Friday, March 29, 2024

शराब जिसे भी शर्मनाक लगे, सरकारों के लिए तो संजीवनी और कमाऊ पूत है

लॉकडाउन में ढील मिलते ही राज्य सरकारों ने शराब की दुकानों को क्या खोला वहाँ से एक से एक एक तस्वीरें आने लगीं। तमाम तरह की बातें सुर्ख़ियाँ बनीं। सोशल मीडिया को शानदार मसाला मिला। शराब के प्रति जनता का ऐसा उत्साह उमड़ा कि सोशल डिस्टेंसिंग की हिदायतें पनाह माँगने लगीं। पुलिस के लिए नया सिरदर्द पैदा हो गया। मौके पर चौका लगाते हुए राज्य सरकारों ने शराब के दाम में 70 से 75 फ़ीसदी का इज़ाफ़ा कर दिया।

शराब को नैतिकता के घातक और सामाजिक बुराई की सबसे बड़ी वजह बताने वालों ने तरह-तरह के उपदेशों का अम्बार लगा दिया तो सरकारों को अपनी चरमरा चुकी माली हालत का वास्ता देकर शराब की बिक्री को सही ठहराना पड़ा। कोरोना संकट में भले ही कोई शराब के प्रति जनता की दीवानगी को शर्मनाक बताये, लेकिन सरकार के लिए यही संजीवनी है। इसीलिए लगे हाथ आवश्यक वस्तुओं की तरह शराब की होम डिलीवरी का मशविरा भी परवान चढ़ने लगा।

वैसे तो दुनिया की हरेक सभ्यता की तरह भारत में भी मदिरा सेवन की परम्परा वैदिक काल से ही क़ायम है। लेकिन कालान्तर में भारतीय समाज में शराब के सेवन को अनैतिक आचरण का दर्ज़ा दे दिया गया। हालाँकि, अमेरिका-चीन जैसे बड़े देशों के मुकाबले भारत में काफ़ी कम लोग शराब पीते हैं। केन्द्रीय सामाजिक न्याय मंत्रालय के तहत बने Alcohol and Drug Information Centre की 2017-18 की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत की कुल आबादी में से क़रीब 15 फ़ीसदी लोग ही शराब पीते हैं। ये अनुपात तो बड़ा नहीं है, लेकिन देश की आबादी को देखते हुए शराब पीने वालों की संख्या 20 करोड़ तक पहुँच जाती है, जो अपने-आप में एक बड़ी संख्या है। 

भारतीय पुरुषों में जहाँ 27 फ़ीसदी लोग शराब पीते हैं, वहीं महिलाओं में ये अनुपात 1.6 फ़ीसदी का है। इनमें से 5.7 करोड़ लोगों को शराब की ख़तरनाक लत है। ये लोग शराब पर बुरी तरह से निर्भर रहते हैं। इसीलिए शराब को घरेलू तनाव का एक महत्वपूर्ण कारण समझा जाता है। इसके अलावा, देश में शैक्षिक और सामाजिक स्थितियाँ भी ऐसी हैं कि कई बार शराब और संयम का सह-अस्तित्व क़ायम नहीं रह पाता और ढेर सारी हदों को तोड़ देता है। इसलिए भी नैतिक धरातल से पूरा प्रचार शराब के ख़िलाफ़ रहता है। अक्सर शराब के सेवन को उपहास और यहाँ तक कि शर्मनाक हरक़त की तरह भी देखा जाता है।

शराब के सेवन को सामाजिक कुरीति की तरह देखने की दूसरी सबसे बड़ी वजह है – सड़क हादसों में इसकी भूमिका। क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक़, देश में होने वाले 40 फ़ीसदी सड़क हादसों के पीछे शराब पीकर गाड़ी चलाने वाले होते हैं। नेशनल हाईवे पर ट्रकों से जुड़े 72 फ़ीसदी हादसों के पीछे शराब होती है। ऐसी तमाम वजहों को देखते हुए गुजरात, बिहार, आन्ध्र प्रदेश, मिज़ोरम, नगालैंड और लक्षद्वीप में शराब प्रतिबन्धित है।

अलबत्ता, ऐसी रोक से सबसे बड़ा नुकसान राज्य सरकार का ही होता है, क्योंकि उसे आबकारी टैक्स से हाथ धोना पड़ता है। जबकि दूसरी ओर, पीने-वाले अपना विकल्प विकसित कर लेते हैं। सरकारी राजस्व को चपत लगती है और शराब के तस्करों तथा पुलिस, नौकरशाही और राज नेताओं के लिए यही भ्रष्टाचार का ज़ोरदार ज़रिया बन जाता है। इसी वजह से हरियाणा में बंसी लाल सरकार को नशाबन्दी वापस लेनी पड़ी थी और अपना राजनीतिक पराभव भी झेलना पड़ा था।

महँगी शराब का सबसे ख़राब सामाजिक असर उस ग़रीब तबके पर पड़ता है जो अपनी कम आमदनी के बावजूद बीवी-बच्चों की ज़रूरतों की अनदेखी करके शराब पीता है। यही तबका ज़हरीली शराब कांडों की भी भेंट चढ़ता है। इन सारी वजहों से भारत में सरकारें शराब को विलासिता वाली ऐसी वस्तु की तरह देखते हैं जिसके सेवन को हतोत्साहित करने के लिए इस पर भारी-भरकम टैक्स लगाया जाता है। भारी टैक्स को लेकर सरकारों को कोई जन-विरोध नहीं झेलना पड़ता।

पेट्रोलियम उत्पादों के बाद शराब ही वो सबसे बड़ी और ख़ास चीज़ है जिससे सरकारों का ख़ज़ाना भरता है। ये सरकारों की कामधेनु हैं। इसीलिए सरकारें वक़्त-बेवक़्त इन्हें ही दुहती रहती हैं। क्योंकि इसकी टैक्स वसूली सबसे आसान होती है। सरकारें इसे अपनी पक्की आमदनी की तरह देखती हैं। कोरोना संकट में दोनों आमदनी ऐसी ख़त्म हुई कि सरकार के सामने अपने कर्मचारियों को वेतन देने के लिए पैसा जुटाने का संकट खड़ा हो गया। इसीलिए, उस दौर में लॉकडाउन में ढील देने की नौबत पैदा हो गयी, जब कोरोना के संक्रमितों और इससे मरने वालों की संख्या में बहुत तेज़ी से इज़ाफ़ा हो रहा हो।

कोरोना की चुनौती से निपटने में सरकारों की तैयारी वैसे ही काफ़ी ख़राब रही, इसके बावजूद जो कुछ भी किया जा रहा है, उसे भी जारी रखने के लिए पैसे तो चाहिए। लेकिन वेतन देने के ही लाले पड़ जाएँ तो बाक़ी कुछ कैसे जारी रहेगा? राज्यों का ख़ज़ाना खाली हुआ तो दिखने लगा कि केन्द्र सरकार की हालत तो और ख़राब है। इसने चार महीने से राज्यों को उनके हिस्से वाले जीएसटी का पैसा नहीं दिया है। इसीलिए, सबसे मिलकर तय किया है कि लॉकडाउन को ख़त्म करो, जो कोरोना से मरते हैं, उन्हें बचाने की कोशिश करो, किस्मत से बच गये तो ठीक, वर्ना मरने दो।

हिन्दू-मुस्लिम के बाद अब कोरोना का नया नैरेटिव ये है कि मृतक और संक्रमित इसलिए बढ़ रहे हैं क्योंकि सोशल डिस्टेंसिंग की धज़्ज़ियाँ उड़ाये जाने को रोकने में राज्य सरकारें नाकाम रहीं। राज्यों ने परदेस में फँसे अपने-अपने प्रवासी मज़दूरों की घर-वापसी के लिए कोहराम मचाया। वर्ना, 3 मई तक तो हालात बेकाबू नहीं हुए थे ना! तीन मई तक मोदी जी ने सब कुछ काबू में रखा, टेस्टिंग का इन्तज़ाम कम था लेकिन कोरोना वॉरियर्स की हौसला अफ़ज़ाई में कोई कमी नहीं थी। ताली-थाली वादन, शंखनाद और अन्धेरा-दीया से लेकर विमानों से पुष्प-वर्षा करवायी। इस बीच, राज्यों से आर्थिक गतिविधियों को बहाल करने का ऐसा दबाव बना कि लॉकडाउन में ढील देनी पड़ी। इस तरह, 3 मई के बाद हालात उनकी मुट्ठी से भी बाहर निकल गये। ये प्रचार भी चल रहा है कि मोदी जी क्या करते जब मुख्यमंत्री ने ही ये कहना शुरू कर दिया कि कोरोना जल्दी नहीं जाने वाला। जनता को इसके साथ ही जीना सीखना पड़ेगा।

राजनीति के इन पैंतरों से अलग सभी सरकारों की अन्दरुनी हक़ीक़त ये है कि पैसों की किल्लत की वजह से यदि कर्मचारी को वेतन देना मुहाल है तो फिर कोरोना से मुक़ाबले के लिए संसाधन कहाँ से आएँगे? रुपये की इन्हीं किल्लतों को देखते हुए पेट्रोल-डीज़ल को और महँगा बना दिया गया। शराब पर भी ज़बरदस्त कोरोना टैक्स उड़ेल दिया गया। राजस्व जुटाने की बदहवासी में केन्द्र सरकार को इतना भी होश नहीं रहा कि ध्वस्त हो चुकी अर्थव्यवस्था में पेट्रोल-डीज़ल जितने महँगे होंगे उतनी ही लागत और महँगाई को बढ़ाएँगे। आमदनी का सूखा झेल रही जनता महँगाई से और त्रस्त होगी। इससे राजस्व और गिरेगा। इस मामले में भारत को पाकिस्तान से सीखना चाहिए जिसने अपनी जनता के लिए पेट्रोल-डीज़ल के दाम में भारी कटौती कर दी और उत्पादकों को इसका फ़ायदा ग्राहकों को देने का आदेश दिया। यही अर्थशास्त्र का सही सबक है।

केन्द्र सरकार की देखा-देखी राज्यों की भी मति मारी गयी। इन्होंने भी पेट्रोल-डीज़ल पर वैट की दर बढ़ाने में बेहद फुर्ती दिखायी, क्योंकि इससे इनका 25 से 30 फ़ीसदी राजस्व आता है। ऐसा लगा कि जनता पर टैक्स का हमला करने को लेकर केन्द्र और सरकार के बीच प्रतिस्पर्धा छिड़ गयी कि कौन अपने सबसे कमाऊ पूत को कितना निचोड़ सकता है? राज्यों का दूसरा सबसे तगड़ा कमाऊ पूत शराब है। रिज़र्व बैंक की रिपोर्ट ‘State Finances: A study of budgets of 2019-20’ के अनुसार, राज्यों की 43.5% कमाई जीएसटी से है तो 23.5% पेट्रोल-डीज़ल पर लगने वाले उस वैट से है जो जीएसटी से बाहर है। शराब भी जीएसटी से बाहर है और इससे 12.5% आमदनी होती है।

बाक़ी, 11.3% हिस्सा सम्पत्ति की ख़रीद-बिक्री पर लगने वाली स्टैम्प ड्यूटी, मनोरंजन कर और अन्य स्रोतों के टैक्स की है। शराब पर लागू टैक्स का राष्ट्रीय औसत वास्तविकता से कम है, क्योंकि औसत वाले आँकड़े में शराबबन्दी वाले राज्यों का भी प्रभाव पड़ता है। वर्ना, सच्चाई तो ये है कि ज़्यादातर राज्यों का 15 से 20 फ़ीसदी राजस्व शराब की ब्रिकी से ही आता है। शराब से जुड़ी आमदनी का एक रोचक पहलू ये भी है कि एक झटके में इसके दाम के तक़रीबन दोगुना हो जाने के बावजूद शराब की दुकानों के आगे लम्बी-लम्बी कतारों की रंगत में कोई कमी नहीं आयी। इसीलिए, जनता जिसे शराब कहती है वही सरकार के लिए संजीवनी बन जाती है।

2019 के आँकड़ों के मुताबिक, भारत का शराब बाज़ार 36 लाख करोड़ रुपये का है। जबकि अन्य अल्कोहल उत्पादों का 2.5 लाख करोड़ रुपये का है। ये रक़म उत्तर प्रदेश जैसे सबसे बड़े राज्य की जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) के दोगुने से भी ज़्यादा है। यदि बात करें भारत में शराब की ख़पत के ट्रेंड की तो Alcohol and Drug Information Centre के सर्वे के अनुसार, भारत में 30 फ़ीसदी लोग स्प्रिट्स यानी व्हीस्की, रम, वोडका जैसे हार्ड लिकर का सेवन करते हैं। इतने ही लोग गाँवों में बनने वाली देसी या कच्ची शराब पीते हैं। जबकि 12 फ़ीसदी लोग स्ट्रांग बीयर और 9 फ़ीसदी लाइट बियर पीना पसन्द करते हैं।

शराब से सम्बन्धित अध्ययन करने वाले वैश्विक संगठन ‘International wine and spirits Research’ की 2017 की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में शराब की ख़पत कम है। अमेरिका में शराब पीने वालों के बीच इसकी सालाना प्रति व्यक्ति ख़पत 9.8 लीटर है, तो चीन में ये 7.4 लीटर तथा भारत में 5.9 लीटर है। वैसे भारत समेत पूरी दुनिया में शराब पीने वालों की तादाद लगातार बढ़ रही है। भले ही भारतीयों में शराब की ख़पत विकसित देशों के लोगों के मुक़ाबले कम हो, लेकिन तमाम मनोवैज्ञानिक और सामाजिक अध्ययन बताते रहे हैं कि शराब से जुड़े शिष्टाचार और आर्थिक-सामाजिक सरोकारों के मामले में अभी हमें बहुत कुछ सीखना है।

(मुकेश कुमार सिंह स्वतंत्र पत्रकार और राजनीतिक प्रेक्षक हैं। तीन दशक लम्बे पेशेवर अनुभव के दौरान इन्होंने दिल्ली, लखनऊ, जयपुर, उदयपुर और मुम्बई स्थित न्यूज़ चैनलों और अख़बारों में काम किया। अभी दिल्ली में रहते हैं।)

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