क्या पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के भीतर सभी लोगों को रोजगार मुहैया कराना संभव है?
आज भारत में जो हालात हैं, उनके बीच रोजगार के अधिकतम अवसर पैदा करने की सबसे व्यावहारिक योजना क्या हो सकती है?
पहले से जारी ऑटोमेशन के बीच अब आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस और रोबोटिक्स के इस्तेमाल से काम और कारोबार के क्षेत्र में जो बड़े बदलाव आ रहे हैं, उन्हें ध्यान में रखें, तो क्या फिर भी सबको रोजगार की मांग करना उचित एवं व्यावहारिक होगा?
अथवा, नई परिस्थितियों को देखते हुए अब यूनिवर्सल बेसिक इनकम (यूबीआई) जैसे प्रयोगों की मांग ज्यादा उपयुक्त है, जिससे कम-से-कम यह हो सकता है कि सभी लोग न्यूनतम जीवन स्तर के साथ जीने लायक बने रहें?
ये कुछ सवाल हैं, जो अक्सर बेरोजगारी के विकराल होते रूप के बीच चलने वाली बहसों के दौरान अक्सर उठते हैं। इन पर आम सहमति इसलिए नहीं बनती, क्योंकि ऐसे प्रश्नों को उन अलग-अलग हलकों से उठाया जाता है, जिनके उत्पादन तंत्र और उसके प्रबंधन के साथ-साथ व्यापक रूप से समाज को देखने के नजरिए में भी फर्क है।
मौजूदा तथाकथित लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को इतिहास की अंतिम मंजिल मान कर चलने वाले लोग इसी सिस्टम के भीतर कुछ रास्ता निकालने की दलील में यकीन करते हैं। वैसे लोगों की राय में यूबीआई एकमात्र उपाय है।
मगर जिन्हें अर्थव्यवस्था की गहरी समझ है, जिनके पास इतिहास को देखने का खास (द्वांत्मक- dialectical) नजरिया है, वो अलग समाधान पेश करते हैं- ऐसा समाधान जो व्यक्ति गरिमा के अनुरूप हो एवं साथ ही व्यावहारिक भी।
ये सारे पहलू दस नवंबर 2024 को नई दिल्ली में रोजगार अधिकार अभियान के राष्ट्रीय सम्मेलन में उभरे। सम्मेलन दो अर्थों में एक सार्थक प्रयास साबित हुआ- पहला, इससे बढ़ती बेरोजगारी के बीच रोजगार के प्रश्न को चर्चा के केंद्र में लाने की इस अभियान की पहल ने राष्ट्रीय स्वरूप ग्रहण किया।
दूसरा, रोजगार से जुड़े तमाम सवालों पर खुल कर बहस हुई। अर्थशास्त्रियों प्रो. प्रभात पटनायक और प्रो. अरुण कुमार दो ऐसे नाम हैं, जिन्होंने रोजगार के मुद्दे पर गंभीर काम किया है। सबको रोजगार मुहैया के लिए कितना धन चाहिए, इसकी उन्होंने ठोस गणना की है।
इसके लिए सरकार की प्राथमिकताओं और नीतियों में क्या बदलाव होना चाहिए, इस पर उन्होंने ठोस सुझाव दिए हैं। दोनों अर्थशास्त्रियों ने नई दिल्ली सम्मेलन को संबोधित किया।
सबको रोजगार मिले- क्या पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के अंदर यह संभव है?
इस प्रश्न का उत्तर पहले इस बारे में समझ बनाने से मिल सकता है कि बेरोजगारी प्राकृतिक नियति है, अथवा यह व्यवस्था के प्रबंधकों का चयन है?
ऐतिहासिक ज्ञान और अनुभव दोनों की रोशनी में देखें, तो 21वीं सदी के इस मुकाम पर आकर इस बारे में कोई असमंजस नहीं रहना चाहिए। खासकर 20वीं सदी में आर्थिक प्रबंधन की विभिन्न प्रकार व्यवस्थाओं के प्रयोग के बाद साफ हो चुका है कि बेरोजगारी को बनाए रखना सुनियोजित परियोजना का परिणाम है।
मकसद यह होता है कि श्रम की लागत (पारिश्रमिक) न्यूनतम बनी रहे, ताकि मुनाफे को अधिकतम रखा जा सके।
बीसवीं सदी में समाजवादी व्यवस्थाओं के जो प्रयोग हुए, उन्हें हम छोड़ भी दें, तो पूंजीवादी व्यवस्था के अंदर हुए कल्याणकारी राज्य के प्रयोगों का अनुभव इस सिलसिले में महत्त्वपूर्ण है। कल्याणकारी राज्य की अवधारणा पर अमल के दौरान भी अधिकतम संभव रोजगार की गुंजाइशें पैदा हुईं। जब ऐसा हुआ, तो उन समाजों में सबका जीवन स्तर ऊंचा हुआ।
कुल मिलाकर खुशहाली का विस्तार हुआ। लेकिन जब पूंजीवादी शासक वर्ग कल्याणकारी राज्य की भूमिका को सिकोड़ने में कामयाब होने लगे, तो यहां तक कि विकसित देशों में भी लाभदायक रोजगार उपलब्ध होने की संभावनाएं घटने लगीं। भारत जैसे विकासशील देश में स्थिति अधिक विकराल हुई है, जो स्वाभाविक ही है।
क्या फिर से सूरत बदली जा सकती है? यह सवाल आर्थिक नहीं, बल्कि राजनीतिक है। राजनीतिक इच्छाशक्ति हो, तो आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस और रोबोटिक्स के इस दौर में भी सबको रोजगार उपलब्ध कराने की नीतियों पर अमल किया जा सकता है।
कैसे? इस सवाल पर हम आएंगे, मगर उसके पहले यूबीआई के पैरोकारों की दलील पर गौर कर लेना उचित होगा।
सोच यह है कि आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के उपयोग के साथ ओटोमेशन की क्रिया बेहद तेज होने जा रही है। इस कारण उत्पादन प्रक्रिया में कम-से-कम श्रमिकों की जरूरत होगी। अधिकांश काम मशीनें कर देंगी। वैसी परिस्थिति में आबादी के विशाल हिस्से का बेरोजगार रहना एक स्वाभाविक परिणाम होगा (दरअसल, ऐसा होने भी लगा है)।
यह ऐसी स्थिति है, जिस पर किसी का वश नहीं है। तकनीकी प्रगति के साथ मानव समाज की यही नियति होनी है। तो उस हाल में क्या किया जाए? एकमात्र उपाय यही बचता है कि सरकारें सबको एक न्यूनतम रकम हर महीने दें (यानी कैश ट्रांसफर करें), ताकि सभी लोग किसी तरह गुजारा चला सकें।
मगर, इस सोच पर दो प्रमुख आपत्तियां हैं। पहली, यह कि रोजगार सिर्फ गुजारा भत्ता नहीं देता, बल्कि इंसान में कुछ सार्थक करने का बोध भी उत्पन्न करता है। रोजगार से प्राप्त मेहताना व्यक्ति को आत्म-सम्मान भरा जीनव प्रदान करता है।
इसके विपरीत कैश ट्रांसफर जैसी योजनाएं व्यक्ति में नाकारा होने का बोध पैदा करती हैं। उसमें किसी अन्य के रहमोकरम पर निर्भर का ख्याल भरती हैं, जिसका असर उसके आत्म-सम्मान पर पड़ता है।
दूसरा मुद्दा योजना की वित्तीय संभाव्यता (fiscal viability) का है। यूनिवर्सल बेसिक इनकम का अर्थ है कि सभी देशवासियों/परिवारों को सरकार जीवन की बुनियादी सुविधाएं जुटाने लायक एक न्यूनतम रकम हर महीने देगी। क्या यह रकम सबको मिलेगी? भारत में सार्वजनिक वितरण प्रणाली जैसी जो सुविधाएं यूनिवर्सल थीं, उन्हें क्रमशः टारगेटेड बना दिया गया।
यानी सबको सुविधा देने के बजाय सिर्फ आर्थिक रूप से कमजोर तबकों को किफायती दर पर अनाज बेचा जाने लगा। बहरहाल, भारत में गरीबों की संख्या भी इतनी ज्यादा है कि (कोरोना महामारी के समय से) खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज देने का आत्म-प्रचार करते हैं।
ये 80 करोड़ लोग खाद्य सुरक्षा कानून के प्रावधानों के तहत चुने गए। सामाजिक संस्थाओं का कहना है कि यह आंकड़ा 2011 की जनगणना पर आधारित है। ताजा अनुमान के मुताबिक इस लाभ से 10 से 11 करोड़ लोग छूटे हुए हैं। यानी नई जनगणना के बाद ऐसे लाभान्वित लोगों की संख्या 90 करोड़ पार कर जाएगी।
क्या भारत की वर्तमान राजकोषीय स्थिति इस योग्य है कि इतने लोगों की न्यूनतम “बेसिक” इनकम सुनिश्चित की जा सके? जाहिर है, सरकार का प्रयास लाभ से अधिक से अधिक लोगों को वंचित करने का हो जाएगा। फिर राजकोषीय स्थिति समय के साथ बदलती रहती है।
तो क्या लोगों को मिलने वाली रकम में भी कटौती या बढ़ोतरी होती रहेगी? इसलिए यह योजना ना तो नैतिक और ना ही व्यावहारिक रूप से संभाव्य (feasible) दिखती है।
इसके विपरीत अर्थशास्त्री प्रो. प्रभात पटनायक ने यह उचित सुझाव दिया है कि रोजगार एवं आय के वर्तमान संकट से उबरने का रास्ता यह है कि पांच बुनियादी जरूरतों को संवैधानिक अधिकार बना दिया जाए। ये पांच जरूरतें हैः
- खाद्य सुरक्षा अधिकार
- स्कूली शिक्षा का अधिकार
- यूनिवर्सल हेल्थ केयर (सबको इलाज की मुफ्त सुविधा) का अधिकार
- वृद्धावस्था एवं विकलांगता पेंशन का अधिकार
- और, रोजगार का अधिकार/ रोजगार ना मिलने की स्थिति में बेरोजगारी भत्ता पाने का अधिकार
भारत के सभी नागरिकों की ये तमाम जरूरतें पूरी हों, यह संविधान सभा की मंशा भी थी। इनमें से कुछ अधिकारों को मौलिक अधिकार की श्रेणी में रखा गया (अथवा बाद में शामिल किया गया), जबकि कुछ जरूरतों को पूरा करने की अपनी इच्छा को संविधान सभा ने राज्य के नीति-निर्देशक तत्व वाले संविधान के हिस्से में शामिल किया।
समझ यह है कि जब इन अधिकारों को साकार करना सरकार का दायित्व बन जाएगा, तो इसके लिए बुनियादी ढांचा तैयार करना होगा। उस क्रम में बड़े पैमाने पर रोजगार के अवसर पैदा होंगे।
मसलन, स्कूली शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए स्कूल भवनों का निर्माण करना होगा, शिक्षकों एवं अन्य कर्मचारियों की भर्ती करनी होगी और क्वालिटी शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए कंप्यूटर, किताबों आदि की जरूरत पड़ेगी।
ठीक यही बात यूनिवर्सल हेल्थ केयर पर लागू होती है। इसके लिए अस्पताल भवनों का निर्माण, डॉक्टर एवं अन्य स्वास्थ्य कर्मियों की भर्ती, दवाइयों तथा इलाज संबंधी अन्य सामग्रियों की खरीदारी की जरूरत पड़ेगी।
सबको पौष्टिकता से परिपूर्ण खाद्य सुरक्षा मुहैया कराने के लिए कृषि क्षेत्र में बड़े पैमाने पर निवेश आवश्यक होगा, जिससे जहां किसानों की न्यूनतम समर्थन मूल्य जैसी मांग खुद पूरी हो जाएगी, वहीं खेतिहर मजदूरों के मेहनताने में भी यथोचित बढ़ोतरी की गुंजाइश बनेगी।
इन सबसे अर्थव्यवस्था में स्वाभाविक गति आएगी। निवेश, मांग और उपभोग का चक्र चल पड़ेगा, जिस क्रिया में रोजगार के अवसर स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होंगे।
इस योजना में प्रत्यक्ष नकदी हस्तांतरण की सिर्फ दो स्थितियां होंगी- वृद्धावस्था/ विकलांगकता पेंशन, और बेरोजगार रह गए व्यक्तियों को बेरोजगारी भत्ता। वैसे इस क्रम में जो पैसा बाजार में जाएगा, वह भी अर्थव्यवस्था के लिए लाभदायक होगा।
मशहूर अर्थशास्त्री जॉन मेनार्ड कीन्स ने बाजार में मांग पैदा करने को पूर्ण रोजगार का फॉर्मूला बताया था। इसके लिए मुसीबत की स्थितियों में सरकार प्रत्यक्ष नकदी हस्तांतरण करे, इसकी वकालत कीन्सवादी अर्थशास्त्री अक्सर करते हैं।
बाजार में नकदी जाने से मांग स्वाभाविक रूप से बढ़ती होती है, जिससे पूंजीपति नया निवेश करने के लिए प्रेरित होते हैं। उससे अर्थव्यवस्था में गति आती है।
बहरहाल, अब सबसे बड़ा सवाल। ये सारी बातें जहां कहीं रखी जाएं, तो वहां यह सवाल उठता ही है कि ये सब तो ठीक है, लेकिन इसके लिए पैसा कहां से आएगा? नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था के तहत यह जुमला कहा जाता है कि आखिर पैसे पेड़ पर नहीं उगते!
बहरहाल, प्रो. पटनायक और प्रो. अरुण कुमार ने उपरोक्त योजनाओं पर आने वाली लगात की समग्र गणना की है। प्रो. पटनायक के मुताबिक पांच जरूरतों को बुनियादी संवैधानिक अधिकार बना कर अमली जामा पहनाया जाए, तो भारत के सकल घरेलू उत्पाद का 16 प्रतिशत हिस्सा इन पर खर्च करना होगा।
मगर ये सारी रकम को नए सिरे से जुटाने की जरूरत नहीं होगी। कैसे? ध्यान दीजिएः
- सरकार अभी भी विभिन्न प्रकार की सब्सिडी और नकदी ट्रांसफर पर जीडीपी का तीन प्रतिशत तक हिस्सा खर्च करती है। उपरोक्त अधिकारों को उपलब्ध कराए जाने की स्थिति में इसकी आवश्यकता नहीं रहेगी।
- अर्थव्यवस्था में बड़े पैमाने पर सार्वजनिक निवेश के कारण अर्थव्यवस्था में जो गति आएगी, उससे सरकार का टैक्स राजस्व बढ़ेगा।
- अनुमान है कि इनसे क्रमिक रूप से आठ से नौ फीसदी जीडीपी पर पड़े बोझ की भरपाई हो जाएगी। (यह ध्यान में रखना चाहिए कि सरकार का खर्च भी क्रमिक रूप से बढ़ेगा। ऐसा नहीं है कि पहले साल ही पूरी रकम का बजट में आवंटन करना होगा।)
- बची रकम सरकार को जुटानी होगी। इसके लिए यह व्यावहारिक सुझाव है कि सरकार देश की सबसे धनी एक फीसदी आबादी पर दो प्रतिशत का धन कर (वेल्थ टैक्स) लगाए। यह तर्क बेतुका है कि इस टैक्स को वसूलना संभव नहीं होगा। यह प्रशासनिक चुस्ती का प्रश्न है, लेकिन उससे भी ज्यादा बड़ा मुद्दा राजनीतिक इच्छाशक्ति का है।
- राजनीतिक दल धनी लोगों के सेवक होने और उनकी सहायता से सत्ता में आने की सोच से उबर पाएं, तो यह टैक्स आसानी से वसूला जा सकता है।
- इसके अलावा लगभग हर विकसित पूंजीवादी देश के पैटर्न पर भारत में भी उत्तराधिकार कर लगाया जाना चाहिए। जापान जैसे देशों में यह 55 फीसदी तक लगता है। मगर भारत में उत्तराधिकारी को धन ट्रांसफर करने पर एक तिहाई का उत्तराधिकार कर लगाया जाए, तो उससे सरकार को बड़ा राजस्व प्राप्त होगा।
- कॉरपोरेट टैक्स में दी गई छूट और टॉप पांच फीसदी आबादी पर आयकर लेवी लगा कर भी सरकार पर्याप्त राजस्व वसूल सकती है।
- दुनिया में एक नई अवधारणा मशीनों पर टैक्स लगाने की है। जो मशीनें स्वतः उत्पादन करती हैं (आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस या इंटरनेट ऑफ थिंग्स के इस्तेमाल से) उन पर मुनाफा प्रदान करने की क्षमता के अनुपात में टैक्स लगाया जा सकता है।
अभी सरकार जीएसटी के अलावा विभिन्न प्रकार के उत्पाद शुल्क या उपकर (cess) लगाकर परोक्ष करों के माध्यम से जनता से रकम वसूलती है। इसकी मार सभी तबकों पर पड़ती है, चाहे वे कितने ही गरीब क्यों ना हों। यह प्रतिगामी सोच है।
जबकि टैक्स की प्रगतिशील व्यवस्था अपनाई जाए, तो उससे गरीब तबकों की वास्तविक आय और उनके बीच मांग बढ़ेगी। उससे भी समाज में उपभोग एवं निवेश के लिए अनुकूल स्थितियां बनेंगी।
कुल मिलाकर बुनियादी बात यह है कि समस्या कुदरती कारणों से नहीं, बल्कि सरकारों के वर्गीय चरित्र एवं नजरिए के कारण है। अगर जनशक्ति उन्हें इसे बदलने के लिए मजबूर करे, तो यह स्पष्ट होगा कि मानव इच्छाशक्ति सबके लिए खुशहाली का सूत्र बन सकती है।
इस क्रम में सबसे पहले इस नव-उदारवादी सोच कि Government is the problem से उबरना होगा। इस अनुभव सिद्ध तथ्य को अपनाना होगा कि Government is (at least one of) the solution(s).
समाज की बदलती वस्तुगत स्थितियों ने इन पहलुओं पर चर्चा और बहस के लिए अनुकूल स्थितियां उपलब्ध कराई हैं। इसलिए अब उन बातों पर ध्यान दिया जा रहा है, जो प्रगतिशील अर्थशास्त्री दशकों से कहते रहे हैं। तब नव-उदारवाद का कृत्रिम आकर्षण उनकी दलीलों पर धुंध डाल देता था, लेकिन अब धुंध छंट रही है।
अब ये बातें किताबों से निकल कर सेमिनारों और यहां तक जन संगठनों की गतिविधियों में झलकने लगी हैं। यह एक सकारात्मक घटनाक्रम है।
(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)
+ There are no comments
Add yours