सवाल उठाए गए हैं। उच्चतम न्यायालय  कई मामलों में, खास कर एसआर बोम्मई बनाम भारतीय संघ मामले में, धर्मनिरपेक्षता को संविधान की मूल संरचना का हिस्सा बता चुका है। नागरिकता कानून की सबसे अहम आलोचना इस बात को लेकर है कि यह संविधान के अनुच्छेद 14 में निर्धारित मानकों पर खरा नहीं उतरता। केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) के ऐतिहासिक फैसले से शुरू करते हुए उच्चतम न्यायालय कई मामलों में स्पष्ट कर चुका है कि संवैधानिक प्रावधानों में संशोधन करते हुए संसद संविधान की मूल संरचना से छेड़छाड़ नहीं कर सकती है।

नागरिकता कानून के तहत किए गए  संशोधन के अनुच्छेद 14 की कसौटी पर खरा उतरने की संभावना अत्यंत क्षीण है, क्योंकि इसमें सरकार द्वारा धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव किए जाने की मनाही है।

गौरतलब है कि नये नागरिकता कानून में मूल अधिनियम की धारा छह में संशोधन किया गया है जबकि असम समझौते के अनुरूप तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से आए लोगों के लिए नागरिकता के मानदंड निर्धारित करने वाली धारा 6 ए को दी गई कानूनी चुनौती अब भी उच्चतम न्यायायालय  की संवैधानिक पीठ के समक्ष लंबित है। पीठ के समक्ष विचारणीय विषयों में ये सवाल भी शामिल है कि क्या दूसरे देश के किसी नागरिक को मूल देश की नागरिकता का औपचारिक त्याग किए बिना भारतीय नागरिकता दी जा सकती है। अन्यथा ऐसे मामले दोहरी नागरिकता की श्रेणी में आ सकते हैं, जिसकी भारतीय संविधान में अनुमति नहीं है।

जयराम रमेश ने याचिका में कहा है कि ये कानून भारत के धर्मनिरपेक्ष संविधान का उल्लंघन करता है। भेदभाव के रूप में यह मुस्लिम प्रवासियों को बाहर निकालता है और केवल हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, ईसाइयों, पारसियों और जैनियों को नागरिकता देता है। उन्होंने याचिका में कहा है कि कानून संविधान की मूल संरचना और मुसलमानों के खिलाफ स्पष्ट रूप से भेदभाव करने का इरादा है। ये संविधान में निहित समानता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है और धर्म के आधार पर बहिष्कार करके अवैध आप्रवासियों के एक वर्ग को नागरिकता देने का इरादा रखता है।

याचिका में कहा गया कि प्रत्येक नागरिक समानता के संरक्षण का हकदार है। यदि कोई विधेयक किसी विशेष श्रेणी के लोगों को निकालता है तो उसे राज्य द्वारा वाजिब ठहराया जाना चाहिए। नागरिकता केवल धर्म के आधार पर नहीं, बल्कि जन्म के आधार पर हो सकती है। प्रश्न है कि भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में नागरिकता योग्यता की कसौटी कैसे हो सकती है। ये कानून समानता और जीने के अधिकार का उल्लंघन है और इसे रद्द किया जाना चाहिए।

एक वकील एहतेशाम हाशमी ने भी याचिका दाखिल की है। इसके अलावा पीस पार्टी, जन अधिकार मंच, रिहाई मंच और सिटीजन्स अगेंस्ट हेट एनजीओ ने भी याचिका दाखिल की है। पूर्व आईएएस अधिकारी सोम सुंदर बरुआ, अमिताभ पांडे और IFS देव मुखर्जी बर्मन के साथ- साथ ऑल असम स्टूडेंट यूनियन ने भी संशोधन क़ानून की वैधता को चुनौती दी है।

इससे पहले इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग भी सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर चुका है। इन तीनों ने अपनी याचिका में कहा है कि ये क़ानून धर्म के आधार पर भेदभाव करता है, समानता के अधिकार का उल्लंघन करता है। इन याचिकाओं में कहा गया है कि धर्म के आधार पर वर्गीकरण की संविधान इजाजत नहीं देता। ये बिल संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है। नागरिकता संशोधन कानून को असंवैधानिक बताते हुए रद्द करने की मांग की गई है।

नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 असम समझौते का उल्लंघन, ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन और इसके महासचिव लुरिन ज्योति गोगोई ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करके गुहार लगाई है कि नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 (सीएए) ने 1985 के असम समझौते का उल्लंघन किया है। विशेष रूप से, यह याचिका तब दायर की गई है जब असम सीएए के खिलाफ हिंसक विरोध प्रदर्शन की चपेट में है।

1985 समझौते के अनुसार, 24 मार्च 1971 के बाद बांग्लादेश से असम में प्रवेश करने वाले सभी लोगों को अवैध प्रवासी माना जाता है। इस समझौते में एएएसयू और अन्य समूहों के नेतृत्व में कई वर्षों तक आंदोलन किया गया था, जिसमें राज्य से अवैध प्रवासियों को निष्कासित करने की मांग उठाई गई थी। याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि सीएए बांग्लादेश से आए ऐसे गैर-मुस्लिम लोगों को भारतीय नागरिकता के लिए पात्रता देता है, जिन्होंने 31 दिसंबर 2014 से पहले भारत में प्रवेश किया था। यह असम समझौते को हानि पहुंचाता है। याचिका में कहा गया है कि असम में अवैध आव्रजन को 2005 के सर्बानंद सोनवाल के फैसले में उच्चतम न्यायालय द्वारा क्षेत्र की एक विशेष समस्या के रूप में मान्यता दी गई थी।

अवैध प्रवासियों (न्यायाधिकरणों द्वारा निर्धारण) अधिनियम 1985 को कम करके, उस निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने भी संविधान के अनुच्छेद 356 के तहत अवैध आव्रजन को ‘बाहरी आक्रमण’ घोषित किया था। वकील अंकित यादव, मालविका त्रिवेदी और टी महिपाल द्वारा दायर की गई याचिका में कहा गया है कि इस अधिनियम का परिणाम यह होगा कि 25.03.1971 के बाद बड़ी संख्या में गैर-भारतीय, जो असम में प्रवेश कर चुके हैं, बिना वैध पासपोर्ट, यात्रा दस्तावेज या ऐसा करने के लिए अन्य वैध प्राधिकारी के कब्जे के बिना, नागरिकता लेने में सक्षम होंगे। केरल की मुस्लिम लीग ने भी यायाचिका डाली है।

विवादास्पद नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 को चुनौती देने वाले विभिन्न याचिकाकर्ताओं में दो कानून के छात्र भी हैं, जिन्होंने नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 की वैधता के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है। सिम्बायोसिस लॉ स्कूल के छात्र मुनीब अहमद खान और अपूर्वा जैन, अधिवक्ता एहतेशाम हाशमी, अदीर तालिब और पत्रकार जिया उस सलाम द्वारा इस अधिनियम को उच्चतम न्यायालय  में चुनौती देने के लिए दायर याचिका में शामिल हुए हैं। उनका तर्क है कि मुस्लिम समुदाय के साथ भेदभाव करने के लिए अधिनियम अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है। यह तर्क दिया गया है कि अधिनियम ने धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा को नकार दिया, जो कि भारत के संविधान की एक मूल विशेषता है।

 (जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार होने के साथ कानूनी मामलों के जानकार भी हैं।)

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