देश कागज़ पे बना नक्शा नहीं होता

जैसे किसी पंचायत में समर्थ और बाहुबली किसी असहाय का हुक्कापानी बंद कर उसकी कीमती जमीन हड़प ले उसी तरह देश की सबसे बड़ी पंचायत ने कश्मीर को हड़प लिया। इसे संवैधानिक प्रावधानों को बुरी तरह कुचलकर दस्तावेजी हेरफेर व धोखेबाजी से कश्मीर को हड़प लिया गया कहना ही बेहतर होगा। अब जबकि कश्मीर के सारे विशेषाधिकार खत्म हो चुके हैं इस बात पर ग़ौर करना जरूरी हो जाता है कि इसमें कश्मीरी अवाम का मन या उसकी सहमति कहां है। एक ओर जहां कश्मीर के सभी शीर्ष नेता नज़रबंद हैं वहीं पूरे प्रदेश में कर्फ्यू लगाकर अवाम की आवाज़ को भी संगीनों के साए में दबा कर रख दिया गया है। कश्मीर में जो हुआ उसमें जन गायब है, जन मन ग़ैरहाज़िर है। बहुमत के गुरूर में कश्मीर की ज़मीन पर तो कब्जा कर लिया गया मगर कश्मीरी अवाम का दिल जीतकर आपसी विश्वास का पुल बनाने की बजाय  नफरत की जो गहरी खाईं खोद दी उसे निकट भविष्य में पाट पाना बहुत मुश्किल होगा ।

कश्मीर को लेकर जो नेहरू, पटेल, आंबेडकर के बीच संबंधों को जानबूझकर कटु बनाकर जनता को गुमराह करने की कोशिश कर रहे हैं वो अपने राजनैतिक स्वार्थ के लिए देश की जनता में भ्रम फैला रहे हैं। आज संसद हो या सड़क सभी जगहों पर नेहरू, पटेल, आंबेडकर, श्यामाप्रसाद मुखर्जी या उस दौर के नेताओं पर अपनी सुविधानुसार आरोप प्रत्यारोप कर ताजा हालात से आम जन को बेखबर रखने की कोशिश की जा रही है। ये नेहरू ही थे जिन्होंने दलगत भावना, राजनैतिक वैचारिक मतभेदों से ऊपर उठकर देश की संविधान सभा में सभी को शामिल किया था । एनडीए सरकार के मंत्री कह रहे हैं कि उन्होंने नेहरू की 370 को लेकर घिसते घिसते घिस जाने वाली मंशा को ही मूर्तरूप दिया है , मगर क्या नेहरू अपनी मंशा को इस तरह पूरी होते देखना चाहते थे? निश्चित रूप से नहीं ।

नेहरू का आशय कश्मीर और भारत के अवाम की आपस में भावनात्मक एकता से था जिसे गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ने पूरे भारत के परिप्रेक्ष्य में कहा था । गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था, भारत की एकता भावनात्मक एकता में ही निहित है। यदि इन वर्षों में कश्मीर में भी ऐसा हो पाता तो 370 खत्म करने में कश्मीर की जनता सबसे आगे होती और पूरे देश के साथ जश्न मनाती। आज कश्मीरी अवाम जिसका 370 से सबसे गहरा ताल्लुक है इस ऐतिहासिक फैसले से बाहर है, अवाक है । 

देश को आज़ाद करने के साथ ही अंग्रेज जाते-जाते देश की तमाम रियासतों को आजाद कर गए थे और संविलन के लिए स्वतंत्र कर दिया था । हालांकि अधिकांश राजाओं और नवाबों ने भारत में  विलय की संधि पर दस्तख़त कर दिए, फिर भी कुछ बड़ी रियासतें जैसे कश्मीर, जूनागढ़, हैदराबाद आज़ाद रहने का ख़्वाब पाल रही थीं। उन परिस्थितियों में सरदार पटेल और जवाहर लाल नेहरू ने मिलकर ही संघीय भारत की परिकल्पना को अंजाम दिया था। आजादी के वक्त जिन रियासतों ने भारत में विलय से बचना चाहा उन्हें शामिल करने के लिए रणनीति व दबाव का भी सहारा लिया गया। यह मगर वहां की जनता की मंशा और सहयोग के चलते ही संभव हो पाया। गौ़रतलब है कि जूनागढ़ में तो जनमत संग्रह भी कराया गया। जूनागढ़ का नवाब पाकिस्तान में शामिल होना चाहता था मगर अवाम भारत के पक्ष में थी। अंततः  जनमत का सहारा लिया गया और जनता ने प्रचंड बहुमत से  भारत के साथ विलय के पक्ष में मत किया।

ऐसा भी नहीं है कि 1947 के बाद भारत में किसी राज्य का विलय नहीं किया गया हो मगर उनमें हमेशा वहां की जनता की सहमति व इच्छा को प्राथमिकता दी गई। इसमें गोवा का भारत में विलय एक नजीर की तरह देखा जा सकता है। गोवा को भारत में शामिल करने के लिए तो बाकायदा एक लम्बा जनसंघर्ष चला और लोगों ने कुर्बानियां भी दीं तब जाकर आज़ादी के लगभग दो दशक बाद जनमत को अपने पक्ष में करके ही गोवा को भारत का अभिन्न अंग बनाया गया। यह भी समझना होगा कि आजादी के 28 बरस बाद 1975 में सिक्किम के सामरिक महत्व को देखते हुए पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने रणनीति के तहत आजाद सिक्किम को भारत के साथ विलय किया। इसमें भी सिक्किम के जनमत की भूमिका ही अहम रही।

सिक्किम के भारत के साथ विलय में राजनयिकों के साथ-साथ भारत की ख़ुफ़िया एजेंसी रॉ ने भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मगर अपनी बेहतरीन कूटनीति के बल पर इंदिरा गांधी ने सिक्किम की जनता को राजा के खिलाफ कर अपने पक्ष में किया। इसका लाभ ये हुआ कि जनमत संग्रह में सिक्किम की लगभग 98 प्रतिशत जनता ने भारत के साथ विलय को पसंद किया और सिक्किम को भारत का अंग बना लिया गया।

अहम सवाल ये है कि 370 हटा देने के पश्चात क्या कश्मीरी अवाम की मूलभूत समस्याएं दूर हो जायेंगी? क्या वहां का आम आदमी घाटी में बरसों से चली आ रही हिंसा और आतंक से निजात पा सकेगा? सरकार इस मसले पर कश्मीरी अवाम को केन्द्र सरकार पर भरोसा करने की बात कर रही है जो ऐसे हालात में काफी मुश्किल लगता है। जब आप इतने बड़े और अहम फैसले के वक्त कश्मीरी अवाम को ही भरोसे में नहीं ले पा रहे हैं तो कश्मीर की अवाम आप पर कैसे भरोसा कर सकती है। अवाम का भरोसा हासिल किया जाता है न कि मांगा जाता है। जब नीति व नीयत में फर्क हो तो अवाम आप पर भरोसा नहीं कर सकती ।

क्यों आज सरकार कश्मीरी अवाम को साथ ले पाने में कामयाब नहीं हो पाई । यह एक गंभीर प्रश्न है। पिछले तीन दशकों में कश्मीरी अवाम में हिंदुस्तान के प्रति लगातार गुस्सा व अविश्वास बढ़ता गया है और किसी भी सरकार ने इस पर सहानुभूति या गंभीरता से कोई नीति नहीं बनाई। इसके उलट हर सरकार ने कश्मीरी अवाम को सिर्फ सेना के बल पर काबू में करने का प्रयास किया है। यह बात भी समझनी होगी कि जितना सेना का दखल बढ़ा उतना ही अवाम का आक्रोश भी बढ़ता गया ।

विगत वर्षों पर ग़ौर किया जाए तो यह आसानी से समझा जा सकता है कि समय के साथ 370 काफी हद तक कमजोर हो चुकी थी मगर सबको जो परेशानी थी वो 35ए से थी, विशेष रूप से उन भूमाफियाओं को और कॉर्पोरेट को जो जन्नत को जहन्नुम बनाने के लिए बेताब हुए जा रहे हैं। आज संगीनों के साए में कश्मीरी अवाम कैद है मगर इसे बहुत दिन दबाया नहीं जा सकता है। दूसरी ओर अलगाववादी ताकतें इस फैसले को लेकर अपने मंसूबों को पूरा करने के लिए कश्मीरी अवाम को भड़काने की पूरी कोशिश करेंगी । भविष्य में इन फिरकापरस्त और आतंकी संगठनों से निपटने के लिए देशभर से ज्यादा कश्मीरी जनमानस को अपने भरोसे में लेना होगा जो सरकार के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती है। इस चुनौती पर तभी खरे उतर पायेंगे जब  हम कश्मीरी अवाम को भावनात्मक रूप से पूरे देश के साथ जोड़  सकेंगे ।

मशहूर कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता, देश कागज पे बना नक्शा नहीं होता की पंक्तियां हैं-

यदि तुम्हारे घर के
एक कमरे में आग लगी हो
तो क्या तुम
दूसरे कमरे में सो सकते हो?

(यह लेख जीवेश प्रभाकर चौबे ने लिखा है।)  

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