इतिहासकार गेल ओमवेट ने लिखा है कि “आंबेडकर का बुनियादी संघर्ष एक अलग स्वतंत्रता का संघर्ष था। यह संघर्ष भारत के सर्वाधिक संतप्त वर्ग की मुक्ति का संघर्ष था। उनका स्वाधीनता संग्राम उपनिवेशवाद के विरुद्ध चलाए जा रहे स्वाधीनता संग्राम से वृहद और गहरा था। उनकी नज़र नवराष्ट्र के निर्माण पर थी।” ( स्रोत- आंबेडकर प्रबुद्ध भारत की ओर, पृ.149, गेल ओमवेट)
क्यों गेल ओमवेट आंबेडकर के स्वतंत्रता संघर्ष को उपनिवेशवाद के विरूद्ध चलाए जा रहे स्वतंत्रता संघर्ष से वृहद और गहरा कह रही हैं। क्योंकि गांधी के नेतृत्व में चल रहे उपनिवेशवाद (ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता) संघर्ष के निशाने पर एकमात्र ब्रिटिश सत्ता थी। जिसका मुख्य लक्ष्य अंग्रेजों से राजनीतिक सत्ता हासिल करना था।
जबकि आंबेडकर के नेतृत्व में चल रहे स्वतंत्रता संघर्ष के निशाने पर भारत के देशी शोषक-उत्पीड़क थे। जिसे उन्होंने ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद के रूप में चिन्हित किया। ऐसा नहीं कि आंबेडकर उपनिवेशवाद को भारतीय जनता के शोषक-उत्पीड़क के रूप में नहीं देखते थे और उससे मुक्ति की जरूरत नहीं समझते थे।
उन्होंने साफ शब्दों में लिखा है कि “मेरे मतानुसार ब्रिटिश सत्ता तथा ब्राह्मणी सत्ता हिंदू जनता के शरीर में लगी दो जोंक हैं, तथा ये बिना रूके भारतीय जनता का खून पी रही हैं।”(बहिष्कृत भारत की संपादकीय, सम्यक प्रकाशन पृ.33)।
लेकिन वे ब्राह्मणवाद को साम्राज्यवाद (उपनिवेशवाद) से कम बुरा नहीं मानते थे, बल्कि उससे हजार गुना ज्यादा बुरा मानते थे। उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि, ‘ब्राह्मणवाद साम्राज्यवाद से हजार गुना बुरा है।’ (बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर, संपूर्ण वांग्मय, खंड-39, पृ.32) उन्होंने भारत के मेहनतकशों ( श्रमिकों) के दो दुश्मन चिन्हित किए- ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद।
डॉ. आंबेडकर ने जीआईपी दलित वर्ग कामगार सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा कि “मेरी मान्यतानुसार इस देश में कामगारों को दो शत्रुओं का मुकाबला करना होगा। वे दो शत्रु हैं-‘ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद’। ((Babasaheb Dr. Ambedkar Writings and Speeches, Volume number 17, Part 3, page no.177 ( Chapter number 44). English edition.) साफ है वे भारत के मेहनतकशों की स्वतंत्रता ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद से मुक्ति में देखते थे।
आंबेडकर ब्रिटिश सत्ता रूपी जोंक और ब्राह्मणी सत्ता रूपी जोंक दोनों से मुक्ति से चाहते थे। वे दोनों के खिलाफ एक साथ संघर्ष चलाने के हिमायती थे। उन्होंने कांग्रेस के सामने यह प्रस्ताव भी रखा था कि यदि वह ब्राह्मणवाद विरोधी उनके संघर्ष को अपने एजेंडे में शामिल कर ले, तो वे कांग्रेस के साथ मिलकर स्वतंत्रता के संघर्ष में हिस्सेदारी करेंगे। कांग्रेस ने उनके इस प्रस्ताव को न स्वीकार किया और न ही कोई जवाब दिया।
आंबेडकर भारतीयों की बहुसंख्यक आबादी की स्वतंत्रता की तीन अनिवार्य शर्तें मानते थे। एक ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्ति। दूसरी ब्राह्मणवाद से मुक्ति और तीसरी पूंजीवाद से मुक्ति। वे पूरे देश के लिए स्वतंत्रता के लिए साम्राज्यवाद से मुक्ति अनिवार्य मानते थे।
लेकिन साम्राज्यवाद के मुक्ति से ब्राह्मणवाद के चंगुल में पीस रहे लोगों को अनिवार्य और अपरिहार्य तौर पर मुक्ति मिल जाएगी, ऐसा नहीं सोचते थे। इससे उलट उन्हें इस बात की न सिर्फ आशंका थी, बल्कि विश्वास था कि साम्राज्यवाद से मुक्ति के बाद राजनीतिक सत्ता भी उन लोगों के हाथ में चली जाएगी, जो ब्राह्मणवादी शक्तियां हैं।
जिनके पास पहले से ही सामाजिक सत्ता है। इसको वे बहुसंख्यक भारतीय समाज विशेषकर दलितों और महिलाओं के लिए आपदा की तरह देखते थे, क्योंकि ऐतिहासिक तौर पर दलित और महिलाएं ब्राह्मणवादी शक्तियों के दासता और शोषण-उत्पीड़न का सबसे अधिक शिकार रही हैं।
आंबेडकर का साफ मानना था कि ब्राह्मणवाद से मुक्ति के बिना दलित और महिलाएं स्वतंत्रता की कल्पना भी नहीं कर सकती हैं। उनकी स्वतंत्रता का मुद्दा ब्राह्मणवाद से मुक्ति से जुड़ा हुआ है।
साम्राज्यवाद से मुक्ति और ब्राह्मणवाद से मुक्ति से मेहनतकशों की भी मुक्ति हो जाएगी, उन्हें भी स्वतंत्रता मिल जाएगी। आंबेडकर ऐसा नहीं सोचते थे, उनकी साफ समझ थी कि भारत के मेहनतकशों (कामगारों) को ब्राह्मणवाद से मुक्ति के साथ ही पूंजीवाद से भी मुक्ति हासिल करनी होगी, तभी उन्हें वास्तविक स्वतंत्रता मिल पाएगी।
आंबेडकर के पूरे लेखन और संघर्ष को देखकर साफ लगता है कि उन्हें साम्राज्यवाद और ब्राह्मणवाद से मुक्ति का सवाल एक जनवादी कार्यभार है, और वे इसे इसी रूप में देखते थे, भले ही इस रूप में उन्होंने इसे सूत्रबद्ध न किया हो।
इन दोनों कार्यभारों को काफी हद तक पूंजीवादी दायरे में भी पूरा किया जा सकता है। लेकिन कामगारों को मुक्ति और स्वतंत्रता पूरी तरह तभी मिल सकती है, जब उन्हें ब्राह्मणवाद के साथ पूंजीवाद से भी मुक्ति मिले। तय है पूंजीवाद से मुक्ति और स्वतंत्रता, समाजवाद की ओर ले जाती है। शायद यही वजह है कि आंबेडकर बार-बार समाजवाद की बातें करते दिखते हैं।
हालांकि वे समाजवाद की परिकल्पना एक लोकतांत्रिक समाजवाद की रूप में करते हैं। उसे राजकीय समाजवाद कहते हैं। संविधान सभा में नेहरू द्वारा प्रस्तुत संविधान की उद्देशिका पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि उद्देशिका में जिस आर्थिक न्याय और सामाजिक न्याय आदि की बातें की गई है, आखिर उन्हें हासिल कैसे किया जाएगा।
इसका जवाब देते हुए उन्होंने ही स्वयं कहा कि यह सब समाजवाद के बिना हासिल नहीं किया जा सकता है। यहां तक वे संविधान का अंतिम ड्राफ्ट प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि राजनीतिक समता को सामाजिक और आर्थिक समता कायम किए बिना ज्यादा दिनों तक कायम नहीं रखा जा सकता है।
संविधान सभा में शामिल होने से पहले वे खुद जो संविधान (‘स्टेट एडं मॉइनारिटी’) तैयार करते हैं, उसमें भारत में राजकीय समाजवाद कायम करने का प्रावधान करते हैं।
स्पष्ट है कि आंबेडकर आज़ादी से पहले भारत की जनता के तीन दुश्मन देखते हैं- साम्राज्यवाद, ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद। वे अपने लेखन में बार-बार रेखांकित करते हैं कि ब्राह्मणवादी शक्तियां सिर्फ और सिर्फ साम्राज्यवाद से मुक्ति चाहती हैं। लेकिन वे अपने ब्राह्मणवादी वर्चस्व को छोड़ने के लिए तैयार नहीं, ब्राह्मणवाद विरोधी संघर्ष में उनकी कोई रुचि नहीं है, बल्कि वे उसके खिलाफ हैं।
आंबेडकर यहीं नहीं रुकते वे इससे भी आगे बढ़ते हैं, वे मेहनतकशों के लिए भी स्वतंत्रता हासिल करना चाहते हैं, इसके लिए पूंजीवाद से मुक्ति भी अनिवार्य मानते हैं। आंबेडकर स्वतंत्रता के अपने संघर्ष के दायरे में सबको शामिल करते हैं।
वे सिर्फ साम्राज्यवाद की गुलामी के शिकार लोगों के लिए स्वतंत्रता नहीं चाहते हैं। वे ब्राह्मणवाद की गुलामी के शिकार लोगों के लिए स्वतंत्रता चाहते हैं, इतना ही नहीं वे पूंजीवाद की गुलामी में पिस रहे लोगों के लिए भी स्वतंत्रता चाहते हैं।
उनके स्वतंत्रता संग्राम का दायरा गांधी और कांग्रेस के नेतृत्व में चल रहे स्वतंत्रता संग्राम से बहुत ज्यादा वृहद और गहरा था। जो साम्राज्यवाद, ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद के खात्मे तक जाता है।
(डॉ. सिद्धार्थ लेखक और पत्रकार हैं।)