आर्थिक गैर बराबरी मिटाना महज नैतिक या मानवीय प्रश्न नहीं, वरन देश के तेज आर्थिक विकास की भी शर्त है

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हमारे गणतंत्र के 75 वर्ष पूरे होने  जा रहे हैं। इसी बीच आए एक शोध के अनुसार आज हमारे देश में आर्थिक गैरबराबरी 1950 से अधिक है।

संयोगवश इसी बीच आर्थिक गैर बराबरी के गंभीर अध्येता, विश्वप्रसिद्ध अर्थशास्त्री टामस पिकेटी भारत में थे। वे Delhi School of Economics (DSE) और RIS के मंच पर बोले और अखबारों को साक्षात्कार दिए।

मंच पर बैठे भारत सरकार के सलाहकार अर्थशास्त्रियों की असहमति और विरोध की परवाह न करते हुए उन्होंने कहा कि ‘भारत इस समय दक्षिण अफ्रीका को छोड़कर दुनिया का सबसे अधिक गैर बराबरी वाला देश बन गया है’।

उन्होंने सलाह दिया कि भारत अगर अपने सुपर रिच तबके पर 2% संपत्ति कर लगा दे तो पूरी आबादी के लिए सभी सार्वजनिक सेवाओं की बेहतर ढंग से व्यवस्था हो सकती है।

चीन का उदाहरण देते हुए उन्होंने जोर देकर कहा कि भारत अगर गैर बराबरी को कम कर सके तो यह और तेजी से विकास कर सकता है और गरीबी का उन्मूलन कर सकता है।

पत्रकारों ने जब उनसे पूछा कि 1991के बाद भारत में बड़ा मध्यवर्ग बना है और गरीबी भी 35 साल पहले जैसी नहीं है। ऊपरी 1% और निचले 1% के बीच gap भले बढ़ गया है लेकिन लोग पहले से बेहतर हैं। इस पर पिकेटी ने बिना लाग लपेट गरीबी उन्मूलन आदि के प्रयासों को मानते हुए भी दावा किया कि भारत और बेहतर कर सकता था अगर यहां गैर बराबरी कम होती।

यह गैर बराबरी अनावश्यक और नुकसानदेह है। उन्होंने कहा कि दक्षिण अफ्रीका को छोड़कर दुनिया में कहीं भी ऊपरी 1%,10% और नीचे के 50% में ऐसा अंतर नहीं है जैसा भारत में है।

यूरोप या उससे ज्यादा गैर बराबरी वाले अमेरिका दोनों में आर्थिक असमानता भारत से कम है और वहां यह कम गैर बराबरी विकास के शुरुआती चरण में ही सार्वजनिक नीतियों और प्रोग्रेसिव टैक्सेशन आदि के माध्यम से आ गई थी।

50साल पहले चीन भारत से अधिक धनी नहीं था, लेकिन आज  है। इसके पीछे एक प्रमुख कारण यह है कि वहां भारत से कम गैर बराबरी है।

दरअसल पिकेटी से सवाल इस तरह किए जा रहे थे ताकि वे धनिकों पर tax की अपनी मूल थीसिस की जगह सरकार की कथित समावेशी विकास और गरीबी उन्मूलन आदि को विकल्प के रूप में स्वीकार कर लें। लेकिन वे टस से मस नहीं हुए।

उन्होंने अकाट्य तर्कों और तथ्यों से यह स्थापित किया कि सुपर रिच तबकों पर Tax बढ़ाने का कोई विकल्प नहीं है।

जब उनसे कहा गया कि उन्हें मालूम है कि भारत जैसे देश में tax वसूलने की प्रक्रिया कितनी कठिन है, ऐसी स्थिति में दूसरे और उपाय क्या हो सकते हैं, लोगों को इसके लिए persuade कैसे किया जा सकता है ?

उन्होंने जवाब दिया कि tax वसूलना हमेशा ही बहुत जटिल होता है क्योंकि लोग tax कम से कम देना चाहते हैं। लेकिन भारत में अभी वसूला जा रहा tax जीडीपी का महज 13-14% है, जो अधिक नहीं है।

इससे आप पुलिस, न्याय व्यवस्था infrastructure, शिक्षा एवं स्वास्थ्य व्यवस्था आदि पर वांछित खर्च नहीं कर सकते। फलस्वरूप न तो इनमें काम करने वालों को समुचित वेतन मिल पाता है, न ही आम जनता को अच्छी गुणवत्तापूर्ण सार्वजनिक सेवाएं मिल पाती हैं।

भारत में 10% से कम लोग आयकर देते हैं। जैसे-जैसे देश की अर्थव्यवस्था बढ़ी है, टैक्स देने वालों का दायरा बढ़ना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। उन्होंने चीन से तुलना करते हुए कहा कि 40 साल पहले वहां 10% लोग आयकर देते थे, अब उनकी संख्या बढ़कर 70 से 80% हो गई है !

जाहिर है अगर आप मध्यवर्ग और उच्च मध्यवर्ग से tax वसूलना चाहते हैं तो उच्च वर्ग को आप छोड़ नहीं सकते, उनसे tax वसूलना ही होगा। लेकिन भारत में आज ठीक उल्टा हो रहा है। यहां खरबपति करीब-करीब पूरी तरह tax net से बाहर हैं।

दरअसल, वे भारत से इस सवाल पर वैश्विक भूमिका की अपील करते हैं। उन्होंने कहा कि अगर ब्राजील यह कर सकता है तो भारत क्यों नहीं इसे कर सकता।

जब उनसे पूछा गया कि भारत में पहले ही आयकर की उच्चतम दर 43% है, अब इससे आगे हम कहां जा सकते हैं। इसके अलावा बहुत से NRI हैं जो tax नहीं देते। उन्होंने कहा कि सवाल tax को प्रभावी बनाने का है। भारत के खरबपति अपनी संपत्ति का 0.01% आयकर देते हैं, इसे आप 90 गुना कर दो, तब भी कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है।

उन्होंने कहा अगर आप सचमुच धनवानों से tax वसूलना चाहते हैं, और गिनती के 167 खरबपतियों से 2% भी संपत्ति कर वसूल लेते हैं, तो यह भारत की कुल राष्ट्रीय आय का 0.5.%हो जाएगा, अब इसकी आप मौजूदा शिक्षा और स्वास्थ्य के बजट से तुलना करके देख सकते हैं कि यह कितना अधिक है।

जहां तक NRI की बात है, उनसे भी tax वसूला जाना चाहिए, भारत में जितना समय उन्होंने बिताया है उस अनुपात में, क्योंकि उन्होंने भी अपनी समृद्धि अर्जित करने में भारत के इंफ्रास्ट्रक्चर, शिक्षा, लीगल सिस्टम आदि के लाभ का उपयोग किया है।

उन्होंने तर्क दिया कि अगर आप ऊपर वालों से tax नहीं वसूलते तो नीचे के लोगों को इसके लिए कैसे प्रेरित कर सकते हैं ?

उनसे पब्लिक होल्डिंग को व्यापक करने के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा वे इसके पक्ष में हैं और उम्मीद करते हैं कि स्वीडन और जर्मनी की तरह यहां भी एक दिन मजदूर प्रतिनिधि कंपनी के बोर्ड में होंगे। लेकिन उनके जवाब से यह साफ था कि वे इससे कोई बहुत बड़ी उम्मीद नहीं पालते।

जब उनसे यूनिवर्सल बेसिक इनकम (UBI ) के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि यह उपयोगी है लेकिन कोई जादू की छड़ी नहीं है। यह उच्च गुणवत्तापूर्ण सार्वजनिक सेवाओं का विकल्प नहीं हो सकती। यह क्रेडिट की कमी को दूर नहीं कर सकती।

मौजूदा सरकार की कथित वित्तीय समावेशन की नीतियों के बारे में उनका साफ कहना था कि ये जरूरी हैं लेकिन पर्याप्त नहीं हैं। लोगों को कुछ पैसा मिल रहा है, वह ठीक है, लेकिन नागरिकों को अच्छी शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं, infrastructure अच्छी और बुनियादी सार्वजनिक सेवाएं मिलनी चाहिए।

जब उनसे पूछा गया कि वे trickle down थ्योरी में विश्वास नहीं करते ? उन्होंने बिना लाग लपेट कहा कि असमानता के इस स्तर पर उनका इसमें कत्तई यकीन नहीं है।

देश की आर्थिक विकास दर इस साल के 8.2% से गिरकर मात्र 6.4% रहने का अनुमान है।

जाहिर है आर्थिक गैर बराबरी के खिलाफ लड़ाई केवल नैतिक/मानवीय प्रश्न नहीं है बल्कि देश के तेज आर्थिक विकास की भी शर्त है।

यह स्वागतयोग्य है कि छात्र-युवाओं के रोजगार अधिकार अभियान ने सुपर रिच तबकों पर सुपर टैक्स लगाने का अभियान छेड़ रखा है, जिसके सलाहकार मंडल में जाने-माने अर्थशास्त्री और देश के राजनीतिक सामाजिक जीवन की अहम शख्सियतें शामिल हैं।

आवश्यकता इस बात की है कि तमाम लोकतांत्रिक ताकतें इस सवाल को जोर-शोर से उठाएं ताकि व्यापक जनसमुदाय के लिए अच्छी शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, इंफ्रास्ट्रक्चर समेत तमाम सामाजिक सेवाओं की गारंटी हो सके।

(लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं।)

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