दलित स्त्री-2: आंबेडकर के आंदोलन में शामिल हुईं कई दलित स्त्रियां

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इस समस्त कवायद का उद्देश्य यही है यह बात अच्छी तरह साफ़ हो कि जिसे हम भारतीय सन्दर्भ में पितृसत्ता कहते है वो केवल पितृसत्ता नहीं है वो असल में ‘ब्राह्मणीय पितृसत्ता’ है। ब्राह्मणीय पितृसत्ता ही असल में इस असमानता पर आधारित अन्यायी और शोषक समाज व्यवस्था का रक्त है ‘ब्राह्मणीय पितृसत्ता’ को परिभाषित करते हुए आकाश सिंह राठौर और सुनैना आर्य लिखते हैं–

“वर्तमान में भारत में क्रियाशील पितृसत्ता ‘ब्राह्मणीय पितृसत्ता’ से प्रभावित है। इस शब्दावली को डॉ आंबेडकर ने ईजाद किया ये एक संरचनात्मक अवधारणा है जिसे स्तरबद्ध असमानता भी कहा जाता है। जो भेदभावपूर्ण स्तरों के एक समुच्चय को समझाते हुए पितृसत्ता की एक विशिष्ट पद्धति की व्याख्या करती है जो जाति पर आधारित समाज के एक पदानुक्रमित समाज का गठन करती है। जो भारतीय उपमहाद्वीप में ही पाया जाता है।

इस कपटपूर्ण संरचना में ही ये निहित है कि चुनौती के लिए असंभव प्रतीत होने वाले उच्च जाति के पुरुष यहां सबसे अधिक विशेषाधिकार प्राप्त हैं। उच्च जाति की महिलाएं अधिक विशेषाधिकार प्राप्त हैं। निचली जाति के पुरुष अधिक वंचित हैं। निचली जाति की महिलाएं सबसे अधिक वंचित हैं। अन्य सभी लोग व्यवस्था के भीतर अपनी जाति और लिंग के लोकेशन के आधार पर इन फ़्रेमों के बीच अपना स्थान पाते हैं। इस व्यवस्था में निचली जाति की स्त्रियां तीन स्तरों पर सबसे अधिक हिंसा का शिकार होती हैं।

1.जाति – उच्च जाति के हाथों में जाति आधारित हिंसा 2. वर्ग – मजदूर वर्ग की सदस्य के रूप में उच्च वर्ग के हाथों वर्गीय हिंसा जहां भूस्वामियों का बड़ा हिस्सा उच्च जातियों से ही आता है और 3. जेंडर – स्त्रियों के रूप में जेंडर आधारित हिंसा जहां वे अपनी जाति के पुरुषों सहित सभी पुरुषों के हाथों पितृसत्तात्मक उत्पीडन का अनुभव करती हैं। (सन्दर्भ: दलित फेमिनिस्ट थ्योरी सम्पादक सुनैना आर्या/आकाश सिंह राठौर पृष्ठ 8, अनुवाद लेखक)

अब जबकि हम विद्वानों द्वारा किये गये ‘ब्राह्मणीय पितृसत्ता’ के सैद्धांतिक निरूपण के क़रीब पहुंच गए है, तो मैं पाठकों का ध्यान इस लेख में पहले आये इस वाक्य की दिलाना चाहता हूं कि दलित स्त्री जाति और पितृसत्ता को समझने की कुंजी हो सकती है। दलित स्त्री तीन किस्मों की, निःसंदेह एक दूसरे में अधिव्याप्त वर्चस्वों से आने वाली संस्थागत हिंसा का केन्द्रित लक्ष्य हैं और हमने देखा कि जाति व्यवस्था के तीन मुख्य अभिलक्षण या विशेषताएं हैं। अंतरविवाह, पदानुक्रम आधारित वंशानुगत पेशे और आपेक्षिक अशुद्धता।

दलित स्त्री इस समूची व्यवस्था की ‘अशुद्धतम’ लोकेशन है। आंबेडकर ने जिस बहुमंजिला इमारत को हमारे सामने नुमाया किया है उसके सबसे नीचे तल में दबी हुई है दलित स्त्री, समस्त तलों का भार अपने सर पर उठाये, समस्त तलों की गंदगी, गालियों, कुंठाओं, हिंसा, यौन हिंसा, वर्ग हिंसा, मर्दवादी हिंसा की सबसे आसान शिकार जिसके लिए समाज हिंसक है तो राज्य और कानून तक पहुंच उसके लिए सबसे मुश्किल काम है क्योंकि राज्य की संस्थाओं पर ऊपर के तलों के मर्दों का कब्जा है। दलित स्त्री जिसकी वास्तविकताओं तक ‘मुख्य धारा’ का साहित्य आज तक पहुंच नहीं पाया, जिसके जीवन की गुत्थियों या मनोविज्ञान की जड़ों को बौद्धिक अभी नहीं समझ पाए हैं या कहा जा सकता है कि इस ओर पर्याप्त ध्यान भी नहीं दे पाए हैं।

दलित स्त्री जिसकी संरचनात्मक संकटग्रस्तता इतनी अनूठी है कि जिससे अन्य तलों की पितृसत्तात्मक शोषण झेलती स्त्रियां भी अपने तलों के पूर्वाग्रहों और विशेषाधिकारों के चलते साथ पीड़ा या संघर्ष साझा नहीं कर पातीं हैं बल्कि कई बार उनके जातीय और वर्गीय उत्पीड़न में शामिल रहती हैं। दलित स्त्री अपने तल के भीतर परिवार नाम की संस्था का भी भार उठाती है। और यहां पितृसत्ता के कुछ अलग रूप का सामना करती है, जिसे ‘दलित पितृसत्ता’ कहना कितना अनुचित है इसे हम आगे देखेंगे।

दलित स्त्री समाज के ब्राह्मणीकृत होते चले जाने की प्रक्रिया में सबसे अधिक दबाव का सामना करती है। क्योंकि इससे उसकी अपनी लोकेशन की एक ख़ास स्वायत्तता समाप्त हो जाती है। इस ख़ास स्वायत्तता और दलित तल की विशिष्ट पितृसत्ता पर हम आगे कुछ विचार करेंगे।

दलित स्त्री: आधुनिकता के प्रकाश में दलित स्त्री की पहचान और उसकी विशिष्ट संरचनागत संकटग्रस्तता

इस लेख की शुरुआत में ‘दलित स्त्री’ नाम की सामाजिक कोटि के निर्माण के लिए ज़िम्मेदार; दो कारकों की बात की गयी है एक है जाति और दूसरी है आधुनिकता। दलित स्त्री के सन्दर्भ में जाति का हम ‘ब्राह्मणीय पितृसत्ता’ के रूप में सैद्धांतिक निरूपण का प्रयास कर चुके हैं। अब आधुनिकता पर विचार करते हैं। असल में ‘दलित स्त्री’ अपने विशिष्ट अर्थों में एक आधुनिक अवधारणा है। ब्राह्मणीय पितृसत्ता जहां पूरी संरचना में दलित स्त्री की विशिष्ट भौतिक स्थिति का निर्माण और संरचनात्मक संकटग्रस्तता तय करती है वहीं आधुनिकता हमें वो सम्यक नज़र देती है, जिससे हम इस विशिष्ट अवस्थिति यानि ‘दलित स्त्री’ की शिनाख्त कर पाते हैं।

इस अर्थ में दलित स्त्री एक आधुनिक अवधारणा है, हिंदी सिनेमा की ‘अछूत कन्या’ या ‘बन्दिनी’ दलित जाति की स्त्री होते हुए भी ‘दलित स्त्री’ नहीं है। क्योंकि दलित शब्द के सबसे भीतर समाये सबसे ज़रूरी तत्व यानि प्रतिरोध का उसमें अभाव है। उसका निरूपण आधुनिक दलित स्त्री के बतौर नहीं किया गया है।

यहां पर गौर करना ज़रूरी है कि ये समय या कालखंड का सवाल नहीं है बल्कि नज़र का सवाल है। क्योंकि जिस समय मुख्यधारा का हृदय परिवर्तन पर ज़ोर देने वाला सवर्ण केन्द्रित सिनेमा दलित स्त्री को इस गैरआधुनिक नज़र (जो कि खुद आधुनिकता से अछूती नहीं बल्कि प्रभावित है लेकिन उसकी संस्कारगत सीमाएं आधुनिकता पर हावी हैं) से प्रस्तुत कर रहा है उससे काफ़ी पहले आधुनिक नज़र से देखे जाने लायक दलित स्त्री का अस्तित्व और संघर्ष नंगेली और मुक्ता साल्वे जैसी दलित स्त्रियों (नंगेली औपचारिक रूप से दलित जाति की स्त्री न होकर संभवतः पिछड़ी जाति की स्त्री हैं। लेकिन वो फूलन की तरह ही दलित स्त्री और संघर्ष का प्रतीक हैं।) के रूप में हमारे सामने मौजूद है। तो यहां इस बात को समझना और समझाना ज़रूरी है कि ‘दलित स्त्री’ पर विचार करने का उद्देश्य केवल उसकी सैद्धांतिक नहीं है।

बल्कि आधुनिकता के प्रकाश में इस समूचे अन्यायी स्ट्रक्चर को बदलने में उसकी अनिवार्य नेतृत्वकारी भूमिका की सम्भावनायें तलाशना भी है। और साथ ही इस पूरी प्रक्रिया में यह भी देखना है कि ब्राह्मणीय पितृसत्ता और आधुनिकता के बीच की अन्योन्य क्रियाएं दलित स्त्री की रेडिकल संभावनाओं को किस तरह आकार देती हैं या क्षीण करती हैं।

पहले हम दलित स्त्रियों की संरचनागत संकटग्रस्तता को समझने के लिए किये गये एक विस्तृत अध्ययन के निष्कर्षों पर एक नज़र डालते हैं।

‘नेशनल कैंपेन ऑन दलित ह्यूमन राइट्स’, ‘नेशनल फेडरेशन ऑफ़ दलित वीमेन’ और ‘इंस्टिट्यूट ऑफ़ डेवलपमेंट एजुकेशन, एक्शन एंड स्टडीज’ द्वारा संयुक्त रूप से 2006 में प्रकाशित रिपोर्ट ‘दलित वीमेन स्पीक आउट: वायलेंस अगेंस्ट दलित वीमेन इन इंडिया’ भारत के राज्यों चार आन्ध्र प्रदेश, बिहार, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश की पांच सौ दलित स्त्रियों पर किये गए व्यापक सर्वे का नतीजा है ये रिपोर्ट बहुत ही भयानक तस्वीर दिखाती है।

रिपोर्ट दिखाती है कि लगभग 80 प्रतिशत दलित स्त्रियां ग्रामीण भारत में रहती हैं। जहां दलितों की गरीबी का प्रतिशत (36.2) है जो सामान्य (21.6) से काफ़ी अधिक है अध्ययन के अनुसार-

“गरीबी और खेती योग्य भूमि की कमी के चलते अधिक से अधिक दलित स्त्रियों को मजदूर के रूप में शारीरिक कार्य में शामिल होने के लिए मजबूर होती हैं, जिससे वे सार्वजनिक स्थानों पर सामान्य वर्ग की हिंसा के लिए आसानी से उपलब्ध हो जाती हैं। राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में एक प्रमुख कार्यबल के रूप में दलित महिलाओं का योगदान मुख्य और मार्जीनल श्रमिकों दोनों रूपों में उनकी अधिक भागीदारी 25.98% के माध्यम से एकदम स्पष्ट है जो कि गैर अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति की महिलाओं की भागीदारी 18.96% की तुलना में उल्लेखनीय रूप से अधिक है।

आंध्र प्रदेश के गुंटूर जिले में एक माइक्रो लेवल के अध्ययन के अनुसार लगभग 89.9% दलित स्त्रियां कुछ न कुछ उत्पादक श्रम ज़रूर करती हैं। दलित लड़कियां अपने गैर दलित समकक्षों की तुलना में कम उम्र में ही काम करना शुरू करती हैं। उदाहरण के लिए तमिलनाडु में 1991 में 5 से 14 वर्ष की आयु की अनुसूचित जाति की लड़कियों के लिए कार्य भागीदारी दर 26.81% और 15 से 19 वर्ष की आयु की लड़कियों के लिए 47.201% थी, जबकि गैर अनुसूचित जाति की लड़कियों के लिए कार्य भागीदारी दर 5 से 14 वर्ष की आयु 4.68% थी। और 15 से 19 वर्ष की लड़कियों के लिए यह दर 29.61 प्रतिशत थी” (स्रोत: उपरोक्त, वोल्यूम-1, पृष्ठ 7, अनुवाद- लेखक)

यह रिपोर्ट साफ़ साफ़ दिखाती है कि अधिक मेहनत वाले शारीरिक कार्यों अस्वच्छ पेशों और जोख़िम से भरी उत्पादन की गतिविधियों के निम्नतम स्तरों पर दलित स्त्रियां कम उम्र में ही शामिल होने को मज़बूर होती हैं।

“अनुसूचित जाति की स्त्रियों का मुख्य श्रमिकों के रूप में भारी बहुमत 85.93 प्राथमिक क्षेत्र की कृषि संबद्ध गतिविधियों, खनन उत्खनन में केंद्रित है, इनका केवल 6.77% ही द्वितीयक जैसे विनिर्माण प्रसंस्करण सर्विसिंग में पाया जाता है। और तृतीयक क्षेत्र (सेवाएं वाणिज्य, परिवहन, संचार) में 7.3% जो कि और भी कम है। गैर अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति की स्त्री श्रमिक लगभग 76.6% प्राथमिक क्षेत्र में कार्यरत हैं। 9.59% माध्यमिक क्षेत्र में कार्य कर रही हैं और 13.75% तृतीयक क्षेत्र में, (साथ ही) कृषि क्षेत्र में ग्रामीण दलित स्त्रियों के 71.09% ने अपने आप को प्राथमिक तौर पर खेत मज़दूर के रूप में दर्ज़ किया जबकि गैर दलित स्त्रियों के केवल 1.67% ने अपने आप को इस श्रेणी में माना।

प्राथमिक क्षेत्र में अधिकांश ग़ैर एससी, एसटी ग्रामीण महिला श्रमिकों ने खुद को 42.64% कृषक के रूप में वर्गीकृत किया जो उनकी उच्च आर्थिक स्थिति को दर्शाता है। दलित महिलाएं अपनी निचली जाति की स्थिति के कारण कुछ ख़ास कार्यक्षेत्रों में भी काम करती हैं। सार्वजनिक स्वच्छता मैला ढोना और चमड़े का काम जैसे पारंपरिक व्यवसाय ज्यादातर उन्हीं के हाथों में रहते हैं, वे घरेलू श्रम क्षेत्र में (बतौर श्रमिक) 30 से 50% कार्यबल का योगदान करती हैं। (सन्दर्भ: उपरोक्त, वोल्यूम- 1, पृष्ठ 7, अनुवाद- लेखक)

इस तरह ये रिपोर्ट आंकड़ों के आधार पर दिखाती है कि दलित फेमिनिस्ट बुद्धिजीवियों द्वारा उद्घाटित दलित स्त्री की वर्ग जाति और जेंडर के विविध आयामों में व्याप्त संरचनात्मक संकटग्रस्तता कितनी वास्तविक विस्तृत गहरी भयावह और परेशान करने वाली है। दलित स्त्री की संरचनागत गुलामी के भौतिक आधार को ठीक से सामने लाते हुए रिपोर्ट आगे दलित स्त्री के विरुद्ध होने वाली हिंसा के पैटर्न, प्रकार, मनोविज्ञान, रिपोर्टिंग, रिस्पांस, पुलिस, क़ानून, न्याय व्यवस्था वर्चस्व की शक्तियों के क्रूर गठजोड़ की विस्तृत पड़ताल करती है। और साथ ही दलित स्त्रियों के शानदार साहसिक प्रतिरोध और पलटवार को भी सामने लाने का काम करती है।

आंध्रप्रदेश की नक्का कृष्णम्मा का आक्रोश देखें- “कमीनों ! तुमने अपने पैसे बचाने के लिए सिचाई के पम्प की कभी मरम्मत नहीं की और अब तुमने मेरे पति की जान ले ली है। मुझे तुम्हारी लापरवाही की क़ीमत चुकानी पड़ रही है और अब तुम मेरा हक मांगने के लिए मुझे पीट रहे हो। अब मैं थाने जाऊंगी और शिकायत दर्ज कराऊंगी”(सन्दर्भ: उपरोक्त, वोल्यूम- 1, पृष्ठॉ- 161, अनुवाद- लेखक)।

  1. यह रिपोर्ट दलित स्त्री के विरुद्ध हिंसा के प्रकारों में मौखिक हिंसा या गाली गलौच, शारीरिक हिंसा व्यक्तिगत और सामूहिक तौर पर की गई हिंसा (मसलन जोगिनी दलित स्त्री के खिलाफ़ या चुड़ैल बताकर की हिंसा/हत्या) यौन दुर्व्यवहार, यौन हिंसा, बलात्कार, नग्न करना, कपड़े फाड़ना, वैश्यावृति के लिए बाध्य करना, अपहरण करना, कैद किया जाना, स्वास्थ्य सम्बन्धी मदद का अभाव, कन्या भ्रूण हत्या, बच्चियों के साथ दुर्व्यवहार घरेलू हिंसा, दलित पुरुषों में नशाखोरी जैसी कई समस्याओं पर बात करती है। इन हिंसाओं के वल्नेरेबिल्टी फैक्टर्स को सामने लाती है। दलित स्त्रियों पर इनका शारीरिक मानसिक भावनात्मक मनोवैज्ञानिक और सामाजिक प्रभावों को दिखाती है।

दलित स्त्रियों द्वारा हिंसा के प्रतिरोध और न्याय पाने की कोशिश किये जाने पर समाज और व्यवस्था (पुलिस/प्रशासनिक/न्यायिक) द्वारा सामने लाई गई अड़चनों को नुमाया करती है।

दलित स्त्री: संघर्ष की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

दलित स्त्रियों के संघर्ष के विविध रूप और उनकी ऐतिहासिकता पर केन्द्रित बात करने से पहले हम आधुनिक दलित संघर्ष के भीतर स्त्री सवाल की प्रासंगिकता को समझने का प्रयास करते हैं।

पहले हम देख चुके हैं कि बीसवीं सदी में दलित मुक्ति के सबसे प्रासंगिक सिद्धांतकार और एक्टिविस्ट आंबेडकर ने अपने बौद्धिक क्रियाकलापों की शुरुआत में ही स्थापित किया था कि भारत में जाति और पितृसत्ता एक ही साथ काम करते हैं और उनकी यही समझदारी उन्हें विचारक एक्टिविस्ट के रूप में स्त्री स्वतन्त्रता के प्रोजेक्ट से जोड़ देती है, स्त्री मुक्ति विषयक उनकी सक्रियता में ‘हिन्दू नारी का उत्थान और पतन’ व ‘रिडल्स ऑफ़ हिम्दुइस्म’ ‘ऐन्निहिलेशन ऑफ़ कास्ट’ जैसे विचारोत्तेजक प्रबंध सामने आते हैं, जिनमे पहले दो प्राचीन भारतीय समाज और ब्राह्मण धर्मग्रन्थों के विश्लेषण से ब्राह्मणीय पितृसत्ता के सांस्कृतिक आधार को उद्घाटित करते हैं तो ‘एन्नीहिलेशन ऑफ़ कास्ट’ किताब ब्राह्मणीय पितृसत्ता के सांस्कृतिक आधार को डायनामाईट से उड़ाने की बात करती है।

संवैधानिक और विधिक रास्ते से पहले बॉम्बे लेजिस्लेटिव कौंसिल के मेम्बर के रूप मुंबई में बाद में श्रम सदस्य के रूप में ब्रिटिश इण्डिया में कामगार स्त्रियों के लिए सवैतनिक मातृत्व अवकाश व्यवस्था कराते हैं। जैसा कि ऊपर उद्धृत रिपोर्ट से साफ़ है कि कामगार स्त्रियों के रूप में संगठित क्षेत्र की दलित स्त्रियों को मातृत्व अवकाश के प्रावधानों का सिद्धांत रूप में सबसे अधिक लाभ मिलना था।

लैंगिक न्याय के मसले में आंबेडकर की समझदारी तब अपने समय से काफ़ी आगे दिखती जब वे यौन विषयों पर जागरूकता फैलाने वाली पत्रिका ‘समाज स्वास्थ्य’ के सम्पादक रघुनाथ दोंडो कर्वे के बचाव में एक वकील के रूप में समलैंगिकों के अधिकारों का समर्थन करते हैं।

संवैधानिक और विधिक प्रावधानों के ज़रिये ब्राह्मणीय पितृसत्ता पर सबसे बड़ी चोट आंबेडकर ने स्वतंत्र भारत के विधि मंत्री के बतौर तब पहुंचानी चाही जब वे हिन्दू कोड बिल को किसी भी तरह सदन में पास कराने के लिए कृतसंकल्प हो गये। हिन्दू कोड बिल में अंतरजातीय विवाह की मान्यता, स्त्री का सम्पत्ति में अधिकार, स्त्री को भी तलाक़ का अधिकार, आदि प्रावधान थे जो सीधे-सीधे ब्राह्मण धर्म की बुनियाद यानि ब्राह्मणीय पितृसत्ता पर चोट करते थे।

सदन के बाहर और भीतर बिल का ज़बरदस्त विरोध हुआ और बिल गिर गया। आंबेडकर ने इस्तीफ़ा दे दिया। हमें आंबेडकर कि नज़र से ध्यान रखना चाहिए कि जाति व्यवस्था का नाश स्त्री मुक्ति और दलित स्त्री मुक्ति तीनों जुड़े हुए हैं तो इस बिल का विरोध होना ही था उस समय के कुछ बयानों पर एक नज़र डालना इस लिहाज़ से उपयोगी होगा कि हमें आज की सामाजिक गतिकी के सापेक्ष दलित स्त्री, स्त्री और जाति की स्थिति का अनुमान हो सके-

“मुझे यह समझ नहीं आता कि धर्म को इतना व्यापक सर्वसमावेशी अधिकार क्यों दे दिया जाता है, कि पूरा जीवन यहां तक कि विधायिका भी उसके दायरे में प्रवेश नहीं कर पाती”- आंबेडकर (सन्दर्भ CAD, 1948, से संदर्भ भीमराव आंबेडकर एक जीवनी, क्रिस्टोफर जैफरलॉ पृष्ठ 139)। “नए विचार और नई अवधारणायें ना केवल हिन्दू क़ानून के लिये पराये हैं बल्कि प्रत्येक परिवार को तोड़ने वाले हैं”- राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद, पटेल को लिखे पत्र में (संदर्भ सरदार पटेल के पत्र, डी दास, से संदर्भ भीमराव आंबेडकर एक जीवनी, क्रिस्टोफर जैफरलॉ पृष्ठ 140)। “यह कानून 1951-52 के आम चुनावों में स्थानीय प्रभुओं और मुख्य रूप से जमींदारों को कांग्रेस पार्टी से दूर कर सकता है”- पट्टाभि सीतारमैया कांग्रेस अध्यक्ष (संदर्भ भीमराव आंबेडकर एक जीवनी, क्रिस्टोफर जैफरलॉ पृष्ठ 140)।

“कृष्ण और राधा का विवाहेतर संबंध दिखाता है कि हिन्दू धर्म में महिलाओं को कितनी अपमानजनक स्थिति में रखा जाता है” आंबेडकर (बिल के पक्ष में बोलते हुए CAD 1948, से भीमराव आंबेडकर एक जीवनी, क्रिस्टोफर जैफरलॉ पृष्ठ 141)

“आंबेडकर इसलिये बिल पास कराना चाहते हैं ताकि एक ब्राह्मण नर्स से अपने विवाह को वैधता दिला सकें”- टी भार्गव (संदर्भ जवाहर लाल नेहरू एंड हिन्दू कोड, आर सोम, से संदर्भ भीमराव आंबेडकर एक जीवनी, क्रिस्टोफर जैफरलॉ पृष्ठ 141)। “अगर बिल पास नहीं होता है तो मेरी सरकार इस्तीफ़ा दे देगी”- जवाहर लाल नेहरू (संदर्भ डॉ आंबेडकर, कीर, पृष्ठ 500,)

बिल के असफल होने और नेहरू द्वारा अपने वचन से पीछे हटने के बाद

“मैंने कभी किसी चीफ़ व्हिप को प्रधानमंत्री के प्रति इतना निष्ठारहित और प्रधानमंत्री को एक निष्ठारहित व्हिप के प्रति इतना निष्ठावान नहीं देखा”- आंबेडकर (संदर्भ जवाहर लाल नेहरू एंड हिन्दू कोड, आर सोम, पूर्वोक्त, से संदर्भ भीमराव आंबेडकर एक जीवनी, क्रिस्टोफर जैफरलॉ, पृष्ठ141)।

“वर्ग और वर्ग के बीच, लिंग और लिंग के बीच असमानता, जो हिंदू समाज की आत्मा है, को बनाये रखते हुए आर्थिक समस्याओं से संबंधित कानून पारित करना हमारे संविधान का मजाक उडाना है और गोबर के ढेर पर महल बनाने जैसा है”।
(संदर्भ: डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर सम्पूर्ण वांग्मय वोल्यूम)

हिंदू कोड बिल को लेकर ऊपर दिए गये बयानों से स्पष्ट होता है कि संविधान सभा के अधिकतर कांग्रेसी सदस्य रूढ़िवादी थे, पटेल, प्रसाद, पंत, सब बिल के खिलाफ थे। बिल के पक्षधर नेहरू आधुनिक थे लेकिन वो आंबेडकर की तरह मजबूत और दृढ़ प्रतिज्ञ आधुनिक नहीं थे, जहां आधुनिकता शब्दों से परे जाकर अपना सब कुछ दांव पर लगाने की मांग करती है वहां नेहरू कमज़ोर साबित हुए।

और यही बात नेहरू और आंबेडकर के संबंध विच्छेद का कारण भी बनती है। इस सारी कवायद का उद्देश्य यही दिखाना है कि दलित स्त्री की गुलामी के मुख्य स्रोत ब्राह्मणीय पितृसत्ता को भारतीय सामाजिक और राजनैतिक सत्ता तन्त्र हर हाल में कायम रखना चाहता है। आंबेडकर की स्त्री विषयक समझ पर टिप्पणी करते हुए आनंद तेलतुम्बडे लिखते हैं–

“उन्होंने संस्कारगत शादियों को पुरुषों के लिए बहुविवाह के रूप में वर्णित किया और स्त्रियों के लिए इसे सतत दासता माना क्योंकि किसी भी परिस्थिति में यह उस व्यवस्था के अंदर उन्हें अपने पतियों की और से कोई आज़ादी नहीं लेने देतीं चाहे वह स्थिति कितनी ही बुरी या अवांछित क्यों न हो। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि स्त्रियों को इस बंधन (संविदा) से छुटकारा पाने की आज़ादी होनी चाहिए”। (सन्दर्भ: जनवादी समाज और जाति का उन्मूलन, आनंद तेलतुम्बडे, पृष्ठ 161 )।

अब आंबेडकर के अपने सामाजिक आन्दोलन में दलित स्त्री की भूमिका और सक्रियता के बारे में बात करते हैं।

यह गौर करने लायक है कि 25-26 दिसम्बर 1927 को आंबेडकर के संगठन बहिष्कृत हितकारिणी सभा द्वारा आयोजित महाड पानी के सत्याग्रह का नेतृत्व 500 दलित स्त्रियों ने किया था और इस अवसर पर 25 दिसम्बर को मनुस्मृति का दहन किया गया इसलिए कई दलित स्त्रीवादी 25 दिसंबर का दिन भारतीय दलित स्त्री मुक्ति दिवस के रूप में मनाते हैं।

बाद में भी कई सशक्त दलित स्त्रियां अंबेडकर के आंदोलन में सहभागी बनीं। जिनमें श्रीमती शांताबाई दानी एक अग्रणी महिला रही हैं। वह 1942 में शेड्यूल कास्ट फेडरेशन में शामिल हुईं, 1943 में उन्हें फेडरेशन की नासिक यूनिट का अध्यक्ष बनाया गया। 1945 में उन्होंने शेड्यूल कास्ट फेडरेशन के महिला सम्मेलन की अध्यक्षता की नागपुर में वे रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया की संस्थापक सदस्यों में थी। उन्होंने 1959 और 1964 में एस आर गवई के साथ जुड़कर भूमिहीन मजदूरों के सत्याग्रह में भाग लिया 1965 में उन्होंने नासिक में रमाबाई अंबेडकर गर्ल्स स्कूल आरंभ किया।

शांताबाई दानी के अलावा श्रीमती मीनांबल शिवराज भी अंबेडकर के साथ राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय थीं। वह अनुसूचित जाति की पहली महिला थीं जो मद्रास कॉरपोरेशन की सदस्य हुईं। वह सितंबर 1944 और मई 1945 में फेडरेशन के मद्रास और मुंबई महिला कॉन्फ्रेंस की अध्यक्ष बनी। (संदर्भ आंदोलन का इतिहास मोहनदास नैमिशराय खंड 2 पृष्ठ 374-377)।

लेकिन भारत में दलित स्त्री आन्दोलन या कहना चाहिए दलित आन्दोलन की शुरुआत आंबेडकर से काफ़ी पहले हो गयी थी। आधुनिक भारत में दलितों पहला जाति विरोधी दस्तावेज़ एक चौदह साल की दलित किशोरी द्वारा लाया जाता है।

क्रमश: जारी..

(मोहन मुक्त कवि और लेखक हैं।)

दलित स्त्री-1: कुछ सवाल

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