महिलाओं की आम चिंता : मंदिर नहीं शौचालय

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2024 का अवसान बहुत तेज़ी से हो गया और हम कई मामलों में काफी पीछे रह गये; चाहे सवाल बुनियादी ढांचे का हो या उसे इस्तेमाल करने का हम हमेशा ही पीछे छूट जाते हैं। सवाल ये उठता है कि हर बार ऐसा कैसे और क्यों होता है। सरकार किसी की भी हो हमेशा ग़रीब आदमी बुनियादी सुविधाओं को लेकर बात करता ही रहता है।

महिलायें पानी, सुरक्षा और ना जाने किन-किन चीजों को पाने में कितनी जुगत लगती हैं लेकिन उन्हें प्राप्त कुछ नहीं हो पाता है। हम आज भी भुखमरी में 105 वें पायदान पर हैं, अनीमिया, टीबी, रेप, छेड़खानी, लैंगिकता ना जाने ऐसे कितने सवाल हैं जो अनछुए हैं और जिन्हें देखने का भी प्रयास नहीं किया जाता है।

इस साल के अंत में चाहे आप बिहार, हरियाणा या मणिपुर किसी राज्य की बात करेंगे तो हर जगह बेरोज़गारी, भुख़मरी, जातीय या सांप्रदायिक हिंसा हो रही है। यूपी हो या राजस्थान दलितों को घोड़ी चढ़ने के नाम पर मारा और पीटा जा रहा है। सुविधाओं के नाम पर हम आज भी बहुत पिछड़े हुए हैं। महिलाओं की सुरक्षा आज भी कोसों दूर हैं जो हम 2025 में पाने की उम्मीद कर सकते हैं।

वास्तविकता यह जानने में है कि सारे फंड्स आख़िर जाते और होते क्या हैं? जिससे हमारा विकास आज भी रुका और महिलाओं की स्थिति सबसे निचले पायदान पर मिलती है। इन्हीं सवालों में से मैंने कुछ सवालों को लिया और यह बताने की कोशिश की है कि साल तो बीतते चले जाते हैं लेकिन हमारे यहां महिलाओं की स्थिति और भी ख़राब होती चली जाती है। इस सरकार में कहे या किसी और सरकार में महिलाओं को जो कुछ मिलना चाहिए शायद वो अभी भी दिल्ली दूर जैसा लगता है।

आम आदमी की जिंदगी हमेशा से ही बुनियादी चीजों और उसके उपयोग पर टिकी होती है। इसके बारे में सोचना और चाहना उनके लिए रोजमर्रा का काम है, इसमें महिलाओं की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि महिलायें ही घर के सभी कामों में लिप्त रहती हैं जिसमें पानी की आवश्यकता अत्यधिक होती है। इसमें शौचालय की भी भूमिका कम नहीं है जिसके कारण और जिसकी कमी से ना जाने कितनी महिलाएं और लड़कियां रोज मरती हैं और जिसका तो कोई आंकड़ा भी हमारे पास नहीं है।

सरकारों का काम है आना-जाना लेकिन आम नागरिक कि सुविधाएं वहीं की वहीं रुकी होती है। जैसे लगता है सरकार को इन सुविधाओं से कोई सरोकार ही नहीं है। यदि हम वर्त्तमान सरकार को ही देखने का प्रयास करें तो राम मंदिर के निर्माण में लगभग 3000 हज़ार करोड़ लगने की बात सामने आ रही है।

चूंकि हमारा समाज धार्मिक पशोपेश में फंसा समाज है इसलिए यहां पर धर्म सर्वोपरि है जो जनसुविधाओं, गरीबी, लाचारी, भुखमरी को भी अनदेखा कर देती है। जिस देश की हालत भुखमरी और दरिद्रता से भरी हो, जहां आजादी के 75 साल बीतने के बाद भी 83 करोड़ जनता को मुफ्त में अनाज बांटा जाए साथ ही उन्हें आगे भी मुफ्त आनाज देने का आश्वासन दिया जाए कि उन्हें आगे भी अनाज ऐसे ही बांटा जायेगा तो वो उसी में खुश होकर अपने अभाव को भूलने का प्रयास करते रहते हैं और यही कारण है कि सरकार जनसुविधाएं देने के बजाए इन्हें मंदिर देने का प्रयास करती है।

जनसुविधाओं के अभाव में छूटता स्कूल

मंदिर की बात करते-करते हम इस मुकाम पर पहुंच गए है जहां से वापस मुड़ना आम आदमी या महिला के लिए तो संभव नहीं है, परन्तु सरकार फिर से एक नए मुद्दों के साथ जरुर सामने आ जाएगी। शौचालय तो महिलाओं के रोजमर्रा के काम के लिए उतना ही आवश्यक है जितना जीने के लिए ऑक्सीजन।

हम ये माने या न माने, शौचालय के आभाव में या पानी जैसी आधारभूत सुविधा के आभाव में न जाने कितनी लड़कियां रोज स्कूल छोड़ती हैं, जिसका सीधा सम्बन्ध स्कूल में या घर में आधारभूत सुविधाओं के आभाव से जुड़ा हुआ है। क्या ये हमारे सरकार के सरोकार में नहीं आता है?

शिक्षा के अधिकार से गरीब महिलाओं को वंचित करना यहां तक कि उन बच्चियों को जो स्कूल न केवल जाना चाहती है बल्कि उच्च दर्जे की शिक्षा भी प्राप्त करना चाह्ती है उनको वहां जाने से रोकना क्या मूल अधिकार का हनन नहीं है।

लेकिन क्या ये वास्तविकता में शामिल है जहां ये गरीब लड़कियां सारी सुविधाओं के साथ अपनी शिक्षा को पूरी कर सकें। शिक्षा का अधिकार एक मौलिक और संवैधानिक अधिकार है जिसे पाना और हासिल करना बिना किसी जात, पात, धर्म, लिंग के बिना हर लड़के या लड़की का जन्मसिद्ध अधिकार है, लेकिन हम उन संवैधानिक सुविधाओं से कोसो दूर है। ड्रॉपआउट रेट आज भी उतना ही कायम है थोड़ा बदलाव है परन्तु वो भी आश्चर्यजनक है।

आजादी के 75 साल बाद भी विद्यालयों में ना पानी पीने की सुविधा है और ना ही शौचालय जाने की अब लड़कियां करें तो क्या करें। कई ऐसे मुख्य कारण है जिसे एन. एफ़.एच.एस बताने का प्रयास कर रही है जिसमें बुनियादी, सामाजिक, पारिवारिक, आर्थिक कारण शामिल है जो लड़कियों को पढ़ाई करने या स्कूल जाने से रोकते है।

परन्तु मूल कारण जनसुविधाओं का आभाव ही है जो कई स्तरों में इस समाज में छिपा है, जैसे पानी के अभाव में दिनभर स्कूल में बिताना अर्थात अपने पेशाब और माहवारी की अन्य परेशानियों को अनदेखा करके पढ़ाई में लगे रहना लड़कियों में बीमारियों के खतरों को बढ़ाता है।

लड़कियों में कई तरह के बीमारियों के होने का खतरा

इन सब कारणों से इनमें कई तरह की बीमारियों के होने का खतरा बढ़ जाता है, उदहारण के लिए, यू. टी.आई (यूरिनरी ट्रैक्ट इन्फेक्शन), जिसे आमतौर पर पेशाब में जलन बोलते है जो ज्यादा देर तक पेशाब रोकने से होता है, सुविधाओं के अभाव में लड़कियां घंटो-घंटो वाशरूम नहीं जाती है जिसके कारण ये बीमारी उन्हें लग जाती है।

दूसरा, माहवारी में पैड बदलने की सुविधा न होने से उनके आतंरिक और बाहरी छेत्र में इन्फेक्शन होने का खतरा बना रहता है, साफ़ पानी नहीं मिलने से उन्हें अन्य कई बीमारियों जैसे, टाइफाइड, कॉलरा और न जाने कितनी बीमारियां इन्हें लगने का खतरा होता है।

शिक्षा के अधिकार से ही अंततः किसी भी व्यक्ति का पूर्ण विकास संभव हो सकता है इसलिए सरकार, या तो राज्य हो या केंद्र दोनों को ही निचले स्तर तक पहुंचकर इसमें आमूल-चूल परिवर्तन लाने की आवश्यकता है, ताकि बिना किसी लैंगिक भेदभाव के बच्चों का पूर्ण विकास हो सके। इस प्रकार यह तभी संभव हो सकेगा जब हम बुनियादी शिक्षा की गुणवत्ता तथा समय के साथ होनेवाले परिवर्तनों को देखतें हुए उनका विकास करे, नई शिक्षा नीति की भी यही धारणाएं है।

लड़कियों की सामाजिक-आर्थिक पीड़ा

भारत में 15 वर्ष से कम आयु की 46 % लड़कियां अनीमिया से पीड़ित है क्या इसका कारण भोजन की कमी, बुनियादी सुविधाओं की कमी, शिक्षा की कमी या कहें तो सामाजिक आर्थिक हर प्रकार के सुविधाओं की कमी हो सकती है।

इन सब कमियों के होने के बावजूद हमारी सरकार हर दफे मंदिर के मुद्दों पर आकर अटक जाती है। क्या मंदिर इतना आवश्यक है जो किसी गरीब महिला के पोषण की कमी को पूरा कर दे तो उससे उसके दान या प्रचार में कमी हो जाएगी।

हम अभी भी बुनियादी ढांचों के बारे में न सोचकर मंदिर में फंसे हुए है, ये रुढ़िवादी सोच कभी भी लड़कियों और महिलाओं को पढ़ने और उनको आगे बढ़ने का मौका नहीं देती है ना देगी।

नीतियां और योजनायें तो कई बन गए लेकिन उनका ठीक तरह से लागू करना भी भारत जैसे देश में एक बहुत बड़ी चुनौती है क्यूंकि सरकारी अस्पतालों में तो विटामिन की गोलियां, खाने के तरीको को भले ही बाताया जाता हो लेकिन कितनी ही महिलाएं उसका सेवन और पालन कर पाती है।

जहां 2019 से 2021 के बीच शहरी क्षेत्रों में रहने वाली 45.7 फीसदी महिलाएं अनीमिया से पीड़ित हैं, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में इनकी स्थिति और भी भयावह है, वही कारण वापस से घूम-घूमकर हमें परेशान करता रहता है, जो है अशिक्षा जिसके मूल में ही जानकारी का आभाव होता है।

अतः हमें समझना पड़ेगा कि यदि बुनियादी सुविधायें सरकार द्वारा समय पर मिल जाए तो इन लड़कियों को शिक्षित भी किया जा सकता है और समय रहते उनकी जान भी बचाई जा सकती है क्योंकि एक शिक्षित लड़की या महिला ही अपने अधिकार को बखूबी ढंग से इस्तेमाल करना जानती है। यह तभी संभव होगा जब सरकार मंदिर और मस्जिद के तर्कों और कुतर्कों को छोड़कर जनसुविधाओं पर ध्यान देगी।

वास्तव में कमी है कहां, हमारे भीतर या फिर सरकारी महकमों के क्रियान्वयन में जो सिर्फ योजनायें बनाना तो जानतें है परन्तु उसे लागू कैसे करना है वो नहीं जानते, जिसका सीधा शिकार होती है ये लड़कियां और आम जनता।

भारत की आधी आबादी जो लड़कियों कि है वो पढ़ना तो चाहती है परन्तु सुविधाओं खासकर पानी और शौचालय की कमी के कारण बीच में ही अपनी पढ़ाई छोड़ देती है।

लड़कियों के शिक्षा के असल शत्रु सरकार या परिवार

हमारे देश में शिक्षा की जो हालत है, उसके अनुसार 15 से 16 साल के उम्र की बच्चियां अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ देती है, इसका कारण सिर्फ जन सुविधाओं की कमी होना ही नहीं बल्कि सामाजिक, आर्थिक और रूढ़िवादी विचार है। जहां लड़कियां पढ़ने के विचार को लेकर अपने घर परिवार से लड़ तो लेती है लेकिन अंततः सामाजिक सरोकार उन्हें आगे नहीं बढ़ने देता है।

जब लड़कियां अपने परिवार और समाज से लड़कर स्कूल के प्रांगन में पहुंचती है तो यहां भी उन्हें सत्ता और सामाजिक अधूरेपन से लड़ना पड़ता है, जिसमे आधारभूत संरचनाओं की कमी सबसे ज्यादा उन्हें परेशान करती है। अतः उसमें से कोई 2 या 3 लड़की इस उच्च शिक्षा के लिए अपने आप को और अपने परिवार को तैयार कर पाती है।

असली मुद्दा है क्या मंदिर या शौचालय

यूनिसेफ के अनुसार स्कूल में बच्चे ज्यादा समय व्यतीत करते है, चुकी स्कूल का वातावरण लड़कियों के शिक्षा और स्वास्थ्य में निरंतर योगदान देता है इसलिए स्कूल का प्रांगण तो सभी जनसुविधाओं से भरा होना ही चाहिये, तभी हम लड़कियों के बेहतर भविष्य के बारे में सोच सकते हैं।

जिसमें शौचालय, पानी, माहवारी के समय पैड के सुचारु ढंग से विस्थापन की सुविधा साथ ही यौन शोषण मुक्त स्कूल का प्रांगण, यदि ये सभी सुविधायें हमारे विद्यालयों में होंगी तो लड़कियों का स्कूल में रहना और पढ़ना दोनों ही संभव हो पायेगा। इसके लिए केंद्र, राज्य एवं छोटे-छोटे उन सभी निकायों को लगना होगा और एक नीति बनानी होगी।

उदहारण के लिए, जब हम कभी भी भारत की सड़कों पर घूमने निकलते हैं, तो पाते हैं कि मंदिर तो हमें हर दस कदम पर मिल जाते हैं परन्तु यदि हम शौचालय या जनसुविधाओं को ढूंढने का प्रयास करें तो हमारी आंखें थक जाती हैं, ऐसा क्यों होता है?

क्योंकि हमने कभी उस दिशा में सोचा ही नहीं। हमने ये सोचा ही नहीं कि महिलाएं भी बाहर निकल सकती हैं, पढ़ सकती हैं, कमा सकती हैं, पब्लिक प्लेस का उपयोग कर सकती हैं।

स्वच्छ भारत को तो हमने अपनी नीतियों में शामिल कर लिया लेकिन हम उसे अपने मानसिक पटल पर लाना भूल गए और अंततः ये नीतियां हमारे स्कूल, कालेजों और अन्य संस्थानिक परिसरों में लागू नहीं हो पाई।

खामियाजा हमारी लड़कियां भुगत रही हैं और स्कूल और कालेज छोड़ने का मन बना ले रही हैं, ये उनकी मजबूरी है फैसला नहीं।

अतः हमें इन सब बातों पर विचार करते हुए नीतियों को पुरुष केन्द्रित नहीं बल्कि लिंग पर आधारित विचारों से मुक्त कुछ अलग करना होगा तभी हमारी लड़कियों के पढ़ने के सपने पूरे हो सकेंगे।

मेरा सवाल बस इतना है कि क्या हम बेरोज़गारी, भुखमरी, रेप, अशिक्षा, सांप्रदायिक हिंसा से कभी बाहर आकर एक समान समाज की स्थापना कर पाएंगे या नहीं।

जिसमें हर जाति और लिंग को बराबर का अधिकार मिलेगा। मेरी यहीं कामना रहेगी इस आनेवाले साल 2025 और इस सरकार से।


(कल्याणी सिंह स्कूल ऑफ़ जेंडर एंड डेवलपमेंट स्ट्डीज के अंतर्गत इग्नू से पी.एच.डी कर रही हैं, और स्त्री आधारित मुद्दों पर लिखती हैं)

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