Friday, April 19, 2024

जलवायु परिवर्तन और प्रलय के लिए ज़िम्मेदार है कॉर्पोरेट लूट

जलवायु परिवर्तन इस सदी की सबसे भयावह शब्दावली साबित होने के कगार पर है। भारत सहित पूरी दुनिया में अप्रत्याशित तरीके से बढ़ रही प्राकृतिक आपदा ने यह दिखाया है कि प्रकृति के साथ खिलवाड़ का दुष्परिणाम किस हद तक मानव जाति को तबाह कर सकती है। दुनिया भर के देश कहीं अत्यधिक बाढ़ तो कहीं सूखा और अकाल की स्थिति से त्राहिमाम कर रहे हैं। कहीं बादल फटने की घटना तो कहीं भूस्खलन ने लोगों की जिन्दगी को मुश्किल बना दिया है। जर्मनी, बेल्जियम, नीदरलैंड सहित पश्चिमी यूरोप बाढ़ की चपेट में आ चुका है। वहां के लोग 100 साल बाद देश में ऐसी स्थिति देखने का दावा कर रहे हैं। जर्मनी की चांसलर एंजिला मार्केल ने माना है कि इस आपदा का एक बड़ा कारण जलवायु परिवर्तन है। एक तरफ़ अमेरिका, कनाडा में हीटवेव (लू) के कारण जिन्दगी दुश्वार हो चुकी है, जंगलों में बड़े पैमाने पर आग लग रही है। कनाडा में गर्मी के कहर से आम जनजीवन परेशान हो चुका है। दूसरी तरफ़ चीन, बांग्लादेश, जर्मनी, बेल्जियम, नीदरलैंड, भारत में बाढ़ का कहर जारी है जिसके प्रकोप से प्रत्येक देश में सैकड़ों जिंदगियां ख़त्म हो चुकी हैं। बावजूद इसके कॉर्पोरेट द्वारा अपने लाभ के लिए पहाड़ों, जंगलों और प्राकृतिक संसाधनों की लूट जारी है, परिणामतः भूस्खलन आए दिन विकराल रूप लेता जा रहा है, जो जलवायु परिवर्तन का एक बड़ा कारण है।

अमेज़न के जंगल में आग

बात करते हैं उतरी अमेरिका की तो अमेरिका और कनाडा जैसे देश भयावह गर्मी और लू को झेल रहे हैं। औसत 20 डिग्री तापमान वाले देश में 45 डिग्री तक तापमान का पहुँच जाना किसी त्रासदी से कम नहीं है। यहाँ जंगलों में आग लग रही है। वैज्ञानिकों का मानना है कि ऐसी परिस्थिति हजारों सालों में एक बार होती है। अमेजन के जंगलों में मानवीय हित के लिए आग लगाए जा रहे हैं, जहाँ से दुनिया को 20 प्रतिशत आक्सीजन की प्राप्ति होती है। यूरोप में आयी बाढ़ में 170 लोगों के मारे जाने की खबर है वहीं पश्चिमी यूरोप में जंगल की आग भी तेजी से बढ़ रही है। चीन के हेनान प्रांत स्थित येलो नदी में आई भीषण बाढ़ ने 1000 सालों के रिकोर्ड को तोड़ दिया है। यहाँ बादल फटने की घटना ने बड़े पैमाने पर तबाही मचाई है। इस क्षेत्र में साल भर की 640mm बारिश 3 दिन में और इस बारिश का एक तिहाई हिस्सा एक घंटे में हो गयी। अचानक से इतने बड़े पैमाने पर होने वाली बरसात को बादल फटने की घटना भी कहते हैं। देश में विकास के नाम पर किया गया कार्य इसके लिए ज़िम्मेदार है। चीन के राष्ट्रपति शी-जिनपिंग नें इन्फ्रास्ट्रक्चर के नाम पर चीन में नदियों पर 98,000 डैम बनाए। डैम बनाने के क्रम में प्रकृति से किए गए खिलवाड़ इस तरह की घटनाओं का एक मुख्य कारण हैं।

दक्षिण अफ्रीका सुखा पड़ा क्षेत्र

जलवायु परिवर्तन से बाढ़ के अलावा सूखा पड़ने की आशंका रहती है। साल 2018 में दक्षिण अफ्रीका में भयानक सूखा पड़ा था। एक रिपोर्ट के मुताबिक़ साल 2050 तक ऐसे सूखा और अकाल की आशंकाएं बढ़ जाएंगी। दुनिया भर में कई प्राकृतिक आपदाओं का कारण बनने वाला जलवायु परिवर्तन अब भुखमरी का सबब भी बन चुका है। दक्षिणी मेडागास्कर जलवायु परिवर्तन के कारण भुखमरी का सामना कर रहा है। संयुक्त राष्ट्र की ह्युमेनिटेरियन संस्था यूएनओसीएचए (UNOCHA) ने कहा है कि पूर्वी अफ्रीका स्थित दक्षिणी मेडागास्कर जलवायु परिवर्तन के कारण भुखमरी का सामना करने वाला दुनिया का पहला देश है। हालांकि मेडागास्कर पहले भी खाद्य संकट का सामना करता रहा है। यहाँ के हालात की गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि लोग पेड़ों की जड़ों को काट कर अपना पेट भर रहे हैं। 1896 से लेकर अब तक मेडागास्कर 16 बार खाद्य संकट का सामना कर चुका है, लेकिन इस बार पिछले 40 सालों में सबसे भयानक सूखे को झेल रहा है। यहाँ सूखे के साथ-साथ रेतीले तूफ़ान और कम बारिश से भूमि बंजर हो चुकी है। मेडागास्कर के 1,10,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में बसे 10 लाख लोग इस संकट का सामना कर रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक इतनी बड़ी संख्यां में इस क्षेत्र में लोग खाद्य संकट से जूझ रहे है, जो सीधे तौर पर जलवायु परिवर्तन से जुड़ा हुआ है। वर्ल्ड फ़ूड प्रोग्राम के अनुसार अफ्रीका के मेडागास्कर में जलवायु में हुए बदलाव से लोग भुखमरी का सामना कर रहे हैं। उन्होंने इस क्षेत्र के 14,000 लोगों को आपदा के 5वें स्तर पर बताया है। इस स्तर पर पहुँच चुके लोग अपनी भूख को मिटाने के लिए लूटपाट और चोरी करने पर आमदा हो जाते हैं।

साइबेरिया के लाफ्तेव सागर में तेजी से पिघलता बर्फ़

किसी एक घटना को जलवायु परिवर्तन से जोड़ना जटिल हो सकता है लेकिन इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता है कि धरती लगातार गर्म हो रही है। औद्योगिक दौर शुरू होने के बाद से दुनिया 1.2 डिग्री तक गर्म हो चुकी है। चिंताजनक बात यह है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को लेकर जो अंदाजे लगाए गए थे उससे कहीं अलग नतीजे सामने आ रहे हैं। हाल में आए मौसम में बदलाव जलवायु परिवर्तन का ही नतीजा है। हमें शायद यह अंदाजा नहीं है कि तेजी से तापमान बढ़ने से आर्कटिक क्षेत्र में क्या प्रभाव पड़ रहा है। यहाँ बाकी दुनिया की तुलना में तापमान 2 से 3 डिग्री तेजी से बढ़ रहा है। इस क्षेत्र की बर्फ़ तेजी से पिघल रही है। सबसे तेजी से 2012 में बर्फ़ के पिघलने को रिकोर्ड किया गया था। इस साल जुलाई में उससे कुछ ही कम दर आँका गया है। साइबेरिया के लाफ्तेव सागर का बर्फ़ पिघल कर अब यह लगभग बर्फ़ मुक्त हो चुका है। इस तरफ़ से बर्फ़ के पिघलने के बेहद गंभीर परिणाम हो सकते हैं। सूर्य का प्रकाश सफ़ेद बर्फ़ से टकराकर लौट जाता है जिससे धरती का तापमान नियंत्रित रहता है। बर्फ़ के पिघलने से समंदर की काली सतह सूर्य की रौशनी को सोख लेती है। इसका मतलब यह है की समंदर ज्यादा गरम हो रहा है और विस्तृत होकर फ़ैल भी रहा है। दुनिया भर में समंदर के जलस्तर के बढ़ने की यह एक अहम् वजह है। इस सदी तक जलस्तर के बढ़ने से करीब 20 करोड़ लोगों को विस्थापित होना पड़ेगा जिसमें ज्यादातर लोग एशिया के ही होंगे। एक अनुमान बताता है कि साल 2100 तक भारत और पूर्वोतर एशिया की तटवर्ती जमीन समंदर में समां जाएगी।

उत्तराखंड में बादल फटने घटना

एक साथ धरती के अलग-अलग हिस्सों में प्राकृतिक आपदा के अलग-अलग रूप देखने को मिले हैं। भारत भी इससे अछूता नहीं रहा है। भारत में आए दिन बादल फटने की घटना आम हो चली है, जो पर्वतीय इलाकों में ज्यादा देखी जा रही है। हिमाचल प्रदेश का मनाली, लाहौल क्षेत्र, अमरनाथ, जम्मू-कश्मीर का किश्तवार क्षेत्र, उतराखंड का चमोली, केदारनाथ, उतरकाशी का क्षेत्र इस घटना के लिए उल्लेखनीय है। जिसमें सैकड़ों लोगों की जाने गयी हैं। यह एक ऐसी आपदा है जिसके बारे में अभी तक पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता है। जब बादल फटता है तो हज़ारों घनमीटर पानी एक साथ आसमान से गिरता है, जिसका वेग इतना अधिक होता है कि पेड़-पौधे मकान, वस्तु सहित इंसानों को बहा ले जाता है। हालांकि बादल फटने की घटना नई नहीं है पहले भी इस तरह की घटनाओं से तबाही मचती रही है, लेकिन पिछले कुछ सालों से इसकी वजह से जो तबाही का मंजर सामने आ रहा है वह नया है। जिसके कई मानवीय कारण भी हैं।

प्रकृति पर नियंत्रण करने की इंसान की चाहत किस हद तक जा सकती है इसे पहाड़ों में पिछले कुछ सालों से चलाए जा रहे विकास कार्यों को देख कर समझा जा सकता है। पहाड़ों पर जिन इलाकों में लोग घर नहीं बनाया करते थे आज वहां बड़े-बड़े होटल बनाए जा रहे हैं, जगह-जगह कारखाने खुल गए हैं। नदियों का बहाव रोक कर बिजली उत्पादन व सड़कों को सुगम बनाने की योजनाएं चलायी जा रही हैं। जिसके लिए पहाड़ों में बारूदी हमले भी किए जाते हैं, जिससे भूस्खलन की घटनाओं में बढ़ोत्तरी हुई है और फिर पानी के साथ पहाड़ टूट कर निचले हिस्से में तबाही को कई गुना बढ़ा देते हैं। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि प्रकृति द्वारा बनाए गए वातावरण में दखल अंदाजी की वजह से बादल फटने की घटना अधिक होने लगी है। पहाड़ों में बादलों के ठहर जाने की स्वाभाविक स्थिति के अलावा बिजली उत्पादन के संयंत्रों और टावरों की वजह से भी बादलों की गति और दिशा प्रभावित होती है।

आज प्रकृति के साथ खिलवाड़ का नतीजा यह है कि हम पानी के साथ-साथ सांस लेने के लिए ऑक्सीजन तक खरीदने को मजबूर हैं। जिस तरह पीने का पानी ख़रीद कर पीना जनता के लिए आज आम बात हो गयी है, हो सकता है ऑक्सीजन खरीदना भी आने वाले समय में सामान्य घटना हो जाए लेकिन बाज़ारवाद व कॉर्पोरेट लूट की बढ़ती हनक समाज को कहाँ पहुंचा रही है यह जरूर चिंता का विषय है। पर्यावरण का संतुलन बिगड़ने के कारण हो रहे प्रलय को रोकने की पहल जरूरी है। विकास और क़ुदरत के व्यवहारिक समीकरण पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। कॉर्पोरेट लाभ और लालच के लिए प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन बंद करने की जरुरत है। इस दिशा में दुनिया भर में काम शुरू जरुर हुए हैं पर यह वर्तमान में नाकाफ़ी साबित हो रहे हैं।

(डॉ. अमृता पाठक लेखक और स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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