Saturday, April 20, 2024

चुनाव सुधार: ज्यों-ज्यों दवा दिया मर्ज बढ़ता ही गया

भारत में चुनाव सुधारों की चर्चा 90 के दशक के प्रारंभ में शुरू हुई थी। उस समय बैलेट पेपर से चुनाव हुआ करते थे ।बूथों पर कब्जा करना मत पेटियों को लेकर भागना और बाहुबलियों ताकतवर लोगों द्वारा वोट और बूथ लूटने की घटनाएं चुनाव में कभी-कभी सुनाई देती रहती थीं। कुछ इलाके इसके लिए बहुत ही प्रसिद्ध हुआ करते थे। कभी कभार मतपत्रों के इधर-उधर फेंके जाने की खबरें भी आ जाती थीं। 1971 के चुनाव में पहली बार सोशलिस्ट नेता राज नारायण ने इंदिरा गांधी पर भ्रष्टाचार का आरोप मढ़ा। हालांकि उस भ्रष्टाचार में आर्थिक कदाचार प्रमाणित नहीं हो पाया था। प्रशासनिक अधिकारी की चूक के चलते इंदिरा गांधी का चुनाव निरस्त हो गया था ।उसके बाद चुनाव में राजनीतिक भ्रष्टाचार के सवाल बार-बार उठते रहे। जैसे रहस्यमयी स्याही के प्रयोग का सवाल।

धीरे-धीरे समाज में राजनीतिक जागरण शुरू हुआ। जिस कारण कमजोर और दलित वर्गों आदिवासियों महिलाओं आदि की राजनीतिक सक्रियता बढ़ी और हासिये  की ताकतें चुनाव में अपनी दावेदारी पेश करने लगीं । चुनाव में अपराधी तत्वों के प्रयोग के लिए बिहार सबसे बदनाम जगह हुआ करता था। वहां वाम क्रांतिकारी  जनवादी ताकतों के सक्रिय प्रयास से कमजोर वर्गों में अपने अधिकारों के लिए जागरूकता दिखाई देने लगी और उनका राजनीति में भी दखल बढ़ने लगा था।

 दूसरी तरफ दलितों और पिछड़े सामाजिक समूहों में आए अस्मिता जनित उभार के कारण सवर्ण सामंती ताकतों के वर्चस्व को चुनौती 80 के दशक में ही मिल चुकी थी। जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद ओबीसी में एक नया राजनीतिक वर्ग पैदा हुआ जो धीरे-धीरे उसी रास्ते पर बढ़ा जिस रास्ते पर इसके पहले के ग्रामीण और शहरी ताकतवर वर्ग चला करते थे।

 मुझे दूसरे महा निर्वाचन की हल्की से स्मृति दिमाग में है ।जब चुनाव सामान्य तौर पर राजनीतिक पार्टियां अपने कार्यकर्ताओं के बल पर लड़ती थीं। उस समय तक राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता संगठन बनाने ,सदस्यता अभियान चलाने के लिए गांव-गांव गली-गली घूमा करते थे। पार्टी के सदस्य बनाने का राजनीतिक जज्बा था और जरूरत भी थी। क्योंकि पार्टियों की ताकत जन आंदोलनों और चुनाव में भी राजनीतिक कार्यकर्ता ही हुआ करते थे। जैसे-जैसे भारत में लोकतंत्र के विकास की यात्रा और पूंजी का प्रसार जीवन के हर क्षेत्रों में बढ़ा तो धीरे-धीरे राजनीतिक दलों के राजनीतिक चरित्र का अवसान भी शुरू हो गया।

इसके पहले कम्युनिस्ट, सोसलिस्ट और कांग्रेस के सदस्यता अभियान 80 के दशक की शुरूआत तक जारी रहे। वामपंथी पार्टियों को छोड़कर शायद ही कोई राजनीतिक पार्टी अब कार्यकर्ताओं की भर्ती का अभियान चलाती हो। चुनाव में  पार्टी के सदस्य टिन का भोपू लेकर पैदल चलकर या इक्का या साइकिलों से गली-गली प्रचार करते थे और पार्टी के लिए वोट मांग करते थे। बरगद, झोपड़ी, हंसुआ बाली ,दो बैलों की जोड़ी और बाद में पंजा या कंधे पर हल लिए किसान जैसे चुनाव निशान बड़े लोकप्रिय हुए थे। उस समय तक चुनाव जनता का एक रोमांचकारी उत्सव हुआ करता था कार्यकर्ताओं में पार्टी के लिए काम करने की लगन और समर्पण था। वे पूरी प्रतिबद्धता से अपने पार्टी के लिए काम करते थे ।पार्टी की राजनीति का प्रचार करते थे। अपने मुद्दों सवालों को गली-गली गांव-गांव घूम कर बताया करते थे। उस समय चुनाव में एक अलग ही तरह का आनंद और उत्साह दिखा करता था। हालांकि वर्चस्वशाली सामाजिक समूहों जैसे पूर्व जमींदारों राजे रजवाड़ों और ताकतवर जातियों का दबदबा बना हुआ था।

धीरे धीरे विकास की रफ्तार आगे बढ़ी। इसके साथ राजनीतिक दलों का भी चरित्र और सरोकार बदलने लगा।उनका झुकाव जन समस्याओं की जगह जाति वर्ण और धर्म की तरफ बढ़ने लगा। चुनाव में भी जन मुद्दों की जगह धीरे-धीरे जाति धर्म  धनबल और बाहुबल लेने लगा। शुरुआती दौर में जिन बाहुबलियों का प्रयोग   नेता और राजनीतिक दल चुनाव के लिए करते थे बाद में इन बाहुबलियों ने स्वयं राजनीति में सीधे प्रवेश करना शुरू किया।

अस्मिता की राजनीति यानी वर्ण जाति और धर्म के प्रश्न जैसे-जैसे सामाजिक जीवन में प्रबल होते गए वैसे-वैसे चुनाव भी इससे गहराई से प्रभावित होने लगा। परिणाम यह हुआ की राजनीतिक दलों के चरित्र बदल गए। अब न सदस्यता की जरूरत थी न सचेत राजनीतिक जनता की। न उनके जीवन के आर्थिक सामाजिक सवालों की। राजनीतिक दल घोषणा पत्र जारी करते रहे लेकिन उनका अवमूल्यन इस तरह हुआ कि चुनाव के बाद घोषणा पत्रों को रद्दी की टोकरी में फेंक दिया गया। 1990 का दशक आते आते चुनाव का पूरा परिदृश्य ही बदल गया और अपराध काला धन के साथ धर्म और जाति ही राजनीतिक गोलबंदी का मुख्य आधार बन गई। जो जितना ही ज्यादा अवैध कारोबार के धंधे व अपराधों से जुड़ा  या धार्मिक जातीय उन्माद खड़ा करने में सक्षम था वही राजनीतिक ताकत बन कर के समाज पर दबदबा कायम कर लिया।

धीरे-धीरे सामाजिक संरचना में भी  बदलाव आया। आरक्षण और आर्थिक विकास के चलते पिछड़े दलित कमजोर जातियों में भी एक मध्यवर्गीय ताकतवर समूह पैदा हुआ। जिसकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा परवान चढ़ने लगी। यह वर्ग सामाजिक राजनीतिक सरोकार विहीन जनता के प्रति किसी तरह के सामाजिक जवाब देही से पूरी तरह मुक्त था। उसका एकमात्र उद्देश्य सत्ता पर कब्जा करके उसका इस्तेमाल अपने राजनीतिक आर्थिक साम्राज्य का विस्तार करना भर था।

1990 का दशक आते-आते भारतीय समाज और लोकतंत्र आर्थिक राजनीतिक संकट में फंस गया। यही वह दौर है जब विश्व में समाजवादी लोकतांत्रिक राष्ट्रों का पराभव का प्रारंभ होता है। समाज के निर्माण की समतामूलक राजनीतिक विचारधारा नेपथ्य में चली जाती है। साम्राज्यवादी वैश्विक पूंजीवाद विजयी होता है और दुनिया को एक धुरी बनाने की उन्मत कोशिश करता है। इसके लिए आईएमएफ-विश्व बैंक विश्व व्यापार संगठन यानी w.t.o. आदि के नेतृत्व में वैश्विक आर्थिक राजनीतिक सुधार का मुकम्मल प्रोजेक्ट के साथ विकास शील और पिछड़े देशों पर अपना दबदबा कायम करने के लिए आगे बढ़ता है। और दुनिया में सर्वागीड सुधारों की एक आधी सी शुरू हो जाती है।जिधर देखिए आर्थिक राजनीतिक संकट से उबरने के लिए सुधार सुधार सुधार का शोर सुनाई दे रहा था। भारत में भी यह है अभियान 1991 के बाद नरसिम्हा राव की अल्पमत सरकार के वित्त मंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व में शुरू होता है। इस सुधार की अंतर्वस्तु बाजार यानी पूंजी की ताकतों के लिए दुनिया भर के देशों समाजों के बाजार पर नियंत्रण के लिए जो राष्ट्रवादी हितों से प्रेरित विधिक रुप में आर्थिक अवरोध था बाधा थी उसे समाप्त करना था।जिससे पूंजी दुनिया भर के संसाधनों का खुलेआम दोहन और लूट करके अपना मुनाफा बढ़ा सकें। भारत में भी सुधारों का आगाज ड़ंकल प्रस्ताव विश्व बैंक आईएमएफ के निर्देश और डब्लूटीओ के नियंत्रण और निर्दैशन में शुरू हुआ। जो भारतीय जीवन के सभी क्षेत्रों को अपने प्रभाव में ले लिया। 

भारत में चुनावी प्रक्रिया में भी सुधार लाने का प्रयास इस दौर में तेजी से शुरू हुआ । इसी समय चुनाव आयुक्त टीएन सेशन भारत में बहुचर्चित व्यक्तित्व बन कर उभरे। भारत के समाज ने जाना कि चुनाव आयोग नामक कोई ताकतवर संस्था भारत में है जो किसी खास परिस्थिति में सर्वोच्च शक्ति बन जा सकती है।

चुनाव सुधारों के लिए जो नीतियां अपनाई गई उसके तहत चुनावी समय में प्रचार-प्रसार के तौर-तरीकों पर कानूनी बंदिशों को लागू करना। जटिल नियम बनाकर चुनाव प्रचार करने वाली राजनीतिक ताकतों को नियंत्रित करने की कोशिश करना है। चुनाव आयोग द्वारा चुनाव को धनबल से मुक्त करने के नाम पर जो प्रयास किए गए उसके उलट प्रभाव पड़े। उससे धीरे-धीरे राजनीतिक दलों में कार्यकर्ताओं की भागीदारी कम होने लगी। इतने नियम उपनियम बनाये कि जनता पर आधारित राजनीतिक दलों के लिए उनका पालन करना कठिन हो गया। गाड़ियों को पंजीकृत कराना चुनाव अधिकारियों से उसके लिए परमिट लेना मीटिंग स्थलों के लिए ढेर सारी बंदिशों ने चुनावी प्रक्रिया में कार्यकर्ताओं की भूमिका को लगभग समाप्त कर दिया। राजनीतिक बहसों का स्पेश धीरे-धीरे सिकुड़ने लगा। जिसका सीधा प्रभाव यह आया की आर्थिक और राजनीतिक रूप से शक्तिशाली व्यक्ति ही चुनावों में भाग ले सकता है। जिसके साथ संगठित टीम या बाजार से खरीदे हुए राजनीतिक मजदूर हो। जो धन का अदृश्य रूप से प्रयोग कर मतदाताओं को खरीद सकें और खुद लाभान्वित हो सकें। जैसे-जैसे चुनावी सुधार आगे बढ़ता गया नौकरशाही की पकड़ बढ़ती गई। आज यही स्थिति है कि सामान ग्राम पंचायतों और स्थानीय निकायों के चुनाव में भी पैसा वालों और जाति धर्म वाले बाहुबलियों की भूमिका और प्रतिनिधित्व बढ़ गया।

वोटरों को प्रलोभन देकर खरीदने का अभियान चरम पर पहुंच गया है ।आप किसी  सामान्य मतदाता से बात करके सच्चाई को समझ सकते हैं। पैसे की ताकत के साथ धार्मिक जातीय उन्माद ने लोकतंत्र को पूरी तरह से जकड़ लिया है। चुनाव सुधारों ने लोकतांत्रिक चेतना को कमजोर किया है। विचार और सिध्दांत की राजनीति का सफाया किया है। जिंदगी के सवालों को यानी रोटी रोजी स्वास्थ्य शिक्षा के साथ सम्मान और लोकतांत्रिक अधिकारों के प्रश्न को चुनाव के एजेंडे से बाहर कर दिया है। 

 क्यों किसी दल या ब्याक्ति को वोट दिया जाए या किसी व्यक्ति के पक्ष में हम क्यों खड़े हो यह सीधे तीन बातों से तय होने लगा। कौन व्यक्ति कितना आर्थिक और शारीरिक रूप से ताकतवर है। दूसरा किस की जाति की ससंख्या उस क्षेत्र में ज्यादा है वह हमारे जाति के हैं कि नहीं ।तीसरा दो धर्मों के बीच में किस तरह का उन्मादी माहौल बना दिया गया । इनमें  बड़ा अपराधी या दबंग होना कोढ़ में खाज का काम किया है। चुनावी सुधार करने की जो कोशिश हुई उसने उल्टा परिणाम देना शुरू कर दिया है। अब ग्राम पंचायत से लेकर लोकसभा तक कोई सामान्य राजनीतिक कार्यकर्ता चुनाव में भाग नहीं ले सकता। उसके लिए यह संभव नहीं है कि अदृश्य संसाधनों की व्यवस्था कर सकै।अब तो कार्यकर्ताओं  कार्यालयों तक के भी पैसे के हिसाब चुनाव आयोग को देने होते हैं। पर्चा पोस्टर छपाने तक पर अनेक प्रतिबंध है। धीरे-धीरे राजनीतिक अभियान को कमजोर किया गया।

   चुनाव सुधारों ने परिणाम देना शुरू कर दिया है। रिपोर्ट के अनुसार 30 से 35% तक निर्वाचित प्रतिनिधि संसद और विधान सभाओं में आपराधिक पृष्ठभूमि के हैं । 90% से ज्यादा करोड़पति अरबपति की श्रेणी से आते हैं। जबकि सुधारों की मनसा धनबल और बाहुबल को कमजोर करना था। चुनाव की प्रचार के दौरान ऐसा अभियान चलना चाहिए जिससे जनता के मत देने के विवेक को उन्नत किया जा सके । जनता के लिए चुनाव अभियान राजनीतिक पाठशाला होनी चाहिए थी ।जहां वह लोकतंत्र के मूल्य सीखता। समाज और राष्ट्र के प्रति एक सकारात्मक लोकतांत्रिक और व्यावहारिक नजरिया विकसित करता। जाति धर्म से मुक्त होकर एक लोकतांत्रिक नागरिक तैयार किया जाता। लेकिन 2014 तक आते-आते चुनाव की दिशा ही पलट गई ।अब तो कारपोरेट पूंजी के हाथ में चुनाव का नियंत्रण अप्रत्यक्ष रूप से चला गया है। इलेक्ट्रानिक मीडिया के ताकतवर होने और सूचना के श्रोत यानी मीडियासंस्थानों पर बड़े कारपोरेट घरानों का सीधा नियंत्रण है। कारपोरेट हिंदुत्व के खुले गठजोड़ के चलते मीडिया घरानों ने एक निश्चित  राजनीतिक वैचारिक दिशा को प्रमोट करने का काम अपने हाथ में ले लिया है। सूचना के केंद्रों पर कारपोरेट घरानों का नियंत्रण होने के कारण मतदाता के मानस  निर्माण में उनकी भूमिका निर्णायक हो गयी है। चुनाव सुधारों द्वारा इस पर कोई नियमन करने का विधिक तरीका विकसित नहीं किया जा सका है। क्रोनी कैप्टलिज्म के काल में कारपोरेट घरानों की अपने पसंद की पार्टियां हैं जिसके द्वारा वह लोकतांत्रिक संस्थाओं को नियंत्रित करते हैं।

आज धर्म या पहचान मूलक विचारों वाली जैसी भी सरकारें हों आर्थिक नीतियों में आपस में मतभेद नहीं होता। नौकरशाही और पूंजीपति के प्रति उनके नजरिए में समानता है। उनके चरित्र में भी कोई खास फर्क नहीं होता अलावा इसके कि वह पहचान की राजनीति को एक हथियार के रूप में प्रयोग करें। सिर्फ कुछ वामपंथी जनवादी पार्टियों को छोड़ दिया जाए तो लगभग सभी विचारों वाले नेता भ्रष्टाचार में डूबे हुए है ।

मोदी सरकार ने चुनावी बांड जारी कर राजनीतिक दलों के भ्रष्टाचार और काले धन को कानूनी ताकत दे दी है। चुनाव के फंड के स्रोत जांच या नियंत्रण के बाहर कर दिया गया है। इलेक्टरल बॉन्ड एक ऐसा हथियार है जिसका राजनीतिक दल को नियंत्रण में रखने के लिए कारपोरेट घराने खुलेआम प्रयोग कर रहे हैं। इसने मित्र पूंजीवाद के नए युग की शुरुआत की है।

कोविड महामारी के दौर में चुनाव डिजिटल करने के बाद राजनीतिक दलों के लिए पार्टी कार्यकर्ताओं की भूमिका समाप्त हो गई है। अब सीधे जो लोग ज्यादा डिजिटल प्लेटफॉर्म का प्रयोग करेंगे और जो जितना अधिक पैसा डालेंगे वही जनता के दिमाग को अपने पक्ष में खींचने में सक्षम होंगे। आप समझ सकते हैं कि जन सहयोग और जन पक्षधर आदर्श वादी राजनीतिक कार्यकर्ताओं के दम पर चलने वाले राजनीतिक दलों के लिए चुनावों में भाग लेने की गुंजाइश कितनी सीमित कर दी गई है। दूसरी तरफ डिजिटलाइजेशन ने बड़ी कारपोरेट कंपनियों को जिनका डिजिटल प्लेटफॉर्म के ऊपर एकाधिकार हैं जैसे फेसबुक टि्वटर व्हाट्सएप आदि उनके मुनाफे और चुनाव में दखल की ताकत को बहुत बड़ा दिया है।अब राजनीतिक दलों के अभियान डिजिटल वार रूम से संचालित होंगे। यानी सीधे पेड कार्यकर्ताओं के द्वारा नई तकनीक का प्रयोग कर हर उस आदमी तक पहुंचा जा सकता है जो डिजिटल दुनिया से जुड़ा है। आधार कार्ड की व्यवस्था ने सत्ता को जनता तक पहुंचने के लिए रास्ता पहले से ही तैयार कर रखा है। मैं ऐसे सैकड़ों लोगों को जानता हूं जिनके पास सीधे प्रधानमंत्री से फोन कॉल आती रहती हैं । वे इसे अपना सौभाग्य समझते हैं ।जबकि यह सीधे डिजिटल दुनिया का एक आभासी और छद्म काम का तरीका है जिससे वह मतदाताओं को सम्मोहित कर लेते हैं ।

विगत दिनों पेगासस नामक साफ्टवेयर की चर्चा और करिश्मा हमने सुनी है । जो सरकारों के पास नागरिकों की जासूसी का सबसे खतरनाक हथियार है।अब इस तरह के यंत्रों से राजनीतिक नेताओं पार्टियों पत्रकारों और चुनाव अभियान में लगे नौकरशाहों सरकारी कर्मचारियों के साथ जनता के विचार व्यवहार उसकी सोच का डिजिटल प्लेटफॉर्मों का प्रयोग कर पता लगाया जा सकता है। इस आधार पर सरकारें अपनी नीतियां और दिशा तय कर सकती हैं। साथ ही चुनाव को प्रभावित करने के लिए सबसे प्रभावशाली तरीके का इस्तेमाल कर सकती हैं। हम जानते हैं कि भारत में दरिद्रीकरण की गति बहुत भयावह है। इसलिए सरकार के लिए खस्ताहाल होते हुए सामाजिक समूहों को लाभार्थी की श्रेणी में डाल कर उन्हें जनता के पैसे और कर के बल पर प्रभावित किया जा सकता है ।उनकी मानसिकता का अध्ययन कर उनको प्रभावित करने वाली योजनाएं बनाई जा सकती है। इसलिए डिजिटल चुनाव का पूरा दौर ही नागरिकों मतदाताओं के लोकतांत्रिक अधिकारों में खतराक हस्तक्षेप है। जो लोकतंत्र के भविष्य के लिए ठीक नहीं है। अगर इस पर कोई प्रभावशाली नियंत्रण समय रहते नहीं  किया गया तो आने वाले समय में इलेक्ट्रोलर ऑटोक्रेसी, चुनावी तानाशाही,के लिए रास्ता साफ हो जाएगा। जिसे हम देख भी रहे हैं कि भारत इस दिशा में तेजी से बढ़ रहा है ।अरबों रुपए के गुप्त चुनावी चंदे पर पलने वाली राजनीतिक पार्टियां हैं। उनके पास वेतन भोगी आईटी कर्मचारियों का संख्या बल है। जिसको डिजिटल माध्यमों का इस्तेमाल करने के लिए पहले से ही प्रशिक्षित किया जा चुका है वह अफवाह और झूठ फैलाने विरोधियों को ट्रोल करने में दक्ष है। ये कारपोरेट घरानों नियंत्रण वाले मीडिया का प्रयोग कर नागरिकों को अपने विचारों की दिशा में मोड़ने का काम कर रही है। सोशल और डिजिटल मीडियम के दुरपयोग कर अल्पसंख्यकों की मांबलिंचिग और महिलाओं को अपमानित करने के लिए कई बड़े अभियान पहले भी सफलता पूर्वक चलाएं जा चुके हैं।

 इसलिए भारत के लोकतांत्रिक नागरिकों के लिए यह महत्वपूर्ण है कि आज के दौर के लिए ठोस नीति तय करें ।जिससे लोकतंत्र को सुरक्षित रखा जा सके ।चुनाव की निष्पक्षता और पारदर्शिता बचाई जा सके ।इसके लिए हमें मांग करनी चाहिए कि पूरे चुनाव की प्रक्रिया को नौकरशाही के नियंत्रण से मुक्त करने की नीतियां बनाई जाएं। दो, इलेक्शन कमीशन के अधिकारियों का चुनाव सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशन मेंहो। तीन,,ईवीएम की जगह बैलेट पेपर से चुनाव कराए जाएं , 4, चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों का खर्च सरकार खुद वहन करें। 5, धर्म जाति पहचान के किसी भी सवाल को अगर कोई  दल चुनाव में इस्तेमाल करता है तो उसकी मान्यता रद्द की जानी चाहिए।छ,, किसी समूह या तबके को अपमानित करने लांछित करने के अभियान में शामिल कोई भी बड़ा से बड़ा पदाधिकारी क्यों ना हो उस पर आपराधिक कार्रवाई की जाए। 7, साथ ही नागरिकों के प्रशिक्षण और चुनाव में उनकी स्वतंत्र भागीदारी के लिए रुप रेखा उसी तरह से तैयार किया जाए जैसे सरकारी कर्मचारियों को प्रशिक्षित करके उन्हें मतदान के काम में लगाया जाता है।आदि।

(जयप्रकाश नारायण सीपीआई (एमएल) यूपी के वरिष्ठ नेता हैं।)

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