आज के ही दिन 166 वर्ष पहले 10 मई, 1857 को मेरठ शहर से इस महान ‘विद्रोह’ की शुरूआत हुई थी। अंग्रेजों के ख़िलाफ़ विद्रोह; जिसे मार्क्स ने ‘भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम’ कहा था। इस वर्ष 1857 की ‘166 वीं वर्षगांठ’ मनाई जाएगी। समय के साथ ही किसी भी विद्रोह या क्रांति की यादें धूमिल हो जाती हैं उस पर समय की धूल चढ़ जाती है परन्तु यह विद्रोह अपनी तमाम ख़ामियों और सीमाओं के बावज़ूद आज भी हर सामाजिक परिवर्तन के लिए लड़ने वालों को उत्प्रेरित और उद्वेलित करता है और भविष्य में भी करता रहेगा। भले ही यह विद्रोह राष्ट्रव्यापी न रहा हो, लेकिन अपने समग्र चरित्र में यह राष्ट्रवादी था क्योंकि मूलतः इसका केंद्र देश का वो हिन्दी इलाका था, जिसमें देश की बहुसंख्यक आबादी निवास करती है।
यह सैन्य विद्रोह मेरठ शहर से शुरू होकर शीघ्र ही उत्तर में पंजाब, दक्षिण में नर्मदा, पूरब में बिहार-झारखंड तथा पश्चिम में ग्वालियर तक फैल गया। दिल्ली, लखनऊ, कानपुर, बुन्देलखण्ड तथा बिहार का बड़ा इलाका इस लड़ाई का सघन केन्द्र था। वास्तव में 1857 के इस विद्रोह की भूमिका उसी वक्त तैयार हो गई थी, जब 1856 में डलहौजी के नेतृत्व में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने अवध प्रांत पर अधिकार कर लिया था। उस समय कम्पनी की सेना में अवध प्रांत से सम्बन्ध रखने वाले करीब 75 हज़ार सैनिक थे, हालांकि इन सैनिकों ने दूसरे प्रांतों में कब्ज़ा करने में कम्पनी सरकार की मदद की थी, लेकिन जब उनका ख़ुद का प्रदेश कम्पनी के अधिकार में चला गया, तो वे बेचैन हो उठे। अवध के उन 75 हज़ार सैनिकों ने; जो मूलतः किसान थे 1857 में प्रासंगिक क्रांति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
अवध प्रांत अंग्रेजों के हाथ में चले जाने के कारण किसानों की हालत बहुत ख़राब हो गई थी, क्योंकि इन सैनिकों को किसान के रूप में अब अधिक टैक्स चुकाना पड़ रहा था। ईस्ट इण्डिया कम्पनी की क्रूर आर्थिक नीतियों के कारण साल दर साल अकाल-महामारी को झेलते हुए यह वर्ग लम्बे समय से अपनी बर्बादी को बर्दाश्त कर रहा था। वहीं ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा बड़े पैमाने पर यहां के लोगों के देसी उद्योग-धंधों, विशेषकर हथकरघा उद्योग को तबाह करने के कारण छोटे कारीगर बड़ी मात्रा में तबाह हो गए थे। इस वर्ग का भी किसानों और सिपाहियों से गहरा नाता था। 1857 के विद्रोह में यही वह कड़ी थी, जिसने न सिर्फ़ विद्रोह को व्यापक बनाया, अपितु किसान-सैनिक गठजोड़ की मज़बूत बुनियाद डाल दी। दूसरी ओर कम्पनी सरकार की नई ज़मींदारी नीति ने (जिसके कारण भारत सामंती से अर्द्धसामंती देश में बदल गया) जिन पुराने ज़मींदारों के हितों को नुक़सान पहुंचाया था,वे भी अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ हो गए और 1857 के विद्रोह को नेतृत्व देने के लिए आगे आ गए, हालांकि इनकी वर्गीय सीमा ही इस महान विद्रोह के असफल होने का कारण भी साबित हुई।
इस विद्रोह का सटीक विश्लेषण करने में बहुत ही चुनौतियां हैं, क्योंकि अधिकतर इतिहासकार भी इस विद्रोह का मूल्यांकन अपनी जातीय और वर्गीय धारणाओं के अनुसार करते हैं। इसमें ‘सर सैयद अहमद ख़ां’,’बंगाल में हिन्दू राष्ट्रवाद के संस्थापक राज नारायण बसु’ जैसे लोग इसे गुण्डे-बदमाशों और अराजक तत्वों का विद्रोह बता रहे थे। हिन्दुत्ववादियों के ‘प्रिय इतिहासकार आर सी मजूमदार’ ने लिखा है कि, “आरंभ से ही आबादी के गुण्डा तत्वों; विशेषकर गूजर,रांगड़ जैसी लुटेरी जातियों ने स्थानीय विद्रोह में प्रमुख भूमिका निभाई।”(1857 की अनकही हैरतअंगेज दास्तानें, पृष्ठ संख्या-32,लेखक-शम्सुल इस्लाम) एक तीसरी धारा उन राष्ट्रवादी इतिहासकारों की थी, जो यह मानते थे कि यह भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम था, जिसमें समूचे हिन्दुस्तान की जनता ने एकजुट होकर अंग्रेजों के ख़िलाफ़ युद्ध किया।
‘सावरकर’ ने 1857 के विद्रोह पर लिखी अपनी पुस्तक में भी इसे पहला भारतीय स्वाधीनता संग्राम बतलाया। यही सावरकर बाद में हिन्दुत्व के बहुत बड़े पैरोकार बन गए। दुर्भाग्य से वामपंथी इतिहासकारों का एक बड़ा वर्ग; जो इस ऐतिहासिक घटना का मूल्यांकन कर सकता था, वे भी राष्ट्रवादी इतिहासकारों के इर्द-गिर्द घूमते रहे। वास्तव में इस विद्रोह का मूल्यांकन कभी बहुजन समाज के दृष्टिकोण से किया ही नहीं गया। इतिहास में ‘सबाल्टर्न’ इतिहास की एक नई धारा पैदा हुई, जिसमें परिधि पर रहने वाले लोगों जैसे-स्त्रियां, दलित,पिछडे़ और जनजाति समाज के लोगों की इतिहास में भूमिका का मूल्यांकन किया, तब 1857 के विद्रोह पर भी एक नया प्रकाश पड़ा।
इसमें पहली बात यह है कि 1857 तक भारत में अभी राष्ट्रवाद का उदय नहीं हुआ था। छोटे-छोटे ग्राम समाजों में रहने वाले लोगों के लिए उनके गांव ही उनके देश थे। इन ग्राम समाजों में भयानक वर्णव्यवस्था और जातिवाद के कारण एक शूद्रों की आबादी ग़ुलामों जैसा जीवन जीती थी। प्रत्येक गाँव एक स्वतंत्र आर्थिक इकाई थे। आवागमन के साधन सीमित थे। मुद्रा का चलन बहुत ही कम था। दिल्ली में तख़्तोताज बदलते रहे, लेकिन इन ग्राम समाजों में इसका कोई ख़ास असर नहीं हुआ, यही कारण था कि अंग्रेजों के आने के बाद जिस भयानक शोषण-दमन की बात की जाती है, उसमें पूरी सच्चाई नहीं है, क्योंकि दलित-शोषित जातियों का अधिक शोषण तो उच्च जातियां ही अधिक कर रही थीं, जैसा कि ‘मार्क्स’ ने भी लिखा है कि, “भारत में अंग्रेजीराज की दोहरी भूमिका थी-एक प्रगतिशील, दूसरी प्रतिक्रियावादी।” जहां एक ओर अंग्रेजों ने देश को बुरी तरह से लूटा, वहीं दूसरी ओर उन्होंने अंग्रेजी शिक्षा का प्रचार-प्रसार किया। भारत के प्राचीन विलुप्त ज्ञान-विज्ञान की तलाश की। रेल और सड़कों का जाल बिछाया, जिससे भारत में राष्ट्रवाद का प्रसार हुआ।
महाराष्ट्र में जोतीराव फुले और सावित्रीबाई फुले, जिन्होंने दलित और उच्च जाति की भी स्त्रियों को शिक्षा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, यह अंग्रेजों की सहायता के बिना सम्भव नहीं था, क्योंकि उच्च जातियां विशेष रूप से ब्राह्मण, स्त्रियों की शिक्षा के विरोधी थे। अंग्रेजों ने उनका पग-पग पर साथ दिया यही कारण है कि 1857 में अंग्रेजों की विजय पर जोतीबा फुले ने अंग्रेजों के स्मारक पर फूल चढ़ाते हुए कहा था कि, “अगर अंग्रेज हार जाते, तो पेशवाराज पुनः लौट आता।”
एक दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है, कि 1857 यह विद्रोह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का पहला विद्रोह नहीं था। एक अनुमान के अनुसार 1763 से 1857 के बीच 40 से अधिक सशस्त्र बग़ावतें हुईं। इसके अतिरिक्त सैकड़ों छोटी बग़ावतों ने कभी भी अंग्रेजी साम्राज्य को चैन से बैठने नहीं दिया। इन बग़ावतों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है-‘आदिवासियों का विद्रोह।’ वास्तव में इनकी भूमिका अभी भी सही ढंग से इतिहास में दर्ज़ नहीं हो पाई है, जबकि ये आदिवासी ही थे, जिन्होंने शुरू से अंत तक अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र युद्ध में समझौताविहीन संघर्ष किया।
1766 में झारखण्ड में पहाड़िया विद्रोह से लेकर 1855-56 के संथाल विद्रोह तक आदिवासी समाज के भीतर से ऐसे अनेक नेतृत्वकारी योद्धा पैदा हुए,जिनके बारे में आज भी हमें बहुत कम जानकारी है। ‘रानी सर्वेश्वरी’, ‘तिलका मांझी’,’तात्या भील’, ‘राम जी गोंडा’, ‘विष्णु मानकी’,’दुक्खन मानकी’,’बिंदराय-सिंहराय’, ‘बिरसा मुंडा’, ‘सीदो-कान्हू’ और ‘चांद-भैरव मुर्मू’ आदि ने कुछ समय के लिए सही, अपने-अपने इलाके को अंग्रेजों से मुक्त करके स्वतंत्र सरकार का गठन कर लिया था, वहीं ‘पूर्वोत्तर के मणिराम बरुआ’,’तिरोत सिंह’, ‘टिकेंद्रजीत’,’और ‘रानी रौपुइलियानी आदि ने अंग्रेजी साम्राज्य के बढ़ते रथ को काफी समय तक रोके रखा था।
इन सबसे यह सिद्ध होता है कि यह भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम नहीं था। एक महत्वपूर्ण बात यह है कि आज इतिहासकार इस विद्रोह में दलित-पिछड़े लोगों की भूमिका का मूल्यांकन ज़रूर कर रहे हैं, जिसमें ‘झलकारी बाई’, ‘अवन्तीबाई लोधी’ या फिर ‘मातादीन भंगी’ जैसे गुमनाम लोगों की भूमिका को रेखांकित किया जा रहा है, परन्तु यह मूलतः उच्च जाति के सामंतों का विद्रोह था,जो अपने खोए हुए स्वर्ग को पुनः हासिल करना चाहते थे, इसमें हिन्दू-मुस्लिम दोनों की ही उच्च जातियां थीं। बहादुर शाह ज़फ़र जिन्हें क्रांतिकारियों ने अपना नेता बनाया था, उनकी हैसियत लाल किले से बाहर कुछ भी नहीं थी।
भारत की दलित जातियों विशेष रूप से अछूत जातियों से उच्च जातियां दूरी बनाकर रखती थीं। उनकी छाया से भी बचा जाता था, ऐसे में किसी भी राजनैतिक, सैनिक और आर्थिक मामले में उनकी भागीदारी प्रायः असम्भव थी। कम्पनी की सेना में ऊंची जातियों का ही वर्चस्व था, वस्तुत: सेना में दलित जातियों की नियुक्ति 1857 के विद्रोह के बाद जाकर ही शुरू हो सकी। आश्चर्य है कि कार्ल मार्क्स ने यहां से इतनी दूर लंदन में बैठकर भी कम्पनी सेना की जातीय संरचना पर रखे हुए थे।
कार्ल मार्क्स द्वारा दिए गए आंकड़ों पर नज़र डालें, तो बंगाल रेजीमेंट में 80 हज़ार सिपाहियों में तीस हज़ार यूरोपियन सिपाहियों को छोड़कर 28 हज़ार राजपूत और 23 हज़ार मुस्लिम थे। कमोवेश ऐसी ही संरचना पूरी कम्पनी सेना की थी। यहां यह याद रखा जाता है कि उपर्युक्त निम्न जातियां दलित जातियां नहीं थीं, बल्कि खेतिहर जातियां यादव, कुर्मी आदि थे। गाय की चर्बी सम्बन्धी धार्मिक पूर्वाग्रह दलित जातियों के लिए कोई मायने नहीं रखता था। 1857 के नेताओं ने इन दलित जातियों का विश्वास जीतने और उन्हें इस प्रक्रिया में भागीदार बनाने का कोई प्रयास नहीं किया। यह तभी हो सकता था, जब वे अपने उच्च जाति के अहंकार से बाहर आतीं तथा दलित-विरोधी मान्यताओं और प्रथाओं को रद्द करतीं। तभी वे दलित समाज की असीमित ऊर्जा का उपयोग कर पातीं, यही कारण है कि दलित वर्ग का नेतृत्व इस विद्रोह को संशय और आशंका से देख रहा था, उसे लगता था कि इनकी जीत जातिप्रथा को और मज़बूत बनाएगी। उनकी यह आशंका निराधार भी नहीं थी।
क्रांतिकारी दलित चिंतक जोतीबा फुले इन्हीं तर्कों के आधार पर 1857 के इस विद्रोह का विरोध किया, लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि इस बड़े विद्रोह को कम आंका जाए, क्योंकि इस विद्रोह में बड़े पैमाने पर भारतीय इतिहास में पहली बार आम जनता की इतनी बड़ी भागीदारी थी।
यह बात इस तथ्य से भी स्पष्ट हो जाती है कि सिर्फ़ अवध प्रांत में अंग्रेजी सेना से लड़ते हुए करीब 1,50,000 लोग मारे गए थे, उनमें एक लाख नागरिक थे बाक़ी 50,000 सिपाही थे। विद्रोह दबाने के बाद अंग्रेजों ने भयानक नरसंहार किया, गांव के गांव जला डाले, हज़ारों लोगों को सार्वजनिक रूप से फांसी दी गई। आज के दौर में जब साम्राज्यवाद अपने नये रूप में पांव पसार रहा है, तब किसी भी देश को पुराने तरीकों के ग़ुलाम बनाने की ज़रूरत नहीं है। पूंजी का भूमण्डलीकरण हो रहा है तथा वित्तीय पूंजी के बल पर साम्राज्यवादी ताकतें ग़रीब मुल्कों और उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं का आर्थिक-सामाजिक हर दृष्टि से शोषण कर रही हैं। आज के इस दौर में अपनी तमाम ख़ामियों और सीमाओं के बावज़ूद इस विद्रोह की याद आना स्वाभाविक है, जिसमें आम किसान मज़दूर और कारीगर भी अंग्रेजी साम्राज्य के ख़िलाफ़ उठ खड़े हुए थे।
(स्वदेश कुमार सिन्हा अनुवादक एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)