Friday, March 29, 2024

बंगाल की चुनावी हिंसा, कंगना रनौत का ट्वीट और प्रधानमंत्री की छवि

2 मई को बंगाल में विधानसभा के चुनाव खत्म हुए और देर रात तक उसके परिणाम घोषित हो गए। तृणमूल कांग्रेस को अच्छा बहुमत मिला, पर ममता बनर्जी खुद नंदीग्राम से चुनाव हार गयीं। वे तृणमूल विधायक दल की नेता चुन ली गयीं और उन्होंने आज शपथ भी ले ली। अब वे तीसरी बार पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री हैं। अचानक चुनाव के समाप्त होते ही, वहां व्यापक हिंसा हो गई, जिसमें 10 लोग मारे गए। मरने वालों में बीजेपी, टीएमसी और वाम मोर्चा के कार्यकर्ता शामिल हैं। इस हिंसा को लेकर भाजपा ने टीएमसी और ममता बनर्जी की गंभीर आलोचना की और आज 5 मई को उन्होंने देश भर में इस हिंसा के विरुद्ध एक दिन का धरना प्रदर्शन किया।

बंगाल ही नही, जहां भी कांटे की टक्कर होती है और चुनाव एक सामान्य लोकतांत्रिक प्रक्रिया के अंग के बजाय, प्रतिष्ठा का प्रश्न बन जाता है वहां पर राजनीतिक वातावरण बेहद तनावपूर्ण रहता है और हिंसा होती ही है। बंगाल का चुनाव, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिये प्रतिष्ठा का प्रश्न था और जो राजनीतिक ताकत भाजपा ने इस चुनाव में झोंक दी थी, उससे भाजपा और मोदी शाह की कितनी प्रतिष्ठा पश्चिम बंगाल के चुनाव परिणाम से जुड़ी है, इसका अंदाज़ा आसानी से लगाया जा सकता है। बंगाल का चुनाव इतना महत्वपूर्ण था कि उसे आठ चरणों में किया गया। व्यापक स्तर पर केंद्रीय बलों की नियुक्ति हुयी। निश्चित ही वहां के वरिष्ठ प्रशासनिक और पुलिस अफसरों को इस बात का अंदाज़ा रहा होगा कि यहाँ के बेहद तनावपूर्ण राजनीतिक वातावरण में, हिसा तो होगी ही होगी। फिर उन्होंने उसे रोकने के निरोधात्मक उपाय किये कि नहीं किये, यह तो जब घटनाक्रम की जांच हो तो पता चले।

यहीं यह सवाल उठता है कि बंगाल में, चुनाव कराने के लिये वहां व्यापक संख्या में केंद्रीय पुलिस बल नियुक्त किए गए थे। क्या वह इतनी जल्दी वापस भेज दिए गए? हालांकि केंद्रीय बलों का शेड्यूल पहले से ही तय होता है पर यदि राज्य सरकार (यानी चुनाव के दौरान आयोग) चाहे तो अति संवेदनशील और संवेदनशील जिलों में अतिरिक्त बल रखा भी जा सकता है। चुनाव के समय, कानून और व्यवस्था की स्थिति से जिलों या थानों का वर्गीकरण भी सामान्य, संवेदनशील और अति संवेदनशील के रूप में किया जाता है। यह संवेदनशीलता भी जिन कारणों से होती है, इसका कारण भी लिखा जाता है, और इसी आधार पर सुरक्षा बलों का डिप्लॉयमेंट किया जाता है।

संवेदनशीलता का कारण, पार्टीगत गुटबंदी, साम्प्रदायिक तनाव, जातिगत तनाव, महत्वपूर्ण प्रत्याशी, या दबंग माफिया प्रत्याशी आदि-आदि होते हैं। जहां जैसी स्थिति हो। यदि चुनाव खत्म होते ही ऐसी हिंसक घटनाएं हो गईं तो जहां-जहां यह घटना हुयी है, वहां के अधिकारियों से यह पूछा जाना चाहिए कि क्या उनके पास ऐसी हिंसक वारदातों के हो सकने के संबंध में कोई अग्रिम सूचना थी या नहीं। थी तो, हिंसक घटनाओं को रोकने के लिये क्या-क्या किया गया? नहीं किया गया तो, क्यों नहीं किया गया? कुछ घटनाएं अचानक घट सकती हैं और घट भी जाती हैं, पर जैसी खबर आ रही है यह घटनाएं अचानक घटी हुयी घटनायें नहीं लगती हैं।

हर तरह की हिंसा रोकी जानी चाहिए और यह चुनावी हिंसा भी। लोकतंत्र में ऐसी पागलपन भरी हिंसा का कोई स्थान नहीं है। हालांकि, चुनाव के बाद होने वाली हिंसा, अमर्यादित और उन्मादित चुनाव प्रचार जो आजकल चुनाव प्रचार की एक शैली बन गयी है का ही दुष्परिणाम होती है। नेता और प्रचारक तो, भीड़ को उकसा कर, भड़काऊ भाषण देकर, उन्मादित तालियां बजवा कर, अपना भौकाल बना कर, कुछ जुमले सुना कर, हेलीकॉप्टर से उड़ जाते हैं और फिर वह उन्माद, का वायरस जिसे वे नेता या प्रचारक, भीड़ पर छोड़ जाते हैं, जब अपना दुष्प्रभाव दिखाने लगता है तो एक जरा सा वाद विवाद और कहासुनी भी पहले झगड़ा और फिर हिंसक झड़प में बदल जाता है।

यहीं पर मैं कुछ उद्धरण प्रस्तुत करूँगा कि कैसे चुनाव को उन्मादित और भड़काऊ बनाने के लिये प्रधानमंत्री सहित भाजपा के अन्य नेताओं ने अपने भाषण दिए।

● कोलकाता में चुनाव प्रचार के दौरान। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, “बंगाल के लोगों ने बहुत भोगा है। दीदी की गुंडागर्दी, दादाओं की गुंडागर्दी, भाइयों बहनों, अब बदला लेने का समय आ रहा है। गुंडे गुंडियों को ऐसा सबक सिखाया जाएगा कि पूरा देश देखेगा।”
● गृहमंत्री अमित शाह ने कहा, “ममता बनर्जी गुंडा हैं, उनकी सरकार गुंडों की सरकार है। गुंडों को बंगाल से खदेड़ा जाएगा।”
● मिथुन चक्रवर्ती ने कहा, “मैं न तो जलधर सांप हूं, न विषहीन सांप हूं। मैं असली कोबरा हूं। एक बार काटते ही तुम्हारी तस्वीर टँग जाएगी।” और फिर मिथुन बहुत धीमे से बोला, ‘टीएमसी के गुंडों।’ उल्लेखनीय है कि जिस मंच से मिथुन चक्रवर्ती यह भाषा बोल रहे थे, उस मंच पर प्रधानमंत्री भी मौजूद थे।
● भाजपा के पश्चिम बंगाल के प्रभारी महामंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने कहा, “टीएमसी वालो, एक-एक से हिसाब लिया जाएगा। तुम्हारा आतंकवाद अब नहीं चलेगा।”
● उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री ने कहा, “2 मई के बाद टीएमसी के गुंडे गिड़गिड़ाकर अपनी जान की भीख मांगते फिरेंगे।”

यह चुनाव प्रचार के दौरान के भाषणों की एक बानगी है। निश्चित ही तृणमूल कांग्रेस और ममता बनर्जी की तरफ से भी ऐसी ही आक्रामक भाषा का उपयोग किया गया और जो उन्माद और खटास का वातावरण इन दलों के कैडर में नीचे तक आया, तो उसका परिणाम हिंसक तो होना ही था। बंगाल में चुनाव के बाद हुयी हिंसा पर सबसे रोचक और ईमानदार प्रतिक्रिया फ़िल्म अभिनेत्री कंगना रनौत की आयी है। कंगना रनौत ने कहा है, “वहां भयावह हो रहा है। हमें गुंडई के जवाब में सुपर गुंडई की ज़रूरत है। वह एक दैत्य की तरह फैलता जा रहा है। जिसे रोकने के लिये मोदी जी अपना विराट रूप दिखाइए। वही विराट रूप जो साल 2000 की शुरुआत में दिखाया था।”

अब इस विराट रूप की कुछ झलकियां, पत्रकार आवेश तिवारी की फेसबुक टाइमलाइन से उठा रहा हूँ, उसे भी देखें-
आवेश लिखते हैं,
● अहमदाबाद के गुलबर्गा सोसायटी में 2002 के गुजरात दंगों के दौरान कांग्रेस एमपी एहसान जाफरी के साथ साथ 69 लोगों की नृशंस हत्या कर दी गई थी , कंगना चाहती हैं कि ऐसा फिर से दोहराया जाए।
● गुजरात दंगों में कम से कम दो सौ पचास लड़कियों और महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया और फिर उन्हें जला दिया गया। कंगना रानौत चाहती हैं यह फिर से दोहराया जाए।
● दंगों में बच्चों को जबरदस्ती पेट्रोल पिलाया गया और फिर आग लगा दी गई। गर्भवती महिलाओं को चपेट में लिया गया और फिर उनके अजन्मे बच्चे के शरीर को दिखाया गया। कंगना रानौत चाहती हैं इसे दोहराया जाए।
● एहसान जाफरी की हत्या पर लिखते हुए डायन बन्शा ने कहा है कि जब जाफरी ने भीड़ को महिलाओं को छोड़ने के लिए भीख मांगी, तो उन्हें सड़क पर घसीटा गया और “जय श्री राम” कहने से इनकार करने पर उन्हें परेड करने के लिए मजबूर किया गया। दंगाइयों ने दो छोटे लड़कों सहित जाफरी के परिवार को जलाकर मार डाला। कंगना रानौत चाहती हैं इसे दोहराया जाए।
● गुजरात हिंसा के दौरान 230 मस्जिदें और 274 दरगाहें नष्ट हो गईं। सांप्रदायिक दंगों के इतिहास में पहली बार हिंदू महिलाओं ने भाग लिया, मुस्लिम दुकानों को लूटा। यह अनुमान लगाया गया है कि हिंसा के दौरान 150,000 लोगों को विस्थापित किया गया था। कंगना चाहती हैं यह दोहराया जाए।

कंगना के इस ट्वीट पर बड़ा बवाल मचा और ट्विटर ने उनका अकाउंट स्थायी रूप से बंद कर दिया। कंगना के ट्वीट पहले भी बहुधा भड़काऊ और तथ्यों से परे होते थे पर 20 लाख फॉलोवर्स वाली इस फ़िल्म अभिनेत्री के ट्वीट पर इतनी गम्भीर कार्यवाही कभी ट्विटर ने नहीं की। पर आज जब उसने सच और अपने मन की बात कह दी तो ट्विटर ने उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया।

गुजरात का साल 2000 का दंगा क्या गोधरा ट्रेन अग्निकांड जिसमें 56 कारसेवक जल कर मर गए थे की प्रतिक्रिया में भड़का था? या यह दंगा गोधरा का प्रतिशोध था? अगर यह प्रतिशोध था तो इस प्रतिशोध में सरकार द्वारा की गयी लापरवाही, क्या जानबूझकर कर की गयी थी, या यह सरकार की अक्षमता थी? ऐसे तमाम सवाल बार-बार अलग-अलग जगहों पर उठते रहते हैं, और यह सारे सवाल नरेंद्र मोदी को आज भी असहज करते हैं। वे बार-बार खुद को इन असहज सवालात से दूर करने की कोशिश भी करते हैं, इसीलिए कंगना के इस ट्वीट पर ट्विटर ने यह बड़ी कार्यवाही की है। गुजरात का दंगा, गोधरा का प्रतिशोध था या स्वयंस्फूर्त प्रतिक्रिया इसके विस्तार में न जाकर हम यही कहेंगे कि नरेंद्र मोदी जो तब गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तो वे इस भयंकर दंगे को नियंत्रित करने में अक्षम सिद्ध हुए। दरअसल वे कभी एक प्रशासक के रूप में दिखे ही नहीं। प्रशासनिक दक्षता का उनमें यह अभाव अनेक मौकों पर आज भी दिखता है।

नरेंद्र मोदी भले ही कंगना के इस विराट स्वरूप को भुला देना चाहें पर यह एक कड़वी सच्चाई है कि इस सरकार के अधिकांश समर्थक, प्रधानमंत्री के इसी विराट रूप के आशिक हैं और वे उन्हें इसी रूप में देखना चाहते हैं। हालांकि प्रधानमंत्री उस रूप की चर्चा से बार-बार बचना चाहते हैं, और उस छवि के विपरीत एक उदार और स्टेट्समैन छवि धारण करना चाहते हैं, इसीलिए 2014 में उन्होंने सबका साथ सबका विकास के नए मंत्र के साथ शपथ ली। पर पिछले सात सालों में उनके कट्टर समर्थकों ने सबका साथ सबका विकास की थियरी को नेपथ्य से उभरने नहीं दिया और गौरक्षा, घर वापसी, साम्प्रदायिक एजेंडे को ही आगे रखा। ॉ

प्रधानमंत्री भी उदार चोले को लंबे समय तक ओढ़ नहीं पाते हैं और वह श्मशान बनाम कब्रिस्तान के मुद्दे पर लौट ही आते हैं। यह मुद्दा परिवर्तन चुनाव प्रचार के दौरान तो निश्चित ही होता है। इसका नतीजा यह हुआ कि सरकार की प्राथमिकता में विकास, और लोककल्याण पीछे छूटता रहा और सत्तारूढ़ दल का राजनीतिक दर्शन जो बिल्कुल सुदर्शन नहीं है, वह चुनाव प्रचार के दौरान सरकार, सत्तारूढ़ दल और प्रधानमंत्री की प्राथमिकता में बना रहा।

आज जब हम एक घातक आपदा से रूबरू है, खुद के प्राण बचाने के लिये जो भी जो सुझा दे रहा है, उसे करने लग जा रहे हैं, और स्वास्थ्य को लंबे समय तक भुला देने की सज़ा भुगत रहे हैं तो, हमें यह भी याद आ रहा है कि सरकार का एक काम, रोजी, रोटी, शिक्षा और स्वास्थ्य है, जिसकी हमने कभी इस सरकार से अपेक्षा ही नहीं की, और जब हमने अपेक्षा नहीं की तो सरकार को क्या गरज पड़ी है, वह तो जुमले सुना ही रही है, तालियां बटोर ही रही हैं। ऐश्वर्य के साथ सुख भोग ही रही है। सरकार को गवर्नेंस के मूल मुद्दे पर लाइये। उसे भटकने न दीजिये।

(विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफसर और कानूनी मामलों के जानकार हैं। वह इलाहाबाद में रहते हैं।)

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