Thursday, March 28, 2024

अब क्या संविधान नहीं, मनुस्मृति के रास्ते चलेगा देश?

भारत में जिस राजनैतिक व्यवस्था को हमने चुना है उसमें विधायिका कानून बनाती है, कार्यपालिका उन कानूनों के अनुरूप देश की शासन-व्यवस्था का संचालन करती है और न्यायपालिका यह सुनिश्चित करती है कि देश का शासन संविधान के मूल्यों और प्रावधानों के अनुरूप हो। पिछले कुछ समय से ऐसी मान्यता बन गई है कि न्यायपालिका कार्यपालिका के दबाव में काम कर रही है और इसके लिए न्यायपालिका की आलोचना भी की जा रही है। हाल में एक न्यायाधीश ने जो कहा वह संवैधानिक मूल्यों के सरासर खिलाफ है। 

‘बॉर एंड बेंच’ के अनुसार प्रतिभा सिंह नामक एक न्यायाधीश ने कहा कि ‘‘मुझे लगता है कि हम भारत की महिलाएं बहुत खुशकिस्मत हैं। और उसका कारण यह है कि हमारे धर्मग्रंथ महिलाओं को हमेशा से अत्यंत सम्मानजनक स्थान देते आए हैं। जैसा कि मनुस्मृति में कहा गया है कि अगर आप महिलाओं का सम्मान नहीं करते तो जो पूजा-पाठ आप करते हैं उसका कोई अर्थ नहीं है। इस तरह मैं सोचती हूं कि हमारे पूर्वज और वैदिक साहित्य के रचयिताओं को यह अच्छी तरह से मालूम था कि महिलाओं का किस तरह सम्मान किया जाना चाहिए।” 

यह सही है कि मनुस्मृति कहती है कि ‘‘यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते, रमन्ते तत्र देवताः” (3/56)। परंतु इस पुस्तक में अन्यत्र महिलाओं की समाज में स्थिति के बारे में जो कहा गया है उससे यह पंक्ति मेल नहीं खाती। इस पुस्तक को मानव धर्मशास्त्र भी कहा जाता है और सावरकर से लेकर गोलवलकर तक हिन्दू राष्ट्रवादी चिंतक इस पुस्तक को अत्यंत सम्मान की दृष्टि से देखते रहे हैं। यह दुःखद है कि इसमें जो भी प्रावधान किए गए हैं वे पूरी तरह से पितृसत्तात्मक हैं और महिलाओं को अत्यंत निम्न दर्जा देते हैं। पुस्तक के पांचवें अध्याय के श्लोक 148 व 149 महिलाओं के बारे में मनुस्मृति के लेखक दृष्टिकोण स्पष्ट करते हैं।

इन श्लोकों में कहा गया है, ‘‘अपने घर में भी स्त्री चाहे वह बालिका हो, युवा हो या वृद्धा, को कोई काम अपनी मर्जी से नहीं करना चाहिए। बचपन में उसे अपने पिता के नियंत्रण में रहना चाहिए, युवावस्था में अपने पति के नियंत्रण में और पति की मृत्यु के बाद अपने पुत्रों के नियंत्रण में” एवं ‘‘चाहे पति सदाचार से हीन हो, उसकी अन्य में आसक्ति हो, वह सद्गुणों से सर्वथा विहीन हो तब भी पतिव्रता स्त्री के लिए वह देवता के समान पूजित होता है”। 

यह पुस्तक लिंग और जाति को भी जोड़ती है। मनुस्मृति के अनुसार वह महिला, जो अपने से ऊंची जाति के पुरुष के साथ व्यभिचार करती है, किसी प्रकार के दंड की भागी नहीं है। वह स्त्री जो अपनी जाति से निम्न जाति के पुरुष के साथ व्यभिचार करती है उसे कारावास में रखा जाना चाहिए। और अगर कोई निम्न जाति का पुरुष उच्च जाति की महिला के साथ व्यभिचार करता है तो उसे मृत्युदंड दिया जाना चाहिए। 

यह पुस्तक केवल जाति, वर्ण और लिंग पर आधारित पदक्रम को ही नहीं वरन हर उस पद क्रम को उचित ठहराती है जिसका ब्राह्मणवाद अनुमोदन करता है। ऐसा दावा किया जाता है कि यह पुस्तक लिखी नहीं गई है वरन प्रकट हुई है और इसलिए उसे कोई चुनौती नहीं दी जा सकती। डॉ बीआर अम्बेडकर (राइटिंग्स एंड स्पीचेज खण्ड 3 पृष्ठ 270-71) के अनुसार यह पुस्तक 170-150 ईसा पूर्व में लिखी गई थी। यही वह दौर था जब ब्राह्मणवादी शासक पुष्यमित्र शुंग के नेतृत्व में बौद्ध धर्म और बौद्धों पर भीषण हमले हो रहे थे। यह पुस्तक कहती है कि वर्ण व्यवस्था दैवीय है।

बौद्ध धर्म, जो समानता के मूल्यों का हामी था, को उसके जन्म के देश भारत से मिटा दिया गया। इसके बाद से मनुस्मृति के नियम सदियों तक लागू रहे। औपनिवेशिक काल में देश में आधुनिक शिक्षा की शुरुआत हुई और अनेक समाज सुधार हुए। सावित्रीबाई फुले ने देश में पहली बार लड़कियों के लिए स्कूल खोला। फातिमा शेख उनके स्कूल में अध्यापिका थीं। सावित्रीबाई फुले को मनुस्मृति के प्रशंसकों और समाज के दकियानूसी तबके की आलोचना और कटु विरोध का सामना करना पड़ा। यहां तक कि जब वे अपने स्कूल जाती थीं तब उन पर कीचड़ और गोबर फेंका जाता था। आगे चलकर पंडिता रमाबाई और आनंदी गोपाल ने सामाजिक बंधनों और वर्जनाओं को तोड़ा और लैंगिक समानता की स्थापना की प्रक्रिया में अपना योगदान दिया।  

इसी के समांतर जोतिराव फुले और आगे चलकर अम्बेडकर के नेतृत्व में समाज में व्याप्त जातिगत भेदभाव के खिलाफ एक लंबा संघर्ष शुरू हुआ। इस संघर्ष ने महात्मा गांधी के नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन को मजबूती दी। अम्बेडकर, जो आगे चलकर संविधान की मसविदा समिति के अध्यक्ष बने, ने मनुस्मृति का सार्वजनिक रूप से दहन किया क्योंकि यह पुस्तक लिंग, जाति और वर्ण के आधार पर भेदभाव को उचित ठहराती थी। 

यह महत्वपूर्ण है कि उस समय के साम्प्रदायिक संगठनों, चाहे वे हिन्दुओं के हों या मुसलमानों के, में महिलाओं के लिए कोई जगह नहीं थी। इस समय देश का सबसे शक्तिशाली संगठन आरएसएस केवल पुरुषों का संगठन है। महिलाओं को अपने एजेंडे का हिस्सा बनाने के लिए संघ ने राष्ट्र सेविका समिति का गठन किया। इस संगठन के नाम से ही पितृसत्तामत्कता झलकती है- जहां पुरुष स्वयं सेवक हैं वहीं महिलाएं सेविकाएं हैं। महिलाओं के संगठन के नाम से ‘स्वयं’ शब्द गायब है। क्या मनुस्मृति यह नहीं कहती कि महिलाओं को हमेशा पुरुषों के नियंत्रण में रहना चाहिए? अन्य धार्मिक राष्ट्रवादियों का भी महिलाओं के प्रति यही नजरिया है। फिर चाहे वे मिस्र का मुस्लिम ब्रदरहुड हो या अफगानिस्तान का तालिबान।

भारत का संविधान हमारे स्वाधीनता संग्राम के मूल्यों को प्रतिबिंबित करता है। स्वतंत्रता के संघर्ष के समांतर देश में सामाजिक न्याय का संघर्ष भी चला। महिलाओं ने स्वाधीनता संग्राम में बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी की। इनमें शामिल थीं सरोजिनी नायडू, अरुणा आसफ अली, भीकाजी कामा, ऊषा मेहता आदि। इन सभी महिलाओं ने पितृसत्तामत्कता के बंधनों को तोड़कर आज़ादी की लड़ाई में खुलकर भाग लिया।

भारत सदियों से लिंग और जाति पर आधारित ऊंच-नीच को मानता आ रहा है। इससे मुक्ति पाने का संघर्ष लंबा और कठिन है। महिलाओं के अनेक संगठन और समूह इसके लिए आज भी संघर्ष कर रहे हैं। महिलाओं पर अत्याचारों के मूल में भी पितृसत्तामत्कता और उनका दोयम दर्जा है। 

हमें उम्मीद है कि विद्वान न्यायाधीश महोदया कम से कम फैसले सुनाते समय हमारे समाज में व्याप्त इस विषमता को ध्यान में रखेंगीं। उन्हें याद रखना चाहिए कि अम्बेडकर ने मनुस्मृति की प्रति जलाई और बाद में उन्हीं अम्बेडकर ने भारतीय संविधान का मसौदा तैयार किया। इससे ही हमारे संविधान के मूल्य साफ हो जाते हैं। हमें उम्मीद है कि हमारे जज और वकील और कानून पढ़ाने वाले शैक्षणिक संस्थान इस तथ्य को समुचित महत्व देंगे। 

(लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं। अंग्रेजी से हिंदी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया ने किया है।)

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