बात भारतीय रिजर्व बैंक के आंकड़ों से ही शुरू करते हैं। रिजर्व बैंक ने अपनी ताजा मासिक रिपोर्ट में निम्नलिखित आंकड़ों का जिक्र किया हैः
- वित्त वर्ष 2023-24 में परिवारों पर कर्ज 18.79 लाख करोड़ तक पहुंच गया। इसके पिछले वाले वित्त वर्ष में यह 15.96 लाख करोड़ रुपये था। अब मौजूद ऋण की मात्रा सकल घरेलू उत्पाद के 6.4 प्रतिशत के बराबर है।
- दूसरी तरफ परिवारों के पास मौजूद वित्तीय संपत्तियां बढ़ कर 15.52 लाख करोड़ की हो गई हैं, जो जीडीपी के 5.3 फीसदी के बराबर हैं। पिछले वित्त साल में यह रकम 13.40 लाख करोड़ रुपये थी।
- मकान खरीदने के लिए, लिए जाने वाले कर्ज में 2023-24 में 3.3 लाख करोड़ रुपये की गिरावट आई।
- उधर बैंकों में परिवारों की जमा रकम में 2022-23 के मुकाबले 40 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। अब यह 14.35 लाख करोड़ तक पहुंच गई है। इसके पहले के वित्त वर्ष में यह 10.27 लाख करोड़ रुपये थी।
ये आंकड़े तीन बातें साफ करते हैः
पहली यह कि आम भारतीय परिवारों पर औसत कर्ज में बढ़ोतरी का सिलसिला थम नहीं रहा है। ऋण ले रहे ज्यादातर ऐसे लोग मुसीबत के मारे हैं। इसका प्रमाण गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों से लिए जाने वाले कर्ज में नवंबर के बाद आई गिरावट है, जब आरबीआई ने इससे संबंधित नियम सख्त बना दिए थे। ऐसी कंपनियों से कोई संपन्न व्यक्ति कर्ज नहीं लेता। ये कंपनियां बहुत ऊंची दर पर ब्याज लेती हैं।
दूसरी बात भारतीय मध्य वर्गीय परिवारों में शेयर और बॉन्ड जैसी वित्तीय संपत्तियों में निवेश के प्रति आकर्षण बढ़ा है। संभवतः ऐसे लोग भी बड़ी संख्या में हैं, जो बैंकों से कर्ज लेकर वित्तीय संपत्तियों में निवेश कर रहे हैं। 2023-24 बैंकों से लिए कर्ज की रकम में बड़ी बढ़ोतरी हुई है।
नतीजा है कि जीडीपी की तुलना में शेयर बाजार में निवेश की मात्रा बढ़ती जा रही है। यह बढ़ोतरी किस तेजी से हुई है, इससे संबंधित आंकड़े भी सामने आए हैं। 2020-21 में वित्तीय संपत्तियों में निवेश की मात्रा 4.5 फीसदी थी, जो अब 17.3 प्रतिशत तक पहुंच गई है।
साफ है, उत्पादक अर्थव्यवस्था में बेहतर रोजगार पैदा नहीं होंगे, तो लोग ऋण पर अधिक आश्रित होते जाएंगे, जबकि संसाधन संपन्न लोगों के पास वित्तीय संपत्तियों (शेयर, बॉन्ड आदि) में निवेश के अलावा कोई और विकल्प नहीं बचेगा। फिलहाल, यही हो रहा है।
वास्तविक अर्थव्यवस्था के संकटग्रस्त होने का प्रमाण रिजर्व बैंक की रिपोर्ट से सामने आया एक अन्य आंकड़ा भी है। इसके मुताबिक रियल एस्टेट में निवेश के मकसद से लिए जाने वाले कर्ज में गिरावट जारी है। 2023-24 मकान खरीदने के मकसद से लिए जाने वाले ऋण में 3.3 लाख करोड़ रुपये की गिरावट आई। जाहिर है, रियल एस्टेट में निवेश ठंडा पड़ा हुआ है।
वैसे ठंडा तो उपभोग का सारा बाजार है। इसका एक प्रमाण मध्य वर्गीय परिवारों के निवेश की दिशा है। ऊपर हमने देखा कि किस तरह वित्तीय संपत्तियों में निवेश बढ़ता चला गया है। उसके साथ ही अब यह आंकड़ा भी सामने है कि बैंकों में जमा रकम में भारी उछाल आया है। 2023-24 में ये रकम 14.35 लाख करोड़ तक पहुंच गई। 2022-23 में 10.27 लाख करोड़ ही थी।
यानी, जो लोग जोखिम से बच कर चलना चाहते हैं, वे अपना पैसा बैंकों में जमा कर रहे हैं। मतलब यह कि फिलहाल उस रुझान पर विराम लग गया है, जब लोग बैंकों में पैसा रखने से बेहतर फ्लैट खरीद लेना समझते थे। उधर बढ़ती महंगाई और गतिरुद्ध आय के इस दौर में जिनके पास पैसा है, वे उसे संभाल कर रखना चाहते हैं।
देश की वास्तविक अर्थव्यवस्था फल-फूल नही रहीं हैं, इसकी और मिसाल गैर-निगमीकृत सेक्टर के उद्यमों के बारे में सरकार की वार्षिक सर्वे रिपोर्ट (ASUSE) भी है।
इसे जारी करते हुए भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार वी. अनंत नागेश्वरन ने इस आंकड़े पर जोर डाला कि अक्टूबर 2023 से सितंबर 2024 के बीच इस क्षेत्र में 84 लाख नए उद्यम स्थापित हुए, जिनमें एक करोड़ 10 लाख लोगों को रोजगार मिला।
इस क्षेत्र में 13% वेतन वृद्धि दर्ज हुई। उन्होंने कहा कि 2023-24 में गैर-निगमीकृत क्षेत्र में वेतन वृद्धि की दर ‘महत्त्वपूर्ण’ रही है।
इसके पहले खुद नागेश्वरन औपचारिक क्षेत्र यानी कॉरपोरेट सेक्टर में नगण्य वेतन वृद्धि पर चिंता जता चुके हैं। उपभोक्ता सामग्री बनाने वाली कंपनियां शहरी क्षेत्र में आय ना बढ़ने की वजह से उपभोग घटने को लेकर अपनी चिंता जता चुकी हैं। तो इससे उत्पन्न नकारात्मक प्रभाव के बीच अब सरकार एक ऐसा आंकड़ा लेकर आई है, जिससे कुछ सकारात्मक संदेश जाए।
लेकिन सकारात्मक मूड बनाने के पहले बेहतर होगा कि गैर-निगमीकृत क्षेत्र के ढांचे पर नजर डाली जाए। गैर निगमीकृत कारोबार वे होते हैं, जिनका कानूनी इकाई में औपचारिक रूप से निगमीकरण ना हुआ हो- यानी जिनका स्वरूप वैध कंपनी का ना हो। ऐसे कारोबार पर कोई कंपनी कानून लागू नहीं होता।
अक्सर ऐसा कारोबार चलाने वाले लोग उद्यम से होने वाली आय को अपनी व्यक्तिगत आय के रूप में दिखा कर पर्सनल इनकम टैक्स का रिटर्न फाइल करते हैं। इनमें कर्मचारी आम तौर पर परिवार के सदस्य ही या निजी सहायक होते हैं।
अगर उपरोक्त अवधि में 84 लाख ऐसी नई इकाइयां बनीं, तो जाहिर है 84 लाख जिन लोगों ने उन्हें स्थापित किया, उन्हें भी इस सेक्टर में पैदा रोजगार का हिस्सा माना गया है। फिर उनके साथ कुछ अन्य निजी सहायक भी उद्यम का हिस्सा बने होंगे। ऐसा कारोबार करने की दिशा में कोई व्यक्ति कब जाता है?
ज्यादातर मामलों में यही होता है कि नौकरी ढूंढने में नाकाम होने और कहीं अन्य कोई काम ना मिलने के बाद स्वरोजगार अपनाने के लिए व्यक्ति मजबूर होता है। इस क्षेत्र में कितने लोगों को और कितना वेतन मिलता है, अंदाजा लगाया जा सकता है। उसमें 13 फीसदी की बढ़ोतरी से आम उपभोग बढ़ाने में कोई मदद नहीं मिल सकती।
दरअसल, गैर-निगमीकृत कारोबार का बढ़ना विकसित होती या स्वस्थ अर्थव्यवस्था का परिचायक तभी माना जा सकता है, जब उसके साथ, उससे कहीं तेज गति से निगमीकृत कारोबार भी बढ़ रहे हों। उस अवस्था में यह संभव है कि बड़ी कंपनियों के आउटसोर्स किए काम को गैर-निगमीकृत उद्यम संपन्न कर रहे हों।
यानी वे विकसित हो रहीं आर्थिक गतिविधियों का हिस्सा हों। मगर भारत में आज यह स्थिति नहीं है। इसलिए गैर-निगमीकृत कारोबार का बढ़ना असल में अर्थव्यवस्था में घट रहे अवसरों का परिचायक है।
(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)
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