कोविड के इस दौर में पर्यावरण का मुद्दा और भी अहम हो चुका है। पर्यावरण को स्वच्छ और संतुलित रखने की पहल 1972 में स्टॉकहोम में हुई प्रथम पर्यावरण सम्मेलन जिसमें 119 देशों ने भाग लिया था, से शुरू हो चुकी है और 1974 से हर साल 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस के रूप में मनाकर इसके प्रति जागरूकता पैदा करने की पहल तमाम देशों के प्रतिनिधियों, पर्यावरणविदों द्वारा की जाती रही है।
लेकिन क्या वजह है कि इतने वर्षों के सम्मिट व बड़े-बड़े बैठकों के बावजूद भी पर्यावरण प्रदूषण में कमी की जगह इजाफा ही हुआ है? क्या वजह है कि बड़ी-बड़ी धनराशि जिसे तमाम बैठकों (विश्व और देशीय स्तर पर), विश्वभर के तमाम एनजीओ के पीछे खर्च करने के बावजूद भी पर्यावरण पर साकारात्मक सुधार की तो बात ही दूर नाकारात्मक प्रभाव ही बढ़ा है और यह बड़े स्तर पर जारी है?
पर्यावरण प्रदूषण का दुष्परिणाम हम इस कोरोना काल में ऑक्सीजन की बड़ी कमी के रूप में भी देख रहे हैं। पर्यावरण के जानकार वर्षों पहले से ही यह अंदेशा जताते रहे हैं कि पर्यावरण का संतुलन बिगड़ने के कारण कई तरह की जानलेवा बीमारियां पनपेंगी और आज परिणाम हमारे सामने है। चर्म रोग, हृदय रोग, बालों का झरना, कमजोर आंखें, साधारण फ्लू से होते हुए हम कोरोना और अब ब्लैक फंगस जैसी महामारी का रूप धारण करने वाली बिमारियों के चपेट में हैं।
अगर हम अपने देश के आंकड़ों पर ही नजर डालें तो इन महामारियों में सरकारी आंकड़ों में भी कोरोना से हुई मौत की संख्या 3,44,101 बताई जा रही है। जबकि आशंका इसमें भी कई ज्यादा की जताई जा रही है। हम सब अपने कई दोस्तों, जान-पहचान वालों, परिवार वालों को खो चुके हैं। जिनमें ज्यादातर मौतें ऑक्सीजन की कमी से हुई है। उस ऑक्सीजन की कमी से जिसे हमारी प्रकृति ने हमें उपहार स्वरूप दिया है, वह भी प्रचुर मात्रा में, मगर हमने उसके साथ ही खिलवाड़ शुरू कर दिया।
प्रकृति के साथ खिलवाड़ ही है कि पहले हम पीने के लिए पानी खरीदने को मजबूर हुए और अब तो हम इसके इतने अभ्यस्त हो गये हैं कि हमें यह विषम ही नहीं लगता है कि हम पीने के लिए पानी खरीद रहे हैं। और अब तो ऑक्सीजन का सिलेंडर भी खरीदने लगे हैं ताकि आपातकालीन स्थिति में हम अपने बीमार प्रियजन को बचा सके।
यह अभी हमें भले ही बहुत ही परेशानी भरा लग रहा है, पर धीरे-धीरे अब इसमें भी अभ्यस्त हो जाएंगे और तब जिंदा रहने मात्र की हमारी लड़ाई शुरू होगी और इसके लिए हमें कीमत चुकानी होगी। और तब हम कुछ भी करके ज्यादा से ज्यादा पैसे कमाने में लग जाएंगे और जब ना कमा पाएंगे तो बेमौत मारे जाएंगे।
इसके बाद शायद हमें सूरज की रौशनी और वर्षा की बूंदों के लिए भी लड़ाई लड़नी पड़ेगी और तब मौत के आंकड़े जितने भयावह होंगे, वह शायद अभी हमारी कल्पना से भी परे है और तब हम यह सोचने को जरूर मजबूर होंगे कि आखिर हमसे ऐसी कौन-सी बड़ी चूक हो गई है कि हमें इस भयावह दौर में जीना पड़ रहा है। जबकि हम तो हर बर्थडे, शादी या शादी की सालगिरह जैसे मौके पर, पर्यावरण दिवस के दिन ‘एक-एक पेड़ लगाने वाले’ राह पर चले। हम तो उस एनजीओ की भी बड़ाई करते और हौसला आफजाई करते नहीं थकते थे, जो पर्यावरण के लिए काम करते दिखते थे। फिर पर्यावरण का यह हाल हुआ कैसे?
और तब हमारे सामने जवाब होगा कि-‘हमने खास मौके पर पेड़ तो लगाए पर विकास के नाम पर 4 लेन और 6 लेन सड़कों के लिए कटने वाले लाखों पेड़ों को नजरअंदाज किया। अपने आस-पास पेड़-पौधों से भरे जमीन को बंजर बना उस पर बड़े-बड़े काॅम्पलेक्स या फैक्ट्रियां लगते देखा, पर हमें यह सब अच्छा दिखा, इसमें हमने अपने हाई लिविंग स्टैंण्डर्ड को देखा।
और सबसे बड़ी बात कि हमने देश और विश्व की तमाम ऐसी घटनाओं को भी नजरअंदाज किया जिसमें सरकार और पूंजीपतियों द्वारा बलपूर्वक जंगलों का अधिग्रहण किया गया और इसके लिए वहां के लोगों के साथ क्रूरता की गई। हम नजर डाले तो देश-दुनिया में ऐसी कई घटनाएं देखेंगे- ‘दुनिया का फेफड़ा कहलाने वाले अमेजन के जंगल में, जिससे पर्यावरण को 20 प्रतिशत ऑक्सीजन मिलता है, वर्ष 2019 में बड़े क्षेत्र में लगी आग से पर्यावरण को बड़ा नुकसान पहुंचा।
ब्राजील के इस ‘अमेजन फॉरेस्ट’ को भी कॉरपोरेशनों की ललचाई नजरों का शिकार होना पड़ा। खेती योग्य भूमि, मांस निर्यात की बढ़ोत्तरी के उद्देश्य से चारा के लिए भूमि तथा खनन के लिए भूमि के लालच को पूरा करने के लिए ही काॅरपोरेट द्वारा जंगल में आग लगवाई गई। जिसमें ब्राजील के राष्ट्रीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान के आंकड़े के अनुसार जनवरी 2019 के बाद ब्राजील के इलाके में अमेजन जंगल के अंदर 3 हजार वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र नष्ट हो गया। 2019 जनवरी से जुलाई 2019 तक अमेजन में 80,626 बार आग लगने की घटनाएं घटीं।
एशियाई देशों पर नजर डाले तो- ‘दक्षिण एशिया में आग लगने से नष्ट होने वाले 90 प्रतिशत जंगल भारत के हैं। जिनमें प्राकृतिक कारणों से ज्यादा कारपोरेट द्वारा ही वनमाफिया और वनकर्मचारियों के साथ मिलकर नष्ट किया जा रहा है। भारत के उत्तराखंड के जंगलों में पिछले कुछ वर्षों से अक्सर ही आग लगने की घटनाएं सामने आ रही हैं।
फॉरेस्ट डिपार्टमेंट के आंकड़ों को देखे तो 1 अक्टूबर 2020 से 4 अप्रैल 2021 की सुबह तक जंगलों में आग लगने की 989 घटनाएं हो चुकी हैं। जिसमें 1297.43 हेक्टेयर जंगल नष्ट हो गए। जिससे पर्यावरण और जैवविविधता जो कि हमारी पृथ्वी के जीवन का आधार है, को बड़ा नुकसान पहुंचा है। जिसका कारण कुछ हद तक चीड़ के पेड़ होते हैं जिन्हें कई क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर वनारोपण के दौरान लगाया गया है। इस आग को रेन वाटर हार्वेस्टिंग के जरीये कुछ हद तक कम किया जा सकता है। लेकिन इसके लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया जा रहा है।
देश के कई क्षेत्रों में यूकेलिप्टस का रोपड़ भी पारिस्थितिकी तंत्र को ध्वस्त कर रहा है। झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र के तमाम जंगलों को सरकारी तथा कॉरपोरेट, पुलिस प्रशासन तंत्र की मदद से बल पूर्वक आदिवासियों, मूलवासियों की हत्या कर और बड़ी संख्या में जेलों में ठूंस कर उन्हें डरा-धमका कर खाली करवाती रही है।
वर्तमान में तो जंगलों को खत्म करने की मंशा से इन क्षेत्रों में विरोध कर रहे आदिवासी, मूलवासी के खिलाफ सरकार ने युद्ध छेड़ रखा है जिसमें सेना के जवानों के साथ-साथ वायुसेना के हेलिकॉप्टर तक की मदद ली जाती है। ताकि वह जंगलों को साफ कर वहां खनन कार्य या अन्य व्यवसायिक हित पूरा कर सकें। पर सरकारी आंकड़ों में हमें यह सब कभी नहीं दिख सकता है।
भारत में जंगलों से संबंधित सरकारी आंकड़ों की सच्चाई यह है कि दिसंबर 2019 में भारतीय वन सर्वेक्षण द्वारा जारी इंडियन स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट, आईएसएफआर 2019 के मुताबिक सरकारी रिकॉर्ड में 7,67,419 वर्ग किलोमीटर में से 2,26,542 वर्ग किलोमीटर में फॉरेस्ट कवर ही नहीं है। इन इलाकों में सड़क निर्माण, खनन और खेती की जा रही है। वन विभाग के अधिकारी वनों के नष्ट होने, जंगलों में आग लगने के मानव जनित कारणों में वहां के स्थानीय लोगों को कटघरे में खड़ा करते दिखेंगे, जबकि सच्चाई उलट है।
वनों को नुकसान कॉरपोरेट घराने सरकार के मिली भगत से करती है जिसे वह खनन या अन्य वाणिज्यिक हित के इस्तेमाल में लाती है। जंगलों की कटाई कर सड़क निर्माण, खनन-कार्य इत्यादि काॅरपोरेट की स्वार्थ-पूर्ति के लिए किये जा रहे दोहन के कारण जंगलों के वारिसों जिन्होंने जंगलों को सुरक्षित रख पूरी पृथ्वी को सुरक्षित रखा है को विस्थापित कर जंगलों को बड़े पैमाने पर नुकसान पहुंचाया है और पहुंचा रहे हैं।
भारत में सरकारी आंकड़ों में जंगलों के कवर क्षेत्र में भी बड़ा ही झोल है, इन आंकड़ों में वैसे क्षेत्र भी शामिल कर दिए जाते हैं जहां जंगल था पर अब खनन, खेत या सड़क है, या वैसे क्षेत्र जहां वन सघनता है ही नहीं। इसलिए आंकड़ों में दिखाए जा रहे वन क्षेत्र वास्तविकता से बहुत ही कम है।
2015 में फ्रांस के पेरिस में संयुक्त राष्ट्र के वार्षिक जलवायु सम्मेलन (काप-21) के दौरान जिसमें 196 देशों ने भाग लिया था, भारत से हुए समझौते के अनुसार भारत वर्ष 2030 तक वनरोपण के माध्यम से 2.5-3 बिलियन टन कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा को घटाएगा। इसमें ‘नेट जीरो उत्सर्जन’ का लक्ष्य भी तमाम देशों के सामने भी रखा गया था। अब सवाल है कि क्या जलवायु परिवर्तन पर लगाम के केवल कागजी लक्ष्य तय करने मात्र से लग जाएगा या केवल वैश्विक बैठकों में भाग लेने से लग जाएगा?
आंकड़ों के मुताबिक भारत दुनिया का 7 प्रतिशत से ज्यादा कार्बन उत्सर्जन करता है और चीन और अमेरिका के बाद भारत विश्व का तीसरा सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जन करने वाला देश है। कार्बन उत्सर्जन के मुख्य कारणों में फैक्ट्रियां, वाहनों से निकलने वाले धुंए, बिजली उत्पादन और सबसे मुख्य कारक कार्बन डाइऑक्साईड को सोखने वाले वृक्षों की अंधाधुध कटाई है। जिस पर लगाम लगाने से ही हम जलवायु परिवर्तन को रोक सकेंगे और अपनी प्यारी पृथ्वी को बचा सकेंगे।
पर इसके लिए जरूरी है हमें अपने प्राकृतिक संसाधनों के अतिदोहन को रोकने के लिए प्रतिबद्ध होने की। इससे जुड़ी हर लड़ाई में आगे आने की। जल, जंगल, जमीन को बचाने की लड़ाई लड़ रहे तमाम जनता का साथ देने की और हमें यह पता है कि इस लड़ाई को आम जनता को ही लड़ना होगा, क्योंकि इतिहास गवाह है कि शासक और शोषक वर्ग केवल अपने हित का ही ख्याल रखेगा, चाहे कागजों पर ये कितने ही लक्ष्य तय क्यों न कर लें।
अतः हम सब को यह प्रण लेना ही होगा कि हम हर उस लड़ाई में साथ देंगे जो हमारी धरती को बचाने की होगी। तभी हम अपने भविष्य को भी बचा सकेंगें वरना आज की तरह ही तड़प कर मरने के सिवाय हमारे पास कोई विकल्प नहीं होगा।
(लेखिका शिक्षक हैं और झारखंड, रामगढ़ में रहती हैं।)
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