Thursday, April 25, 2024

मानव के लगभग समकक्ष बुद्धिमान प्राणी डॉल्फिन विलुप्ति के कग़ार पर

इस धरती पर मानव को यह बहुत ही गर्वोक्ति या दंभ है कि ‘इस धरती के हम सबसे बुद्धिमान प्राणी हैं।’ बहुत से मायनों में यह सत्य भी है,क्योंकि मानव इस धरती पर वह अपने बनाए वैज्ञानिक संसाधनों, उपकरणों से इतने तरह के जटिल संरचनाओं का निर्माण कर रहा है,कर चुका है कि इस धरती का कोई मानवेत्तर प्राणी उसकी इस उपलब्धि को छू भी नहीं सकता है। परन्तु उक्त इन्हीं बातों को आधार बनाकर मानव को इस धरती का ‘सर्वश्रेष्ठ बुद्धिमान प्राणी’ घोषित कर देना इस धरती के अन्य जीवों के प्रति पक्षपात और निर्ममता होगी, मसलन इस धरती के आँखों से दिखाई देने वाले प्राणियों में सबसे छोटी चींटी वर्षा आने से काफी पहले उसका पूर्वानुमान लगा लेती है, तद्नुसार वह अपनी,अपने नवज़ात शिशुओं और अपने अंडों को सुरक्षित जगह ले जाना प्रारंभ कर देती है, यही नहीं यह नन्हीं चींटियां करोड़ों साल से खेती करने और गाय पालने का काम बखूबी करतीं हैं (चींटियों के साथ ही एक नन्हा सा कीट होता है, जो मीठा श्राव छोड़ता है,जिसे चींटियां बड़े चाव से पीती हैं, उसी नन्हें कीट को चींटियों की गाय कहते हैं),जबकि पुरातात्वविक व नृवंश विज्ञान के वैज्ञानिकों के अनुसार मानव ईसापूर्व 7000 से लेकर 13000 वर्ष पूर्व के बाद से ही खेती और पशुपालन सीखा है,परन्तु अभी भी आज की आधुनिक दुनिया में इसी धरती पर बहुत से स्थान ऐसे हैं,जहाँ का मनुष्य अभी भी खेती करना जानता तक नहीं है, उदाहरणार्थ अफ्रीका के कुछ भाग, अरब का रेगिस्तान, तिब्बत, मंगोलिया के ऊँचे पठार, मध्य आस्ट्रेलिया, काँगो व अंडमान के वनवासी क्षेत्रों में आदि।

एक समूह में रहने वाली मधुमक्खी बगैर किसी औजार के अपने छत्ते के हर प्रकोष्ठ को इतने बारीक ढंग से सुनियोजित और समांग ढंग से बनाती है कि उसके बनाए हर प्रकोष्ठ मिलीमीटर के लाखवें हिस्से तक भी ‘एक जैसे’ होते हैं। जबकि एक दक्ष मानव इंजीनियर बगैर वैज्ञानिक संसाधन के मधुमक्खियों के छत्ते के प्रकोष्ठ इतनी दक्षता से बना ही नहीं सकता। मधुमक्खियों की अपने बच्चों के लिए शहद इकट्ठे करने की अतिदक्ष तकनीक में वे अपने सहकर्मियों को अपने छत्ते से पुष्प से आच्छादित खेतों की दूरी बताने के लिए अंग्रेजी के अंक आठ (8) के विभिन्न प्रकार बनाकर सूचना देतीं हैं, इसे उसकी सहकर्मी कमेरी मधुमक्खियाँ खूब ध्यान से और बारीकी से चारों तरफ से देखतीं रहतीं हैं, उसके बताए इशारे के संकेतों के सहारे बिना अपनी अतिरिक्त शक्ति का क्षय किए वे सटीक अपने पुष्पों वाले गंतव्य स्थान पर पहुँच जातीं हैं, इसी पर किए गये शोध के लिए एक जर्मन वैज्ञानिक व प्राणिशास्त्र के प्रोफेसर कार्ल वॉन को 1973 में नोबेल पुरस्कार जैसा प्रतिष्ठित पुरस्कार भी मिल चुका है। इसी प्रकार भूकंप आने से पूर्व चूहा और खरगोश जैसे अदने और तुच्छ जीव अपने बिलों से निकलकर बेचैनी से इधर-उधर उछलने-कूदने लगते हैं, अपने दरवाजे पर खूँटे में बंधीं गाँएं भी भूकंप से पूर्व बेचैन होकर रंभाने लगतीं हैं, हाथी के बारे में वैज्ञानिकों का अध्ययन यह बताता है कि एक शिशु हाथी भी अपने बचपन में एक बार जंगल के जिस रास्ते पर जाता है,उसके मस्तिष्क में वह रास्ता जीवन भर के लिए अंकित हो जाता है, उसी प्रकार मनुष्य के बहुत करीबी चिंपैंजी, वनमानुष और गोरिल्ले आदि, यहाँ तक कि बंदरों की कुछ प्रजातियाँ भी पत्थरों से कठोर फल तोड़ने के बहुत से उदाहरण डिस्कवरी चैनल आदि दिखाते रहते हैं, भालू, कुत्ते, दरियाई घोड़े, जंगली भैंसे आदि भी संकट में फँसे अन्य प्रजाति के जीवों की भी अक्सर मदद करते दिखते रहते हैं।

इसलिए यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि मानव ‘कुछ क्षेत्रों में’ अपनी बुद्धि का प्रयोग करके भले ही उन्नति के चरम पर है, लेकिन इस धरती के अन्य प्राणी भी ‘कुछ क्षेत्रों में ‘उदाहरणार्थ खेती करने में, पशुपालन में, भूकंप और मौसम के पूर्वानुमान में निश्चित रूप से वे मानव प्रजाति से बहुत ही आगे और समझदार हैं। ये एक संक्षिप्त विवरण उक्त उन कुछ समझदार और बुद्धिमान प्राणियों के बारे में है, जिसे हम पालते हैं या देखे हैं या वैज्ञानिक शोध करके हमें उनके विलक्षण बुद्धिमान होने का प्रमाण उपलब्ध कराए हैं, परन्तु इस धरती पर अन्य करोड़ों-अरबों ऐसे भी जीव होंगे, जो अपनी प्राकृतिक दुनिया में अन्य हैरतअंगेज व विलक्षण व्यवहार करते होंगे, जिसकी हम मानवप्रजाति को अभी तक पता ही नहीं है।

इसी क्रम में इस धरती पर एक और अतिबुद्धिमान व विलक्षण प्राणी वास करता है, जिसका नाम डॉल्फिन या सोंस नामक जीव की प्रजाति है, जो मानवीय गतिविधियों से आज विलुप्ति के कग़ार पर खड़ी है। यह अतिविकसित मस्तिष्क वाला एक स्तनधारी जीव है जो अपने शारीरिक संरचना एक जलीय जीव के रूप में विकसित कर लिया है, दुनिया भर में अभी तक इसकी कुल 40 प्रजातियाँ ज्ञात हैं, जिनमें 4 मीठे पानी, मतलब नदियों में रहतीं हैं, शेष खारे पानी के समुद्रों में निवास करतीं हैं। यह 1.2 मीटर से लेकर 9.5 मीटर लम्बी और 400 किलोग्राम से लेकर 10000 किलोग्राम तक वजनी और विशाल आकार की होती हैं। यह इस धरती पर 10 करोड़ साल से रहने वाला एक मांसाहारी जलीय जीव है। समुद्री जीवों के पारिस्थितिकी में शीर्ष पर विराजमान किलर ह्वेल जैसा विशालकाय प्राणी भी डॉल्फिन की ही एक प्रजाति है। वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार कुछ डॉल्फिन 28 वर्ष तो कुछ 60 वर्ष तक के जीवन को जीतीं हैं। मीठे पानी में रहने वाली डॉल्फिनों में गंगा डॉल्फिन और सिंधु नदी डॉल्फिन मुख्य हैं, इसका वैज्ञानिक नाम प्लैटनिस्टा गैंगेटिका (Platanista gangetica) है, जो मुख्यतः भारत, बाँग्लादेश और पाकिस्तान में पाई जातीं हैं, भारत में ये मध्यप्रदेश, राजस्थान, झारखण्ड, पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश और असम की लगभग सभी नदियों यथा गंगा, चम्बल, घाघरा, गण्डक, सोन, कोसी, ब्रह्मपुत्र आदि नदियों में पाई जातीं हैं।

मीठे जल की डॉल्फिनें नेत्रहीन होती हैं, ये मानव प्रजाति की तरह एक सामाजिक प्राणी हैं, ये 10 से 15 की झुंड में रहना पसंद करतीं हैं, अक्सर इनके झुंड में सभी पारिवारिक सदस्य यथा पिता, पुत्र, पुत्रियां, माँ, मौसियाँ आदि ही होती हैं, यें संगठित होकर शिकार करती हैं, डॉल्फिनों के पास मनुष्य जैसे जटिल व उन्नत मस्तिष्क होता है, ये बहुत कुछ सोचती-विचारती हैं, इनमें अतिविकसित बुद्धि होती है, इनमें आत्मबोध भी होता है, ये इतनी समझदार होतीं हैं कि ये औजारों का प्रयोग करना, बॉल को उछालना, छल्ले के बीच से सफलतापूर्वक पार हो जाना, किसी मानव के होठों को चूम लेना, अपनी पीठ पर बैठाकर दो डॉल्फिनों का बिल्कुल समानांतर तैरकर करतब दिखाना आदि कृत्य करना इनकी सहज वृत्ति हो जाती है।

इसका गर्भधारण 10 माह का होता है, प्रायः मादा डॉल्फिन एक बार में एक ही शिशु को जन्म देतीं हैं, प्रसव के कुछ दिनों पूर्व से ही गर्भवती मां की देखभाल के लिए पाँच-छः अन्य मादा डॉल्फिनें उसकी देखभाल में जुट जातीं हैं, प्रसव होते समय, जो लगभग अक्सर दो घंटे का समय होता है, ये सहायक डॉल्फिनें पूरे समय तक माँ और नवजात शिशु की तत्परतापूर्वक मदद के लिए तैयार रहतीं हैं। बच्चे के सकुशल जन्म के बाद यह डॉल्फिन समूह मनुष्यों जैसे नृत्य कर खुशी का इजहार भी करता है। चूँकि डॉल्फिन एक स्तनधारी जीव है,जो अपनी नाक और फेफड़ों की मदद से साँस लेता है,इसलिए प्रसव के तुरंत बाद ये सहायता को प्रतिबद्ध ये डॉल्फिनें उस नवजात शिशु को सांस लेने के लिए तुरंत पानी की सतह पर लेकर आने में मदद करतीं हैं। मानव माँ की तरह ही माँ डॉल्फिन अपने नन्हें बच्चे का भरपूर खयाल रखती हैं, यथा शत्रुओं से उनकी रक्षा करती है, शिकार करने के तरीके सिखाती हैं, शत्रुओं से बचना व मुकाबला करना आदि सिखातीं हैं। एक साल तक अपना स्तनपान कराती हैं।

डॉल्फिनें सामान्यतः 35 से 65 किलोमीटर प्रतिघंटे की रफ्तार से तैरतीं हैं,परन्तु किसी विशेष परिस्थिति में यथा शिकार करने, पीछा किए जाने पर या क्रोधित होने पर ये अपनी स्पीड 90 किलोमीटर प्रति घंटे की स्पीड से 113 किलोमीटर दूर तक लगातार तैरने वाले अद्भुत क्षमता वाले जीव हैं, यह 300 मीटर तक की अतल गहराई में सफलतापूर्वक गोता लगा सकती है, यह कुशल तैराक जीव 10 से 15 मिनट तक पानी में अपना साँस रोककर रह सकता है। गहराई में गोता लगाते समय इनकी हृदय की धड़कन आधी हो जाती है, ताकि इन्हें ऑक्सीजन की जरूरत कम हो। इसकी सूँघने शक्ति बहुत ही जबरदस्त होती है ये अपनी दृष्टिहीनता की पूर्ति अपनी अद्भुत व विलक्षण घ्राणशक्ति और ध्वनि तरंगों को पकड़ने की आश्चर्यजनक क्षमता से पूर्ति कर लेतीं हैं।

इनकी पानी में ध्वनितरंगों को पकड़ने कि क्षमता इतनी शक्तिशाली होती है, कि ये पानी में 24 किलोमीटर दूर से आ रही ध्वनितरंगों को पहचान सकतीं हैं और उसके अनुसार अपनी रणनीति बना लेतीं हैं। डॉल्फिनों का मुख्य भोजन नदी पारिस्थितिकी में उगने वाली घास पर पलनेवाली छोटी मछलियाँ होतीं हैं,नदी परितंत्र में छोटी मछलियों की संख्या कम रहने से जलीय वनस्पतियों की पर्याप्तता से पानी में ऑक्सीजन की मात्रा संतुलित रहित रहती है, इसीलिए डॉल्फिन नदी की जलीय पारिस्थितिकी में शीर्ष पर रहकर उसमें रहने वाले सभी जीवों के स्वस्थ्य रहने के लिए इस धरती की अमूल्य धरोहर हैं, जैसे जंगल के पारिस्थितिकी को स्वस्थ्य रखने के लिए बाघ का रहना अत्यंत आवश्यक है।

डॉल्फिन एकदम स्वच्छ व शांत जल में रहने वाला जीव है, लेकिन आजकल नदियों में मानवीय गतिविधियों की भरमार है, उदाहरणार्थ सैन्य, मत्स्य पालन, तेल-गैस आदि के दोहन, मोटरबोट्स के संचालन के शोर, नदियों की गहराई कम होना,तल में गाद भरना,किसानों द्वारा कीटनाशकों व रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुंध प्रयोग से वर्षाजल में उनका नदी जल में सकेंद्रण होना, अत्यधिक प्रदूषण, नदियों में मछली पकड़ने के जाल, नदियों पर जगह-जगह बने बैराज और बड़े-बड़े बाँध आदि, जिससे नदियों का प्राकृतिक सतत जलप्रवाह बाधित होता है आदि कारणों से डॉल्फिनों में रोग प्रतिरोधक क्षमता उत्तरोत्तर घटती जा रही है, इसके इसके तेल के लिए इसके रात में अवैध शिकार करने आदि से भी, इस बहुमूल्य जीव की संख्या उत्तरोत्तर घटती जा रही है, एक आकलन के अनुसार पिछले दो दशकों पूर्व इसकी संख्या भारत में लगभग 5000 तक थी, वह सिमटकर आज 1500 से 2000 तक रह गई है।

डॉल्फिनों का सर्वप्रथम वैज्ञानिक अध्ययन 1879 में जॉन एंडरसन ने किया था, उसके बाद इसके अंधाधुध शिकार से इसके चिंतित कर देने वाले इसकी घटती संख्या ने इसके संरक्षण हेतु 1972 में ‘वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 ‘ के अन्तर्गत इसके संरक्षण के कार्य को प्राथमिकता के तौर पर भारत सरकार ने निर्णय लिया। भारत सरकार ने डॉल्फिनों को ‘नॉन ह्यूमन पर्सन’ या ‘गैर मानवीय जीव ‘की श्रेणी में रखा है यानि एक ऐसा जीव जो इंसान न होते हुए भी इंसान की तरह जीना चाहता है और वैसे ही जीने का अपना अधिकार रखता है। यह भी एक भव्य ऐतिहासिक साक्ष्य है कि यशस्वी मौर्य सम्राट, सम्राट अशोक भी इसके संरक्षण के लिए प्रयत्नशील थे।

इसके लिए देश भर में इस अमूल्य जीव रूपी धरोहर को बचाने के लिए तमाम स्वयं सेवी संस्थाओं व शहरों के नगर निगमों द्वारा भी प्रयास किए जा रहे हैं, जैसे 5 अक्टूबर 2009 को गंगा डॉल्फिन को भारत सरकार ने इसे ‘राष्ट्रीय जलीय जीव’ घोषित किया, गुवाहाटी नगर प्रशासन ने इसे ‘शहरी पशु’ घोषित किया है, बिहार में भागलपुर जिले में स्थित ‘विक्रमशिला गंगेटिक डॉल्फिन अभयारण्य’ को डॉल्फिन के लिए संरक्षित नदी क्षेत्र घोषित किया गया है, इसके अलावे वर्ल्ड वाइल्ड फंड फॉर नेचर इंडिया द्वारा उत्तर प्रदेश में डॉल्फिन संरक्षण एवम् उनके आवास में उन्हें फिर से संरक्षित करने और उन्हें बसाने के कृत्य के अन्तर्गत हाल ही में उत्तर प्रदेश के वन विभाग और वर्ल्ड वाइल्ड फंड फॉर नेचर इंडिया ने मिलकर गंगा में डॉल्फिनों की वार्षिक जनगणना शुरू की है, इस जनगणना में ऊपरी गंगा के हस्तिनापुर वन्यजीव अभयारण्य और नारायण रामसर साइट तक लगभग 250 किलोमीटर तक के क्षेत्र में डॉल्फिनों की गणना नाव सर्वेक्षण पद्धति से करने की पहल बिजनौर से शुरू किया गया, इस पद्धति से डॉल्फिनों की बहुत सटीक गणना होती है। उक्त तमाम संस्थाओं और लोगों के सद्प्रयास से अब आशा है यह बहुमूल्य जीव बच जाय।

(निर्मल कुमार शर्मा, गौरैया एवं पर्यावरण संरक्षण तथा पत्र-पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन करते हैं।)

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