कृषि सुधार के नाम पर तीन नए कानून 20 सितंबर, 2020 को राज्यसभा में पास घोषित कर दिये गए। इस बिल को कैसे आनन-फानन में बिना संसदीय औपचारिकताओं को पूरा किये पास कर दिया गया यह तो उस दिन की बात है, पर इसी लोकसभा में कुछ सालों पहले, वित्तीय बिल यानी देश का बजट बिना चर्चा के पास करा लिया गया था, जब उस समय स्वर्गीय अरुण जेटली वित्तमंत्री थे। संसद पहली बार अप्रासंगिक नहीं हो रही है। यह पहले भी हो चुकी है।
बिल अगर सभी प्रक्रिया के बाद पारदर्शी तरीके से पास हो जाता तो कोई बात नहीं थी। बहुमत ने चाहा और जो चाहा वह हुआ। पर पीठासीन अधिकारी ने सारी प्रक्रिया को दरकिनार कर के इस बिल को पास घोषित कर दिया। हां, पर यह सब हुआ पारदर्शी तरीके से, सबके सामने। उच्च सदन का म्यूट हो जाना नोटबन्दी, व्यापारबन्दी और तालाबंदी के बाद ज़ुबांबन्दी का एक प्रतीक है।
उत्तर भारत के किसान इस बिल का प्रबल विरोध कर रहे हैं। पंजाब इस विरोध का एपिसेन्टर है और विरोध की तीव्रता को ही भांप कर सरकार से एक मात्र अकाली मंत्री हरसिमरत कौर बादल ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया है। भाजपा की पितृ संस्था आरएसएस के किसान संगठन ने भी यह कह कर कि सरकार को जमीनी हकीकत का अंदाज़ा नहीं है, इन तीनों कानूनों का विरोध किया है। जब विरोध बहुत बढ़ने लगा तो प्रधानमंत्री जी का बयान आया कि यह विरोध भड़काया जा रहा है और इसके पीछे उन्होंने प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दल कांग्रेस का नाम लिया और यह कहा कि यह सारे वादे तो कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में कर रखे थे उनका विरोध राजनीतिक है। अब राजनीतिक दल तो विरोध और समर्थन राजनीतिक आधार पर तो करते ही हैं। यह विरोध और व्यापक हो रहा है, साथ ही किसानों के मन में बिल को लेकर अनेक शंकायें अब भी हैं।
अजीब विडंबना है भाजपा ने अपने घोषणापत्र संकल्पपत्र को तो जुमला कह दिया, और कांग्रेस के घोषणापत्र को अपनाने लग गयी ! पर वह यह भूल गयी कि, उसी घोषणापत्र पर तो कांग्रेस का सफाया 2014 में हो गया था। सरकार अगर अपने ही घोषणापत्र या संकल्पपत्र को एक बार पढ़ लेती और उसके कुछ वादे लागू कर देती तो कम से कम आज किसानों की स्थिति कुछ तो बेहतर हो ही गयी होती। सरकार भी कुछ उपलब्धियां गिना सकती थी। किसानों से दो बड़े वादे सरकार ने किए हैं, एक कृषि उत्पाद का दाम तय करने के संदर्भ में एमएस स्वामीनाथन कमेटी की अनुशंसा लागू करना और दूसरे 2022 तक किसानों की आय दुगुनी करना। स्वामीनाथन कमेटी की अनुशंसा पर क्या हो रहा है यह सरकार को भी पता है या नहीं और 2022 अभी डेढ़ साल दूर है तो किसानों की दुगुनी आय का जश्न देखना अभी बाकी है।
इस कानून को लेकर सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि यह कानून देर सबेर न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी की लंबे समय से चली आ रही प्रथा को खत्म कर देगा और फिर कृषि उत्पाद के मूल्य निर्धारण का काम पूरी तरह से किसान और व्यापारियों के बीच रह जायेगा। अब एक चर्चा एमएसपी पर करते हैं। सरकार द्वारा किसानों को उनकी उपज का सही मूल्य दिलाने के लिए प्रारंभ की गई न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएससी) नीति एक मज़बूत खरीद नीति और संबंधित रख-रखाव संबंधी सुविधा की नीति है। यह केवल उत्पाद का दाम नहीं है बल्कि यह सरकार द्वारा किसानों को उनके उत्पाद का न्यूनतम समर्थन मूल्य है। यानी किसान को इतना तो मिलना ही है।
न्यूनतम समर्थन मूल्य वह न्यूनतम मूल्य होता है, जिस पर सरकार किसानों द्वारा बेचे जाने वाले अनाज की पूरी मात्रा क्रय करने के लिये तैयार रहती है। जब बाज़ार में कृषि उत्पादों का मूल्य गिर रहा हो, तब सरकार किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कृषि उत्पादों को क्रय कर उनके हितों की रक्षा करती है। सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा फसल बोने से पहले करती है। न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा सरकार द्वारा कृषि लागत एवं मूल्य आयोग की संस्तुति पर वर्ष में दो बार रबी और खरीफ के मौसम में की जाती है।
कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (एपीएमसी) भारत सरकार की एक संस्था है जो, 1965 में गठित हुयी थी। यह आयोग कृषि उत्पादों के संतुलित एवं एकीकृत मूल्य संरचना तैयार करने के उद्देश्य से स्थापित किया गया है। कृषि लागत एवं मूल्य आयोग कृषि उत्पादों के न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सलाह देता है। इस आयोग के द्वारा 24 कृषि फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य जारी किये जाते हैं। इसके अतिरिक्त गन्ने के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य की जगह उचित एवं लाभकारी मूल्य की घोषणा की जाती है। गन्ने का मूल्य निर्धारण आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति द्वारा अनुमोदित किया जाता है।
विभिन्न वस्तुओं की मूल्य नीति की सिफारिश करते समय कृषि लागत एवं मूल्य आयोग निम्नलिखित कारकों को ध्यान में रखता है:
● मांग और आपूर्ति
● उत्पादन की लागत
● घरेलू और अन्तर्राष्ट्रीय दोनों बाज़ार में मूल्य प्रवृत्तियाँ
● अंतर-फसल मूल्य समता
● कृषि और गैर-कृषि के बीच व्यापार की शर्तें
● उस उत्पाद के उपभोक्ताओं पर एमएसपी का संभावित प्रभाव।
न्यूनतम समर्थन मूल्य का मुख्य उद्देश्य किसानों को बिचौलियों के शोषण से बचाकर उनकी उपज का अच्छा मूल्य प्रदान करना और सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिये अनाज की खरीद करना है। यदि किसी फसल का अधिक उत्पादन होने या बाजार में उसकी अधिकता होने के कारण उसकी कीमत घोषित मूल्य की तुलना में कम हो जाती है तो सरकारी एजेंसियाँ किसानों की अधिकांश फसल को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद लेती हैं।
न्यूनतम समर्थन मूल्य की भी कुछ खामियां हैं, जिनमें ये प्रमुख मुद्दे हैं-
● एमएसपी धान और गेहूँ के लिये प्रभावी है, जबकि यह अन्य फसलों के लिये केवल प्रतीकात्मक है। एमएसपी को बाज़ार की गतिशीलता के साथ जोड़ने के बजाय, किसानों के हितों के अनुरूप बढ़ाने से कीमत निर्धारण प्रणाली विकृत हो गई है। इसलिये, जब सोयाबीन की एमएसपी बढ़ती है, तब बाज़ार की कीमतों में बढ़ोतरी होगी, भले ही फसल अच्छी हो, क्योंकि एमएसपी एक बेंचमार्क तय करती है। एमएसपी एक उचित बाज़ार मूल्य बनने के बजाय आय-निर्धारित करने वाली बन जाती है। इसका मुद्रास्फीति में भी योगदान है। इसे और तार्किक बनाना होगा।
● एमएसपी विभिन्न वर्गों के बीच अंतर नहीं करता है, बल्कि यह एक औसत उचित गुणवत्ता को संदर्भित करता है। उच्च गुणवत्ता की फसल को आधार मूल्य पर बिक्री के लिये बाध्य करने से, किसानों और व्यापारियों दोनों की स्थिति एक जैसी हो जाती है। ऐसी नीतियाँ किसानों को अपने मानकों को कम करने और निम्न किस्मों के उत्पादन के लिये प्रेरित करती हैं, जिससे क्रेता कम गुणवत्ता वाली अन्न के लिये उच्च मूल्य का भुगतान करने को अनिच्छुक होगा और इससे गतिरोध हो सकता है।
● धान और गेहूँ के लिये खरीद तय की गई है, जो सीधे पीडीएस से जुड़ी हुई है। यह व्यवस्था अच्छी तरह से काम करती है, लेकिन यह कुछ विशिष्ट फसलों तक सीमित होती है। इसके अलावा, एक ओपन एंडेड स्कीम होने पर, एफसीआई के पास अधिशेष अनाज बढ़ जाता है, जिससे भंडारण और अपव्यय की समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। इससे पूर्व भी यह देखा गया है कि दालों, चीनी और तिलहन के उत्पादन में तेज़ी आने से बाज़ार की कीमतें बढ़ जाती हैं। इसलिये ऐसी सभी भेद्य ( वल्नरेबल ) वस्तुओं का न्यूनतम स्टॉक बनाए रखने की आवश्यकता है।
● थोक व्यापारी और फुटकर विक्रेता द्वारा जमा की जाने वाली राशि को प्रतिबंधित करने के लिये आवश्यक वस्तु अधिनियम को किसी भी समय लागू किया जा सकता है। चूँकि, यह अवधारणा सही लगती है, क्योंकि यह जमाखोरी से निपट सकती है, परंतु जो बात भुला दी जाती है वह यह है कि अधिकांश फसलें वर्ष में एक बार ही काटी जाती हैं और शेष वर्ष के लिये संग्रहीत की जाती हैं। किसी न किसी को फसल का भण्डारण करना ही पड़ता है, अन्यथा इसे उपभोक्ताओं के लिये पूरे वर्ष उपलब्ध नहीं कराया जा सकता है। इसमें गुणवत्ता के नुकसान के जोखिम के साथ-साथ लागत का जोखिम भी शामिल है, जो मध्यस्थ द्वारा वहन किया जाता है। अतः प्रश्न यह है कि कोई भंडारण और संग्रहण के बीच अंतर कैसे कर सकता है?
● कृषि उत्पादों के लिये हमारी व्यापार नीति भी विकृत है। जैसे जब अन्न के निर्यात पर प्रतिबंध लगा रहता है तब फसल उत्पादन में कमी के समय, अन्न की कमी की पहचान करने और बोली प्रक्रिया के माध्यम से आयात करने में अधिक समय लग जाता है। कई बार ऐसा भी हुआ है कि जब तक अन्न का आयात होता है, तब तक मूल्य सामान्य हो जाता है।
अब तो, इन कानूनों के साथ साथ, आवश्यक वस्तु अधिनियम भी संशोधित हो गया है। यह एक्ट जिसे आम तौर पर ईसी एक्ट कहते हैं, बहुत दिनों से व्यापारियों के निशाने पर रहा है। यह जमाखोरी रोकने के लिये 1955 में सरकार ने पारित किया था। अब कोई भी पैनकार्ड धारक कितना भी अनाज खरीदे और उसे असीमित रूप से कहीं भी जमा कर के रखे, जब अभाव हो तो बाजार में निकाले और जब बेभाव होने लगे तो वह उसे रोक ले यानी बाजार की दर, किसान की उपज, मेहनत और ज़रूरत नहीं तय करेगी बल्कि अनाज की कीमत यही पैनकार्ड धारक व्यापारी, जमाखोरी करने वाले आढ़तिये और नए जमींदार कॉरपोरेट तय करेंगे। वे जमाखोरी करेंगे पर उन पर जमाखोरी का इल्जाम आयद नहीं होगा। किसान अपनी ही भूमि पर इन तीनों के बीच में फंस कर रह जायेगा और सरकार दर्शक दीर्घा में बैठ कर यह तमाशा देखेगी क्योंकि उसके पास कोई नियंत्रण मैकेनिज़्म है ही नहीं या यूं कहें उसने ऐसा कुछ अपने पास रखा ही नहीं कि वह बाजार को नियंत्रित कर सके।
इस नए कानून के संदर्भ में निम्न संदेह भी स्वाभाविक रूप से उठते हैं,
● सरकार का कहना है कि एमएसपी और एपीएमसी सिस्टम पर इन कानूनों से कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। अगर सरकार एमएसपी को जारी रखने के लिये प्रतिबद्ध है तो वह इस कानून में यह प्रावधान क्यों नहीं जोड़ देती है कि मंडियों के बाहर होने वाली खरीद पर सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य जारी रहेगा और एमएसपी से कम कीमत पर अनाज की खरीद एक दंडनीय अपराध होगा ?
● किसानों की मांग और सरकार का एक पुराना वादा है कि एमएसपी एमएस स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार दी जाए। पर अचानक ऐसी क्या स्थिति आ गयी कि कोरोना आपदा के बीच आनन-फानन में पहले यह अध्यादेश लाये गये और अब संसदीय परंपराओं का उपहास उड़ाते हुए यह बिल 20 सितंबर को ही मत विभाजन की मांग को दरकिनार करते हुए ध्वनिमत से पारित घोषित कर दिया गया ?
● निजी कम्पनियां या व्यापारी किसान हित में कोई भी समर्थन मूल्य नहीं देने जा रहे हैं, क्योंकि आज भी वे मंडियों में एमएसपी से नीचे पिट रही धान, कपास, मक्का, बाजरा और दूसरी फसलों को एमरसपी या एमएसपी से अधिक दर पर क्यों नहीं खरीद रहीं हैं ? व्यापारी किसी के हित अनहित पर नहीं लाभ के आधार पर चलता है।
● कहा जा रहा है कि किसान पूरे देश मे अपनी उपज को बेच सकता है। यह तो वह पहले भी कर सकता था। फिर नया क्या है ? लेकिन हरियाणा-पंजाब का किसान अपनी धान, गेहूं, चावल, गन्ना, कपास, सरसों, बाजरा बेचने कहाँ जाएगा, जहां उसे हरियाणा-पंजाब से भी ज्यादा रेट मिल जाएगा ? उत्पाद ले जाने का व्यय ऊपर से उसके उत्पाद की कीमत बढ़ा देगा। 80 % किसान मझोले और छोटे किसान हैं जो अपने जिले से दूसरे जिलों में जाकर अपने उत्पाद न तो बेचने में सक्षम हैं, और न ही उनका भंडारण करने में। उनके यहां जो भी व्यापारी आएगा और जो भी भाव बताएगा उसी पर किसान बेच देगा। क्योंकि उसी फसल की बेच से उसका घर चलता है।
● सरकार नए क़ानूनों के ज़रिए बिचौलियों को हटाने का दावा कर रही है, लेकिन किसान की फसल ख़रीद करने या उससे कॉन्ट्रेक्ट करने वाली प्राइवेट एजेंसी आदि को सरकार किस श्रेणी में रखती है- उत्पादक, उपभोक्ता या बिचौलिया? जो व्यवस्था अब पूरे देश में लागू हो रही है लगभग ऐसी व्यवस्था तो बिहार में 2006 से लागू है। तो बिहार के किसान इतना क्यों पिछड़ गए ?
● मंडी में टैक्स और मंडी के बाहर कोई टैक्स नहीं यह मंडी को धीरे-धीरे अप्रासंगिक कर देगा। मंडी को टैक्स का नुकसान हुआ तो उसकी आय पर असर पड़ेगा और अगर आय गिरी तो मंडियां कितने दिन तक चल पाएंगी ? फिर क्या रेलवे, टेलीकॉम, बैंक, एयरलाइन, रोडवेज, बिजली महकमे की तरह घाटे में बोलकर मंडियों को भी निजी हाथों में सौंपा जाएगा?
● अगर नए कानून के अनुसार, किसान पूरे देश मे कहीं भी फसल बेच सकता है तो हरियाणा सरकार किस आधार पर दूसरे राज्यों से हरियाणा में मक्का और बाजरा नहीं आने देने का आश्वासन अपने राज्य के किसानों को दे रही है ?
● सरकार सरकारी ख़रीद को बनाए रखने का दावा कर रही है तो उसने इस साल सरकारी एजेंसी एफसीआई की ख़रीद का बजट क्यों कम कर दिया? वह यह आश्वासन क्यों नहीं दे रही कि भविष्य में यह बजट और कम नहीं किया जाएगा ? वास्तविकता यह है कि सरकार फूड कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया को बंद करना चाहती है, जो सरकार के अनुसार लंबे घाटे में है। धीरे-धीरे अनाज खरीद की सरकारी खरीद कम होती जाएगी और इन सब निजी क्षेत्रों में स्थानांतरित होते जाएंगे। एमएसपी कागज़ पर बरकरार रहेगी। लेकिन उसे न मानने पर कोई दंडात्मक प्रावधान नहीं रहेगा। और इस प्रकार पूरे कृषि उत्पाद की खरीद और भंडारण निजी क्षेत्रों को चला जायेगा।
● सरकार द्वारा सरकारी ख़रीद से हाथ खींचने पर, इसका असर, भविष्य में ग़रीबों के लिए जारी पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम में भी कटौती के रूप में होगा। राशन डिपो के माध्यम से जारी पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम, ख़रीद प्रक्रिया के निजीकरण के बाद कॉरपोरेट के स्टोर के माध्यम से प्राइवेट डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम बन जाएगा।
अब इन कानूनों के बाद न्यूनतम समर्थन मूल्य, पीडीएस, एफसीआई आदि पर क्या असर पड़ता है यह देखना दिलचस्प रहेगा। यह तीनों बिंदु त्रुटिरहित नहीं हैं, लेकिन इनकी त्रुटियां सुधारने के बजाय खेती, मूल्य निर्धारण और बाजार सबको बाजार के भरोसे ही छोड़ देना उचित नहीं होगा। हालांकि सरकार यह सब रहेगा, ऐसा कह रही है, पर वादा निभाने का ट्रैक रिकॉर्ड, सरकार का सदैव सबसे बुरा रहा है। सरकार को किसान प्रतिनिधियों से बात कर के उनकी शंकाओं का समाधान करना होगा। पर यह तभी संभव है जब सरकार का रुझान किसान हित की तरफ़ हो और उसकी नीति स्पष्ट तथा नीयत साफ हो।
भारत में कृषि को एक जोखिम भरा व्यवसाय माना जाता है। उत्तम खेती, मध्यम बान जैसे दोहों और अन्नदाता के भारी भरकम खिताब के बावजूद किसानों की दशा लम्बे समय से खराब ही रही है। सिंचाई के कुछ साधनों के बाद भी बाढ़ और सूखे की मार से किसान बेहाल रहे हैं। इसके अतिरिक्त, किसानों को फसलों के रोपण से लेकर अपने उत्पादों के लिये बाज़ार खोजने तक तमाम मुसीबतों का सामना करना पड़ता रहता है। यह जोखिम फसल उत्पादन, मौसम की अनिश्चितता, फसल की कीमत, ऋण और नीतिगत फैसलों से भी जुड़े हैं।
कीमतों में जोखिम का मुख्य कारण पारिश्रमिक लागत से भी कम आय, बाज़ार की अनुपस्थिति और बिचौलियों द्वारा अत्यधिक मुनाफा कमाना है। बाज़ारों की अकुशलता और किसानों के उत्पादों की विनाश शील प्रकृति, उत्पादन को बनाए रखने में उनकी असमर्थता, अधिशेष या कमी के परिदृश्यों में बचाव या घाटे के खिलाफ बीमे में बहुत कम लचीलेपन के कारण कीमतों में जोखिम बहुत अधिक है। इन जोखिमों से किसान को यह तीन नए कानून कैसे राहत दिला पाएंगे यह सरकार नहीं बता पा रही है।
किसान को उसकी आय की सुरक्षा के साथ-साथ अन्न उत्पादकता बढ़ाने के लिये भी प्रोत्साहन मिलना चाहिये। उन्नत बीजों की आपूर्ति और सिंचाई की सुविधा सरकार द्वारा की जानी चाहिए। दुनिया भर के किसान सब्सिडी पाते हैं। अमेरिका खुद अपने किसानों को अच्छी खासी सब्सिडी देता है और वर्ल्ड बैंक के माध्यम से भारत में किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी पर आपत्ति करता रहता है। फसल की कीमतें बाजार आधारित रहेंगी यह बात भी सच है लेकिन किसान और उसकी मेहनत को, बाजार की शातिराना चाल से बचाने के लिये सरकार को सदैव आगे आना पड़ेगा। किसान या कृषि महज फसल की दाम और खरीद फरोख्त तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह एक संस्कृति है और इतने आघात के बाद भी भारत अगर बार-बार उठ खड़ा होता है तो यह जिजीविषा कृषि ही है। इस जिजीविषा को बचाये रखना होगा।
(विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं और आजकल कानपुर में रहते हैं।)
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