Friday, April 19, 2024

कोरोना, दक्षिणपंथी राजनीति और आपदा में अवसर का अर्थ

दुनिया में पहली बार भारत में कोरोना वायरस से जुड़े सबसे अधिक मामले दो अगस्त 2020 को प्रकाश में आए हैं। रविवार के दिन भारत में जहां 53,641 मामले प्रकाश में आए, वहीं अमरीका में यह संख्या उस दिन 49,038 और ब्राजील में 24,801 ही थी।

वर्तमान में तेजी से कोरोना के मामले बढ़ने में अभी भी अमरीका का कोई सानी नहीं है। जिन देशों में इस वायरस के सबसे अधिक एक्टिव केस सहित कुल संख्या है उसमें worldometers।info के आंकड़ों के अनुसार अमरीका पहले स्थान पर और ब्राजील का दूसरे पर कब्जा बना हुआ है।

जहां तक हालिया कोरोना वायरस के प्रसार के मामले की बात है तो इस बारे में एक रिपोर्ट के अनुसार भारत ने पहली बार रविवार से रविवार तक के आंकड़ों में दुनिया में सबसे तेजी से कोरोना के मामलों में दूसरा स्थान हासिल कर लिया है। भारत में ये मामले पिछले सप्ताह 27 जुलाई-दो अगस्त के दौरान 3,69,588 केस दर्ज किए गए हैं।

ब्राजील में ये संख्या 3,13,776 की ही रही है। इस दौरान अमरीका में 4,41,808 मामले दर्ज किए गए। जबकि इससे एक सप्ताह पूर्व के आंकड़ों 20-26 जुलाई में, भारत तीसरे नंबर के साथ (317,892) ब्राजील से पीछे चल रहा था। उस सप्ताह ब्राजील में कोरोना के 3,20,000 मामले और अमरीका ने 4,73,289 मामले दर्ज किए थे।

अब इस बात को बार-बार दोहराने की इच्छा नहीं होती कि किस प्रकार दुनिया में चीन के वुहान शहर में इसके केंद्र के जनवरी में खबर होने के बाद, चीन और विश्व स्वास्थ्य संगठन के बीच पत्राचार करने और इसे पहले एक चीन में महामारी और फिर वैश्विक महामारी में कितने दिन लगे? बेहद संक्षेप में इसका जिक्र करके आगे बढ़ना ठीक रहेगा कि फरवरी माह तक सारी दुनिया को इसके बारे में पता चल चुका था, और विभिन्न देश इसके बारे में अपने-अपने तरीके से सुरक्षा उपाय करना शुरू कर चुके थे।

भारत में भी अमरीका में अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के खिलाफ चलाए गए महाभियोग के मामले में हुई भद्द की धूल झाड़ने के लिए प्रस्तावित भारत यात्रा के आयोजन का प्रस्ताव हो, या दिल्ली विधान सभा चुनाव और उसके पश्चात नागरिकता संशोधन विधेयक के खिलाफ चल रहे व्यापक मुस्लिमों एवं उनके साथ लगातार बढ़ती जाती भारतीय धर्मनिरपेक्ष आवाज की गूंज से निपटने के उत्तर पूर्वी दिल्ली में नियोजित दंगों को यदि छोड़ दें तो भारत ने भी कोरोना के मामले में आवश्यक पहलकदमी लेनी शुरू कर दी थी।

इसमें सबसे पहला कदम था कि दुनिया भर और खासकर चीन, यूरोप और अमरीका से आने वाले यात्रियों को खासतौर पर और आमतौर पर सभी विदेशों से आ रहे यात्रियों के लिए 14 दिन के अनिवार्य क्वारंटीन की व्यवस्था करने की।

कौन देश कितनी संजीदगी से इस काम को अंजाम देता है, उसी से उसकी मंशा, उसके शासन की विशेषता, उस देश के हालात, उस देश के सत्ता प्रतिष्ठान के बहुसंख्य नागरिकों के साथ के दृष्टिकोण की झलक मिल जाती है। यदि बिना किसी पूर्वाग्रह के इन सात महीनों का अध्ययन किया जा सके, जो कि शायद पहली बार दुनिया भर में सभी देशों के जागरूक नागरिकों ने किया भी, तो उन्होंने इसके बारे में एक बेहतर समझ खुद से निर्मित करने में सफलता अवश्य प्राप्त की होगी।

पीएम मोदी।

इसमें कोई शक नहीं कि भारत में लोकतंत्र की जड़ें काफी हद तक खोद-खोद कर इस बीच उखाड़ी जा चुकी हैं। संसद, सरकारी पक्ष और विपक्षी दलों की भूमिका, मीडिया, न्यायालय सभी के पास जो निष्पक्ष भूमिका अदा करनी थी, उसे 70 वर्ष बनाम मोदी राज के बरअक्स बहस करने, तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने और फिर प्रदूषित करने के सिवाय इस देश ने पिछले छह सालों से कुछ नहीं किया है। बस किसान अन्न उपजाते रहे, और मजदूरों को अपने पेट के लिए सिमटते अवसरों के बावजदू मजबूर होते हुए भी कारखानों, दुकानों, गोदामों की ख़ाक छाननी ही पड़ी।

जो लोग सरकारी कार्यालयों में काम करते थे से लेकर भारत के मध्य वर्ग तक ने भारतीय इतिहास और समाज शास्त्र का जितना भी अध्ययन कर रखा था उसमें से 90% लोगों ने परीक्षा में अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होने के लिए ही अशोक, हर्षवर्धन, चन्द्रगुप्त, मुगल, सूरी या तुगलक वंश से होते हुए अंग्रेज और आजादी की लड़ाई का या तो रट्टा मारा या महत्वपूर्ण तिथियों और घटनाओं को याद कर उसे उत्तर पुस्तिका में उल्टी कर अपने दिमाग को ‘भाभी जी घर पर हैं’, जैसे अनादि काल से चले आ रहे धारावाहिकों, रियलिटी शो इत्यादि के लिए सुरक्षित छोड़ रखा था।

वास्तविक तौर पर देखें तो देश में नए सिरे से इतिहास को देखने समझने के लिए जागरूकता बढ़ाने का काम इस व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी ने ही संभव किया है, जो एक विशेष काल खंड में इंसान के अपने पराजय बोध/हीनता को किसी अन्य समुदाय को नीचा दिखाने, या अपनी जड़ों से जुड़ने के नाम पर अन्य के खिलाफ नफरत, तिरस्कार के आदिम इन्द्रिय आदम इच्छा से जागृत होता आया है।

किसी राष्ट्र के लोगों के लिए कदम तो आगे बढ़ाने की मजबूरी सारी दुनिया में है, लेकिन अपने आज के हालात पर वश न चलने पर प्रेरणा के लिए इतिहास के पन्नों को दुबारा पलट कर उसमें से अपने ईगो की तुष्टि के लिए किसी दुश्मन को तलाशने का सिलसिला पूंजीवाद ने इससे पहले भी रचा है, जिसे हम फासीवाद के तौर पर जानते हैं।

आज नव उदारवाद के इस दौर में दुनिया अधिकाधिक अन्योन्याश्रित हो चुकी है, लेकिन जो साम्राज्यवादी शक्तियां और उसके साथ काम कर रहे क्रोनी कैपिटल की ताकतें हैं, जिनके चलते गैर-बराबरी की खाई दिन ब दिन चौड़ी होती जा रही है। यही शक्तियां समाज के लिए दुश्मन की तलाश उस समाज के भीतर से ही तलाश कर दे देने का काम बखूबी कर रहे हैं।

पुतिन, ट्रम्प, जिनपिंग और मोदी।

सारी दुनिया आज धुर दक्षिणपंथी लहर की चपेट में है, जिसमें राष्ट्रवाद की लहर एक बार फिर से अपनी ऊंचाइयों को छू रही है, और उसी का नतीजा है कि हमारे सामने डोनाल्ड ट्रंप, बोल्सनारो, बोरिस जॉनसन, ब्लादिमीर पुतिन, शी जिन पिंग और नरेंद्र मोदी जैसे चमकदार व्यक्तित्व नजर आते हैं।

सबके पास अपने अपने नजरिये से अपने देश को बचाने की भूमिका दिखती है, और इनमें से अधिकतर देश जहां भयानक गैर-बराबरी से अधिकाधिक चपेट में आ रहे हैं, ये अपने देश में या दुनिया में दुश्मन की शिनाख्त कर उससे निपटने में अपनी जनता के प्रभुत्वशाली हिस्से को लगा चुके होते हैं।

कोरोना वायरस इस मामले में बेहद समतामूलक भूमिका में पहले पहल नजर आया। चीन में दुनिया भर के ग्लोबल हंटर अपने-अपने देशों में अधिकाधिक मुनाफा कमाने, अपने देश के छोटे और मझौले उद्योगों की राख पर खड़ी करते हैं। यही लोग चीन से अमरीका के न्यूयॉर्क या इटली, ब्रिटेन, जर्मनी, इंग्लैंड में अपने साथ इसे पहले-पहल ले गए।

इंसान से इंसान के संपर्क से फैलने वाला यह वायरस शायद पहली बार है जो चीन के एक शहर के मछली बाजार से निकलकर सीधे उन ग्लोबल नागरिकों को जाकर लगा, जो दुनिया के सबसे उन्नत शहरों से दुनिया को अपने कब्जे में लेने की फिराक में इस दुनिया का साल में कई चक्कर लगाते रहते हैं।

इस वायरस का प्रचार-प्रसार करने के बाद कौन सा राष्ट्र किस प्रकार से रियेक्ट करेगा, यह वहां के शासन के बारे में बताने के लिए काफी है। इसम मामले में विएतनाम, ताइवान, दक्षिण कोरिया, चीन, न्यूज़ीलैंड जैसे देशों ने काबिलेगौर प्रगति की है, जिसे वहां के हालिया अध्ययन से आसानी से समझा जा सकता है।

कोरोना वायरस को अपने देश में दूसरे देशों की तुलना में अभी तक तुलनात्मक तौर पर बेहतर तरीके से निपटने में असफल रहे देशों में आज अमरीका, ब्राजील और भारत हैं। इसे लेकर दुनिया में कोई दो राय नहीं है। भले ही इन देशों के अंधभक्त लोगों के पास इसके लिए लाखों तर्क क्यों न हों।

इन तीनों देशों में भी कोरोना को लेकर इनके वर्तमान शासन में मत भिन्नता रही है। अमरीका में डोनाल्ड ट्रम्प ने जहां शुरू-शुरू में इस वायरस को एक अवसर के तौर पर अमरीका के लिए लिया था, और उनका यकीन था कि चीन इससे निपटने में कामयाब नहीं हो सकेगा और उसकी अर्थव्यवस्था जो अमरीका के लिए एक चुनौती बन चुकी थी, की कीमत पर अमरीका को एक बार फिर से निर्विरोध विश्व की ताकत बने रहने का मौका बरकरार रहने वाला है, को एक बड़ा झटका लगा।

नतीजतन कोरोना को एक अफवाह बताने वाले ट्रम्प ने सार्वजनिक स्थल पर मास्क न लगाने, विपक्षी डेमोक्रेटिक पार्टी की लगातार खिल्ली उड़ाने, अपने समर्थकों को विभिन्न राज्यों में लॉकडाउन के नियमों को धता बताने के लिए उकसाने का काम किया, लेकिन समय के साथ-साथ अपनी अकड़ को अमरीकी जनता के बीच हो रही व्यापक मौतों के साथ ही गजब की पैंतरेबाजी दिखाते हुए व्यापक आर्थिक पैकेज की घोषणा, और मई तक अमरीका में कोरोना के प्रसार में काफी हद तक कमी लाने और एक बार फिर से अमरीका को लॉकडाउन से मुक्त करने में सफलता प्राप्त कर ली थी।

कोरोना ने साबित कर दिया है कि सिर्फ अमीरी के बल पर इसे कुछ समय के लिए रोका तो जा सकता है, लेकिन लापरवाही के हटते ही बिना वैक्सीन के कोरोना नहीं जाने वाला है। जुलाई माह में अमरीका में एक बार फिर से कोरोना ने दोबारा दस्तक दी है। इस बार न्यूयॉर्क की जगह दूसरे राज्यों में यह उठान पर है। सारे किए कराए पर पानी फिर चुका है।

नवम्बर में राष्ट्रपति चुनाव दोबारा जीतते दिख रहे डोनाल्ड ट्रम्प की रेटिंग आज रसातल में समा चुकी है। चीन पर ताबड़तोड़ हमलों के बाद भी चीन को अब टस से मस कर पाना मुश्किल होता जा रहा है। यूरोपीय देश भी मौखिक जमाखर्च के अपनी भूमिका को बदलते दिख रहे हैं। सिवाय जापान, ऑस्ट्रेलिया और नए समर्थक भारत के अमरीका के पास लड़ने के लिए मित्र राष्ट्रों की कमी पड़ती जा रही है।

वहीं ब्राजील की बात करें तो यहां के राष्ट्रपति जायेर बोल्सनारो को दुनिया में धुर दक्षिणपंथी नेताओं का सिरमौर कहना गलत नहीं होगा। ट्रम्प के विपरीत इस इंसान ने तो कोरोना को हाल तक के समय तक इसे होक्स बताने और इसके बारे में एक भी दमड़ी न खर्च करने तक पर अड़ने के तौर पर ख्याति बटोरी।

यहां तक कि संघीय ढांचे के चलते विभिन्न राज्यों द्वारा अपने यहां वायरस की रोकथाम के लिए किए जाने वाले उपायों पर उनका कड़ा विरोध करने से लेकर अपने स्वास्थ्य मंत्री को इस विषय पर ज्यादा संजीदगी दिखाने पर मंत्रिमंडल से निकाल बाहर करने वाले बोल्स्नारो को हाल ही में कोरोना का शिकार होना पड़ा है। उनके ठीक होने बाद ही अभी हाल ही में खबर आई है कि उनकी नवीनतम वैध पत्नी को भी कोरोना का शिकार होना पड़ा है।

इस बीच ब्राजील की बहुसंख्य आबादी पूरी तरह से घुटनों पर आ चुकी है। जगह-जगह कई बार विरोध प्रदर्शन हुए हैं। यहां तक कि कोरोना ने अमेज़न के उन घने जंगलों तक में अपना कब्जा जमा लिया है, जहां सूरज तक की रौशनी कई बार प्रवेश नहीं कर पाया करती थी।

जहां तक भारत का सवाल है, यहां पर इसको लेकर उठाए गए कदम पूरी तरह से अप्रत्याशित थे। 22 मार्च को 14 घंटों के स्वघोषित लॉकडाउन के बाद 24 मार्च से अचानक से 130 करोड़ लोगों को 21 दिन के विश्व के सबसे बड़े लॉकडाउन में बिना किसी पूर्व तैयारी के धकेल दिया गया। प्रधानमंत्री मोदी की आठ बजे रात की गई इस घोषणा, जो कि 12बजे रात से अमल में आनी थी, ने भारतीय मेट्रोपोलिटन शहरों को एक बार फिर से रात भर के लिए जगाकर रख दिया था।

दिल्ली, मुंबई, बैंगलोर के शहरों में माल, सुपर बाजार, बिग बाजार इत्यादि रात को खुले और लोगों की कतारें देखी गईं। कई लोगों को कई-कई महीनों का खानेपीने का सामान बटोरते हुए देखा गया।

इस सबका एक दूसरा पहलू भी था, जो देश में सभी चुनाव लड़ने वाले दलों को बखूबी पता है। देश में करोड़ों लोग झुग्गी झोपड़ियों में रहते हैं। करोड़ों लोग प्रवासी श्रमिक हैं, जो सीजन के हिसाब से देश के विभिन्न कोनों में काम की तलाश में आते-जाते हैं। करोड़ों करोड़ लोग स्थायी तौर पर अस्थायी मजदूर हैं। इन सभी लोगों के पास अधिक से अधिक एक हफ्ते का पैसा या राशन था।

कोरोना के बारे में सभी देशों के मुखिया को फरवरी से ही सभी जानकारी मुहैय्या की जा रही थी। दुनिया भर में लॉकडाउन लगाने से पूर्व देशवासियों के रहने, खाने पीने और जीने के साधन से लेकर बेरोजगारी भत्ते और स्वास्थ्य सुविधाओं की व्यवस्था की गई थी।

भारत में कोरोना से लड़ने का मूलमंत्र बताया गया: घर से बाहर नहीं निकलना है, कोरोना मर जाएगा। और यह उपाय गलत भी नहीं था, लेकिन इतने बड़े पैमाने पर 130 करोड़ लोगों को खुद को व्यवस्थित करने या उनके लिए इंतजाम करने में भी देश को कम से कम एक महीने का समय देना चाहिए था, जिसे फरवरी और मार्च के महीने में किया जा सकता था।

मात्र 600 से कम कोरोना पोजिटिव रोगियों के साथ इस देश ने जितना बड़ा और कड़ा फैसला लिया था, उससे एकबारगी लगा कि भले ही नोटबंदी की तरह देश को इस बार उसकी तुलना में दस गुना अधिक तकलीफ झेलनी हो और आर्थिक तौर पर देश 100 साल पीछे चला जाएगा, लेकिन कोरोना को अवश्य हम हरा सकने में कामयाब रहेंगे।

डोनाल्ड ट्रम्प, बोल्स्नारो या बोरिस जोन्सन की तरह हमारा नेतृत्व मूर्ख नहीं है, लेकिन गहराई से नजर डालेंगे तो साफ़ समझ आएगा कि हम मूर्ख नहीं धूर्त अधिक हैं। 600 जिन हाई प्रोफाइल कोरोना पीड़ितों को देश झेल रहा था, वे अधिकतर लोग विदेशों से आने वाले हाई प्रोफाइल लोग थे। जो होली की पार्टी लखनऊ से लेकर देश भर में दे रहे थे या पेज थ्री पार्टियों में उनका देश में रहने के दौरान शामिल होना बेहद आम बात है।

इन सभी पार्टियों में देश के असली हुक्मरान और उनकी संतानें शामिल रहती हैं। या कहें कि इस 130 करोड़ के विशाल रेगिस्तान में उन्होंने अपने लिए जिन नखलिस्तान को निर्मित कर रखा है, इसमें इन कोरोना पीड़ितों की तादाद इन्हीं तबकों में थी।

सिर्फ एक कोरोना पीड़ित के सम्पर्क में आने से ही कुछ सांसद जो इस बीच संसद में ही नहीं भाग ले चुके थे, बल्कि राष्ट्रपति से भी मिल चुके थे, ने भारत के शासक वर्ग की रातों की नींद हिला कर रख दी थी। स्पष्ट था कि सिर्फ एक कोरोना मरीज के इतिहास को पलटने पर कहां-कहां तक इसकी मार पहुंच चुकी थी। ऐसे में न जाने कितनी जगहों पर इन नेताओं, अभिनेताओं, पूंजीपतियों, धन्ना सेठों, नौकरशाहों ने और उनकी औलादों ने इस बीच मुलाक़ात की थी?

अगर ये ही कल कोरोना से पीड़ित होकर चल बसे तो इस राज पाट का क्या होना है? ये विभिन्न दलों में मौजूद पक्ष विपक्ष सभी के नेत्रत्व में मौजूद लोगों के लिए संकट का समय था, और यही कारण है कि किसी ने भी इस हड़बड़ी पर कोई सवाल नहीं उठाया।

वरना एक हफ्ते की भी छूट और रेलवे सहित यातायात के साधनों के आने जाने की छूट दी गई होती तो कम से कम 20 करोड़ आबादी सुरक्षित ठिकानों पर पहुंच चुकी होती। इतनी भारी मात्रा में कोरोना को ट्रांसमीट करने में इन गरीबों को अपने स्थान पर भूखे प्यासे मारने का यह आइडिया ही काम किया है।

खैर पहले 21 दिन के राष्ट्रीय लॉकडाउन के बाद पहली बार प्रधानमंत्री ने देश के मुख्यमंत्रीयों को भी अपने साथ लिया और उनके सामने लॉकडाउन को बढ़ाने न बढ़ाने की चुनौती फेंक दी। नतीजतन उन्होंने दो-दो हफ़्तों के लिए लॉकडाउन को आगे बढ़ाने की सहमति दी।

कुल मिलाकर कह सकते हैं कि भारतीय शासक वर्ग ने खुद के लिए जिन 21 दिनों के क्वारंटीन की व्यवस्था की थी, वह उनके लिए तो पूरी हो चुकी थी। यहां तक कि कुछ समय बाद ही जहां देश और विपक्ष को लगा कि सरकार ने यदि लॉकडाउन थोपा है तो उसे देश को स्वास्थ्य सहित भोजन और बेरोजगारी भत्ते को मुहैय्या कराने की जिम्मेदारी है, और इसका मान रखने के लिए 20 लाख करोड़ रुपये के विशेष पैकेज की व्यवस्था की गई। उसमें वाकई में कोई पैसा देश के लिए है, यह किसी को नहीं दिखाई दिया है। सिवाय पांच किलो अनाज ग्रामीण क्षेत्रों में हर व्यक्ति को छोड़ कर।

इतने कम खर्च में इतना बड़ा लॉकआउट करना ही अपने आप में करोड़ों लोगों के लिए अपने पेट की मजबूरी के चलते कोरोना की फ़िक्र को पीछे छोड़ने के लिए काफी था।  सरकार के लिए अब उद्योगों को दुबारा खोलने, शराब, डीजल पेट्रोल से एक्साइज और जीएसटी कमाने और उससे जरूरी खर्चे निपटाने की बैचेनी को देश भर में शराब की दुकानों के खोले जाने की नौटंकी से बखूबी समझा जा सकता है। और यही वह वजह थी कि कोरोना के मामले जो धीमी गति से बढ़ रहे थे, उसमें मई और उसके बाद से तेजी से इजाफा होना शुरू हो चुका था।

आज हम एक ऐसे चौराहे पर खड़े हैं, जिसमें आपदा से अवसर बनाने के किस्सों से हम लगातार दो चार हो रहे हैं। कोरोना किन किन रूपों में कहां-कहां से फिर से उन प्रसाद शिवरों में पहुंच सकता है, इसके बारे में हमारे देश के शासक वर्गों ने नहीं सोच रखा था।

आज एक बार फिर से देश के नामी गिरामी हस्तियों जिनमें अमिताभ बच्चन और उनका परिवार, तमिलनाडु में राज्यपाल, यूपी में मंत्री, गृह मंत्री अमित शाह सहित चिदंबरम के बेटे कार्ति चिदंबरम, सिंधिया आदि आदि लोगों तक कोरोना पहुंच ही गया।

इन सभी लोगों में जो भी होशियार लोग हैं, वे जानते हैं कि कोरोना से निपटने के लिए तत्काल क्या उपाय किये जाने हैं, और एक बार फिर से खुद को ठीक कर आपदा में अवसर को हाथ से जाने नहीं देना हैं।

वुहान से निकले इस वायरस को न्यूयॉर्क में भी अमीरों ने अपने यहां से नाथ कर जिस तरह अश्वेतों के बीच में मुफ्त वितरित करने का काम किया था, उसी तरह भारत में भी पहली बार लॉकडाउन इसी अभिजात्य वर्ग के लिए क्वारंटीन करने के लिए लगाया गया था, जिसे पूरी सम्भावना है कि वह अगस्त में एक बार फिर से खुद के पीड़ित होने की आशंका में लगा दे। क्योंकि एक बार फिर से लॉकडाउन लगाने से यदि दाग धुल जाते हैं तो ये दाग अच्छे हैं।

बाकी देश की 100 करोड़ जनता का क्या है? उसमें से कुछ निकल भी गए तो ये हाथ के मैल हैं। यह बात ब्राजील के राष्ट्रपति ने तो कह दी थी, लेकिन भारतीय संस्कृति में इसी बात को कहने के लिए मोक्ष, वैतरणी पार करने जैसे अलंकारिक शब्दों का इस्तेमाल मनुवादी व्यवस्था में कर रखा गया है।

कोरोना अंधा है, वह बिना किसी भेदभाव के तब तक हर इंसान से प्रेमपूर्वक मिलने को आतुर रहेगा जब तक वैक्सीन नहीं खोज ली जाती। इसे खोजने की फिराक में कई सौ उम्मीदवार लगे हैं, और इसके सफल उत्पादन से पहले ही उसके लिए अरबों डॉलर के एडवांस अमरीका, यूरोपीय यूनियन के देशों द्वारा बयाने के तौर पर दे दिए गए हैं।

अंधे कोरोना को, जो इन कर लो दुनिया मुट्ठी में जैसे लोगों को अपनी चपेट में लिया था, उन्होंने बड़ी होशियारी से उसे अपने कंधों से उतार फेंक दुनिया के अश्वेतों, गरीबों, तीसरी दुनिया के गरीबों, आदिवासियों के बीच में फेंक देने में सफलता आखिकार हासिल कर ही ली।

हमारा निजाम जरूरत पड़ने पर फिर से दुखदायी लॉकडाउन ला सकता है, इसमें कोई शक नहीं। यदि उन 500 लोगों को और उनके सम्भावित मिलने वालों को बाकायदा पता लगाकर क्वारंटीन करने पर यदि 500 करोड़ भी खर्च कर दिया होता, और हर विदेश से आने वाले को अनिवार्यतः क्वारंटीन करने और उनके लिए अच्छी व्यवस्था करता तो वे इधर उधर के जुगाड़ लगाकर, या हमारी व्यवस्था को ही घूस खिलाकर बदहाल क्वारंटीन व्यवस्था से न निकल भागता।

सारा देश उद्योग धंधे और पढ़ाई-लिखाई बदस्तूर जारी रख सकता था। आज भी बिहार, यूपी आदि में कोरोना के मामले तब प्रकाश में आने लगे हैं, जब मुख्यमंत्री के आवास में या तो कोरोना घुस जाए या बीजेपी के 100 कार्यकर्ताओं में से 75 इसकी चपेट में पाए जाएं, जो पूरी नेतृत्व को ही साफ़ करने के लिए सक्षम होते।

कुल मिलाकर कह सकते हैं कि व्यवस्था को जब महसूस होता है कि उसके जीवन को खतरा है तो वह झट चोगा बदलकर साधू बन जाती है, वरना उसके पास हमेशा ही अंगुलिमाल बन हर दूसरे की आपदा में अवसर ढूंढने और ऊंगली काटकर उसकी माला पहनने से रोकने के लिए आवश्यक लोकतंत्र में उठती आवाज नहीं बची।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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