Friday, April 19, 2024

हिंदू पाखंड को खंड-खंड करतीं ‘डॉक्टर अंबेडकर की पहेलियां’

डॉ. भीमराव आंबेडकर भारत के उन नेताओं में अग्रणी रहे, जिन्होंने देश के नव-निर्माण को नई दिशा दी। जोतीराव फुले द्वारा शूद्रों-अतिशूद्रों के प्रबोधीकरण के लिए तैयार की गई जमीन को उन्होंने न केवल सींचा, बल्कि उसमें आधुनिक विचारों का ऐसा बीजारोपण किया था, जिससे आज यहां लोकतंत्र की फसल लहलहा रही है। यह सभी जानते हैं कि जाति प्रथा भारतीय समाज का सदियों पुराना कोढ़ है। ऐसा कोढ़, जिसने समाज को टुकड़ों-टुकड़ों में बांटकर रखा है।

हिंदू धर्म आधारित भारतीय समाज के इस कोढ़ को अंग्रेजों ने भी पहचान लिया था, किंतु उनका उद्देश्य यहां राज करना था। प्रभु-वर्ग के विशेषाधिकारों को चुनौती देकर वे अपनी सत्ता के लिए संकट खड़ा नहीं करना चाहते थे, इसलिए वे जाति, धर्म तथा उनसे उत्पन्न समस्याओं को वस्तुनिष्ठ नजरिए से देखते रहे। हालांकि इस क्षेत्र में उन्होंने जो किया वह सर्वथा वृथा नहीं था।

पश्चिम के विद्वानों ने संस्कृत ग्रंथों के जो अनुवाद तथा परिचयात्मक एवं विवेचनात्मक ग्रंथ तैयार किए थे- उनसे डॉ. आंबेडकर जैसे विद्वानों को जो संस्कृत पढ़े-लिखे नहीं थे, या जिन्हें संस्कृत पढ़ने से वंचित किया जाता था-हिंदू धर्म-दर्शन को गहराई से समझने का अवसर मिला। इसका परिणाम यह हुआ कि ब्राह्मणवाद का वास्तविक चेहरा समाज के सामने आने लगा। बुद्धिजीवियों में धर्म-दर्शन के प्रति आलोचनात्मक दृष्टि विकसित हुई।

डॉ. आंबेडकर ने न केवल भारतीय समाज की विकृतियों का विश्लेषण किया, अपितु दमित-शोषित वर्गों को उन विकृतियों के खिलाफ उठ खड़े होने के लिए तैयार भी किया। जाति-व्यवस्था तथा उसके कारणों की पड़ताल करते हुए उन्होंने विपुल साहित्य की रचना की। इस संदर्भ में उनकी तीन पुस्तकें, ‘जाति का विनाश’, ‘शूद्र कौन थे’ तथा ‘हिंदू धर्म की पहेलियां’ प्रमुख हैं। ‘जाति का विनाश’ मूलतः एक भाषण था, जिसे उन्होंने 1936 में होने वाले ‘जात-पात तोड़क मंडल’ के लाहौर अधिवेशन के लिए तैयार किया था।

वहीं ‘शूद्र कौन थे’ एक विश्लेषणात्मक पुस्तक थी, जो दलितों को उनके गौरवशाली अतीत से पहचान कराती है। ‘हिंदू धर्म की पहेलियां’ में उन्होंने हिंदुओं के जीवन और धर्मशास्त्रों के विरोधाभासों का अन्वेषण किया है। यह पुस्तक न केवल ब्राह्मणों की बौद्धिक प्रखरता के मिथ को छिन्न-भिन्न करने में सफल है, बल्कि उनके उन तर्कों और मान्यताओं को भी निशाना बनाती है, जो हिंदुओं के लोकतांत्रिकरण की सबसे बड़ी बाधा हैं।

हाल ही में ‘हिंदू धर्म की पहेलियां’ का संकलित, संपादित और ससंदर्भ संस्करण ‘फारवर्ड प्रेस’ द्वारा प्रकाशित की गई है। इसके संकलक और संपादक हैं डॉ. सिद्धार्थ तथा अनुवाद अमरीश हरदेनिया ने किया है। डॉ. सिद्धार्थ ने मूल पहेलियों में आए विभिन्न प्रसंगों, घटनाओं और तथ्यों के बारे में विशेष टिप्पणियों, परिचय आदि के द्वारा इसे और भी प्रासंगिक एवं धारदार बना दिया है। इस दृष्टि से पुस्तक का यह संस्करण, पूर्व प्रकाशित संस्करणों से अधिक उपयोगी है।

यह पुस्तक महत्वपूर्ण क्यों है और इसका उद्देश्य क्या है, इस संबंध में स्वयं डॉ. आंबेडकर कहते हैं, “‘हिंदू धर्म की पहेलियां’ का, ‘उद्देश्य हिंदुओं का ध्यान ब्राह्मणों की धूर्तताओं की ओर आकृष्ट करना है। ताकि वे स्वयं विचार करें और समझें कि ब्राह्मणों ने उन्हें किस तरह से छला और गुमराह किया है।” (पृष्ठ 52)।

पुस्तक का अन्य ‘उद्देश्य दुनिया को यह बताना है कि हिंदू आध्यात्मिक ग्रंथों में कुछ भी आध्यात्मिक नहीं हैं’ (भूमिका, पृष्ठ 33)। ये ग्रंथ विशुद्ध रूप से राजनीतिक ग्रंथ है, जो धर्म की आड़ लेकर ब्राह्मण वर्ग के विशेषाधिकारों को दैवीय घोषित करते हैं।

सभी जानते हैं कि डॉ. आंबेडकर ने हिंदू धर्म में व्याप्त जातिवाद और वर्चस्ववाद का विरोध किया था और उन्होंने इस धर्म का परित्याग कर दिया। उन्होंने 1935 में ही इसे छोड़ देने की घोषणा की थी। अपने भाषण ‘जाति का विनाश’ में उन्होंने हिंदुओं को ‘भारत के बीमार लोग’ बताया था। 1935 में हिंदू धर्म को छोड़ने की घोषणा के बाद से 1956 में विधिवत बौद्ध धर्म ग्रहण करने के पहले उन्होंने अपने भाषणों और पुस्तकों के माध्यम से हिंदू धर्म की विकृतियों को उजागर करने के निरंतर प्रयास किए थे।

इस उम्मीद में कि हिंदू धर्म के कर्णधार उनके बारे में गंभीरतापूर्वक विचार करेंगे और हिंदू धर्म को आधुनिक धर्म में बदलने के लिए, उसमें आवश्यक सुधारों की ओर तत्पर होंगे। ‘हिंदू धर्म की पहेलियां’ इस दृष्टि से उनकी अंतिम पुस्तक थी। इसकी रचना उन्होंने 1954-55 के आसपास की थी। लिखते समय उन्हें एहसास था कि पुस्तक भारतीय समाज में भूचाल ला सकती है। खासकर यथास्थितिवादी उसे आसानी से पचा नहीं पाएंगे। यह सोचकर कि प्रकाशकों में सवर्ण हिंदू हैं, उन्होंने इस पुस्तक की चार प्रतियां तैयार कराई थीं।

सचिव द्वारा यह पूछने पर कि चार पांडुलिपियां क्यों? उन्होंने हंसकर बताया था, “देखो, मेरी पुस्तक का शीर्षक क्या है, ‘रिडल्स ऑफ हिंदुइज्म’ जो अपने आप में जवाब है। मेरा अपना प्रेस तो है नहीं। स्वाभाविक तौर पर यह पुस्तक छपने के लिए किसी हिंदू प्रेस में ही जाएगी। यह खो सकती है, जलाई या नष्ट की जा सकती है। और इस तरह मेरी वर्षों की मेहनत बर्बाद हो जाएगी।” (डॉ. नानकचंद रत्तु, 2017 ‘हिंदू धर्म की पहेलियां’, फारवर्ड प्रेस का संपादकीय)।

‘हिंदू धर्म की पहेलियां’ में डॉ. आंबेडकर ने कुल 32 पहेलियों को शामिल किया था। इनमें से 24 पहेलियों को अध्याय के रूप में तथा बाकी को परिशिष्ट के रूप में। पुस्तक का सरल संस्करण तैयार करने तथा दुहराव से बचने के लिए ‘फारवर्ड प्रेस’ के प्रस्तुत संस्करण में कुल 11 पहेलियों को चयनित किया गया है। 

किसी अच्छी पुस्तक की पहचान क्या है? यही कि वह सवाल उठाए। परिवर्तन की वाहक बने। इसके लिए संदेह आवश्यक है? क्या रामायण, महाभारत, गीता, पुराण आदि ग्रंथों में यह क्षमता है? नहीं! क्योंकि इनकी रचना ही परिवर्तन की संभावनाओं को टाले रखने के लिए की गई है। व्यक्ति की संदेहाकुलता को मारकर ये उसे सत्ताओं से अनुकूलन करना सिखाती हैं। धर्म के नाम पर पाखंड परोसती हैं, जाति और वर्ण-व्यवस्था का महिमा-मंडन करती हैं; तथा उनके माध्यम से ब्राह्मणों के विशेषाधिकारों का संरक्षण करती हैं।

शूद्रों-अतिशूद्रों के मान-सम्मान तथा अधिकारों की वापसी के लिए इस मानसिकता का प्रतिकार आवश्यक था- ‘हिंदू धर्म की पहेलियां’ में आंबेडकर ‘शूद्रों या अछूतों के प्रति हिंदू धर्मग्रंथों के दृष्टिकोण की चर्चा नहीं करते। उसकी जगह वे तर्क और निष्पक्ष विवेचना के आधार पर यह उजागर करते हैं कि इन ग्रंथों में नैतिकता के लिए कोई जगह नहीं है और इनमें ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे पवित्र कहा जा सके… यह उन्होंने तब कहा था जब पूरी दुनिया इन ग्रंथों पर मोहित थी और यह जानने के लिए आतुर थी कि इनसे क्या सीखा जा सकता है’ (कांचा इलैया शेपर्ड, भूमिका, पृष्ठ 32)।

ब्राह्मण अपने धर्म को सनातन कहते हैं। हिंदू धर्म सनातन है, आदि-अंत विहीन है, यह सुनकर ‘भक्त’ गदगद भी हो जाते हैं। पुस्तक के आरंभ में ही आंबेडकर हिंदू धर्म की सनातनता के मिथ को चुनौती देते हैं। बताते हैं कि कथित सनातन हिंदू धर्म में कुछ भी सनातन नहीं है। बदले वक्त और जरूरतों के अनुसार ब्राह्मण न केवल अपनी आस्था के केंद्रों, अपितु अपने आराध्यों को भी बदलते रहे हैं- ‘एक समय वे वैदिक देवताओं के पूजक थे। फिर, एक दौर ऐसा आया जब उन्होंने वैदिक देवताओं को दरकिनार कर दिया और अ-वैदिक देवताओं की पूजा करने लगे। कोई उनसे पूछे कि आज इंद्र कहां हैं, वरुण कहां हैं, ब्रह्मा कहां हैं और मित्र कहां हैं? ये सभी वे देवता हैं जिनका वेदों में उल्लेख है। ये सभी अदृश्य हो गए हैं, क्यों? इसलिए, क्योंकि इंद्र, वरुण और ब्रह्मा की पूजा अब फायदे का धंधा नहीं रह गया है’ (पृष्ठ 52)।

जाहिर है कि ब्राह्मणों के लिए धर्म, अध्यात्म की खोज का सिलसिला न होकर विशुद्ध धंधागिरी है, व्यापार है। इसलिए लोगों की आवश्यकता के अनुसार वे उसकी अवसरानुकूल और मनचाही व्याख्या करते आए हैं।

यह पुस्तक हिंदू धर्म के साथ-साथ, उसके प्रवर्त्तकों की सामान्य नैतिकता पर भी सवाल खड़े करती है। दर्शाती है कि किस तरह वेदों और उपनिषदों से शुरू हुआ अध्यात्म की खोज का सिलसिला रामायण, महाभारत और गीता के अवतारवाद पर आकर सिमट चुका है। गौरतलब है कि स्मृतिकाल में वेद-मंत्रों का स्वर पड़ने पर, शूद्र के कानों में गर्म सीसा भरने का विधान बनाने वाले ब्राह्मणों को, इन ग्रंथों की उतनी चिंता नहीं रह गई है। अब वे वेदों की आलोचना से उतने आहत नहीं होते, जितने रामायण और गीता की ओर उंगली उठाने पर जल-भुन जाते हैं।

आखिर क्यों? पुस्तक को पढ़कर इस पहेली तथा ऐसी ही अन्यान्य पहेलियों को समझा जा सकता है? पुस्तक बताती है कि खुद को शिखर पर बनाए रखने के लिए ब्राह्मणों ने समय के साथ जहां अपना परिष्कार किया है, वहीं गैर-ब्राह्मणों को हेय घोषित करने के लिए तरह-तरह के प्रपंच भी रचे हैं। जैसे कि खुद को निरामिष और ‘पवित्र’ घोषित करना, जबकि ऋग्वेद से लेकर मनुस्मृति तक में ब्राह्मणों के लिए मांस-भक्षण की अनुमति प्रदान की गई है।

कुल मिलाकर ब्राह्मणवाद और हिंदू धर्म में व्याप्त कुरीतियों और मान्यताओं को समझने के लिए यह एक जरूरी पुस्तक है। खासकर हिंदी पट्टी के लोगों के लिए, जहां जातिवाद के साथ-साथ धर्म के नाम पर पोंगापंथ खूब फलता-फूलता है। इस पुस्तक का स्वागत हिंदू धर्म में मौजूद ‘सनातन’ किस्म की व्याधियों के उपचार के लिए, उत्तम औषध के रूप में किया जाना चाहिए। हालांकि संपादन के स्तर पर कुछ त्रुटियां हैं, जिन्हें अगले संस्करण में सुधारा जाना अपेक्षित होगा, लेकिन ये त्रुटियां ऐसी नहीं हैं, जिनसे इस पुस्तक की उपयोगिता संद्धिग्ध होती हो।

पुस्तक का नाम: हिंदू धर्म की पहेलियां: बहुजनों! ब्राह्मणवाद का सच जानो
लेखक: डॉ. भीमराव आंबेडकर
प्रकाशक: फारवर्ड प्रेस
संस्करण: 2021
मूल्य: 400 रुपये (सजिल्द), 200 रुपये (अजिल्द)

  • ओमप्रकाश कश्यप

(साहित्यकार एवं विचारक ओमप्रकाश कश्यप की विविध विधाओं की तैंतीस पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। बाल साहित्य के भी सशक्त रचनाकार ओमप्रकाश कश्यप को 2002 में हिंदी अकादमी, दिल्ली के द्वारा और 2015 में उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के द्वारा समानित किया जा चुका है। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लेखन करते हैं।)

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