कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म कर मोदी सरकार भले ही अपनी पीठ थपथपाए और इसे मास्टरस्ट्रोक करार दे, इसके अपने निहितार्थ हैं। पंजाब और असम में इसकी क्या प्रतिक्रिया होगी, अभी कोई क़यास लगाना जल्दबाज़ी होगी। लेकिन इतना तो सही है कि इसने केंद्र-राज्य सम्बन्धों की बहस को एक बार फिर सामने ला दिया है। और इस तरह मज़बूत केंद्रीय सत्ता बनाम संघवाद के सवाल पर फिर चर्चा शुरू हो सकती है।
आज़ादी की लड़ाई के वक़्त से ही संघीय व्यवस्था पर बहस चल रही है। और अगर सही कहें तो बंटवारे के पीछे यही मुख्य और मूल कारण था। मुस्लिम लीग सौदागरी पूंजी पर आधारित मुस्लिम बनियों की पार्टी थी जिसे हमेशा आशंका रही कि औद्योगिक पूंजी का प्रतिनिधित्व करने वाली कांग्रेस पार्टी उसे निगल लेगी। केंद्रीकृत या मज़बूत केंद्र वाली सत्ता पर आधारित राष्ट्र का नेहरूवाई मॉडल लीग को कभी रास नहीं आया और उसने एक अलग राष्ट्र, मुस्लिम राष्ट्र की मांग की। इस तरह संघवाद के मुद्दे पर हमारा देश दो हिस्से में बंट गया।
सन 1947 में देश का बंटवारा हुआ। लाखों लोगों का एक हिस्से से दूसरे हिस्से में पलायन हुआ। बेशुमार घर उजड़े और हज़ारों लोगों की मौत हुई। इसी दौरान इस खूनी बंटवारे को अंजाम देने वाली मुस्लिम लीग की भी मौत हो गई।
मज़े की बात है कि संघवाद के मुद्दे पर अलग हुए देश पाकिस्तान ने खुद भी संघवाद को दरकिनार कर केंद्रीयकृत सत्ता की स्थापना की। इसका उसे नतीजा तुरन्त भुगतना पड़ा। निर्माण के 25 साल के अंदर देश दो टुकड़ों में बंट गया और 1971 में बांग्लादेश का निर्माण हुआ।
बांग्लादेश के निर्माण से भारत में संघवाद की पहले से जारी बहस और तेज़ हो गई। केंद्र-राज्य रिश्तों पर बहस गर्म हो गई। पंजाब, कश्मीर, पूर्वोत्तर जैसे इलाक़ों में अलगाववादी ताक़तें सर उठाने लगीं।
इसी क्रम में 1980 दशक की शुरुआत में सरकारिया आयोग आया जिसने केंद्र-राज्य रिश्तों को पुनर्परिभाषित कर इस पर बहस और आंदोलन पर अंकुश लगाने की कोशिश की।
सरकारिया आयोग के बावजूद मुख्यधारा की पार्टियों के एक उल्लेखनीय हिस्से में सत्ता को और भी केंद्रीकृत करने की वकालत जारी रही। यह तबक़ा ब्रिटेन की वेस्टमिंस्टर शासन प्रणाली से हटने और राष्ट्रपति प्रणाली की तरफ़ बढ़ने का हिमायती था।
मोदी के उभार के साथ यह तबका प्रभावशाली बना। मोदी ने 2014 का चुनाव राष्ट्रपति चुनाव की शैली में लड़ा।
कश्मीर पर मोदी के क़दम से विभिन्न राष्ट्रीयताओं के बीच गलत संदेश गया है। उनमें आशंका की लहर दौड़ी है। भले ही उनकी अभी कोई तात्कालिक प्रतिक्रिया नहीं आई, लेकिन देर-सवेर वे अपनी रणनीति में आवश्यक फेरबदल कर सकती हैं। लेकिन बहुत कुछ कश्मीर के घटनाक्रम पर भी निर्भर करता है।
(लेखक शाहिद अख्तर वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में एक प्रतिष्ठित एजेंसी में कार्यरत हैं।)