“लेट्रोज Letrozole, आश्चर्यजनक रूप से दवा के साथ दी जाने वाली जानकारी में पुरुष बांझपन का कोई उल्लेख नहीं है। तो क्या दवा कंपनी के द्वारा किये जाने वाले आडियो-विजुअल प्रेजेंटेशन या फोल्डर में पुरुष बांझपन की दवा होना बताया जा है। यदि यह सच है तो माना जाना चाहिये कि लेट्रोज दवा का पुरुष बांझपन पर क्लिनिकल ट्रायल किया जा रहा है।”
दवाओं की मार्केटिंग का मूलमंत्र है अकूत मुनाफा कमाना। इसके लिये ‘चित भी मेरी पट भी मेरी’ कहावत को पूरी तरह से चरितार्थ किया जाता है। कुछ उदाहरण देने से आप की समझ में आ जायेगा कि बाजारवाद के युग के आने से पहले ही दवा कंपनियां बाजारूपन पर उतर आई थी। हम चर्चा करेंगे किस तरह से महाकाय अमरीकी दवा नैगम फाइजर ने दूसरी दवा बन जाने के बाद भी उसे बेचकर हज़ारों मिलियन डालर कमाये। यहां पर हम बात करेंगे वियाग्रा की, जिसे हृदय रोग के लिये बनाया जा रहा था परन्तु वह बन गया पुरुषों की यौन शक्ति बढ़ाने वाली दवा। कोई बात नहीं, जो बन गया है यदि उसे बेचकर मुनाफा कमाया जा सकता है तो हर्ज ही क्या है। यह है धनपतियों की मानसिकता। इनके लिये मुनाफा ही सब कुछ है अंतिम लक्ष्य कुछ नहीं। इसे नये जमाने का बाज़ारवाद भी कहा जा सकता है। बाज़ार और बाज़ारवाद में फर्क होता है। बाज़ार में आवश्यकता की चीजें मिलती हैं वहीं बाज़ारवाद अनावश्यक चीजों को खरीदने के लिये आपको बाज़ार खींचकर ले जाता है।
फाइज़र हृदय रोग की दवा पर रिसर्च कर रही थी। जिससे हृदय के रक्त वाहिनियों को फैलाया जा सके। यह दवा एक प्रकार के प्रोटीन PDE-5 को ब्लॉक करके यह काम करता है। उस दवा का नाम है Sildenafil. जब इसका पशुओं पर प्रयोग किया गया तो सकारात्मक परिणाम मिले। इसके बाद जब 1990 के दशक में इसका मानव (वालंटियर) क्लीनिकल ट्रायल्स फेस-1 किया गया तो चौंकाने वाले तथ्य सामने आये।
जिन वालंटियर्स को यह दवा दी गई थी उन्हें देखने के लिये जब नर्स गई तो देखा कि कई लोग शर्म के मारे पेट के बल लेटे हुये थे। उनके पुरुष जननांग में तनाव आ गया था। इस पर फाइजर की रिसर्च टीम के प्रमुख John LaMattina ने बाद में कहा कि “A very observant nurse reported this, saying the men were embarrassed [because] they were getting erections.” और यहीं से शुरू हुआ आर्कमिडीज के…..यूरेका-यूरेका वाला प्रसंग। दरअसल दवा को जिस अंग पर काम करना था उससे ज्यादा दूसरे अंग पर काम कर रहा था। तुरंत ही हृदय रोग को छोड़कर इसका 17 मार्च 1998 में erectile dysfunction drug के रूप में पेटेंट ले लिया गया तथा USFDA ने इसे बेचने की अनुमति दे दी। इसे “potency pill” के नाम से बाजार में पेश कर दिया गया और रातों रात यह दवा हाट केक के समान बिकने लगी।
अब जरा उन आंकड़ों पर एक नज़र डाल लेते है कि केवल फाइजर की बिक्री इससे कितनी बढ़ गई। साल 2003 में 1879 million US Dollar, साल 2004 में 1678 million US Dollar, साल 2012 में 2051 million US Dollar, साल 2013 में 1881 million US Dollar, साल 2015 में 1708 million US Dollar, साल 2019 में 497 million US Dollar.
फाइजर ने साल 2003 से साल 2019 के बीच 17 सालों में Sildenafil जिसका ब्रांड नेम Viagra है से 25,604 million US Dollar का रेवेन्यू कमाया अर्थात् भारतीय रुपयों में 2 अरब 03 करोड़ 01 लाख 53 हज़ार 9 सौ 62 रुपये का रेवेन्यू कमाया। बता दें कि साल 2012 में इसका अमरीकी पेटेंट समाप्त हो गया।
साल 2005 में USFDA ने इसी दवा को Revatio के नाम से pulmonary arterial hypertension (Pulmonary hypertension: High blood pressure in the pulmonary arteries. This elevated blood pressure can lead to severe shortness of breath and death. Lung transplantation is considered in severe cases that are unresponsive to treatments.) के लिये बेचने की अनुमति दे दी। जिससे इसके मरीजों को जीवनदान मिला। तो यह है फाइजर के Viagra की कहानी। अब फाइजर समेत अन्य दवा कंपनियां इसे भारत सहित दुनियाभर में erectile dysfunction drug के रूप में बेच रही हैं। साथ ही साथ पल्मोनरी हाइपरटेंशन के मरीजों को इस दवा से जीवनदान भी मिल रहा है। इस तरह से असाध्य हृदय रोग की दवा बनाते-बनाते फाइजर के साथ वो हुआ जिसे कह सकते हैं कि समुद्र मंथन के पहले ही अमृत का मिल जाना।
इसी तरह से cyproheptadine (साइप्रोहेप्टाडिन), एंटीहिस्टामाइन नामक दवाओं के एक समूह से संबंधित है। जिसका इस्तेमाल एलर्जी की विभिन्न स्थितियों के इलाज में किया जाता है। लेकिन इस दवा से भूख बहुत लगती है तथा वजन भी बढ़ जाता है। इस कारण से दवा कंपनियां इसे विशेषकर बच्चों में भूख और वजन बढ़ाने वाली दवा के रूप में चिकित्सकों को पेश करते हैं और यह बिकता भी है। जाहिर है कि जब दवा कंपनियां इसका प्रचार चिकित्सकों के सामने करता है तो वहां पर इस दवा को मंजूरी देने वाला ड्रग कंट्रोलर वहां पर मौजूद नहीं रहता है।
इस दवा (प्रैक्टिन सिरप) की मार्केटिंग अब डीआरएल नामक दवा कंपनी करती है तथा आनलाइन फार्मेसी वन एमजी में इंटरनेट के माध्यम से इसका प्रचार एलर्जी तथा भूख बढ़ाने वाली दवा के रूप में किया जाता है। कई अन्य कंपनियां भी भारत में इस दवा को बनाकर बेचती हैं।
एक और दवा है Minoxidil (मिनोक्सिडिल)। यह दवा उच्च रक्तचाप की दवा है। दरअसल यह एंटी हाइपरटेंसिव वैसोडिलेटर है। लेकिन इस दवा को खाने से बाल निकलने लगते हैं। अब इस दवा का उपयोग जितना उच्च रक्तचाप में किया जाता है उससे ज्यादा इसका उपयोग सिर के बाल को घना करने या बाल उगाने के लिये किया जाता है। बाजार में इसका बोतलबंद जेल या क्रीम आराम से मिल जाता है। यह दवा हेयर फॉलिकल्स में रक्त के प्रवाह को बढ़ा देता है।
एक दिलचस्प वाकया का उल्लेख यहां पर जरूर करना चाहिये, वह है Letrozole का। दरअसल यह दवा रजोनिवृत्ति वाले महिलाओं को स्तन कैंसर में दिया जाता है। इस दवा का आविष्कार महाकाय दवा कंपनी Novartis ने किया था। इस दवा को भारत में 2009 में सन फार्मास्युटिकल्स ने लांच किया था। देखा गया कि इस दवा को स्त्री रोग विशेषज्ञों को बांझपन की दवा के रूप में पेश किया गया। उस समय देश के जाने माने स्वास्थ्य विशेषज्ञ एवं मिम्स पत्रिका के संपादक डा. सीएम गुलाटी ने सवाल उठाया कि कैंसर की दवा को बांझपन की दवा के रूप में पेश करके बेचा जा रहा है जो कि गैर-कानूनी है “Drug industry analysts say that the case highlights the ease with which pharmaceutical companies in India can violate drug laws. “Promoting a drug for an unapproved use is illegal and punishable with fine and prison sentences,” said Chandra Gulhati, publisher of the Monthly Index of Medical Specialities India. “And it is unethical on the part of doctors to prescribe this drug to patients for infertility,” said Dr Gulhati. Infertility specialists contacted by the BMJ said they did not realise the company had not obtained approval from the Drugs Controller of India for promoting letrozole to treat infertility।”
इसको लेकर देशभर में बहस छिड़ गई। आखिरकार, 12 अक्टूबर 2011 में इस पर रोक लगा दी गई। कई स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने इसे ‘आफ लेबल यूस’ कहकर मामले को हल्का करने की कोशिश की। दरअसल, सन फार्मास्युटिकल्स इस दवा का बिना अनुमति के गैर-कानूनी रूप से क्लीनिकल ट्रायल कर रही थी, देश की महिलाओं को गिनीपिग समझकर।
बाद में साल 2017 को Indian Council for Medical Research (ICMR) तथा Drugs Technical Advisory Board (DTAB) ने गहरी छानबीन तथा भारत में इसके उपयोग के आंकड़ों के आधार पर इस दवा को महिलाओं के बांझपन की दवा के रूप में अनुमति दे दी। अब तो पुरुष बांझपन में भी इस दवा को दिया जा रहा है। इसमें सबसे गौर करने वाली बात यह है कि ड्रग कंट्रोलर जनरल आफ इंडिया से इस दवा को मार्केटिंग करने की पहली अनुमति महिला बांझपन की चिकित्सा के रूप में नहीं की गई थी। उसके बावजूद इस कैंसर की दवा को महिला बांझपन के लिये सन फार्मास्युटिकल्स प्रचार कर रही थी।
लेट्रोज के निर्माता तथा वितरण करने वाली दवा कंपनी सन फार्मा दवा के साथ जो जानकारी मुहैया कराती है उसमें भी इसे स्तन कैंसर तथा महिला बांझपन की दवा के रूप में ही उल्लेख मिलता है। दवा के खुराक तथा किन लक्षणों में यह दवा दी जाती है उसकी जानकारी में भी स्तन कैंसर तथा महिला बांझपन ही दी गई है। आश्चर्यजनक रूप से दवा के साथ दी जाने वाली जानकारी में पुरुष बांझपन का कोई उल्लेख नहीं है। तो क्या दवा कंपनी के द्वारा किये जाने वाले आडियो-विजुअल प्रेजेंटेशन या फोल्डर में पुरुष बांझपन की दवा होना बताया जा है। यदि यह सच है तो माना जाना चाहिये कि लेट्रोज दवा का पुरुष बांझपन पर क्लिनिकल ट्रायल किया जा रहा है। हमने ऊपर एक बार उल्लेख किया है कि जब दवाओं को चिकित्सक के सामने दवा कंपनी पेश करती है तो उस समय वहां पर न तो ड्रग कंट्रोलर जनरल आफ इंडिया उपस्थित रह सकता है और न ही हमारे देश में इस बात की कोई व्यवस्था है कि दवा कंपनियों के प्रचार जोकि बंद कमरे में ही होता है, पर नज़र रखने की कोई व्यवस्था है।
उपरोक्त उदाहरणों से आपकी समझ में आ गया होगा कि किस तरह से दवा कंपनियां चिकित्सकों तक को गुमराह करके मुनाफा कमाने के लिये अपने दवायें बेचती हैं। देश में जरूरत है एक कानूनी निकाय की जो दवा कंपनियों के मार्केटिंग पर नज़र रखे तथा उन्हें नियंत्रित करे।
(जेके कर वरिष्ठ पत्रकार एवं स्वास्थ्य विषयों के जानकार हैं।)