दलित स्त्री-1: कुछ सवाल

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भारतीय समाज एक स्तरीकृत असमानता पर आधारित समाज है और जाति नाम की संरचना इस समाज की बुनियादी और कई अर्थों में अनोखी विशेषता यानि  दीर्घकालिक सातत्य (गतिहीनता नहीं) के लिए ज़िम्मेदार है। जाति पर आधारित सामाजिक संगठन की कार्यप्रणाली को देखते हुए ही हेगेल ने भारतीय समाज के विषय में कहा –

“हर गाँव की सारी आय दो हिस्सों में बाँट दी जाती है  जिसमें से एक राजा का होता है  और दूसरा किसानों का। लेकिन उस जगह के मुखिया (प्रोवोस), न्यायाधिकारी जल सर्वेक्षक ब्राह्मण (जो धार्मिक पूजा पाठ का निरीक्षण करता है), ज्योतिषी ( जो ब्राह्मण ही होता है लेकिन अच्छे बुरे का शकुन बताता है ) लुहार, बढ़ई, कुम्हार धोबी नाई वैद्य नर्तकियों संगीतकार तथा कवि को जितना हिस्सा बनता है दिया जाता है। यह व्यवस्था निश्चित और अपरिवर्तनीय है और इस पर किसी का वश नहीं है इसलिए आम हिन्दू को सारी राजनीतिक क्रांतियों से कोई मतलब नहीं है।”

(इतिहास और विचारधारा : इरफ़ान हबीब पृष्ठ)       

यहां हेगेल ने भारतीय ग्राम समाज की जड़ता के मूल में जाति व्यवस्था की भूमिका को देखा है। कार्ल मार्क्स ने इसी बात को दूसरे रूप में इस तरह कहा है –

“भारतीय समाज का कोई इतिहास नहीं रहा है कम से कम ज्ञात इतिहास तो नहीं ही है जिसे हम उसका इतिहास कहते हैं वहां सिर्फ एक के बाद एक दूसरे आक्रमणकारियों का इतिहास है जिन्होंने प्रतिरोध विहीन और परिवर्तन हीन समाज पर अपने साम्राज्य स्थापित किये।”( मार्क्स द ट्रिब्यून का लेख,संदर्भ :वही)

इस पर इरफ़ान हबीब लिखते हैं मार्क्स ने भारतीय समाज की स्पन्दनहीनता की व्याख्या एक जैसे परम्परागत ग्रामीण समाज के रूप में की है जो जातियों में जकड़ा हुआ है (वही) 

इसी के आधार पर बाद में विटफोगिल ने ‘प्राच्य निरंकुशतावाद’ की बात कही  (सन्दर्भ:वही )

आंबेडकर भारतीय समाज की इस ‘अनोखी’ संरचना पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं –

“हिन्दू धर्मियों में विद्यमान यह असमानता जितनी अनुपम है उतनी ही निंदास्पद भी है। कारण यह कि इस विषमता के अनुरूप होने वाले व्यवहार का स्वरूप हिन्दू धर्म के शील (नैतिकता ) के लिए शोभनीय नहीं है। हिन्दू धर्म में समाविष्ट होने वाली जातियां ऊंच-नीच की भावना से प्रेरित हैं यह स्पष्ट है हिन्दू समाज एक मीनार है और एक एक जाति इस मीनार का एक एक तल है।

ध्यान देने की बात है कि इस मीनार में सीढ़ियां नहीं है, एक तल से दूसरे तल में जाने का कोई मार्ग नहीं है। जो जिस तल में जन्म लेता है वह उसी तल में मरता है। नीचे के तल का मनुष्य कितना ही लायक हो उसका ऊपर के तल में प्रवेश संभव नहीं। ऊपर के तल का मनुष्य कितना ही नालायक हो उसे नीचे के तल में धकेल देने की हिम्मत किसी में नहीं (संदर्भ :मूकनायक के सम्पादकीय में आंबेडकर ,संकलन श्यौराज सिंह बेचैन )          

यहाँ इन उद्धरणों का हमारे लिए यही उपयोग है कि सबसे पहले हम भारतीय समाज की संरचना की विशिष्टता को इंगित कर सकें ताकि हम अलग-अलग  विचारधाराओं ,विश्व दृष्टियों और  वैचारिक आग्रहों पर आधारित और लगभग  निश्चित स्वरूप धारण कर चुकी  शब्दावलियों सन्दर्भ और परिप्रेक्ष्य के आईनों के साथ-साथ यहाँ संदर्भित  हमारी अपनी विशिष्ट समस्या यानि ‘दलित स्त्री’ का कम से कम कोई सैद्धान्तिक रेखाचित्र तो स्पष्ट रूप से ज़ाहिर करने का प्रयास करे। साथ ही इन उद्धरणों का हमारे लिए इस रूप में भी महत्व है कि हेगेल और कार्ल मार्क्स ने जो बात उत्पादन व्यवस्था और अधिशेष के बंटवारे के विशिष्ट स्वरूप वाले एक ‘निश्चित अपरिवर्तनीय तन्त्र’  और  ‘इतिहास विहीन’ समाज की विशेषता को इंगित करने के लिए कही राजनैतिक अर्थशास्त्र के सन्दर्भ में कही है ,आंबेडकर ने उसी बात को अनुभूत सच्चाइयों के साथ समाज संस्कृति व्यवहार और जीवन प्रणाली की जड़ता के रूप में चिह्नित किया है।

आंबेडकर की टिप्पणी  इस प्रणाली के अलग-अलग स्तरों  और उनकी अपरिवर्तनीयता व अनिवार्य आपसी इंसानी संवादहीनता के साथ व्यवस्था में उनकी सम्मान और अपमानसूचक स्थायी प्रास्थिति को दिखाती है। आंबेडकर सुस्पष्ट रूप से दिखाते हैं कि पूरी व्यवस्था एक सामाजिक पिरामिड की तरह काम करती है। आंबेडकर की टिप्पणी एक और ख़ासियत उनके द्वारा जाति को ‘हिन्दू धर्म’ के दायरे में समझने की उनकी सचेत कोशिश है हालांकि हिन्दू शब्द हेगेल ने भी इस्तेमाल किया है लेकिन उनका तात्पर्य भारतीय लोगों से है जबकि आंबेडकर ने जाति को हिन्दू धर्म और संस्कृति के अनिवार्य और अनोखी विशेषता के रूप में देखा है। हम आगे देखेंगे कि हमारे विषय यानि ‘दलित स्त्री’ को ठीक से समझने के लिहाज़ से आंबेडकर की चिंतन पद्धति का अपना विशिष्ट महत्व है। भारतीय समाज की विशिष्टता  के सन्दर्भ में हेगेल की अवलोकनात्मक टिप्पणी को मूल्यवान मानते हुए मार्क्सवादी सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य के साथ जाति विरोधी प्रैक्सिस के सबसे निष्ठावान विचारक और एक्टिविस्ट के रूप में आंबेडकर के लेखन से हम ‘दलित स्त्री’ के विभिन्न पहलुओं से सम्बन्धित सवालों के जवाब तलाशने की हम कोशिश करेंगे।  

दलित स्त्री का सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य: ब्राह्मणीय पितृसत्ता    

सबसे पहला सवाल है कि हेगेल के अवलोकन के ‘जड़ भारतीय समाज’  या मार्क्स के ‘इतिहास विहीन भारतीय समाज’ या काफ़ी हद तक भारत सम्बन्धी मार्क्स के विचारों  पर आधारित विटफोगिल की सैद्धांतिक अवस्थिति ‘प्राच्य निरंकुशतावाद’(जिसका महत्व स्वीकारते हुए भी पूर्ण रूप से अनुमोदन मेरे द्वारा यहाँ नहीं किया जा रहा है ,लेकिन साथ ही यह भी कहना है कि प्राच्य निरंकुशतावाद के सिद्धांत को पूर्व के प्रति पश्चिमी बौद्धिक जगत का दुराग्रह भर मानना उचित बात नहीं है) के साथ आंबेडकर द्वारा उद्घाटित और अच्छी तरह परिभाषित बहुमंजिला इमारत की तस्वीर में हमारी चिंता के विषय यानि ‘दलित स्त्री’ की जगह कहां है, दलित स्त्री की लोकेशन, विशिष्टता, अतुलनीय संकटग्रस्तता , उसकी निर्योग्यतायें, सम्भावनाएं और इस पूरी व्यवस्था को वास्तविक अर्थों में एक मुक्त इंसानी समाज बनाने के लिए किये जाने वाले संघर्ष में उसकी अनिवार्य नेतृत्वकारी भूमिका को पहचानने के क्रम में हम ‘दलित स्त्री’ को व्यवस्था से अलग करके नहीं समझ सकते।

दलित स्त्री इस व्यवस्था के भीतर की विशिष्ट कोटि है। हमें शुरुआत से भले ही संक्षेप में सामान्यतया मानव समाज में स्त्री पुरुष के सम्बन्धों के वर्चस्व आधारित होने के क्रम को देखना होगा, फिर भारतीय सन्दर्भ के साथ हम ‘दलित स्त्री’ नाम की सामाजिक कोटि के निर्माण और विकास के लिए ज़िम्मेदार संस्थागत शक्तियों  ‘ब्राह्मणीय पितृसत्ता’ के साथ ‘आधुनिकता’ पर भी विचार करने का प्रयास करेंगे। संभवतः हम पायेंगे कि जहां ब्राह्मणीय पितृसत्ता ही ‘दलित स्त्री’ की व्यवस्था में सबसे पददलित लगभग स्थायी स्थिति के लिए ज़िम्मेदार है वहीं आधुनिकता का असाधारण महत्व इस बात में है कि ‘आधुनिकता’ नाम की परिघटना के चलते ही हम दलित स्त्री की अपने आप में इकलौती कोटि को समझना चाहते हैं या समझ पाने में सक्षम हैं, आगे हम यह देख पायेंगे कि दलित स्त्री के साथ पूरे भारतीय समाज की गतिकी कैसे इन दोनों परिघटनाओं या प्रभावों के एक दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा और साथ ही अन्योन्य संक्रियाओं से एक ख़ास ऐतिहासिक मंजिल की  और बढ़ी है। शुरुआत करते हैं फ्रेडरिक एंगेल्स के मूल्यवान निष्कर्षों से –

सबसे पहले समझने का प्रयास करते हैं कि वह भौतिक बुनियाद क्या है जिसमें स्त्री पुरुष के वर्तमान दोषपूर्ण सामाजिक संबंध पैदा होते हैं। फ्रेडरिक एंगेल्स ने अपनी पुस्तक ‘परिवार, निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति’ में इस भौतिक बुनियाद का काफी विश्वसनीय विश्लेषण किया है। वे दिखाते हैं कि पहला वर्ग विभाजन स्त्री और पुरुष के बीच हुआ था। उनके अनुसार आदिम समाज में जब संपत्ति का प्रादुर्भाव हुआ और प्रारंभ में जब सम्पदा कम थी तो सम्पत्ति पर गोत्र का अधिकार माना जाता था।

साथ ही मातृ सत्तात्मक व्यवस्था कायम थी अर्थात वंश स्त्री परंपरा के अनुसार चलता था और उत्तराधिकार प्रथा के तहत किसी सदस्य की मृत्यु पर उसकी सम्पत्ति उसके गोत्र संबंधियों को मिलती थी ताकि सम्पत्ति गोत्र के भीतर ही रहे स्त्री वंश परंपरा के अनुसार संपत्ति मां की तरफ के रक्त संबंधियों को मिलती थी।एंगेल्स लिखते हैं प्रारंभ में माता के दूसरे रक्त संबंधियों के साथ-साथबच्चों को भी मां की संपत्ति का भाग मिलता था। संभवतः बाद में बच्चों का प्रथम अधिकार मान लिया गया। यह अधिकार मां की संपत्ति में था परंतु उन्हें अपने पिता की सम्पत्ति नहीं मिल सकती थी क्योंकि वे अपने पिता के गोत्र के सदस्य नहीं होते थे और संपत्ति का गोत्र के भीतर रहना आवश्यक था। किसी पुरुष रेवड़ पशुपालक की मृत्यु पर उसकी संपत्ति पहले उसके भाइयों और बहनों को और बहनों के बच्चों को या मौसियों के वंशजों को मिलती थी। लेकिन उसके बच्चे उत्तराधिकार से वंचित थे। जैसे-जैसे भौतिक संपदा बढ़ी और परिवार के भीतर पुरुष का दर्जा महत्वपूर्ण हुआ पुरूष ने उत्तराधिकार की पुरानी मातृसत्ता को पलटने का काम किया। इसके लिए फैसला लिया गया कि गोत्र के पुरुष सदस्यों के वंशज गोत्र में ही रहेंगे और स्त्रियों के वंशज गोत्र से अलग करके अपने पिताओं के गोत्र में शामिल कर दिए जाएंगे।

इस तरह पैतृक  वंशानुक्रम और पैतृक उत्तराधिकार स्थापित हुआ। फ्रेडरिक ऐंगल्स ने इस घटना को मानव जाति द्वारा अनुभूत सबसे निर्णायक क्रांतियों में से एक कहा है। इस घटना के विषय में मार्क्स लिखते हैं, ‘‘मनुष्य की अंतर्जात वाकछल प्रवृत्ति जिसके द्वारा वह वस्तुओं के नाम बदलकर स्वयं उन वस्तुओं को बदलने का प्रयास करता है। जब भी कोई प्रत्यक्ष हित जबरदस्त रूप में प्रेरित करता है वह परंपरा को तोड़ने के लिए परंपरा में खोट निकालता है।’’(सन्दर्भ :परिवार निजी सम्पत्ति और राज्य की उत्पत्ति ,फ्रेडरिक एंगेल्स )एंगेल्स आगे लिखते हैं, “मातृ सत्ता का विनाश नारी जाति की विश्व ऐतिहासिक महत्व की पराजय थी। अब घर के अंदर भी पुरुष ने अपना आधिपत्य जमा लिया, नारी पदच्युत कर दी गई, जकड़ दी गई। वह पुरूष की वासना की दासी, संतान उत्पन्न करने का एक यंत्र बनकर रह गई। वीरगाथा काल के और उससे भी अधिक क्लासिकीय यूनानियों में  नारी की गिरी हुई हैसियत खास तौर पर देखी गई। बाद में धीरे-धीरे तरह तरह के आवरणों में ढककर और सजाकर तथा आंशिक रूप से थोड़ी नर्म शक्ल देकर उसे पेश किया जाने लगा।

पर वह दूर नहीं हुई।’’(वही) इस तरह वह भौतिक आधार जिस पर स्त्री का सामाजिक अस्तित्व टिका हुआ है पितृ सत्तात्मक आधार है और यही आधार तमाम धर्मों, संस्कृतियों और सभ्यताओं में स्त्री के दोयम दर्जे के लिए जिम्मेदार है। और शेष दुनिया की तरह  निजी सम्पत्ति पर पुरुषों का यह असाधारण नियंत्रण भारतीय समाज में भी स्त्री पुरुषों के वर्चस्व आधारित दोषपूर्ण सामाजिक सम्बन्धों की बुनियाद है। एंगेल्स की बात तार्किक तौर पर पितृ सत्ता में स्त्री की स्थिति को समझाती है लेकिन इससे ‘दलित स्त्री’ की स्थिति समझ नही आती। दलित स्त्री को पूरी तरह समझने के लिए एंगेल्स द्वारा उपलब्ध कराये गये परिप्रेक्ष्य में ही इतिहास के उस समय को देखना होगा जब भारतीय समाज में जातियां और पितृसत्ता आकार ले रहीं थीं।

दलित स्त्री को जाति और पितृसत्ता दोनों से अलग बताये गये आयामों में समझना होगा और हम आगे इस से अवगत होंगे कि ये दो असल में अलग नहीं बल्कि एक ही हैं और ‘दलित स्त्री’ अपने आप में एक महत्वपूर्ण सूत्र या कुंजी है जिसके सहारे हम देख सकते हैं। भारतीय समाज में जाति और पितृसत्ता दो अलग-अलग आयाम या एक सिक्के के दो पहलू भी नहीं है बल्कि ये एक ही शरीर का एक ही रक्त है जो शिराओं में नीला और धमनियों में लाल हो जाता है और खुद को लगातार नया बनाता रहता है, दोहराता रहता है  और भारतीय समाज और ब्राह्मण संस्कृति के विशालकाय शरीर में दौड़ता रहता है उसे ताकतवर बनाये रखता है। इस शरीर में इस खून को पम्प करने का काम यानि इसका दिल ब्राह्मण धर्म के ग्रन्थ सांस्कृतिक ढांचा और आचार तन्त्र है और इस दिल का पेसमेकर निजी सम्पत्ति है।                      

बहरहाल एंगेल्स के विश्लेषण  को ध्यान में रखते हुए प्राचीन ऋग्वैदिक  समाज के बारे में विचार करते हैं और जाति की उत्पत्ति के आंबेडकर के सिद्धांत को समझते  हैं आंबेडकर ने ‘भारत में जाति संरचना उत्पत्ति और विकास’ शीर्षक के अपने मानव शास्त्र के पेपर में जाति के विषय में कुछ आधारभूत महत्व की बातें कही हैं –

“यह बात महत्वहीन है कि व्यक्ति मिलकर समाज बनाते हैं, समाज हमेशा वर्गों से मिलकर बनता है ,यहाँ वर्ग संघर्ष के सिद्धांत पर बल देना अतिशयोक्ति हो सकती है लेकिन यह सच है कि समाज में कुछ निश्चित वर्ग होते हैं और उनके आधार भिन्न हो सकते हैं, वे वर्ग आर्थिक आध्यात्मिक या सामाजिक हो सकते हैं लेकिन समाज का प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी वर्ग से संबद्ध होता है यह एक शाश्वत सत्य है और आरम्भिक हिन्दू समाज भी इसका अपवाद नहीं रहा होगा। जहां तक हम जानते हैं वो अपवाद नहीं था यदि हम इस सामान्य नियम को ध्यान में रखें तो पाते हैं कि जाति की उत्पत्ति के अध्ययन में बहुत उपयोगी तत्व साबित हो सकता है,क्योंकि हम यह निश्चित करना चाहते हैं कि वह कौन सा वर्ग था जिसने सबसे पहले अपनी जाति की संरचना की। इस तरह वर्ग और जाति एक दूसरे के दो रूप हैं फ़र्क सिर्फ़ यह है कि जाति अपने को सजातीय परिधि में रखने वाला वर्ग है।”(संदर्भ :इन्डियन एंटीक्वेरी मई 1917 खंड 41 से ,बाबासाहेब डॉ आंबेडकर सम्पूर्ण वांग्मय खंड 1 में संकलित ) 

यहां आंबेडकर ने कुछ महत्वपूर्ण सूत्र दिए हैं जैसे ‘प्राचीन भारतीय समाज एक वर्ग आधारित समाज था’ और एक वर्ग विभाजित समाज में ही जाति पैदा हो सकती है, किसी ख़ास वर्ग ने सबसे पहले अपने आप को बंद जाति समूह में तब्दील किया होगा। और सबसे महत्वपूर्ण बात ‘जाति एक बंद वर्ग है’ सबसे पहले किस वर्ग ने अपने आप को बंद वर्ग या जाति में बदला होगा। इसकी शिनाख्त के क्रम में आंबेडकर पुरोहितों तक पहुंचते हैं –

“यह व्यवस्था (जाति)पूरी दृढ़ता के साथ केवल एक जाति यानि ब्राह्मणों में प्रचलित है, जो हिन्दू समाज की संरचना में सर्वोच्च स्थान पर है और ग़ैर ब्राह्मण जातियों ने केवल इसका अनुसरण किया जहां इसके पालन में न तो दृढ़ता है न ही सम्पूर्णता….इस पुरोहित वर्ग द्वारा प्राचीन काल से इस प्रथा का कड़ाई से अमल यह प्रमाणित करता है कि यही वर्ग इस अप्राकृतिक संस्था का जन्मदाता था। उसने अप्राकृतिक साधनों से इसकी नींव डाली और जिंदा रखा।”

(वही )

आगे आंबेडकर का प्रसिद्ध सूत्रीकरण है

“कुछ ने अपने दरवाज़े बंद कर लिए और कुछ ने दूसरे के दरवाज़े अपने लिए बंद पाए” (वही)

लेकिन आंबेडकर सुचिंतित वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले विचारक हैं इसलिए वह ये भी कहते हैं –

“मनु ने जाति के विधान का निर्माण नहीं किया और न वह ऐसा कर सकता था। जाति मनु से पहले से विद्यमान थी। वह उसका पोषक था इसलिए उसे एक दर्शन का रूप दिया……..प्रचलित जाति व्यवस्था को ही उसने संहिता का रूप दिया और जाति धर्म का प्रचार किया। जाति का विस्तार और उसकी दृढ़ता इतनी विराट है कि यह एक व्यक्ति या वर्ग कि धूर्तता और बलबूते का काम नहीं  हो सकता……ब्राह्मण कई और बातों के लिए ज़िम्मेदार हो सकते हैं और मैं निःसंकोच कह सकता हूं कि वे हैं भी परन्तु गैर ब्राह्मण अन्य जन           

समुदायों पर जाति थोपना उनके बूते के बाहर की बात थी।” 

 (वही)

फिर आंबेडकर आगे कहते हैं, “सजातीय विवाह या आत्मकेन्द्रित रहना ही हिन्दू समाज का चलन था और क्योंकि इसकी शुरुआत ब्राह्मणों ने की थी इसलिए गैर ब्राह्मण वर्गों या जातियों ने भी बढ़-चढ़कर इसकी नकल की और सजातीय विवाह प्रथा को अपनाने लगे” (वही )  

एक मानव शास्त्री के रूप में यहां आंबेडकर ने उस परिघटना या प्रक्रिया की बात 1916 में कह दी है जिसे बहुत बाद में संस्कृतीकरण कहा  गया। वे दिखाते हैं कि पुरोहितों की विशेषज्ञता प्राप्त ब्राह्मणों के बंद वर्ग में बदलने के साथ ही अंर्तविवाह की संस्कृति और उसका मनोविज्ञान अन्य समुदायों में भी पैदा और प्रभावशाली होता चला गया। साथ ही आंबेडकर ने अन्य विद्वानों के हवाले से जाति आधारित पेशों की सापेक्ष पवित्रता और अपवित्रता की बात भी कही है।

हमें यहां यही कहना है कि जाति के तीन मुख्य सैद्धांतिक और साथ ही व्यावहारिक विशेषताएं भी हैं पहली है अंर्तविवाह ,दूसरी है समूची संरचना में वंशानुगत पेशों वाले अंर्तविवाही समूहों की स्तर बद्ध और असमान अवस्थिति (जिसे आंबेडकर ने बहुमंजिला इमारत कहा है) और साथ ही तीसरी विशेषता है इन समूहों की आपेक्षिक पवित्रता और अपवित्रता जिसका सबसे कठोर रूप अस्पृश्यता है। गौरतलब है कि वर्तमान समय  के पूंजीवाद के एक सीमा तक विकास वाले भारतीय समाज के सामान्य अवलोकन और साथ ही कुछ गम्भीर शोधकर्ताओं के निष्कर्षों के आधार पर ये कहा जा सकता है कि पूंजीवाद, आधुनिकता और संसदीय लोकतंत्र के अपने प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष प्रभावों के चलते भारतीय समाज की अपनी एक ख़ास गतिकी आधुनिक समय में रही है।

जिसके कारण जाति आधारित वंशानुगत पेशों और आपेक्षिक पवित्रता अपवित्रता के मानक कुछ ढीले ज़रूर पड़ गये हैं लेकिन जाति व्यवस्था के असली कारण अंर्तविवाह पर कोई ऐसा उल्लेखनीय अंतर नहीं आया है जिससे जाति एक व्यवस्था के रूप में कमज़ोर होती हो, त्रिनिदाद में हुए एक अध्ययन के मुताबिक़ जातियां वर्णों के रूप में ज्यादा मजबूती से फिर से संयोजित हो रही हैं। यानि हिन्दुओं या ब्राह्मण धर्मियों की अलग-अलग जातियां विवाह के लिए जातियों के बाहर तो जा रही हैं लेकिन वर्णों के बाहर नहीं।(देखें ‘वर्ण जाति व्यवस्था’ सुवीरा जायसवाल ) 

ये एक नयी परिघटना है। जिसके दीर्घकालिक प्रभावों के बारे में निश्चित  निष्कर्ष देना मुश्किल है लेकिन इतना कहने का जोख़िम उठाया जा सकता है कि ब्राह्मण संस्कृति के लौह कवच में संभवतः पूंजीवादी समाज की अनिवार्यताएं भी बिल्कुल अलग तरह से प्रभाव डालती हैं। और इन प्रभावों के चलते जाति के मूल स्वरूप में आधारभूत परिवर्तन नहीं आ रहा है बल्कि जाति अपने आप को इन प्रभावों के साथ नए रूपों में ढाल रही है। और जाति व्यवस्था के नियमन का सबसे महत्वपूर्ण निर्धारक कारक अंतर्विवाह आज भी बना ही हुआ है। 

हमने ऊपर देखा कि आंबेडकर एक जीवन प्रणाली के रूप में या एक संस्कृति के रूप में जाति के विचार के विस्तार की बात कर रहे हैं अब यह देखना ज़रूरी है कि पुरोहितों या ब्राह्मणों के पास वो क्या तरीका हो सकता था जिससे उन्होंने स्वयं को अंतर्विवाही बंद वर्ग यानि जाति में तब्दील किया होगा। इसका जवाब भी आंबेडकर देते हैं कि आंतर विवाह ,जो कि जाति को बनाए रखने का सबसे ज़रूरी तत्व है, को बनाये रखने के लिए स्त्री की स्वतंत्रता को नियंत्रित किया जाना बेहद ज़रूरी था चूंकि कथित ब्राह्मण और वर्ण श्रेष्ठता को बनाए रखने के लिए आवश्यक था कि जातियों के बीच रक्त संबंध स्थापित न हो पाएं। इसके लिए स्त्रियों की यौन स्वायत्तता या साथी के चयन का उनका प्राकृतिक अधिकार बहुत बड़ी बाधा है।


और आंबेडकर कहते हैं कि इसके लिए सती प्रथा, कन्या बाल विवाह के प्रावधानों के साथ-साथ विधवा पुनर्विवाह पर रोक भी लगाई गई। (संदर्भ -वही) 

असल में मनुस्मृति के साथ-साथ समस्त ब्राह्मण धर्म ग्रन्थ शूद्रों की गुलामी के साथ-साथ स्त्रियों की गुलामी का दस्तावेज भी है। 
डा0 अंबेडकर अपने शोध में दिखाते हैं कि किस तरह विधवा के पुनर्विवाह पर रोक लगाकर अंतर्जातीय विवाह की संभावनाओं को रोका गया। मनुस्मृति के श्लोक  5-157 और 5-161 में पति की मृत्यु के बाद दूसरे पुरूष का नाम लेने पर भी स्त्री को निंदा का पात्र बताया गया है। 

साथ ही मनु ने विधुर पुरूष के पुनर्विवाह पर रोक नहीं लगाई। परंतु यहां पर भी अंतर्जातीय विवाह की संभावनाओं को रोकने के लिए यह नियम बनाया गया कि 30 वर्ष की आयु का पुरूष 12 वर्ष की कुमारी से विवाह करे और 24 वर्ष की आयु का पुरूष 8 वर्ष की कन्या से विवाह करे (देखिए मनुस्मृति 9-24) ताकि यदि कोई पुरूष 24 या 30 की आयु में विदुर हो जाए तो अपने ही वर्ण की वयस्क स्त्री ना मिलने पर बच्चियों से विवाह कर सके। साथ ही ब्राह्मण धर्म की संहिताओं में स्त्रियों को स्वभाव से ही चंचल और चारित्रिक गुणों से ही रहित बताया गया है। कहा गया है कि पुरूषों को दूषित करना ही स्त्री का स्वभाव होता है (मनुस्मृति2-213)। 

स्त्री की गुलामी के प्रबंध के लिए कहा गया है कि बाल्यकाल में
स्त्री पिता के अधीन रहे, यौनावस्था में पति के अधीन रहे, पति की मृत्य पर पुत्रों के अधीन रहे। स्त्री कभी स्वतंत्र ना रहे। (मनुस्मृति श्लोक 5-149) 

कुछ जगहों पर तो हद ही कर दी गई है- 

न तो वे (स्त्रियां) रूप ही देखती हैं और न उम्र ही सुंदर हो या असुंदर पुरूष होने से ही वे उनके साथ भोग करती हैं (मनुस्मृति श्लोक 9-14)। इस तरह के अनगिनत उदाहरण और दिए जा सकते हैं।ब्राह्मण धर्म में स्त्रियों की जो सामाजिक स्थिति है उसका आधार मनुस्मृति के नियम ही हैं। जब धार्मिक कानून में ही स्त्रियों का दोयम दर्जा स्वीकार कर लिया जाए तो आचरण में समानता का प्रश्न ही नहीं उठता। ब्राह्मण धर्म का सामाजिक आदर्श पूर्ण रूप से पितृ सत्ता आधारित और स्त्री विरोधी है।

मनुस्मृति का रचनाकाल ईसा की पहली से पांचवीं सदी के बीच माना  जाता है और यहां तक आते-आते जाति आधारित विशेषाधिकारों निर्योग्यताओं और स्त्री सम्बन्धी नियमों सिद्धांतों आचारावलियों और दंड विधान संहिताओं के आधार पर ब्राह्मण धर्म के नैतिक सिद्धांतों वाला वो पूरा विशालकाय जीवित ढांचा बौद्ध धम्म की गहरी दार्शनिक चुनौतियों के बावजूद तैयार हो चुका था जिसे ऊपर ब्राह्मणीय समाज का शरीर कहा गया है , जिसमें जाति और पितृसत्ता का एक ही खून जिसके दो रंग नज़र आते हैं ,बहने लगा है। लेकिन यहाँ तक आते हुए कुछ क्रमिक परिवर्तन भी  होते चले गये हैं। जैसा कि इस लेख की शुरुआत में कहा गया है कि भारतीय समाज में दीर्घकालिक सातत्य रहा है गतिहीनता नहीं।

हम दलित स्त्री से सम्बन्धित अपने सूत्रीकरण की ओर बढ़ें उससे पहले एक बार फिर हम उस समय की और लौटते हैं जब पितृसत्ता के भौतिक के साथ-साथ अनुष्ठानिक स्वरूप का योजनाबद्ध निर्धारण किया गया है। एंगेल्स और आंबेडकर की नज़र के परिप्रेक्ष्य में प्राचीन ऋग्वैदिक समाज को देखें विषय  में  जहां बहिर्विवाही गोत्र अस्तित्व में आ चुके हैं, समाज का सोपानीकरण  आकार ले रहा है अंतर्विवाही वर्ण समाज /जातियां जन्म ले चुकी हैं। यद्यपि  समाज पितृसत्तात्मक है लेकिन पहले के मातृसत्तात्मक या कम या शून्य निजी सम्पत्ति वाले आदिम समाज में स्त्री की उत्पादन/ उपभोग में बराबर भूमिका के अवशेष के रूप में स्त्री की अनुष्ठानिक हैसियत यज्ञ या अन्य ब्राह्मण संस्कारों/संस्कृति से जुड़े क्रियाकलापों में पारिवारिक प्रमुख के रूप में हविस देने वाले  गृहपति के लगभग समकक्ष ही है। ब्राह्मण ग्रन्थों में आया शब्द गृहपति अपने आप में बहुत कुछ साफ़ कर देता है। गौरतलब है कि अनुष्ठानिक रूप से स्त्री की गृहपति के समकक्ष यह हैसियत निजी सम्पत्ति, पितृसत्ता , बहिर्विवाही  गोत्र, अंतर्विवाही वर्ण /जाति और सोपानीकृत समाज यानि कि पूरी  ब्राह्मणीय संरचना के लिये खतरा हो सकती है। इसलिये इसे भी समाप्त करना ज़रूरी  हो जाता है।

जैसा कि जूलिया लेसजी द्वारा सम्पादित ‘रोल्स एंड रिचुअल्स फॉर हिंदू  वूमन’ में fredrik m. Smith दिखाते हैं, ”स्त्रियों का लैंगिक धर्म भी वैदिक पुरोहितों के लिये भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार की समस्यायें खड़ी करता था इसलिये इस वर्ग ने श्रौत सूत्रों में वैदिक कर्मकांड को व्यवस्थित  रूप देने के क्रम में स्त्रियों की भूमिका कम से कम करने और उन्हें स्थानच्युत करने  की युक्तियां निकाल लीं।”

संभवतः यही वह समय है जब मासिक धर्म के कारण स्त्रियों के सहज ही अशुद्ध और निम्नतर माने जाने की अवधारणा का ब्राह्मणीय सैद्धान्तीकरण सामने आया। हम देख सकते हैं कि मासिक धर्म के कारण स्त्री के सजह ही  अशुद्ध हो जाने की अवधारणा मूल रूप से एक ब्राह्मणीय सिद्धांत है। वासंती  रामन  ‘from tribe to caste’ विषय पर अपने निबंध में स्पष्ट करती हैं कि 

“नृजाति वैज्ञानिक अध्ययनों से मालूम होता है कि बहुत से भारतीय कबीले  तब तक रजो धर्म सम्बंधी निषेधों का पालन नहीं करते थे जब तक जाति आधारित ब्राह्मणीय समाज में उनका समाहार नहीं हो गया।”

एक हालिया शोध ‘मध्य हिमालय की भोटिया जनजाति: जोहार के शौका में एस एस पांगती ने लिखा है कि “शौका जनजाति में 16 वीं सदी के बाद ब्राह्मण प्रभाव के चलते प्रसूता की अपवित्रता और गौमूत्र की पवित्रता स्थापित हुई है। “

निष्कर्ष रूप में हम यहां कह सकते हैं कि मासिक धर्म के कारण औरत और लड़कियों को अपवित्र घोषित किया जाना और कुछ नहीं बल्कि जाति आधारित पितृसत्तात्मक अंतर्विवाही सोपानीकृत ब्राह्मणीय वर्चस्व वाले समाज को स्थायी बनाने की कई व्यवस्थाओं में से केवल एक व्यवस्था है जो कि प्राचीन ऋग्वैदिक काल में ही स्त्री को नियंत्रित करने के लिए ईजाद की गई।  

यहाँ एक प्रासंगिक तौर पर ध्यान दिलाना समीचीन होगा कि ‘देवभूमि’ बताये गये उत्तराखंड और नेपाल में मासिक धर्म संबंधी निषेध बहुत कठोरता से स्त्रियों पर थोपे गये हैं जो कि सामाजिक और पारिवारिक अचार नियमों के रूप में अनिवार्यत: लागू होते हैं , यहाँ तक कि नेपाल में तो इसके ख़िलाफ़ सरकार को विशेष दंडात्मक कानून लाना पड़ा है, गौरतलब ये भी है कि उत्तराखंड या भारत में इस तरह का कोई कानून नहीं है।

(मोहन मुक्त कवि और लेखक हैं।) 

क्रमश: जारी

दलित स्त्री-2: आंबेडकर के आंदोलन में शामिल हुईं कई दलित स्त्रियां

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