Friday, March 29, 2024

20 वर्षों का झारखण्ड : राजनीतिक महत्वाकाक्षाओं की भेंट चढ़ गए आदिवासियों के सपने

झारखंडी जनता की भावनाओं का राजनीतिकरण के साथ ‘धरती आबा’ यानी ‘धरती पिता’ की उपाधि हासिल किए बिरसा मुंडा की जयंती 15 नवंबर, 2000 को झारखंड अलग राज्य का गठन कर दिया गया। जिसके बाद 20 के दशक से शुरू हुई झारखंड अलग राज्य की अवधारणा के साथ से शुरू हुए आंदोलन का पटाक्षेप हो गया। इसके साथ ही आदिवासियों के नाम से बने इस सूबे में उनके सपनों का भी ध्वंस हो गया। इसे समझने के लिए हमें 20 के दशक में जाना होगा। 1911 की जनगणना में अकेले जमशेदपुर की आबादी केवल 5672 थी। जो 1921 में 57,000, 1931 में 84,000 और आजादी के बाद 1951 में यह जनसंख्या 2 लाख से अधिक हो गई।

अब झारखंड अलग राज्य होने के बाद 2011 की जनगणना में यहां की आबादी 13,37,000 हो गई। यह संख्या आदिवासियों की नहीं है, बल्कि दूसरे राज्यों से आकर बसे गैरआदिवासियों की है, जो टाटा कंपनी के औद्यागिक विकास के बाद आए हैं। बता दें कि टाटा कंपनी की स्थापना 1907 में हुई और 1911 में उसका प्रोडक्शन शुरू हो गया। चूंकि यहां के आदिवासी स्किल्ड नहीं थे सो बाहर के राज्यों के स्किल्ड मजदूर व कर्मचारी-अधिकारी यहां आते गए व बसते गए। यहां के आदिवासी एक बड़ी संख्या में असम और अंडमान निकोबार में पलायन कर चुके हैं। सूत्रों पर भरोसा करें तो लगभग 50 लाख संताल आदिवासी असम में बस गए हैं जबकि एक लाख से अधिक अंडमान निकोबार में हैं।

अलग राज्य की अवधारणा में आदिवासी विकास को लेकर एक बात और चौंकाती है, वह यह है कि आजादी के बाद 1952 के पहले आम चुनाव में छोटानागपुर व संताल परगना को मिलाकर 32 सीटें आदिवासियों के लिये आरक्षित की गईं ​थीं, जिसे 1972 में घटाकर 28 कर दिया गया। इस राजनीति का सबसे दुखद पहलू यह है कि झारखंड अलग राज्य गठन के बाद भी आदिवासियों के लिये आरक्षित सीट की संख्या आज भी वही 28 की 28 ही रह गई है।

एक जो सबसे अहम तथ्य है वह यह है कि ईस्ट इंडिया कंपनी के काल में आदिवासियों में जो बगावत की प्रवृत्ति थी, उसका धीरे-धीरे लोप होता चला गया।

अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ 1771 में तिलका मांझी से शुरु हुई बगावत 1855 में सिदो-कान्हू के संताल विद्रोह या हूल विद्रोह के सफर में 1895 में बिरसा मुंडा ने अंग्रजों को ‘नाको चने चबवा’ दी थी। वहीं आजादी के बाद 1950 में जयपाल सिंह मुंडा ने ‘‘झारखंड पार्टी’’ बनाया और यहीं से शुरू हुई आदिवासी समाज में अपनी राजनीतिक भागीदारी की पहचान। 1952 के पहले आम चुनाव में छोटानागपुर व संताल परगना को मिलाकर 32 सीटें जो आदिवासियों के लिये आरक्षित की गईं थीं उन सभी 32 सीटों पर ‘झारखंड पार्टी’ का ही कब्जा रहा। लेकिन 1962 के आम चुनाव में पार्टी 20 सीटों पर सिमट कर रह गई और 1963 में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री बिनोदानंद झा के एक समझौते के तहत जयपाल सिंह मुंडा ने तमाम विधायकों सहित झारखंड पार्टी का कांग्रेस में विलय कर लिया।

कहना ना होगा कि 1895 में बिरसा ने अंग्रेजों के खिलाफ जो लड़ाई छेड़ी वह अंग्रेजी हुकूमत द्वारा लागू की गयी ज़मींदारी प्रथा और राजस्व-व्यवस्था के साथ-साथ जल—जंगल-ज़मीन की लड़ाई थी। यह मात्र एक विद्रोह नहीं बल्कि आदिवासी अस्मिता, स्वायत्तता और संस्कृति को बचाने के लिए संग्राम था। बिरसा ने सूदखोर महाजनों के ख़िलाफ़ भी जंग का ऐलान किया, ये महाजन गांवों के दलितों, आदिवासियों व अन्य सामाजिक व आर्थिक स्तर से पिछड़ों को कर्ज़ देते बदले में उनकी ज़मीन पर कब्ज़ा कर लेते थे। जो आज भी अपने बदले हुए रूप में झारखंड में मौजूद हैं। बिरसा के उलगुलान में समाज का वह हर तबका किसी न किसी रूप में शामिल रहा, जो अंग्रेजी हुकूमत द्वारा लागू की गयी ज़मींदारी प्रथा और राजस्व-व्यवस्था से प्रभावित था। लेकिन आज नेतृत्वहीनता के आभाव में झारखंड का आदिवासी समाज शोषण के बदले हुए रूप को झेलने को मजबूर है।

यह दुहराने की जरूरत नहीं है कि बिरसा मुंडा का जन्म करमी हातू और सुगना मुंडा के घर में 15 नवम्बर 1875 को वर्तमान झारखंड राज्य के रांची जिले में उलिहातु गांव में हुआ था। मतलब मात्र 20 साल की उम्र में बिरसा की बगावत ने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए।

बता दें कि अलग राज्य गठन के 20 वर्षों में झारखंड, 11 मुख्यमंत्रियों सहित तीन बार राष्ट्रपति शासन को झेला है, जो शायद भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में किसी राज्य की यह पहली घटना है। मजे की बात तो यह है कि इन 11 मुख्यमंत्रियों में रघुबर दास को छोड़कर दस मुख्यमंत्री आदिवासी समुदाय के रहे हैं, बावजूद इसके राज्य के आम आदिवासियों के जीवन से जुड़े सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक क्षेत्रों में कोई विशेष बदलाव नहीं आ पाया है। कहना ना होगा कि झारखंड अलग राज्य की अवधारणा केवल भाषणों और किताबों तक सिमट कर रह गयी है।

कारण साफ है, जिन्हें भी सत्ता मिली, वे केवल अपनी कुर्सी बचाने के ही फिराक में लगे रहे। उनमें झारखंड के विकास के प्रति संवेदना का घोर अभाव रहा। इनमें सत्ता लोलुपता की पिपासा इतनी रही कि वे भूल गये कि राज्य को इनके किस कदम से नुकसान होगा, किस कदम से फायदा, इसका इन्हें जरा भी एहसास नहीं रहा।

बताना जरूरी होगा कि राज्य गठन के बाद 2010 में राजनीति ने ऐसी करवट ली कि विरोधाभाषी चरित्र के बावजूद झारखंड मुक्ति मोर्चा और भाजपा में 28-28 माह के सत्ता हस्तांतरण के समझौते के बाद अर्जुन मुंडा को 11 सितंबर 2010 को झामुमो के समर्थन से मुख्यमंत्री बनाया गया। परन्तु यह समझौता बीच में इसलिए टूट गया क्योंकि भाजपा, झामुमो को सत्ता सौंपने को तैयार नहीं हुई। अत: 18 जनवरी 2013 को झामुमो ने अपना समर्थन वापस ले लिया और अल्पमत में आने के बाद अर्जुन मुंडा ने मुख्यमंत्री पद से अपना इस्तीफा दे दिया। काफी जोड़ घटाव के बाद जब किसी की सरकार नहीं बनी, तो 18 जनवरी 2013 को राष्ट्रपति शासन लागू हुआ जो 12 जुलाई 2013 तक रहा। क्योंकि कांग्रेस के समर्थन पर हेमंत सोरेन 13 जुलाई 2013 को मुख्यमंत्री बनाए गए, जिनका कार्यकाल 23 दिसंबर 2014 तक रहा।

दिसंबर 2014 में हुए विधानसभा चुनाव के बाद भाजपा ने पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी की पार्टी झारखंड विकास मोर्चा के चुनाव जीत कर आए आठ विधायकों में से छ: विधायकों को तोड़ कर अपनी ओर मिला लिया और सरकार बना ली। रघुवर दास 10वें मुख्यमंत्री के रूप में 28 दिसंबर 2014 को शपथ ली, जो राज्य के पहले गैरआदिवासी मुख्यमंत्री बने, जो दिसंबर 2019 के चुनाव में अपनी भी सीट नहीं बचा पाए और 29 दिसंबर 2019 को हेमंत सोरेन की गठबंधन की सरकार बनी।                              

आजादी के 73 वर्षों बाद भी झारखंड के आदिवासियों के विकास में कोई बेहतर प्रयास नहीं किये गये। उल्टा नक्सल—उन्मूलन के नाम पर आदिवासियों को उनके जंगल—जमीन से बेदखल करने का प्रयास होता रहा है। आए दिन उनकी हत्यायें हो रही हैं। विकास के नाम पर कारपोरेट घरानों का झारखंड पर कब्जे की तैयारी चल रही है। मजे की बात तो यह है कि जिन लोगों ने सत्ता की इस मंशा का पर्दाफाश करने की कोशिश की उन्हें माओवादी करार देकर उन पर फर्जी मुकदमे लाद दिए गए। तो दूसरी तरफ जिस अवधारणा के तहत झारखंड अलग राज्य का गठन हुआ वह हाशिए पर पड़ा है। 

झारखंड अलग राज्य गठन के 20 वर्षों की काली तस्वीर इस कोरोना काल में सामने आ गई। झारखंड से दूसरे राज्यों में रोजी—रोटी को पलायन किए मजदूरों की संख्या चौंकाने वाली साबित हुई है। सरकारी आंकड़े ही इन मजदूरों की संख्या ग्यारह लाख से ऊपर बताता है, जबकि लाख से अधिक मजदूर अपने बूते वापस जो वापस लौटे हैं उनका कोई आंकड़ा सरकार के पास नहीं है। दूसरी तरफ उन लड़कियों और महिलाओं की संख्या शामिल नहीं है जो विभिन्न महानगरों में घरेलू कार्यों के लिए पलायन की हुई है। इसके साथ ही ईंट भट्ठों और मौसमी पलायन करने वाले श्रमिकों की संख्या भी शामिल नहीं है, जो लाख पार है। आज भी राजधानी रांची सहित अधिकांश शहरों में ग्रामीण क्षेत्रों से रोजाना काम की तलाश में हजारों मजदूर चौक चौराहों पर पहुंचते हैं।

(झारखंड से वरिष्ठ पत्रकार विशद कुमार की रिपोर्ट।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

‘ऐ वतन मेरे वतन’ का संदेश

हम दिल्ली के कुछ साथी ‘समाजवादी मंच’ के तत्वावधान में अल्लाह बख्श की याद...

Related Articles