Wednesday, April 24, 2024

सर के हिजाब न देख, उनका जज़्बा देख

जब घर से निकल के एहतेजाज ज़रूरी हो

तब क्यों ऐसे में हिजाब पे ऐतराज ज़रूरी हो

इन पंक्तियों का लेखक भारत सरकार की दो संस्थाओं का मॉनीटर रह चुका है, जिसमें एक संस्था सभी महिलाओं के आर्थिक विकास के लिए काम करती थी, तो दूसरी अल्पसंख्यकों व अल्पसंख्यक महिलाओं के सामाजिक आर्थिक विकास के लिए काम करती थी। अपने कार्यकाल के दौरान मेरा यह अनुभव रहा कि अल्पसंख्यक महिलाओं में गरीबी और अशिक्षा समस्या है। हिजाब समस्या नहीं रहा है। इसी से सम्बंधित एक अनुभव तब हुआ था जब भारत सरकार के उच्चाधिकारी से वार्ता के दौरान यह मसला आया कि यदि किसी समुदाय/परिवार में बाल विवाह जैसी बुराई हो, तो क्या उस समुदाय को आर्थिक-सामाजिक मदद दी जानी चाहिए ? इसका हल यही निकला कि सहायता ज़रूर दी जानी चाहिए। क्योंकि पहली समस्या गरीबी और सामाजिक आर्थिक पिछड़ापन है, बाकी समस्या का नम्बर तो उसके बाद आता है।

अपने एक्टीविज़्म के दौरान मैंने करीब दस हजार परिवारों के साथ काम किया उसमें से आधे से अधिक मुस्लिम परिवार थे तब मेरी यह  कोशिश थी कि मुस्लिम महिलाएं अपनी सामाजिक-आर्थिक जड़ता को खत्म करने के लिए आगे आएं। इस कोशिश से मुस्लिम महिलाएं हिजाब पहन कर ही बाहर निकलीं और उन्होंने अपने परिवार और समाज के लिए सकारात्मक हिस्सेदारी की। आज भी मुझे ऐसी महिलाएं मिलती रहती हैं जिनके लिए मैने कुछ न कुछ किया था।

जामिया मिल्लिया इस्लामिया के लाइब्रेरी में पुलिस की बर्बरता की तस्वीर (फाइल फ़ोटो)

जामिया मिल्लिया इस्लामिया (जो कोई मुस्लिम इदारा नहीं है) एक सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी है, जिसमें दो साल पहले पुलिस ने छात्रों पर बहुत ज़ुल्म किए थे। छात्रों को हॉस्टल और लाइब्रेरी में दुश्मनों की तरह पीटा था। तब जामिया के छात्रों के इस आंदोलन में हिजाब पहने हुए लड़कियां/महिलाएं पुलिस से भिड़ गईं थीं। लोगों को अभी तक जामिया की उन हिजाबी लड़कियों की तस्वीरें याद हैं, जिन्होंने पुलिस की लाठी बंदूक के सामने अपनी उंगली उठाई थी। तब किसी ने उनके हिजाब पर सवाल नहीं उठाए थे। उनकी हिम्मत की दाद दी थी। इस यूनिवर्सिटी की हिजाबी छात्राओं ने अपने यूनिवर्सिटी के इल्म का हक़ अदा कर दिया था।

इसी तरह भारत ही नहीं दुनिया के इतिहास में एनआरसी #NRC #CCA का आंदोलन दर्ज हो चुका है। इन पंक्तियों के लेखक ने देश के नागरिकों के खिलाफ थोपे जाने वाले #एनआरसी #NRC #CCA के आंदोलन को उत्तर भारत से लेकर दक्षिण तक लगातार देखा था।

हल्द्वानी, देहरादून, दिल्ली (दिल्ली में पांच जगह जामा मस्जिद, शाहीन बाग, तुर्कमान गेट, चांद बाग और इन्द्र पुरी) बंगलौर में तीन जगह और सेवाग्राम महाराष्ट्र में एक जगह आंदोलन को देखने और समझने का मौक़ा मिला था। यह सही है कि उस आंदोलन में समाज के सभी प्रगतिशील लोगों ने अपनी सक्रिय भागीदारी दी थी। लेकिन यह भी सच है कि उसमें मुस्लिमों और मुस्लिम महिलाओं की हिस्सेदारी अहम थी। युवा मुस्लिम लड़कियों और महिलाओं ने हिजाब पहन कर आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था, बहुत सी जगह आगे बढ़कर नेतृत्व किया था। रैलियों को लीड किया, और बड़ी बड़ी सभाओं का संचालन किया था। उनसे बातचीत करके मैंने उनके जज़्बे को देखा और समझा था।

उस दौर को लोगों ने भी हैरत से देखा कि कैसे समाज में दब्बू और दकियानूस बताई जाने वाली मुस्लिम महिलाओं ने देश व समाज के लिए, और आने वाली पीढ़ी के लिए घरों से निकलना ज़रूरी समझा था। उन्होंने हिजाब की कोई रुकावट नहीं मानी और उसी के साथ घर से बाहर निकल गईं। शाहीन बाग में मुस्लिम महिलाओं की हिम्मत दुनिया में एक मिसाल बन गई। जामा मस्जिद जैसी मज़हबी जगह पर मुस्लिम महिलाओं के आंदोलन ने इतिहास में एक नई इबारत लिख दी। शायद तब हिजाब एक मसला नहीं था, उनके लिए एक जरिया भी था।

मुझे यह बताते हुए माफ़ कीजियेगा कि तब मुस्लिम महिलाओं ने मज़हबी कट्टर लोगों की मर्जी के ख़िलाफ़ पहली बार इतना बड़ा मूवमेंट किया था। कई जगह सत्ता के पसंदीदा मजहबी रहनुमाओं ने अन्दर खाने महिलाओं के इस आंदोलन को रोकने-टोकने की बहुत कोशिश की थी। देहरादून और बंगलौर में सत्ता प्रतिष्ठान के नज़दीकी मज़हबी रहनुमा और उसके साथियों ने महिलाओं के इस आंदोलन को तोड़ने और ख़त्म करने की हरचंद कोशिश की थीं। लेकिन मुस्लिम महिलाएं अपने मोर्चे पर डटी रहीं थीं। तब मुझे हिजाब में और हिजाब का वह आंदोलन बहुत प्रभावी लगा था।

हमारे पड़ोसी मुल्क बांग्लादेश में गरीबी दूर करने की मुहिम में प्रो. यूनूस के साथ लाखों महिलाएं हिजाब पहनकर ही बाहर निकलीं थीं। बंगलादेश ग्रामीण बैंक के माईक्रो क्रेडिट प्रोग्राम का सारा दारोमदार महिलाओं की हिस्सेदारी और भागीदारी पर है, जो आज भी जारी है। अनपढ़, गरीब और दकियानूसी समझी जाने वाली बांग्लादेशी महिलाओं के एक्टीविज़्म से बांग्लादेश की ग़रीबी बहुत हद तक दूर हुई। पूरी दुनिया ने महिलाओं की मुहिम को सराहा।  बांग्लादेश ग्रामीण बैंक के प्रमुख प्रो. यूनूस जब अपना आधा नोबेल का शान्ति पुरस्कार लेने ओस्लो गए तो, बाकी आधा पुरस्कार बांग्लादेश ग्रामीण बैंक की तरफ से लेने के लिए एक हिजाबी महिला ही ओस्लो गई थीं।

अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हिजाब को कोई रुकावट या बाधा और दकियानूसी निशानी की बात नहीं माना जाता है, इसे एक परम्परागत पहनावे और एथेनिक ड्रेस के रूप में स्वीकार किया जाता रहा है। हर वर्ष एक फरवरी को वर्ल्ड हिजाब डे मनाया जाता है।

अमेरिका जैसी खुली सोसाइटी में हिजाब में रहकर लड़कियों की शिक्षा की मुहिम चलाने वाली मलाला यूसुफजई के लिए भी हिजाब बाधा नहीं रहा। इसी का सहारा लेकर वो लगातार पाकिस्तान और अफगानिस्तान में अपनी मुस्लिम लड़कियों में शिक्षा बढ़ाने की मुहिम चला रही हैं। वो भी समझती हैं कि पहली बात लड़कियों/महिलाओं की शिक्षा और समझदारी की है, इसी से तरक्की के रास्ते खुलेंगे। शायद इसी आधार पर उन्होंने भारत में हिजाब का समर्थन किया है।

मलाला यूसुफजई को नोबेल पीस पुरस्कार मिलने से पहले 2011 में जिन तीन महिलाओं को एक साथ नोबेल शांति पुरस्कार मिला। वो तीनों अपनी-अपनी पसंद/विश्वास के मुताबिक हिजाब पहनने वाली थीं। जिसमें से एक यमन की मुस्लिम एक्टिविस्ट थी, जिसने अरब स्प्रिंग के दौर में अपने देश में सरकार के विरुद्ध स्वतंत्रता और मानवाधिकार सुरक्षा का आंदोलन चलाया था। यानि कि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किसी भी तरह के अशिक्षा, नाइंसाफी, गैर-बराबरी, ग़ुलामी और मानवाधिकार हनन के खिलाफ आंदोलन चलाने में हिजाब किसी तरह की रूकावट नहीं है। अगर हिजाब से एक्टिविज्म पर कोई रुकावट नहीं, तो बिला वजह हिजाब को निशाना क्यों बनाया जा रहा है।

समाज में अगर हिजाब पहने लड़कियां बदलाव ला रही हैं तो उनका ख़ैरमक़दम, और स्वागत किया जाना चाहिए। हिजाब लगाकर मुस्लिम महिलाओं ने बड़े-बड़े मोर्चे फतेह किए हैं और आगे भी करेंगी।

अभी हाल की बात इलाहाबाद में रेल परीक्षा रद्द होने पर हुए बवाल में एक युवा रोते और गिड़गिड़ाते हुए पुलिस से माफी मांग रहा था। जबकि जामिया में हिजाबी लड़कियों ने पुलिस की लाठी के जवाब में अपनी उंगली उठाई थी। अब समाज को तय करना है कि वह जुल्मो-सितम के आगे खड़े होने वाले युवाओं को पसंद करेगा या फिर गिड़गिड़ाने वाले युवाओं को।

घर से बाहर निकली हैं वो अपने मक़सिद के लिए

उनके सर के हिजाब न देख उनका जज़्बा देख

(इस्लाम हुसैन आप लेखक और टिप्पणीकार हैं, काठगोदाम में रहते हैं )

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