लोकतंत्र में ‘व्यावहारिक अड़चनों’ ‎को दूर करने का उपाय है चुनाव

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सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी दान (Electoral Bonds) के संदर्भ में एक बहुत संवेदनशील निर्णय सुनाया था। न सिर्फ सुप्रीम कोर्ट ने इस चुनावी दान (Electoral Bonds) न सिर्फ असंवैधानिक बताया था, बल्कि चुनावी दान (Electoral Bonds) जारी करने वाले भारतीय स्टेट बैंक ‎को यह भी आदेश दिया था कि चुनावी दान (Electoral Bonds) ‎ से संबंधित पूरी जानकारी ‎06 मार्च 2024 तक भारत के चुनाव आयोग (ECI) को सौंप दे और चुनाव आयोग 13 मार्च 2024 तक उसे अपने वेबसाइट पर सार्वजनिक जानकारी के लिए उपलब्ध करवा दे। अब भारतीय स्टेट बैंक‎ ने जानकारी उपलब्ध करवाने की समय सीमा 06 मार्च 2024 को बढ़ाकर 30 जून 2024 करने का आवेदन जमा किया है।

भारतीय स्टेट बैंक ने कहा कि 12 अप्रैल 2019 से 15 फरवरी 2024 की अवधि के बीच, विभिन्न दलों को दान देने के लिए बाईस हजार दो सौ सत्रह (22, 217) चुनावी बॉन्ड जारी किए गए थे। भुनाए गए बांडों को अधिकृत शाखाओं द्वारा प्रत्येक चरण के अंत में सीलबंद लिफाफे में मुंबई मुख्य शाखा में जमा किया गया था। भारतीय स्टेट बैंक ने कहा कि चूंकि दो अलग-अलग सूचना साइलो मौजूद थे, इसलिए इसे 44 हजार चार सौ की डीकोड, संकलन और मिलान करना होगा। यह तो करना ही होगा। 30 जून 2024 तक भी इतना कठिन काम हो पायेगा! कहना मुश्किल है। 08 नवंबर 2016 को नोटबंदी (विमुद्रीकरण) की घोषणा की गई थी। नोटबंदी (विमुद्रीकरण) के बाद की कहानियां तो समय-समय पर उजागर होती रही, विमुद्रीकृत नोटों की वापसी में कितना वक्त लगा था! कुल मिलाकर समझा जा सकता है कि चुनावी दान (Electoral Bonds)का हिसाब लगाना और उस के सार्वजनिक करने का मामला कितना कठिन है!

देखना दिलचस्प होगा कि सुप्रीम कोर्ट चुनावी दान (Electoral Bonds) को सार्वजनिक करने के अपने आदेश के संदर्भ में क्या फैसला देता है। चुनावी दान (Electoral Bonds) ‎को सार्वजनिक करने का मामला उस समय सामने आया है जब 2024 का आम चुनाव की अधिसूचना का इंतजार बिल्कुल निकट है। अधिसूचना जारी होते ही आदर्श आचार संहिता (Model Code of Conduct) लागू हो जायेगी।

आम चुनाव सामने होने के कारण चुनावी दान (Electoral Bonds) ‎के देन-लेन में यदि कोई मिली-भगत (Quid Pro Quo) हो तो वह भी सार्वजनिक हो जायेगा। मतदाताओं का मन बनाने में इसकी बड़ी भूमिका हो सकती है। इसके राजनीतिक असर से इनकार नहीं किया जा सकता है। सवाल यह है कि क्या असंवैधानिक तरीके से इकट्ठा किये धन के इस्तेमाल को कम-से-कम इस आम चुनाव में तो नहीं रोका जा सकेगा। सुप्रीम कोर्ट के फैसले का बड़ा महत्व है। महत्व तो चुनाव में जनता के फैसले का भी है।

जानना मनुष्य की मूल प्रवृति है। मनुष्य जानना भी चाहता है, और जाने हुए को बताना भी चाहता है।इस‎ जानने और जाने हुए को बताने की प्रवृत्ति मनुष्य की भाव और ज्ञान परंपरा का आधार है। इस प्रवृत्ति ने मानव सभ्यता के विकास में बहुत मदद की है। धन के आने-जाने‎ का तौर-तरीका किसी के भी चरित का आईना होता है। किसी भी आदमी के व्यक्तित्व के बारे में जानना हो तो सब से सुगम तरीका क्या हो सकता है। बस इतना जान लेना होता है कि उस के पास घन कहां से और कैसे आता है साथ ही कहां और कैसे और कहां जाता है।

धर्म-युग में भी धन के आवागमन पथ पर व्यक्तिगत गुण-दोष का निशान बिखरा पड़ा मिलता है, यह तो खैर ‘धन-युग’ ही है। अपने राजनीतिक दलों के चाल-चरित्र-चेहरा के धन-पथ के बारे में‎ जानने के नागरिक हक के बारे में सुप्रीम कोर्ट की राय लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण और बिल्कुल स्पष्ट है। चुनावी दान (Electoral Bonds)को सार्वजनिक किये जाने का ऐतिहासिक महत्व को स्वीकारना और सम्मान करना सभी नागरिकों कर्तव्य है। ‎

आदर्श आचार संहिता (Model Code of Conduct) के अंतर्गत चुनाव में धन के इस्तेमाल पर कड़ी नजर रखे। चुनावों में धन का इस्तेमाल मान्य सीमाओं का असाधारण अतिक्रमण करता है। धन के इस्तेमाल की सीमा में बढ़ोत्तरी की जरूरत हो तो उस पर भी व्यावहारिक ढंग से विचार किया जाना चाहिए। मान्य सीमाओं के असाधारण अतिक्रमण ‎को रोकने का हर वह इंतजाम किया जाना चाहिए जो जरूरी हो। राजनीति में धन के अत्यधिक दुरुपयोग से लोकतंत्र पर ग्रहण लगते जाने के कारण यह अधिक जरूरी हो गया है। अभी-अभी सुप्रीम कोर्ट ने रिश्वतखोरी के मामले अपने ही फैसले को पलटते हुए जनप्रतिनिधियों के विशेषाधिकार के परिप्रेक्ष्य को अधिक संगत और संतुलित किया है।

चुनाव के दिनों नकदी लेन-देन और रिश्वत का गोरखधंधा बहुत तेजी पकड़ लेता है। अभी-अभी सबीआई (Central Bureau of Investigation) ने भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (NHAI)‎‎ के अधिकारियों को बड़ी रिश्वत खोरी के मामले में गिरफ्तार किया है। इस रिश्वत खोरीऔर गिरफ्तारी के राजनीतिक रिश्ते से भी इनकार नहीं किया जा सकता है। बहरहाल, मामला अभी‎ जांच के अधीन है।‎ राजनीतिक दलों को मिलने वाले ‘धन का स्रोत’ बताने की कानूनी‎ अड़चन को तो सुप्रीम कोर्ट ने दूर कर दिया, लेकिन अब भारतीय स्टेट बैंक ने ‘व्यावहारिक अड़चन’ की बात सामने रखी है। इस मामले में रिपोर्ट दाखिल करने में भारतीय स्टेट बैंक के समय विस्तार की याचिका पर निश्चित रूप से सुप्रीम कोर्ट ‎उदारता पूर्वक विचार करेगा और देश हित में न्याय संगत फैसला लेगा। ‎‘व्यावहारिक अड़चन’‎ को दूर करने का भी कोई-न-कोई‘व्यावहारिक उपाय’ तो होगा ही!

एक नई मुसीबत इस दौर में उभरी है।‎ राजनीतिक दल, सदस्यों का होता है। सरकार देश के लोगों का होता है। उन लोगों का भी जो उसके राजनीतिक दल के विरोधी होते हैं। इस फर्क को बनाये‎ रखने का संवैधानिक दायित्व सरकार, नौकरशाही एवं सरकारी संस्थाओं का है।

लोकतांत्रिक तरीके से देश के शासन का‎ जनादेश प्राप्त करने वाले राजनीतिक दल और सरकार के बीच का फर्क कम हो जाये, या मिट ही जाये तो,देश ‎के लोगों की पीड़ा एवं लोकतंत्र की मुश्किलें बहुत बढ़ जाती है। लोकतांत्रिक शासन के प्रमुख यदि ‘राजनीतिक आका’ की‎ तरह व्यवहार करने से लाभ-लोभ में फंसे ‘प्रतिबद्ध नौकरशाह’ के ‘राजनीतिक कार्यकर्ता’ बनते कोई देर ‎नहीं लगती है! जनादेश प्राप्त राजनीतिक दल और सरकार के फर्क के कम होने या मिटने से कौन रोके! लाभ-लोभ ‎के चक्कर में पड़े नौकरशाहों का लगभग पूरा ही तंत्र जनादेश प्राप्त राजनीतिक जत्था के नजरिया से तर्क गढ़ने‎ लगता है।

प्रसंगवश, कृषि उपज के न्यूनतम समर्थन मूल्य (C2+50% MSP)‎ को स्वीकारने में भी ‎‘व्यावहारिक अड़चन’ है। रोजगार आदि के मामले में भी ‎कोई-न-कोई ‘व्यावहारिक अड़चन’ होगी ही! कहने की जरूरत नहीं है कि भारत का लोकतंत्र इन दिनो तरह-तरह की ‘व्यावहारिक अड़चनों’ से ग्रस्त है। अदालतें भी इन ‎‘व्यावहारिक अड़चनों’‎को जानती है और जनता भी ताड़ लेती है। ‎लोकतंत्र में ‘व्यावहारिक अड़चनों’ ‎को दूर करने का उपायहै चुनाव! सामने आम चुनाव है, इंतजार करना होगा कि ‎‘व्यावहारिक अड़चनों’ ‎को दूर करने के लिए जनता क्या उपाय करती है! जी, बहुत दिलचस्प होगा जानना कि चुनावी दान (Electoral Bonds)‎के बारे में आम नागरिकों के हक पर आई ‎‘व्यावहारिक अड़चन’‎ पर कौन क्या रुख अपनाता है।

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

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