माकपा, जो कल तक एक ‘राजनीतिक-ध्रुवतारा’ के रूप में अलग से चमकती दिखाई दे रही थी और कम से कम चार दशकों से वामपंथी आंदोलन की अगआई करती चली आ रही थी, जिसके बूते देश भर में वामपंथी ताकतों की गोलबंदी की राजनीति के जरिए देश की मुख्यधारा की राजनीति को भी संतुलित करने में लगी थी, अब फिसड्डी साबित हो रही है। इस लिहाज से वामदलों से ज्यादा नुकसान तो देश की मौजूदा ‘लोकतान्त्रिक व धर्मनिरपेक्ष’ राजनीतिक व्यवस्था का होने जा रहा है। मौजूदा हालात ऐसे हो गए हैं कि, माकपा महासचिव सीताराम येचुरी के कांग्रेस से अत्यधिक “प्रेमालाप” की भी जगहंसाई होने लगी है। सुकून की बात ये है कि, उसी कांग्रेस-भाजपा से लड़ते हुए केरल में माकपा ने बहुत ही शानदार प्रदर्शन किया है।
आम लोग भी इस बात से इनकार नहीं करते कि केरल की पिनराई विजयन सरकार की पूरी टीम और खासकर पूर्व स्वास्थ्यमंत्री शैलजा ने जिस कार्य-कुशलता के साथ इस भयंकर कोरोना महामारी में भी अन्य गैर कम्युनिष्ट राज्यों की तुलना में मौत के आँकड़े को न्यूनतम स्तर पर बनाए रखते हुए जिस तरह गाँव व शहर के आमलोगों के घर-घर सरकारी राशन पहुँचाने, आम लोगों का अधिक से अधिक कोरोना टेस्ट कराने, और मुफ़्त टीकाकरण अभियान का कुशल प्रबंधन किया, उसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर (खासकर संयुक्त राष्ट्र संघ के स्वास्थ्य संस्था में भी) खूब वाहवाही मिली। कितना अच्छा होता जब पूर्व स्वास्थ्यमंत्री शैलजा के ‘कार्य-कुशलता’ को प्रोत्साहित करते हुए उन्हें केरल की पहली महिला मुख्यमंत्री बनाने का ऐतिहासिक साहस का परिचय माकपा ने दिया होता। लेकिन, पिनराई विजयन सरकार की दूसरी पारी की टीम को देखकर ऐसा लगता है जैसे माकपा की केन्द्रीय कमेटी ने केरल माकपा के अंदर के गुटों को साधने का प्रयास किया और उसे बारी-बारी से सत्ता में भागीदार बनाया।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर माकपा के अंतर्विरोध
वैश्विक स्तर पर समाजवादी सोवियत रूस के विघटन के बाद की दुनिया में अचानक ‘शक्ति-संतुलन’ में जो बदलाव आया उससे ‘अमेरिकी साम्राज्यवाद’ आक्रामक होता चला गया, जिसका भुक्तभोगी समाजवादी युगोस्लाविया, कम्युनिष्ट देश अफ़ग़ानिस्तान, अमेरिकी साम्राज्यवाद विरोधी धर्मनिरपेक्ष देश इराक, लीबिया, और सीरिया बने। कम्युनिष्ट चीन के खिलाफ अमेरिका के नेतृत्व में नव-साम्राज्यवादी (दक्षिणपंथी) गिरोह: भारत-आस्ट्रेलिया-जापान-दक्षिण कोरिया-ब्रिटेन अब चीन की चौतरफा घेराबंदी करने में सक्रिय हैं, जिसका शी जिनपिंग सरकार “सैन्य तरीके से मुकाबला” करना चाहती है। जाहिर है, नए ‘शीत-युद्ध’ की शुरुआत हो चुकी है।
एशिया और खासकर जापान के गुआम, आस्ट्रेलिया, और ताइवान में अमेरिकी सैनिकों और परमाणु हथियारों के जखीरे पहले के मुकाबले कई गुना अधिक जमा किये जा रहे हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कथित “ऑपरेशन ईस्ट ईगल” की घोषणा कर चीन के खिलाफ ‘गैर परंपरागत युद्ध’ का ऐलान कर दिया है। भारत की दक्षिणपंथी मोदी सरकार भी खुलकर अमेरिका के साथ खड़ी दिखाई दे रही है। यहां भी माकपा ‘साम्राज्यवादी ताकतों से लड़ने’ और कम्युनिष्ट चीन के पक्ष में खुलकर खड़े होने का साहस जुटा नहीं पा रही है, और चीन के खिलाफ मोदी सरकार के दुष्प्रचार का मुकाबला करने में न सिर्फ असमर्थ है, बल्कि, उसकी (छद्म राष्ट्रवाद की) जद में फंस चुकी है। विचार और राजनीति में अव्यवहारिक समझदारी के चलते आज कम्युनिष्ट आदर्श को बचाना एक बड़ी चुनौती है। हालांकि, चीन की कम्युनिष्ट पार्टी और उसका कथित साम्यवादी शासन पिछले तीन दशकों से ‘वैश्विक खुले पूंजीवादी बाजार’ में खुद को टिके/टिकाए रहने और अमेरिका से आगे बढ़ जाने की होड़ / प्रतिस्पर्धा में शामिल हो चुकी है।
अमेरिका और दूसरे “नव- साम्राज्यवादी ताकतों” के साथ चीन के बढ़ते टकराव अब ‘शीत-युद्ध’ का शक्ल अख्तियार कर चुका है। लेकिन, राजनीतिक व विचारधारात्मक स्तर पर चीन, भारत समेत अन्य देशों की कम्युनिष्ट पार्टियों ने “नव-साम्राज्यवादी ताकतों” की मुखालफत करने का अब तक बीड़ा नहीं उठाया है। दो हफ्ते तक इस्राइल की बेंजामिन सरकार द्वारा इकतरफा तरीके से फ़िलिस्तीन के शहर गाजापट्टी पर जिस तरह हवाई हमले कर सरेआम नरसंहार किये जा रहे थे, उसकी प्रतिक्रिया में कम्युनिष्ट नेताओं ने कुछ लेख और सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर टीका-टिप्पणियां करने के अलावा बड़े पैमाने पर कोई जन-अभियान नहीं चलाया।
साम्राज्यवादी-पूंजीवादी और कम्युनिष्ट समाजवादी ताकतों के बीच “शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व”, “शांतिपूर्ण प्रतियोगिता”, और “शांतिपूर्ण संक्रमण” के सिद्धांत तो “द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद अमेरिका द्वारा नाभिकीय परमाणु युद्ध कार्यक्रम पर खरबों डॉलर खर्च करने की सनक के जरिए दुनिया में अमेरिकी सैन्य-प्रभुत्व, व्यापार व वित्तीय (डॉलर) प्रभुत्व कायम करने, विकासशील देशों के पेट्रोलियम व गैस भंडार पर अमेरिकी नियंत्रण, और कम्युनिष्ट बढ़त को रोकने के मकसद से पूर्वी एशिया, मध्य पूर्व एशिया, दक्षिण व दक्षिण-पूर्व एशिया में परमाणु हथियारों से लैस लाखों अमेरिकी फौज की मौजूदगी के साथ अमेरिकी सैन्य अड्डा बनाने और इन देशों की अंदरूनी राजनीति में अमेरिकी सैन्य व कूटनीतिक हस्तक्षेप के बाद से” स्पष्ट रूप से खारिज किये जा चुके थे। 1990 के दशक से ही ‘सूचना व संचार क्रांति’ ने पूंजीवादी देशों की सरकारों को जनमत तैयार करने की अभूतपूर्व ताकत प्रदान किया है। दुष्प्रचार फैलाने वाले इस दैत्याकार साम्राज्यवादी-पूंजीवादी इलेक्ट्रॉनिक (भोंपू) मीडिया ने जनता के खिलाफ ‘मनोवैज्ञानिक-युद्ध’ छेड़ रखा है, जिसका मुकाबला करने में कम्युनिष्ट पार्टियां आज सक्षम नहीं हैं।
सिफारिश/सुझाव: वैसे तो कई मौके पर माकपा महासचिव सीताराम येचुरी बिना मांगे दूसरों के सुझाव/सलाह पर कभी कान नहीं देते। पार्टी व जनसंगठनों के क्रिया-कलापों के भेद को आज मिटा दिया गया है। ‘जनवादी-केन्द्रीयतावाद’ को जन-संगठनों पर भी लागू करने की खतरनाक प्रवृत्ति कहीं भी देखी जा सकती है। जहां तक माकपा के सिमटते जनाधार का सवाल है, उसे एक बार फिर से ‘जनता के बीच रह कर जनता के लिए आंदोलन’ खड़ा करने के जरिए हासिल किया जा सकता है।
मोदी सरकार की चौतरफा घेराबंदी करना राष्ट्रीय राजनीतिक दायित्व है
पिछले एक साल में मोदी सरकार ने ‘कोरोना महामारी’ के खतरे को गंभीरता से नहीं लिया जिसकी वजह से कोरोना की दूसरी वेब (20 मार्च से 20 मई 2021) के बीच भारत में कम से कम 42 लाख लोगों ने अपनी जानें गंवायीं (न्यू यार्क टाइम्स रिपोर्ट पर आधारित)। जरूरतमन्द संक्रमित मरीजों के लिए ऑक्सीजन आपूर्ति में बाधा, वेन्टिलेटरों और जीवन-रक्षक दवाइयों की कमी, ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं का खस्ताहाल, डाक्टरों, नर्सों और यहां तक की एंबुलेंस तक की कमी के चलते लाखों लोगों ने अस्पतालों से बाहर ही दम तोड़ दिए हैं। निकम्मी मोदी सरकार को घेरना ही होगा।
अर्थव्यवस्था का खस्ताहाल
लाकडाउन व तालाबंदी की वजह से 23 करोड़ मध्यवर्गीय परिवार अब गरीबी रेखा की कतारों में शामिल हो गए हैं। 25 करोड़ से ज्यादा रोजगार शुदा युवाओं ने अपने नौकरी/रोजगार खो दिए हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़/ इंजन समझे जाने वाले सरकारी प्रतिष्ठानों, सरकारी उद्योगों, सरकारी फ़र्मों/उपक्रमों/संस्थानों को एक-एक कर निजी पूंजीपतियों के हाथों कौड़ियों के भाव में बेचा जा रहा है।
महान आर्थिक मंदी और देश पर विदेशी कर्ज का बढ़ता बोझ
देश में पहले से ही विश्व बैंक का 82 लाख करोड़ रुपये का सरकारी कर्ज लदा हुआ है। भारतीय अर्थव्यवस्था जो 2008 से ही महान आर्थिक मंदी की चपेट में है, मोदी सरकार की पूंजीपति कारपोरेट-परस्त नीतियों की वजह से और पिछले एक साल से इस महामारी में लाकडाउन के चलते भी भारतीय अर्थव्यवस्था भयंकर अराजकता का सामना कर रही है। तो दूसरी तरफ, चीन-पाकिस्तान के विरोध के नाम पर युद्धोन्माद पैदा करने और देश को युद्ध जैसे हालात में रखकर देश की कथित सुरक्षा के नाम पर लाखों करोड़ डॉलर के युद्धक हथियार खरीदे जा रहे हैं जिससे सरकारी खजाने पर अनावश्यकरूप से न सिर्फ भारी दबाव पड़ रहा है, बल्कि, इस देश की 102 करोड़ गरीब जनता के बुनियादी स्वास्थ्य-शिक्षा सेवाओं और खाद्य-सुरक्षा पर भी असर पड़ा है। अर्थव्यवस्था को एक बार फिर से पटरी पर लाने के नाम पर मोदी सरकार के निर्देशानुसार रिजर्व बैंक द्वारा सरकारी बॉन्ड की खरीद की नई कवायद, जो भारत के कुल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 2.8 ट्रिलियन रुपये के मुकाबले 3.1 ट्रिलियन रुपये का नया कर्ज /उधारी लेना है। “कर्ज लेकर घी पीने के चार्वाक के दर्शन” के फॉलोवर इस मनमौजी मोदी सरकार के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर चौतरफा घेराबंदी की जानी चाहिए।
कर्जखोर मोदी सरकार बदहवास हो चुकी है
इस कोरोना महामारी के त्रासदी काल में भी प्रधानमंत्री मोदी ने अपने लिए दसियों हजार करोड़ रुपये की लागत से नया प्रधानमंत्री आवास, बीसियों हजार करोड़ रुपये की लागत से नया संसद भवन, अमेरिका से 17 हजार करोड़ डॉलर में मोदी ने अपने लिए दो लग्जरी हवाई जहाज खरीद कर 102 करोड़ गरीब जनता का मजाक उड़ाया है। माकपा को मुखरता के साथ इस मुद्दे पर मोदी सरकार की घेरेबंदी करनी चाहिए।
माकपा और किसान आंदोलन
पिछले 9 महीने से लगातार चले ‘किसान आंदोलन’ में पंजाब, हरियाणा, पश्चिम उत्तर-प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र जैसे राज्यों ने गौरवशाली इतिहास में अपना अपना नाम मोटे अक्षरों में प्रमुखता के साथ दर्ज किया है। हालांकि माकपा और अन्य वामपंथी दलों से जुड़े किसान-मजदूर-युवा संगठनों ने इस महान किसान आंदोलन में अग्रणी भूमिका अदा किया है। बहरहाल, वामपंथी प्रभाव वाले पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड और आंध्र-प्रदेश में उम्मीद के मुताबिक किसान आंदोलन को जो धार मिलनी चाहिए थी, कम से कम अभी तक वैसी धार देखने को नहीं मिली।
अब भी वक्त है, आंदोलन ही एकमात्र रास्ता है आगे बढ़ने का… जनता के बीच काम और संघर्ष करने के पुराने तौर तरीके को बदलना होगा। माकपा को शीर्ष पोलित ब्यूरो से लेकर निचली इकाइयों तक महिलाओं, दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों के सामाजिक पृष्ठभूमि से आये संघर्षशील जुझारू कार्यकर्ताओं / नेताओं को नेतृत्व सौंपना होगा।
कम्युनिष्ट पार्टियों के बीच आपसी अंतर्विरोध
आजादी के बाद कम्युनिष्ट आंदोलन के भीतर के सभी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय अंतर्विरोध (जिसके चलते कम्युनिष्ट पार्टियां 1964 और 1967 में विभाजित हुई थीं), अब अप्रसांगिक हो चुके हैं। इसलिए मौजूदा परिस्थितियों में कम्युनिष्ट पार्टियों व जनसंगठनों का एकीकरण ही एकमात्र रास्ता है, जिस रास्ते पर चलकर मजदूर-किसान आंदोलन में गति प्रदान की जा सकती है। माकपा को इसे गंभीरता से लेना चाहिए और इस दिशा में ठोस पहल करनी चाहिए।
हालिया पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे केंद्र की मोदी सरकार से मोहभंग होने को दिखाता है। केरल और तमिलनाडु की जनता ने दो-टूक ढंग से मोदी सरकार के खिलाफ जनादेश दिया है। तमिलनाडु के लोकप्रिय नेता स्टालिन और केरल के लोकप्रिय नेता पिनराई विजयन के नेतृत्व में “राष्ट्रीय मोर्चा” बनाने की दिशा में माकपा को अब बिना कोई वक्त गंवाए मोदी सरकार के खिलाफ राष्ट्रव्यापी जनअसंतोष को संगठित करने की ठोस पहल करनी चाहिए।
(अखिलेश चंद्र प्रभाकर तीसरी दुनिया के सामाजिक नेटवर्क्स के निदेशक हैं।)
समाप्त।