प्रकाश कदम बनाम रामप्रसाद विश्वनाथ गुप्ता (2011) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने कहा कि पुलिस द्वारा किए गए ‘फर्जी एनकाउंटर’ सोची-समझी हत्याओं के अलावा कुछ नहीं हैं और ऐसा करने वालों को मौत की सजा दी जानी चाहिए, उन्हें ‘दुर्लभतम मामलों के दुर्लभतम’ की श्रेणी में रखा जाना चाहिए ।
पीयूसीएल बनाम स्टेट ऑफ़ महाराष्ट्र क्री अपील संख्या 1255/1999, में दिए गये फ़ैसले में उच्चतम न्यायालय ने पुलिस एनकाउंटर के दौरान हुई मौत के मामले में कहा था कि संविधान का अनुच्छेद 21 के तहत संविधान के तहत हर व्यक्ति को जीने का अधिकार है। सरकार भी उससे उसका यह अधिकार नहीं छीन सकती।
मार्च 1997 राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने सभी प्रदेशों को एक परिपत्र भेजकर कहा था कि हमारे क़ानून में पुलिस को यह अधिकार नहीं है कि वह किसी व्यक्ति को मार दे, और जब तक यह साबित नहीं हो जाता कि उन्होंने क़ानून के अंतर्गत किसी को मारा है तब तक वह हत्या मानी जाएगी।
इस सन्दर्भ में उच्चतम न्यायालय के पूर्व जज जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने कहा है कि ‘फेक एनकाउंटर’ में सभी कानूनी प्रक्रियाओं को दरकिनार किया जाता है और बिना मुक़दमा चलाये अभियुक्त को मार दिया जाता है। इसलिए यह पूरी तरह से असंवैधानिक है। विकास दुबे की मौत से यह स्पष्ट है कि मुठभेड़ नकली थी। विकास दुबे हिरासत में था और वह निहत्था था। ऐसे में वास्तविक मुठभेड़ कैसे हो सकती थी?
जस्टिस काटजू ने कहा है कि विकास दुबे की पुलिस ‘मुठभेड़’ में हत्या, एक बार फिर से गैर न्यायिक हत्याओं की वैधता पर सवाल उठाती है जिसका अक्सर भारतीय पुलिस द्वारा बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जाता है। जैसे कि महाराष्ट्र पुलिस द्वारा मुंबई अंडरवर्ल्ड से निपटने के लिए, खालिस्तान की मांग करने वाले सिखों के खिलाफ पंजाब पुलिस द्वारा और 2017 में योगी आदित्यनाथ के उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के बाद यूपी पुलिस द्वारा आदि। यह सभी देश भर में गैर न्यायिक हत्याओं के व्यापक रूप से इस्तेमाल का उदाहरण हैं। सच्चाई यह है कि इस तरह के ‘एनकाउंटर’ वास्तव में, पुलिस द्वारा की गयी सोची-समझी पूर्व निर्धारित हत्याएं हैं। संविधान के अनुच्छेद 21 में कहा गया है “कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अलावा किसी भी व्यक्ति को उसके जीवित रहने के अधिकार और निजी स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जा सकता।”
इसका अर्थ है कि किसी व्यक्ति को उसके जीवन से वंचित करने से पहले, राज्य को आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) के प्रावधानों के अनुसार मुक़दमा चलाना होगा। मुकदमे में, अभियुक्त को पहले उसके ख़िलाफ़ आरोपों के बारे में सूचित करना होगा, फिर खुद का (वकील के माध्यम से) बचाव करने का अवसर दिया जाना होगा, और उसके बाद यदि वह दोषी पाया गया, तब ही उसे दोषी ठहरा कर उसे मृत्युदंड दिया जा सकता है। दूसरी ओर, ‘फेक एनकाउंटर’ में सभी कानूनी प्रक्रियाओं को दरकिनार किया जाता है और बिना मुक़दमा चलाये उसे मार दिया जाता है। इसलिए यह पूरी तरह से असंवैधानिक है।
बदले की भावना रखने वाले लोग भी पुलिस के साथ यह दावा करके इस पद्धति को सही ठहराते हैं कि कुछ खूंखार अपराधी हैं जिनके खिलाफ कोई भी सबूत देने की हिम्मत नहीं करेगा, और इसलिए उनके साथ निपटने का एकमात्र तरीका नकली ‘मुठभेड़’ ही है। हालांकि, वास्तविकता यह है कि यह एक खतरनाक सोच है और इसका घोर दुरुपयोग भी देखने को मिलता है कब एनकाउंटर करते करते पुलिस सुपारी किलर या दो अपराधिक गिरोहों के बीच चलने वाले गैंगवार में किसी एक पक्ष का हिस्सा बन जाती है पता ही नहीं चलता। विकास दुबे के मामले में भी ऐसा ही कहा जा रहा है। यह वाद विवाद ब्राह्मण बनाम ठाकुर बंट जा रहा है और संविधान, उच्चतम न्यायालय और राष्ट्रीय मानवाधिकार के निर्देश पीछे छूटते चले जा रहे हैं।
भारतीय क़ानून में वैसे कहीं भी एनकाउंटर को वैध ठहराने का प्रावधान नहीं है। लेकिन कुछ ऐसे नियम-क़ानून ज़रूर हैं जो पुलिस को यह ताक़त देते हैं कि वो अपराधियों पर हमला कर सकती है और उस दौरान अपराधियों की मौत को सही ठहराया जा सकता है। आम तौर पर लगभग सभी तरह के एनकाउंटर में पुलिस आत्मरक्षा के दौरान हुई कार्रवाई का ज़िक्र ही करती है। आपराधिक संहिता यानी सीआरपीसी की धारा 46 कहती है कि अगर कोई अपराधी ख़ुद को गिरफ़्तार होने से बचाने की कोशिश करता है या पुलिस की गिरफ़्त से भागने की कोशिश करता है या पुलिस पर हमला करता है तो इन हालात में पुलिस उस अपराधी पर जवाबी हमला कर सकती है। पुलिस भी अक्सर इन्हीं अपवादों का सहारा लेकर एनकाउंटर को सही ठहराने की कोशिश करती है। विकास दुबे के मामले में भी यही तर्क पुलिस दे रही है।
एनकाउंटर पर सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देश
एनकाउंटर के दौरान हुई हत्याओं को एकस्ट्रा-ज्यूडिशियल किलिंग भी कहा जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने बिल्कुल स्पष्ट शब्दों में कहा है कि इसके लिए पुलिस तय किए गए नियमों का ही पालन करे। 23 सितंबर 2014 को भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश आर एम लोढा और जस्टिस रोहिंटन फली नरीमन की बेंच ने क्रि.अपील संख्या 1255/1999,पीयूसीएल बनाम स्टेट ऑफ़ महाराष्ट्र में दिए गये फ़ैसले में पुलिस एनकाउंटर के दौरान हुई मौत के मामले में कहा था कि संविधान का अनुच्छेद 21 के तहत संविधान के तहत हर व्यक्ति को जीने का अधिकार है। सरकार भी उससे उसका यह अधिकार नहीं छीन सकती।
फ़ैसले में यह भी कहा था कि था पुलिस एनकाउंटर के दौरान हुई मौत की निष्पक्ष, प्रभावी और स्वतंत्र जांच के लिए इन नियमों का पालन किया जाना चाहिए। जब कभी भी पुलिस को किसी तरह की आपराधिक गतिविधि की सूचना मिलती है, तो वह या तो लिखित में हो (विशेषकर केस डायरी की शक्ल में) या फिर किसी इलेक्ट्रॉनिक माध्यम के ज़रिए हो। अगर कोई भी आपराधिक गतिविधि की सूचना मिलती है, या फिर पुलिस की तरफ़ से किसी तरह की गोलीबारी की जानकारी मिलती है और उसमें किसी की मृत्यु की सूचना आए, तो इस पर तुरंत प्रभाव से धारा 157 के तहत कोर्ट में एफ़आईआर दर्ज करनी चाहिए। इसमें किसी भी तरह की देरी नहीं होनी चाहिए।
पूरे घटनाक्रम की एक स्वतंत्र जांच सीआईडी से या दूसरे पुलिस स्टेशन के टीम से करवानी ज़रूरी है, जिसकी निगरानी एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी करेंगे। यह वरिष्ठ पुलिस अधिकारी उस एनकाउंटर में शामिल सबसे उच्च अधिकारी से एक रैंक ऊपर होना चाहिए। धारा 176 के अंतर्गत पुलिस फ़ायरिंग में हुई हर एक मौत की मजिस्ट्रियल जांच होनी चाहिए। इसकी एक रिपोर्ट न्यायिक मजिस्ट्रेट के पास भेजना भी ज़रूरी है। जब तक स्वतंत्र जांच में किसी तरह का शक़ पैदा नहीं हो जाता, तब तक एनएचआरसी को जांच में शामिल करना ज़रूरी नहीं है।हालांकि घटनाक्रम की पूरी जानकारी बिना देरी किए एनएचआरसी या राज्य के मानवाधिकार आयोग के पास भेजना आवश्यक है।
कोर्ट का निर्देश है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 141 के तहत किसी भी तरह के एनकाउंटर में इन तमाम नियमों का पालन होना ज़रूरी है। अनुच्छेद 141 भारत के सुप्रीम कोर्ट को कोई नियम या क़ानून बनाने की ताकत देता है।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग
मार्च 1997 में तत्कालीन एनएचआरसी के अध्यक्ष जस्टिस एमएन वेंकटचलैया ने सभी मुख्यमंत्रियों को एक पत्र लिखा था. उसमें उन्होंने लिखा था कि आयोग को कई जगहों से और गैर सरकारी संगठनों से लगातार यह शिकायतें मिल रहे हैं कि पुलिस के ज़रिए फ़र्जी एनकाउंटर लगातार बढ़ रहे हैं।साथ ही पुलिस अभियुक्तों को तय नियमों के आधार पर दोषी साबित करने की जगह उन्हें मारने को तरजीह दे रही है।
जस्टिस वेंकटचलैया साल 1993-94 में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश थे। उन्होंने लिखा था कि हमारे क़ानून में पुलिस को यह अधिकार नहीं है कि वह किसी व्यक्ति को मार दे।जब तक यह साबित नहीं हो जाता कि उन्होंने क़ानून के अंतर्गत किसी को मारा है तब तक वह हत्या मानी जाएगी। सिर्फ दो ही हालात में इस तरह की मौतों को अपराध नहीं माना जा सकता। पहला, अगर आत्मरक्षा की कोशिश में दूसरे व्यक्ति की मौत हो जाए।
दूसरा, सीआरपीसी की धारा 46 पुलिस को बल प्रयोग करने का अधिकार देती है। इस दौरान किसी ऐसे अपराधी को गिरफ़्तार करने की कोशिश, जिसने वो अपराध किया हो जिसके लिए उसे मौत की सज़ा या आजीवन कारावास की सज़ा मिल सकती है, इस कोशिश में अपराधी की मौत हो जाए।
एनएचआरसी ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को यह निर्देशित किया है कि वह पुलिस एनकाउंटर में हुई मौत के लिए तय नियमों का पालन करे। जब किसी पुलिस स्टेशन के इंचार्ज को किसी पुलिस एनकाउंटर की जानकारी प्राप्त हो तो वह इसके तुरंत रजिस्टर में दर्ज करे। जैसे ही किसी तरह के एनकाउंटर की सूचना मिले और फिर उस पर किसी तरह की शंका ज़ाहिर की जाए तो उसकी जांच करना ज़रूरी है। जांच दूसरे पुलिस स्टेशन की टीम या राज्य की सीआईडी के ज़रिए होनी चाहिए। अगर जांच में पुलिस अधिकारी दोषी पाए जाते हैं तो मारे गए लोगों के परिजनों को उचित मुआवज़ा मिलना चाहिए।
(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार एवं कानूनी मामलों के जानकार हैं।)