Saturday, April 20, 2024

आग बड़वाग्नि से बड़ी है आग पेट की

रामकथा को घर-घर पहुंचाने वाले तुलसीदास के भूख और गरीबी के अनुभव का जिक्र वे नहीं करते जिन्हें उनसे राजनीतिक और धार्मिक लाभ लेना है। लेकिन जब भी हम इन पंक्तियों को पढ़ते या सुनते हैं कि `आग बड़वाग्नि से बड़ी है आग पेट की’ तो वह आज के दौर में चरितार्थ होती दिख जाती हैं। औरंगाबाद में मध्यप्रदेश के उमरिया के 16 मजदूर ऐसे ही नहीं कट गए। पटरी पर बिखरी रोटियां और कुछ कागज के नोट और फटे जूते यह बता रहे हैं कि भूख और गरीबी की मार कितनी भयानक होती है और अगर उसमें महामारी और सरकार का खौफ शामिल हो जाए तो वह जानलेवा हो जाती है। 

यहां तुलसी का जिक्र इसलिए करना जरूरी है कि तुलसी के राम हमारी सरकारों के आदर्श हैं और वे बार-बार राम मंदिर बनाने और रामराज्य लाने की ही घोषणा करते हैं। लेकिन उन्हें न तो मंदिर का अर्थ मालूम है और न ही किसी राज्य व्यवस्था का। उनके लिए राज्य व्यवस्था अपने लोगों को सत्ता में बिठाना और उन्हें हर प्रकार की सुरक्षा और सुविधा देना है। बाकी लोगों को उनका अनुचर बनाकर हाशिए पर ठेल देना है। तुलसी के रामराज्य की कल्पना से यह स्तंभकार सहमत नहीं है लेकिन इतना जरूर जानता है कि तुलसी को भूख और गरीबी का गहरा अनुभव था। अगर न होता तो वे यह न लिखते कि `नहिं दरिद्र सम दुख जग मांहीं संत मिलन सम सुख कोऊ नाहीं।’ कोई बड़ा कवि ऐसे नहीं बनता। तमाम संकीर्णताओं में फंसा हुआ कवि भी मानवीय संवेदना की उतनी उपेक्षा नहीं कर सकता जितने शासक करते हैं। 

यही कारण है कि तुलसी की तरह ही बीसवीं सदी में दुष्यंत कुमार लिखते हैं ` –न हो कमीज तो पांवों से पेट ढंक लेंगे, ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए।’ महामारी और सरकारी मार के बीच इस देश के मजदूर जिस सफर पर निकले हैं वह कहां खत्म होगा कहा नहीं जा सकता। जाति और धर्म में बंटे हुए और जुमलों में फंस चुके 130 करोड़ की आबादी वाले देश में चरित्रवान राजनेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं की इतनी कमी हो जाएगी सोचा नहीं जा सकता। कल्पना कीजिए आज इस देश में गांधी, नेहरू, लोहिया, आंबेडकर, जेपी या पटेल होते तो वे क्या करते। वे निश्चित तौर पर सारी राजनीति छोड़कर और अपनी जान की परवाह न करके मजदूरों के साथ चल देते।

यहां तक कि कांशीराम भी होते तो वे बैठे न रहते। इस दौर के कितने नेता, समाज सुधारक और राजनेता निकल कर मजदूरों का दुख दर्द बांट रहे हैं या उनकी पीड़ा को कम करने का प्रयास कर रहे हैं। उल्टे देश के संवेदनहीन लोग उन मजदूरों से सवाल पूछ रहे हैं कि वे रेल की पटरी-पटरी चले क्यों और अगर चले भी थे तो वहां सोए क्यों? उनमें उन मजदूरों के लिए कोई संवेदना नहीं है। उन्हें परेशानी है कि यह मूर्ख और जाहिल लोग पटरी पर कटकर मर जाते हैं और खामखाह सरकार की कामयाबी में बट्टा लगा देते हैं। अगर कल को वे इन्हें देशद्रोही कह दें तो ताज्जुब नहीं है।

कोरोना महामारी भयानक है और इंसानियत की दुश्मन है। लेकिन भला हो इस महामारी का कि उसने यशपाल की `परदा’ कहानी की तरह तमाम व्यवस्थाओं के दरवाजे से वह परदा उठा दिया है जिसके भीतर घर की औरतें और बच्चे लाचार और वस्त्रविहीन बैठे हैं। महामारी ने यह स्पष्ट कर दिया है कि बुद्ध की करुणा पर उपदेश देने वाले राजनेताओं और उनके इर्द गिर्द निर्मित व्यवस्था के लिए मजदूर महज जैव वैज्ञानिक इकाई हैं। उनका उपयोग या तो सड़क बनाने, रेल की पटरियां बिछाने और फैक्टरियां चलाने में किया जाता है या फिर वोट पाने में। लेकिन इसी के साथ यह जैव वैज्ञानिक इकाई बहुत गंदी और संक्रमण से भरी हुई है। उसके शरीर में लाखों लाख जीवाणु और विषाणु पनप रहे हैं (जैसे संपन्न लोगों के शरीर में वैसा कुछ नहीं है)। इसलिए उन्हें इस तरह से घेर कर रखना है कि वे न तो अमीरों को संक्रमित कर सकें और न ही अन्य गरीबों को संक्रमित करके बीमार लोगों का आंकड़ा बढ़ाएं। 

मुश्किल यह हुई है कि पिछले सत्तर सालों के लोकतंत्र में इन मजदूरों के भीतर थोड़ी बहुत नागरिक चेतना भी आई है और उन्हें लगने लगा था कि वे प्रजा नहीं देश के नागरिक भी हैं। उनकी इसी चेतना ने उन्हें कहीं कहीं विरोध करके ट्रेनों और बसों की मांग करने और सफल न होने पर अपने गांव के लिए चलने पर मजबूर कर दिया है। वे ट्रेन के जोखिम भरे रास्ते पर इसलिए चल रहे हैं क्योंकि सड़कों पर पुलिस के बैरिकेड होते हैं और डंडे बरसते हैं। मर इसलिए रहे हैं क्योंकि जोखिम भरे रास्तों पर थकान, भूख और बेसहारा होने की बेफिक्री बहुत स्वाभाविक है जिसे आती हुई मौत की आहट सुनाई नहीं देती। 

आज पूर्व अनुसूचित जाति और जनजाति आयुक्त डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा का वह वर्गीकरण प्रासंगिक हो गया है जिसमें उन्होंने कहा था कि भारत में इंसानों की तीन श्रेणियां हैं। इंडिया, भारत और हिंदुस्तनवां। आज इंडिया के लोग घरों में कैद हैं और ऑनलाइन काम करके अपने वेतन और कमाई को एक हद तक सुरक्षित किए हुए हैं। वे चाहते हैं कि कोई बाहर न निकले और संक्रमण न फैलाए। निकले तो उनके लिए दारू की बोतल ले आए, सब्जी ले आए, दूध ले आए और राशन पानी दे जाए। निश्चित तौर पर इसमें एक तबका वह है जो अपनी जान जोखिम में डालकर अस्पताल और सड़कों पर ड्यूटी भी कर रहा है और उसके बलिदान को सराहा जाना चाहिए।

दूसरी ओर भारत के लोग गांवों में हैं और वे पूछ रहे हैं कि आखिर यह मजदूर बीमारी लिए हुए गांवों को संक्रमित कर तबाह करने क्यों चले आ रहे। हालांकि वे खुश भी हो रहे हैं कि इनकी शहरों की रोजी छिनी और लो अब यह लोग खेतों में कम मजदूरी में काम करने को तैयार होंगे। यह मजदूर तीसरी श्रेणी यानी हिंदुस्तनवां वाले हैं और इनकी किसी को चिंता नहीं है। इसलिए वे अपनी चिंता खुद कर रहे हैं जो इस व्यवस्था में जोखिम से भरी है। 

चूंकि राजा ने एक बार कह दिया कि जो जहां है वहीं ठहर जाए इसलिए यह सलाह देने वाले नहीं हैं कि इस कार्यक्रम को लोकतांत्रिक ढंग से चलाया जाए। थोड़ा सोचा होता तो यह तथ्य सामान्य है कि अगर दो दिन देश में सारी सवारी रेलगाड़ियां चला दी जाएं तो सारे प्रवासी मजदूर जहां जाना चाहते हैं वहां पहुंच जाएंगे। अपने रेलवे के विशेषज्ञ मित्र अरविंद कुमार सिंह लिखते हैं कि भारत का रेलवे रोजाना एक आस्ट्रेलिया ढोता है। अगर सभी रेलगाड़ियां सिर्फ दो तीन दिनों के लिए चला दी जाएं तो मजदूरों के पलायन की समस्या दूर हो जाएगी। पर मजदूर जिनके लिए जैव वैज्ञानिक इकाई हैं, उनके मानवाधिकार और जीवन के अधिकार का घोषणाओं से ज्यादा अर्थ नहीं है।

जिन्हें महामारी और सरकारी सख्ती का थोड़ा बहुत इतिहास मालूम है उन्हें 1897 के प्लेग के दौरान हुई घटनाओं का स्मरण करना चाहिए। क्वारंटीन का सिलसिला भारत में उसी समय से शुरू हुआ और शुरू हुई शासन की शख्ती। पुणे के प्लेग कमिश्नर ने स्त्रियों और पुरुषों सभी की सार्वजनिक जांच शुरू की। इससे समाज ने अपमानित महसूस किया। बाद में उन्होंने लोगों का बढ़ता गुस्सा देखकर सेना उतार दी और लोगों का बुरी तरह दमन करने लगे। इसके विरोध में चाफेकर बंधुओं ने प्लेग कमिश्नर की हत्या कर दी। तिलक ने सरकार के विरुद्ध गीता के संदेशों का हवाला देते हुए लेखन किया और लोगों की पीड़ा को वाणी दी।

उनके लेखन में चाफेकर बंधुओं के काम को भी सही ठहराया गया। उन्हें गिरफ्तार किया गया और उन पर राजद्रोह का आरोप लगाकर 18 माह की सजा सुनाई गई। लेकिन सरकार के विरुद्ध यह नाराजगी सिर्फ पुणे तक सीमित नहीं था। वह दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और दूसरे शहरों तक फैल गया। देश की जनता ने सरकार को चेतावनी दी कि अगर उसने अपने काम का रवैया नहीं बदला तो 1897 में 1857 हो जाएगा। अंग्रेज सरकार पीछे हटी और उसने अपने काम का ढंग बदला। 

आज अंग्रेजों की नहीं अपने लोगों की चुनी हुई सरकार है और लोगों का उस पर यकीन भी है। लेकिन उस यकीन का आधार वैज्ञानिक सत्य और पारस्परिक विश्वास होता है। अगर उसका आधार बदइंतजामी और दमन को बनाया जाएगा तो अफरातफरी होगी। कुछ लोगों की बीमारी से तो ज्यादा लोगों की भूख और पैदल चलने में मौतें होंगी और कुछ लोग व्यवस्था से लड़ते झगड़ते मारे जाएंगे। यह स्थिति किसी भी लोकतंत्र और शांति पूर्ण देश के लिए शुभ नहीं है। इसलिए तुलसी दास की उन पंक्तियों को याद करना होगा जिसमें उन्होंने कहा था कि `आग बड़वाग्नि से बड़ी है आग पेट की।’ पेट की इस आग को बड़वाग्नि बनने से रोकना होगा और उसे शांत करने के साथ ही महामारी से लड़कर जीता जा सकता है। 

(अरुण कुमार त्रिपाठी वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं। आप वर्धा स्थित हिंदी विश्वविद्यालय और भोपाल के माखनलाल लाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय में अध्यापन का काम भी कर चुके हैं।) 

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