बंगाल के गोरबाचेव कहे जाने वाले बुद्धदेव भट्टाचार्य का जाना

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माकपा के लौहकपाट को खोलने की चाहत के कारण बंगाल के गोरबाचेव कहे जाने वाले पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य अंतिम यात्रा पर चले गए। उनके साथ उनकी आंखों में कैद perestroika यानी सुधार का सपना, भी चला गया। बुद्धदेव भट्टाचार्य यथास्थिति के साथ एक संघर्ष के प्रतीक थे। आने वाली सदी का इतिहास उनका मूल्यांकन करेगा। फिलहाल तो वे हारे हुए सिपाही थे। पर यह उनकी हार नहीं बंगाल के करोड़ों युवाओं के टूटे हुए सपनों की दास्तान है। 

एक बार उन्होंने कहा था कि हो सकता है बेंगलुरु आज आगे चला गया है, लेकिन हम उसके बराबर तक पहुंच जाएंगे। वह आईटी सेक्टर में बेंगलुरु की प्रगति की बात कर रहे थे। उन्होंने जब मुख्यमंत्री का पद संभाला था, उस समय बंगाल की अर्थव्यवस्था पूरी तरह कृषि पर आधारित थी। वे यथास्थिति बनाए रखने के बजाय प्रगति की राह पर जाना चाहते थे।

वे इस हकीकत को बदलना चाहते थे कि बंगाल में उद्योगों के लिए दोस्ताना माहौल नहीं है। उनकी पहल पर ही कोलकाता के साल्ट लेक के सेक्टर 5 में आईटी सेक्टर की नामी कंपनी आईबीएम ने अपना कारोबार शुरू कर दिया था। वे सन दो हजार में बंगाल के मुख्यमंत्री बने थे।

उन्होंने सुना कि बीएमडब्ल्यू को अपनी इकाई की स्थापना करने के लिए जमीन की तलाश है। उन्होंने बीएमडब्ल्यू को बंगाल में आने के लिए आमंत्रित किया और  इसके साथ ही बंगाल की बंद संस्कृति के लिए खेद भी जताया। वे उस बंद की संस्कृति के खिलाफ थे। उनकी पार्टी की तरफ से बंद बुलाए जाने के बावजूद वे सचिवालय जाते थे। इसका असर भी हुआ। उन्हीं के जमाने में सेक्टर पांच में विप्रो और इन्फोसिस जैसी कंपनियों ने अपने कैंपस की स्थापना की।

टीसीएस ने राजारहाट में अपने कैंपस की स्थापना की। आईटी के लिए मशहूर आज के कोलकाता का सेक्टर 5 उन्हीं की देन है। 2001 में दोबारा मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने उद्योगों के लिए बंगाल में रेड कारपेट बिछा दिया था। इसका असर भी हुआ। औद्योगिक घरानों ने बंगाल की तरफ बढ़ना शुरू कर दिया। जेएसडब्ल्यू जैसी नामी स्टील कंपनी को उन्होंने सालवाली में देश का सबसे बड़ा स्टील का कारखाना लगाने के लिए राजी कर लिया।

बंगाल की 2006 की विधानसभा चुनाव में 235 सीट जीतकर सत्ता में वापस आए थे। शपथ ग्रहण समारोह में उन्होंने रतन टाटा को आमंत्रित किया था। माकपा के बंद कपाट को उन्होंने खोल दिया। इसी वजह से लोग उन्हें बंगाल का गोर्बाचोव कहने लगे। उन्होंने नंदीग्राम में एक बड़ा केमिकल हब बनाए जाने का फैसला लिया। इसके लिए जमीन अधिग्रहण की जानी थी। इसके खिलाफ विपक्ष  सक्रिय हो गया।

सिर्फ विपक्ष कहना गलत होगा। इसमें यथा स्थिति बनाए रखने वाले साम्यवादी और कट्टर माओवादी भी शामिल हो गए। भूमि अधिग्रहण के खिलाफ हुए आंदोलन में पुलिस फायरिंग में 13 लोग मारे गए थे। पर उनके कदम नहीं डगमगाए। बंगाल को औद्योगिक राज्य बनाने का उनका सपना उनकी आंखों में तैर रहा था।

उन्होंने सिंगूर में मोटर का कारखाना लगाने के लिए टाटा को आमंत्रित किया था। कारखाना लगाने का काम भी शुरू हो गया था। इसी दौरान भूमि अधिग्रहण के खिलाफ आंदोलन शुरू हो गया टाटा सिंगूर छोड़कर चले गए और बंगाल में उद्योगों के सूर्योदय का सूर्यास्त हो गया। 

इस तरह नंदीग्राम और सिंगूर बुद्धदेव भट्टाचार्य के लिए वाटरलू साबित हुए। पर क्यों, इसका विश्लेषण करते हैं। क्या उनकी पार्टी के लोग उनसे सहमत नहीं थे। विधानसभा चुनाव में मिली भारी विजय के मद्देनजर यह तो नहीं कह सकते हैं कि उनका जनता से संपर्क टूट गया था। तो क्या उनकी पार्टी के नेताओं ने नंदीग्राम की इस योजना को नौकरशाही और पुलिस वाले पर छोड़ दिया था।

नंदीग्राम में भूमि अधिग्रहण के खिलाफ चल रहे आंदोलन के खिलाफ उनकी पार्टी के नेताओं ने सक्रिय भूमिका क्यों नहीं निभाई थी, या इन नेताओं का जनता से संपर्क ही टूट गया था। सच तो यह है कि माओवादियों ने नंदीग्राम आंदोलन की पूरी कमान संभाल ली थी और माकपा एक किनारे हो गई। इसके बावजूद बुद्धदेव का हौसला नहीं टूटा था। उन्होंने सिंगूर में मोटर कारखाना लगाने के लिए रतन टाटा को आमंत्रित किया और वे सहमत हो गए।

यहां भी भूमि अधिग्रहण के खिलाफ आंदोलन शुरू हो गया। पर लगता है कि यहां तक आते-आते बुद्धदेव भट्टाचार्य थक गए थे। सिंगूर में करीब 11 सौ किसानों की जमीन ली गई थी। उनमें से सिर्फ दो सौ के करीब ऐसे थे जिन्हें जमीन देने पर ऐतराज था और उन्हीं को मुद्दा बनाकर आंदोलन शुरू किया गया था। यहां भी जमीनी स्तर पर माकपा इस आंदोलन का मुकाबला नहीं कर पाई और हथियार डाल दिया।

बुद्धदेव भट्टाचार्य 2011 के विधानसभा चुनाव हार गए। आज 13 साल हो गए पर नंदीग्राम की सूरत आज भी ऐसी है जैसी 2006 में थी। सिंगूर की कंक्रीट वाली जमीन इस क्षेत्र के युवाओं के सपनों का कब्रगाह बनकर रह गई है। बुद्धदेव भट्टाचार्य ने अपनी एक किताब में नंदीग्राम और सिंगूर का हवाला देते हुए लिखा है, इससे राज्य को एक गंभीर क्षति पहुंची, सोचता हूं कि क्या मैं गलत था या भूमि अधिग्रहण करने की प्रक्रिया ही गलत थी या मैं विपक्ष के प्रति बहुत ही मुलायम था। जी हां यही सच है इसीलिए बुद्धदेव भट्टाचार्य को भद्र लोग यानी बेहद शालीन कहा जाता था।

(जितेंद्र कुमार सिंह की टिप्पणी।)

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