बात ज्यादा पुरानी नहीं है। भीम आर्मी के चीफ चन्द्रशेखर रासुका के तहत जेल में बंद थे। सत्ता द्वारा उनके इस उत्पीड़न के खिलाफ लखनऊ में एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया। वहां पर भीम आर्मी के तत्कालीन प्रवक्ता ने उपस्थित लोगों को संबोधित करते हुए कहा कि अगर दलितों के साथ मुसलमान खड़ा हो जाए तो यह ताकत ब्राम्हणवाद और संघ को पराजित कर सकती है, लोकतंत्र और संविधान को बचा सकती है। उनके कहने का कुल सार यह था कि अगर मुसलमानों का वोट दलितों को मिल जाए तो दलित सत्ता पर कब्जा करके सामाजिक न्याय, सत्ता में भागीदारी पा सकता है। हालांकि वह इस बात को बहुत साफगोई से साबित नहीं कर पाए कि दलित-मुस्लिम एकता के इस प्रयोग से मुसलमानों को क्या फायदा होगा और उन्हें दलितों के साथ ही क्यों आना चाहिए?
वह केवल एक ही रट लगाए रहे कि दलित और मुस्लिम दोनों ही पीड़ित हैं और यही उनकी एकता का आधार है। इस सवाल पर कि आखिर सामाजिक न्याय की राजनीति, सत्ता में भागीदारी के सवाल पर मुसलमानों और खासकर पसमांदा मुसलमानों के लिए कोई जगह किस प्रकार से है- वह कोई साफ जवाब नहीं दे पाए। यह पूछे जाने पर कि क्या वह दलितों के आरक्षण में बंटवारा करके पसमांदा मुसलमानों के लिए भी उसमें जगह चाहते हैं- पर कोई जवाब नहीं था। भीम आर्मी को मैं जितना समझ पाया हूं वह अपनी जाति पर ’गर्व’ करने वाला एक ऐसा संगठन है जिसे उत्तर प्रदेश में मायावती के कमजोर होने के बाद दलित समुदाय में उपजी राजनैतिक शून्यता को भरने की जल्दी है। उनका पूरा राजनैतिक ढर्रा कांशीराम से बहुत प्रभावित है। दलित-मुस्लिम एकता पर उनके विचार भी बसपा के सियासी प्रयोग से बहुत हद तक प्रभावित हैं। हालांकि इस आलेख में भीम आर्मी और उसकी कार्यविधि बहस का कोई विषय नहीं है।
गौरतलब है दलित-मुस्लिम एकता जैसी शब्दावली उत्तर प्रदेश में मंडल कमीशन के दौर में आती है जब कांशीराम बसपा के बैनर तले दलितों को जाति के आधार पर संगठित कर रहे थे। मंडल कमीशन के पहले दलित और मुसलमान उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का बेस वोटर हुआ करता था। हालांकि विभाजन के बाद खुद को गुनहगार ठहराए जाने की हीन ग्रंथि से मुसलमान बाहर नहीं निकल पाया था लेकिन वह संघ के खतरों से अंजान नहीं था। यही कारण है कि संघ हमेशा इस प्रयास में रहा कि कांग्रेस से दलित और मुसलमानों को किस तरह से दूर किया जाए ताकि उसके एजेंडे पर प्रगति हो सके। हिंदू राष्ट्र के उसके एजेंडे के लिए इन दोनों का कांग्रेस से दूर जाना बहुत जरूरी था। सबसे पहले कांशीराम के नेतृत्व में कांग्रेस से दलितों को दूर करने का प्रयोग हुआ और बाद में दलित मुस्लिम एकता का सांप्रदायिक प्रयोग भी किया गया। संघ इसमें सफल रहा और उत्तर प्रदेश में कांग्रेस हाशिए पर चली गई।
संघ के पेड दलित बौद्धिक-सियासी लोगों ने मुसलमानों की हर समस्या के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराया और मुसलमानों को प्रगति के लिए दलित राजनीति के साथ खड़े होने के सब्जबाग दिखाए। इससे कांग्रेस से दलित और मुस्लिम दोनों दूर हो गए। इसके लिए सामाजिक न्याय का नारा भी बुलंद किया गया। सामाजिक न्याय के नारे के नाम पर दलितों और मुस्लिमों के सियासी गठजोड़ से सत्ता की मलाई भले ही दलितों को मिल गई लेकिन मुसलमानों को इस गठजोड़ का कोई फायदा नहीं हुआ। इस प्रयोग से उत्तर प्रदेश में एक तरफ कांग्रेस कमजोर हुई तो दूसरी तरफ इस वोट से मजबूत दलों ने फासीवाद की सेवा में दंडवत करके सांप्रदायिकता और फासिज्म को मजबूत करके लोकतांत्रिक ढांचे को बहुत नुकसान पहुंचाया। वोट लेने के बाद इस राजनीति ने मुसलमानों के लिए कुछ उल्लेखनीय किया हो- ऐसा कहीं नहीं दिखता। पसमांदा मुसलमानों को भी सत्ता में भागीदारी नहीं मिली। मुसलमान हाशिए पर धकेल दिया गया।
हालांकि इस बदले दौर में दलितों के साथ मुसलमानों को आना चाहिए- का यह प्रयोग किसके फायदे के लिए किया गया था और इसका नुकसान किसे हुआ- इस पर निर्मम विमर्श की आवश्यकता है। दरअसल सामाजिक न्याय, जो प्रकारांतर से व्यक्ति केन्द्रित जातीय अस्मिता के सहारे फासीवाद और सांप्रदायिकता को मजबूत करने की संघी राजनीति थी- ने भाजपा को बहुत ज्यादा फायदा पहुंचाया है। इस अस्मिता के कारण एक तरफ कांग्रेस कमजोर हुई तो दूसरी तरफ मुसलमानों को भी सियासी तौर पर अलग थलग कर दिया गया। इससे निश्चित तौर पर हिन्दुत्व की राजनीति को फायदा मिला। मुसलमानों की सियासी हैसियत शून्य हो गई और सत्ता सांप्रदायिक गिरोहों तक पहुंच गई। जब तक कांग्रेस के साथ मुसलमान था तब तक भाजपा उत्तर प्रदेश में जगह नहीं बना सकी। दलितों के साथ मुसलमानों को आना चाहिए का नारा मूलतः संघ के एजेंडे का एक विस्तार था जिसका मोहरा कांशीराम और मायावती जैसे लोग थे।
लेकिन, बदले दौर में जब संघ और उसकी सांप्रदायिक नीतियों का नंगा नाच सड़क पर दिख रहा है तब सवाल यह है कि आखिर दलितों के साथ ही मुसलमानों को क्यों खड़ा होना चाहिए? आखिर दलित राजनीति यह नारा क्यों नहीं लगाती कि दलितों को मुस्लिमों के साथ आना चाहिए। आखिर दलितों में इस अविश्वास की क्या वजह है? आखिर क्या कारण है कि दलित राजनीति मुसलमानों को सत्ता की बागडोर देने में हिचकती है? आखिर वह यह क्यों मानती है कि मुसलमानों का काम केवल वोट देना है सत्ता में आना नहीं? आखिर यह अविश्वास किसके हित में खड़ा है?
सवाल यह भी है कि आखिर दलितों को वोट करके मुसलमानों ने सियायी रूप से क्या हासिल किया? क्या इस गलती का पुनरावलोकन नहीं होना चाहिए? क्या लोकतंत्र को इस प्रयोग से कोई मजबूती मिली या फिर केवल नुकसान हुआ? आखिर दलितों के साथ मुसलमानों के खड़ा होने से ही दलित मार्का सामाजिक न्याय की राजनीति क्यों मजबूत होगी? आखिर मुसलमानों के साथ अगर दलित खड़ा हो जाए तो इससे सामाजिक न्याय की इस राजनीति को क्या खतरा हो सकता है? सामाजिक न्याय में भागीदारी का सवाल अगर अहम है तब इस राजनीति ने मुसलमानों को कितनी हिस्सेदारी दी है?
दरअसल अपने पूरे चरित्र में सामाजिक न्याय की दलित राजनीति कभी मुसलमानों के लिए ईमानदार नहीं रही। यह राजनीति जाति का मुखौटा लगाए एक सांप्रदायिक गिरोह था जिसने संघ के एजेंडे को पूरा करने के लिए मुसलमानों को सियासी तौर पर कमजोर करके उसका भयादोहन किया। यह गिरोह मुसलमानों को सिर्फ एक वोट करने वाला दयनीय प्राणी समझता है। वह नहीं चाहता कि मुसलमान कभी भी लोकतंत्र की मुख्यधारा में आएं इसलिए दलितों के साथ मुसलमान खड़ा हो का शातिर नारा दिया गया।
यह सब संघ के धूर्त एजेंडे को पूरा करता था। जैसे संघ मुसलमानों पर यकीन नहीं करता वैसे ही दलित राजनीति मुसलमानों की देशभक्ति में संदेह करती है। दलित राजनीति ने मुसलमानों का वोट लेकर उन्हें सिर्फ भय, धोखा, अविश्वास और सांप्रदायिक हिंसा उपहार में सौंपी है। इस प्रयोग से हिंदी बेल्ट में भाजपा बहुत मजबूत हुई और इसके लिए इन नारों पर मुसलमानों का यकीन करना भी बहुत हद तक जिम्मेदार था।
इसलिए अब वक्त है कि मुसलमान अपनी पुरानी जगह पर वापस लौटें और संघ के एजेंडे को नकारते हुए धोखेबाज दलित राजनीति को मुर्दाघाट का रास्ता दिखाकर देश को फासीवाद की प्रयोगशाला बनने से बचाए। यह उसकी ऐतिहासिक जिम्मेदारी है। वह सामाजिक न्याय के फ्राॅड लोगों से कहे कि दलितों के साथ मुसलमान नहीं खड़ा होगा। फिर अगर सामाजिक न्याय की यह दलित राजनीति वाकई सेक्यूलर और ईमानदार है तो उसे इस नारे से आगे आगे आकर मुसलमानों के नेतृत्व में लोकतंत्र की मजबूती पर काम करना चाहिए? क्या जाति के गिरोहबाज ये सांप्रदायिक लोग ईमानदारी से इतना साहस कर पाएंगे?
हरे राम मिश्र
(लेखक उत्तर प्रदेश कांग्रेस में कार्यकर्ता हैं।)
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