भ्रष्टाचार में नाम कमा रहा उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय

रेगुलर पढ़ाई करने में असमर्थ नौकरीपेशा लोगों और आम नागरिकों की सुविधा के लिए नैनीताल जिले के हल्द्वानी में उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय स्थापित किया गया था। उम्मीद की गई थी कि यह विश्वविद्यालय उत्तराखंड के लोगों के लिए उतना ही सुविधाजनक और महत्वपूर्ण साबित होगा, जितना कि देशभर के लिए इंदिरा गांधी मुक्त विश्वविद्यालय। शुरुआती दौर में उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय की स्थिति ठीक-ठाक रही। यह एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय की श्रेणी में गिना जाता रहा। बड़ी संख्या में लोगों ने विश्वविद्यालय से विभिन्न विषयों में डिग्री और अन्य पाठ्यक्रम भी पूरे किये। लेकिन, यह सिलसिला ज्यादा देर नहीं चला। उत्तराखंड की तमाम दूसरी सरकारी संस्थाओं और विभागों के साथ ही उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय पर भी भ्रष्टाचार की नजर नजर लग गई। सरकार में मौजूद उच्च शिक्षा के कर्ताधर्ताओं ने विश्वविद्यालय में भ्रष्टाचार का ऐसा जाल बिछाया कि अब यह विश्वविद्यालय डिग्री देने के बजाय भ्रष्टाचार के लिए ज्यादा जाना जा रहा है। 

उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय में क्या स्थितियां हैं, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 6 मई, 2022 को विश्वविद्यालय के कुल सचिव की ओर से एक ऐसा आदेश जारी किया गया है, जिसमें विश्वविद्यालय परिसर में धारा 144 के तहत हमेशा निषेधाज्ञा लागू करने की बात कही गई है। ध्यान देने वाली बात यह है कि किसी भी क्षेत्र में धारा 144 लागू करने का अधिकार केवल मजिस्ट्रेट को होता है। अपने परिसर में अनुशासन बनाए रखने के लिए विश्वविद्यालय अपने स्तर पर कोई भी आदेश दे सकता था, लेकिन यह आदेश बताता है कि यहां इतने अयोग्य लोग बैठे हैं कि उन्हें धारा 144 का भी सही से ज्ञान नहीं है।

पिछले एक वर्ष के दौरान विभिन्न आरटीआई के जरिए विश्वविद्यालय से जो सूचनाएं और दस्तावेज मिले हैं वे चौंकाने वाले हैं। ये दस्तावेज बताते हैं कि पिछले कुछ समय से प्रोफेसरों की नियुक्ति सहित कई अन्य मामलों में भ्रष्टाचार किया गया है। कई ऐसे लोगों को नियुक्तियां दी गई हैं, जिनके पास उस पद की योग्यता नहीं है। ऐसे लोगों को नियुक्ति देने के लिए विश्वविद्यालय ने कई नियमों की अनदेखी की। कई लोगों को फर्जी प्रमाण पत्रों के आधार पर नियुक्ति दी गई। समझा जाता है कि ऐसा सरकार और शासन में बैठे लोगों के इशारे पर किया गया। नियुक्तियों में घोटाले की बात पहली बार तब सामने आई जब विश्वविद्यालय ने एक आरटीआई का जवाब दिया। इस जवाब में कई बिन्दु थे, जो नियुक्तियों में गड़बड़ी किये जाने की तरफ इशारा कर रहे थे।

ये दस्तावेज बताते हैं कि वर्ष 2019-20 में प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर और असिस्टेंट प्रोफेसर के 25 पदों पर की गई भर्ती में उत्तराखंड राज्य और विश्वविद्यालय द्वारा निर्धारित राज्य की महिला अभ्यर्थियों को 30 प्रतिशत आरक्षण का लाभ नहीं दिया गया। आरक्षण रोस्टर लागू करने में भी निर्धारित नियमों का उल्लंघन किया गया। अभ्यर्थियों को देखकर आरक्षण लागू किया गया। इस वजह से कुछ विभागों में 100 प्रतिशत आरक्षण कर दिया गया और कहीं आरक्षण लागू ही नहीं किया गया। इस सिलसिले में एक केस हाईकोर्ट में भी चल रहा है। हाई कोर्ट में मामला विचाराधीन होने के कारण प्रोफेसर के विभिन्न पदों पर नियुक्ति हाई कोर्ट में सशर्त दी गई है, जिसमें साफ़ लिखा है कि इन नियुक्तियों का भविष्य कोर्ट के फ़ैसले पर निर्भर करेगा। 

आरटीआई में मिले दस्तावेज यह भी साफ करते हैं कि कई अभ्यर्थियों को स्क्रीनिंग कमेटी की तरफ़ से योग्य न पाये जाने के बाद भी उन्हें एक ग्रीवांस कमेटी बनाकर योग्य घोषित कर दिया गया। विश्वविद्यालय की परिनियमावली के अनुसार कुलपति को स्क्रीनिंग कमेटी की रिपोर्ट की अनदेखी कर ग्रीवांस कमेटी बनाने का अधिकार ही नहीं है। इस तथाकथित ग्रीवांस कमेटी का सदस्य पीडी पंत को भी बनाया गया, जो ख़ुद इसी नियुक्ति प्रक्रिया में प्रोफेसर पद के आवेदक थे। प्रोफेसर के विभिन्न पदों पर हुई नियुक्तियों में पीडी पंत की महत्वपूर्ण भूमिका रही। समझा जाता है कि इसीलिए बाद में उन्हें प्रोफेसर बनाकर कुलसचिव के पद पर बिठा दिया गया। इन्हीं कुलसचिव की ओर से 6 मई को जारी आदेश में विश्वविद्यालय परिसर में धारा 144 लागू करने की बात कही गई है।

विज्ञान विद्याशाखा में हुई एसोसिएट और असिस्टेंट प्रोफेसर की नियुक्तियों में पीडी पंत को विद्याशाखा के निदेशक के तौर पर नियुक्ति दी गई, जबकि उस समय वे विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के पद पर नहीं थे, बल्कि परीक्षा नियंत्रक के प्रशासनिक पद पर प्रतिनियुक्ति पर आये थे और वे स्वयं प्रोफेसर पद के लिए अभ्यर्थी थे। पीडी पंत की नियुक्ति को लेकर पहले भी विवाद रहा है। उन्होंने परीक्षा नियंत्रक के तौर पर विश्वविद्यालय में रहते हुए दूसरे विषय की सीट को भूगर्भ विज्ञान में बदलकर उसमें नियुक्ति पाने में कामयाबी हासिल की। भूगर्भ विज्ञान विश्वविद्यालय में नहीं पढ़ाया जाता है, जबकि कई ऐसे विषय हैं जो वर्षों से विश्वविद्यालय में पढ़ाये जा रहे हैं लेकिन उनमें प्रोफेसर का पद नहीं है। एक खास बात यह भी है कि पंत को उनके पूर्व विश्वविद्यालय के अनापत्ति प्रमाण पत्र के बिना ही नियुक्ति दे दी गई। 

केवल पीडी पंत ही नहीं कई अन्य लोगों को भी विश्वविद्यालय में गलत तरीके से और योग्यता पूरी न हाने के बाद भी नियुक्तियां दी गई हैं। इन्हीं नियुक्तियों में पत्रकारिता में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर विश्वविद्यालय के पीआरओ राकेश रयाल और जंतु विज्ञान में प्रवेश कुमार सहगल की नियुक्ति शामिल है। ये दोनों आवेदक इन पदों के लिए निर्धारित न्यूनतम योग्यता भी पूरी नहीं करते थे। दोनों को स्क्रीनिंग कमेटी ने इन पदों पर नियुक्ति के योग्य नहीं पाना था, लेकिन ग्रीवांस कमेटी की आड़ में स्क्रीनिंग कमेटी का यह फैसला बदलवा दिया गया।

ऐसा नहीं है कि इन नियुक्तियों को लेकर किसी तरह का कोई विरोध या शिकायत न हुई हो। दरअसल पहले ही यह संदेह हो गया था कि नियुक्तियों में धांधली किये जाने के प्रयास किये जा रहे हैं। यही वजह है कि नियुक्तियों से 7 महीने पहले ही राज्यपाल के पास 9 लोगों की नियुक्ति के लिए रची जा रही साजिश के संबंध में एक शिकायत पहुंच गई थी। डॉ राजेश कुमार सिंह की तरफ से भेजी गई इस शिकायत में विश्वविद्यालय में भ्रष्ट तरीके से नियुक्तियां करने का प्रयास किये जाने की बात कही गई थी। 7 महीने बाद प्रोफेसर के विभिन्न पदों पर उन्हीं 9 लोगों की नियुक्ति कर दी, जिनकी शिकायत कुलाधिपति यानी राज्यपाल के पास पहले ही पहुंच चुकी थी। 

इन नियुक्तियों के तमाम कायदे-कानूनों का किस तरह उल्लंघन किया गया, इसका उदाहरण देखिए, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के 2018 रेग्युलेशन के अनुसार एसोसिएट प्रोफेसर बनने के लिए न्यूनतम 8 साल असिस्टेंट प्रोफेसर के वेतनमान पर काम का अनुभव ज़रूरी है। इससे कम वेतनमान वाले किसी भी अनुभव को न जोड़ने का नियम है। किसी भी तरह के अतिथि और दैनिक वेतनभोगी अनुभव को भी इनमें नहीं जोड़ा जा सकता, यह भी स्पष्ट है। लेकिन, एसोसिएट प्रोफेसर पद पर पीआरओ राकेश रयाल और प्रवेश सहगल की नियुक्ति यूजीसी के नियमों की अनदेखी करके की गई। उनके पास इन पदों के योग्य अनुभव नहीं थे। दोनों के ही पास एसोसिएट प्रोफेसर बनने के लिए न्यूनतम योग्यता असिस्टेंट प्रोफेसर के वेतनमान पर 8 साल काम करने का कोई अनुभव नहीं था। लेकिन, उन्हें नियुक्ति देने के लिए प्रमाण पत्रों में हेराफेरी भी की गई। यूजीसी की एक अन्य शर्त के अनुसार एसोसिएट प्रोफेसर पद पर चयन के लिए कम से कम 7 शोध पत्रों का यूजीसी लिस्टेड या पीयर रिव्यूड जर्नल में प्रकाशित होना जरूरी है। रयाल का एक भी शोध पत्र इस श्रेणी में किसी जर्नल में प्रकाशित नहीं है। सहगल के शोध पत्र प्रीडेटरी जर्नल में प्रकाशित हुए हैं, जो इस पद पर नियुक्ति के लिए मान्य नहीं है। 

विश्वविद्यालय में भ्रष्टाचार और हेरा-फेरी की फेहरिस्त यहीं खत्म नहीं होती, कानून और समाज शास्त्र विषयों में भी स्क्रीनिंग कमेटी की रिपोर्ट के विपरीत प्रोफेसर के पद पर रेणु प्रकाश और अखिलेश कुमार नवीन की नियुक्ति की गई। ग्रीवांस कमेटी की आड़ में यहां भी मनमानी की गई। आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए हुई भर्तियों में फर्जी प्रमाणपत्रों के आधार नियुक्तियों के आरोप विश्वविद्यालय प्रशासन पर लगाये गये हैं। इस बीच यह भी आरोप लगाये जा रहे हैं कि इन प्रोफेसर की नियुक्ति का मामला हाई कोर्ट में विचाराधीन होने के बावजूद सशर्त नियुक्त किये गये 25 प्रोफेसरों को नियमित किये जाने के प्रयास किये जा रहे हैं। इसके लिए कई बार विश्वविद्यालय की सर्वोच्च नीति निर्धारक संस्था, कार्य परिषद, की बैठक कुलपति की ओर से बुलाई जा चुकी है। नियमानुसार इन नियुक्तियों को हाईकोर्ट का निर्णय आने तक नियमित नहीं किया जा सकता। 

(उत्तराखंड से वरिष्ठ पत्रकार त्रिलोचन भट्ट की रिपोर्ट।)

त्रिलोचन भट्ट
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