Thursday, April 25, 2024

यूपी विशेष सुरक्षा बल का गठन: दरवाजे पर गेस्टापो

कोई निर्वाचित सरकार कानून बनाकर कैसे अपने ही नागरिकों की आज़ादी छीन सकती है तथा कैसे संवैधानिक व्यवस्था में “विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया” का उपयोग करके एक स्टेट ‘अथॉरिटेरिएन स्टेट’ में तब्दील हो सकता है इसका ज्वलंत उदाहरण है “उत्तर प्रदेश विशेष सुरक्षा बल अधिनियम 2020!” गौरतलब है कि 26 जून, 2020 को घोषित और सीएम के ड्रीम प्रोजेक्ट के रूप में प्रचारित-प्रसारित उत्तर प्रदेश स्पेशल सुरक्षा बल से संबंधित कानून जो पहले जून माह में अध्यादेश के रूप में लाया गया था, अब विधानमंडल से पारित होने के उपरांत कानून की शक्ल में 6 अगस्त, 2020 से प्रवर्तन में आ चुका है।

उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश पुलिस महानिदेशक को यह निर्देशित किया  जा चुका है कि तीन महीने के भीतर इस बल को अस्तित्व में लाया जाए। प्रारंभ में 8 बटालियन का गठन 9,900 पुलिसकर्मियों से मिलकर होगा और जिसका कमांडिंग ऑफिसर एडीजी रैंक का एक पुलिस अफसर होगा और उसका मुख्यालय लखनऊ में स्थित होगा।

अब, इस अधिनियम के प्रावधानों पर नजर डालें तो पता चलता है कि यह विशेष पुलिस बल बिना जवाबदेही के असाधारण शक्तियों से लैस और नागरिकों को न्यायिक उपचार से वंचित करता है जो कि आपराधिक न्याय प्रशासन के मान्य सिद्धांतों के ही खिलाफ है। दिलचस्प बात यह है कि राज्य सरकार द्वारा इस ‘एलीट पुलिस फोर्स’ के गठन से संबंधित इस एक्ट को बनाए जाने का औचित्य प्रदान करने के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा दिसंबर 2019 में ‘बिजनौर जिला अदालत में हुई गोलीबारी’ के प्रकरण में पारित आदेश को ही ढाल बनाया गया है। इसमें उच्च न्यायालय ने बिजनौर सहित प्रदेश भर के जिला न्यायालय परिसरों में हुई कई आपराधिक व फायरिंग की घटनाओं पर चिंता व्यक्त करते हुए राज्य सरकार को निर्देशित किया था कि अदालतों की सुरक्षा चाक-चौबंद की जाए।

इस लिहाज से विशेष प्रशिक्षण प्राप्त विशिष्ट सुरक्षा बल उपलब्ध कराए जाएं जिससे अधिवक्ताओं के आईडी कार्ड्स, सीसीटीवी कैमरों, वादकारियों की आवाजाही का रिकॉर्ड आदि के रखरखाव समुचित रूप से हो सकें। यहां यह उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि न्यायालय के आदेश में ‘ए स्पेशलाइज्ड वेलट्रेन्ड सिक्योरिटी फोर्स’ की आवश्यकता जताई गई थी ना कि ‘स्पेशल सिक्योरिटी पुलिस फोर्स के गठन’ का निर्देश दिया गया था। वस्तुतः यह न्यायालीय आदेश का मनमाफिक व्याख्या करने के समान है-जिसमें ऐसा कानून बनाकर संवैधानिक सिद्धांतों को परित्याग करने के जरिये नागरिकों के न्यायिक उपचार के अधिकार को समाप्त करने का कुत्सित प्रयास किया गया है। दूसरे शब्दों में कहें तो यह कानून एक ऐसे पुलिस बल के गठन हेतु राज्य को समर्थकारी बनाता है जिससे ‘क्रेट स्टेट पुलिस’ या नाजी जर्मनी के “गेस्टापो” जैसा स्ट्रक्चर सामने आता है।

इस अधिनियम में कुल 19 धाराएं हैं; जिसमें धारा 17, अधिनियम के क्रियान्वयन के लिए इस अधिनियम के क्रियान्वयन हेतु राज्य सरकार को नियम बनाने की शक्ति प्रदान करती है, वहीं धारा 18 अधिनियम के उपबंधों को प्रभावी बनाने के लिए उत्पन्न होने वाली कठिनाइयों को दूर करने का आदेश जारी करने के बारे में सशक्त करती है। धारा 10 व 11 बिना मजिस्ट्रेट के आदेश अथवा वारंट के गिरफ्तारी तथा तलाशी का प्रावधान करती है। वहीं दूसरी ओर धारा 15 इस बल के सदस्यों के विरुद्ध सिविल या अपराधिक कार्यवाही से संरक्षित करती है जबकि धारा 16, न्यायालयों द्वारा बल के सदस्यों के विरुद्ध सरकार से पूर्वानुमति के बिना संज्ञान लिए जाने पर प्रतिबंध लगाती है।

अधिनियम के ऑब्जेक्टिव क्लाज पर नजर डालें तो फ़ौरी तौर पर यह लगता है की प्रस्तुत बल का गठन उच्च न्यायालय व जिला न्यायालय परिसरों, प्रशासनिक भवनों औद्योगिक इकाइयों वाणिज्यिक व बैंकिंग प्रतिष्ठानों जैसे महत्वपूर्ण निकायों व अधिसूचित व्यक्तियों की सुरक्षा के लिए लक्षित है ताकि पहले से इन संवेदनशील कार्यों में नियोजित यूपी पुलिस व पीएसी बलों को मुक्त करके कानून-व्यवस्था के नियन्त्रण में लगाया जा सके। इस बल का निर्माण सीआईएसएफ एवं सीआरपीएफ तथा उड़ीसा वह महाराष्ट्र के विशेष औद्योगिक सुरक्षा बलों की तर्ज पर किया जाना है। किंतु इस एक्ट के कई प्रावधान उक्त बालों से विलक्षणता प्रदान करते हैं। धारा 7 के अनुसार न केवल सरकारी प्रतिष्ठानों, अदालती परिसरों, एयरपोर्ट्स, औद्योगिक व वाणिज्यिक भवनों की सुरक्षा के लिए इनका नियोजन होगा बल्कि डीजीपी की अनुमति से समुचित शुल्क अदा किए जाने पर प्राइवेट लोगों व उनके आवासीय परिसर तथा निजी प्रतिष्ठानों की सुरक्षा में भी लगाया जा सकेगा।

यहां उल्लेखनीय है कि सीआईएसएफ जैसे केंद्रीय बल के अंतर्गत गिरफ्तारी व तलाशी लेने की शक्ति केवल निश्चित रैंक के अफसर को ही प्राप्त है जबकि यूपीएसएसएफ के सभी सदस्यों को चाहे उनकी रैंक़ कुछ भी हो उन्हें यह शक्ति प्रदत्त की गई है। ध्यान रहे कि सीआरपीएफ जैसे अर्धसैनिक बल जिनकी पूरे देश में 246 बटालियन हैं और जो संसद भवन परिसर, उच्चतर न्यायपालिका के परिसरों जैसे महत्वपूर्ण प्रतिष्ठानों की सुरक्षा एवं पाक व चीन की सरहदों की सुरक्षा में लगी सेनाओं की सहायता में भूमिका निभाती हैं-को भी बिना वारंट तलाशी तथा गिरफ्तारी की शक्ति नहीं प्राप्त है। इस तरह अधिनियम की धारा 10 और 11 यूपीएसएसएफ के प्रत्येक सदस्य को बिना जवाबदेही के स्वेच्छा से चोट पहुंचाने तथा संज्ञेय अपराध कार्य किए जाने की आशंका मात्र पर किसी भी व्यक्ति की गिरफ्तारी, तलाशी और डिटेंशन की शक्ति बिना मजिस्ट्रेट के आदेश अथवा वारंट के प्रदत्त की गई है।

बल का कोई सदस्य मौके पर उस वक्त गिरफ्तारी, तलाशी व डिटेंशन का निर्धारण करने वाला एकमात्र प्राधिकारी होगा। यह सब उसके सब्जेक्टिव सेटिस्फैक्शन पर निर्भर करेगा। यही नहीं उक्त अधिनियम में सबसे आश्चर्यचकित करने वाला उपबंध यह है कि यूपीएसएसएफ का कोई सदस्य अपने द्वारा किए गए सिविल रांग या आपराधिक कृत्य के लिए किसी न्यायालय में अभियोजित नहीं किया जाएगा, भले ही उसने अत्यधिक यानी जरूरत से ज्यादा बल प्रयोग किया हो’ और निजता के अधिकार का उल्लंघन किया हो या दूसरे का नुकसान किया हो। कोई कोर्ट ऑफ लॉ, इन सदस्यों के विरुद्ध अपराध का संज्ञान भी बिना राज्य सरकार की पूर्व अनुमति के नहीं ले सकता (अधिनियम की धारा 16 व 17)। इस तरह की असाधारण शक्ति तथा उन्मुक्ति/छूट सीआईएसएफ, सीआरपीएफ को भी नहीं प्राप्त है. सीआईएसएफ में किसी सदस्य के विरुद्ध अभियोजन संचालन के लिए सक्षम उच्च अधिकारी को 3 महीने के भीतर निर्णय लेना होता है।

वहीं इस राज्य स्तरीय इस पुलिस बल के संबंध में ऐसा कोई प्रावधान नहीं किया गया। इस प्रकार हम देखते हैं कि यूपीएसएसएफ के तहत एक प्रांतीय स्तर के पुलिस बल को दी गई असाधारण शक्तियां एवं उन्मुक्ति केन्द्रीय बलों से कहीं अधिक है। यह संघीय व्यवस्था वाले संवैधानिक लोकतंत्र में स्टेट के भीतर एक ‘स्टेट प्राधिकारी’ बनाने के समतुल्य है। यह कानून प्रवर्तन एजेंसी को शूडो-आर्मी में तब्दील करने का कुत्सित प्रयास है जो दैनिक मामलों में हस्तक्षेप तो करेगी, परंतु उसकी जवाबदेही कुछ नहीं होगी। वास्तव में यह संवैधानिक लोकतंत्र वाले देश में संविधान-जो कि सुप्रीम लॉ ऑफ़ द लैंड- होता है की अपेक्षाओं को नजरअंदाज करने तथा शक्ति विभाजन के बुनियादी सिद्धांत को ठेंगा दिखाने जैसा प्रयास एक विधान मंडल के द्वारा किया गया है।

उक्त कानून की धारा 18, उपबंध को प्रभावी बनाने में आने वाली कठिनाइयों को दूर करने तथा चीजों के स्पष्टीकरण हेतु राज्य सरकार को आदेश जारी करने के लिए सक्षम बनाती है, किन्तु इसी धारा में एक परन्तुक का इंतज़ाम करके कहा गया है कि अधिनियम के लागू होने के अगले 2 साल तक कोई नया आदेश जारी नहीं किया जा सकेगा। यह इंगित करता है कि यदि 2022 में वर्तमान सत्ताधारी दल सत्ता से बेदखल हो जाता है तब भी नव आगंतुक दल की सरकार भी कोई नया आदेश जारी न कर सके। वास्तव में कानून में मौजूद यह प्रावधान मौजूदा सरकार के छुपे इरादे को ही प्रदर्शित करता है।

इसके अलावा पूरे एक्ट में बारंबार यह दोहराया गया है कि इस स्पेशल सिक्योरिटी फोर्स जो कि राज्य पुलिस बल के एक विंग के रूप में होगी- के सदस्यों की भर्ती, सेवा-शर्तों का रेगुलेशन सामान्य पुलिस प्राधिकारी गणों के जरिए होगा और उन पर लागू होने वाले कानून अर्थात पुलिस अधिनियम,1861 एवं उत्तर प्रदेश पुलिस रेगुलेशंस से शासित किया जाएगा। इस स्पेशल फोर्स का कमांडिंग ऑफिसर अपने एक एडीजी रैंक के पुलिस अफसर को बनाया गया परंतु इसे सामान्य पुलिस बल के सदस्यों को रेगुलेट करने के लिए जारी दिशा-निर्देशों वह प्रतिबंधों से मुक्त रखा गया है। इस तरह यह विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया एवं विधियों के समान संरक्षण के संवैधानिक सिद्धांत के ही खिलाफ है।

यूपीएसएसएफ एक्ट 2020, के प्रावधान दुनिया भर में मान्य अपराधिक विधि के सिद्धांतों की अवहेलना में बनाया गया है। इस बल के सदस्यों द्वारा गिरफ्तार किए गए व्यक्ति के बारे में डिटेंशन आदि का स्थान एवं गिरफ्तार व्यक्ति के नातेदार आदि को सूचना देने आदि से पुलिस बल कर्तव्यों पर मौन, संविधान के अनुछेद 21 व 22 के तहत गिरफ्तार व्यक्तियों/बंदियों को प्राप्त मौलिक अधिकारों का तो अतिक्रमण है ही साथ ही सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी दिशा-निर्देशों जिसमें गिरफ्तार किए गए व्यक्तियों के अधिकारों का उल्लेख है, सीआरपीसी की धारा 50-गिरफ्तार व्यक्ति को गिरफ्तारी के आधार एवं जमानत के अधिकार की सूचना देना, धारा 50A-गिरफ्तार व्यक्ति के नातेदार या उसके द्वारा नामित जन को सूचना देने की बाध्यता, तथा धारा 57-गिरफ्तार व्यक्ति को चौबीस घंटे से अधिक डिटेन न करना आदि का खुला उल्लंघन है।

इसके अलावा गिरफ्तारी को न्यायालय की स्क्रूटनी से परे रखना कानूनी उपचार से वंचित रखने के समान है। अधिनियम की धारा 7 जो निजी प्रतिष्ठानों तथा व्यक्तियों की सुरक्षा में शुल्क संदाय के बदले डीजीपी द्वारा नियोजित किए जाने की क़ानूनी वैधता- प्राइवेट नियोजक द्वारा बलों के मनमाने रूप से निजी हित में इस्तेमाल किये जाने की संभावना को बलवती करती है। यह सूरतेहाल एक लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा जिसमें राज्य से अपने समस्त नागरिकों के सुरक्षा एवं कल्याण की अपेक्षा होती है के बरक्स धनी एवं दबंग व्यक्तियों के पक्ष में राज्य का झुकाव प्रदर्शित करता है। यह भारतीय संवैधानिक स्कीम के ही विरुद्ध है।

यहां यह उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि प्रस्तुत कानून जो कि एक विशेष सुरक्षा बल के गठन के निमित्त निर्मित हुआ है और जिसको औचित्य प्रदान करने के लिए उच्च न्यायालय के एक आदेश को आधार बनाया गया है वस्तुतः जन सामान्य की आंखों में धूल झोंकने जैसा प्रयास है। वास्तव में न्यायालय का आदेश, अदालत के परिसरों में सुरक्षा में लगे पुलिसकर्मियों के विशेष प्रशिक्षण व सतर्कता की अपेक्षा करता है ना कि उसकी आड़ में सत्ताधारी दल द्वारा अपने छुपे एजेंडे को क्रियान्वित करने के लिए एक कठोर कानून व गैर जवाबदेह पुलिस बल का निर्माण करने का रास्त्ता खोलता है।

भारतीय संविधान एक निर्वाचित सरकार से यह उम्मीद करता है कि वह समाज में मौजूद सामाजिक और आर्थिक विभेदों को अपने नीतियों के द्वारा रिड्यूस करेगी, जिससे समाज में आपसी भाईचारा बढ़ेगा तथा अपराध कम होंगे परंतु उस दिशा में प्रयास ना करके ड्रैकोनियन लॉज का निर्माण करके कोई राज्य न्यायपूर्ण समाज का निर्माण कैसे कर सकता है ? इस तरह के ‘एलीट फोर्स’ के गठन का उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में जहां राजकोष पहले से ही लाचारी अवस्था में हो और कोरोना काल में अपने नागरिकों के हित में बेहतर निर्णय लेने में अक्षम रहा हो, यूपीएसएसएफ के गठन में लगभग 18 हजार करोड़ रुपए निवेश करना कहीं से भी जनहित में नहीं कहा जा सकता।

पहले से मौजूद पुलिस बल एवं प्रोविंशियल आर्म्ड कांस्टेबुलरी (पीएसी) में पड़ी रिक्तियों की भर्ती पूरी करके तथा उन्हें अत्यधिक एक्यूमें एवं तकनीक से सुसज्जित करके- उनकी क्षमता को बढ़ाया जा सकता है। न्यायालय परिसर की सुरक्षा हेतु सीबी सीआईडी, एसटीएफ, एटीएस, जल पुलिस, एंटी करप्शन ऑर्गेनाइजेशन, इकोनामिक ऑफेंसेस विंग की भांति एक विशेष सुरक्षा बिंग जो कि इस कम हेतु सुप्रशिक्षित व दक्ष हो -का निर्माण, मौजूदा पुलिस बल के अंतर्गत ही किया जा सकता है।

यूपी पुलिस जो कि स्टाफ की कमी, ढांचागत सुविधाओं का अभाव, अल्प बजटीय समर्थन आज से जूझ रहा है -को दूर किए बिना राजकोष पर अतिरिक्त भार डालना किसी भी पहलू सुसंगत से नहीं है। यही नहीं पुलिस और जनसंख्या का रेशियो भी यूपी के मामले में सबसे कम-यहां 71 पुलिस प्रति लाख जनसंख्या है जबकि राष्ट्रीय स्तर पर 133 पुलिस प्रति लाख का आंकड़ा है। वहीं यूएनओ में 222 पुलिस प्रति लाख जनसंख्या का मानक घोषित किया गया है। क्षेत्रफल के दृष्टिकोण से भी 59 प्रति 100 स्क्वायर किलोमीटर का आंकड़ा है जो कि बहुत ही कम है। इसके अलावा ‘प्रकाश सिंह केस, जिसमें सुप्रीम कोर्ट द्वारा पुलिस बल को अत्यधिक सक्षम एवं जनपक्षधर बनाने हेतु सेवन पॉइंट्स गाइडलाइन जारी किया था, जिसे आज तक यूपी सहित कोई भी राज्य समुचित रूप से क्रियान्वित नहीं किया।

ऐसे समय में जब यूएपीए, एनएसए एवं सेडिशन लॉ जैसे कानूनों का प्रयोग सरकारों द्वारा खुद से नीतिगत असहमति रखने वाले नागरिकों के विरुद्ध धड़ल्ले से हो रहा है तथा इस संबंध में देश- दुनिया के तमाम न्यायविदों, अधिवक्ताओं, ह्यूमन राइट्स एक्टिविस्ट व अन्य समाज के गणमान्य लोगों द्वारा चिंता व्यक्त की जा रही है; तब बिना किसी जवाबदेही के असाधारण शक्तियों से युक्त विशेष सुरक्षा बल का गठन राज्य की मंशा पर संदेह पैदा करता है। यही नहीं इस अधिनियम पर राज्य विधान मंडल में पर्याप्त चर्चा भी नहीं की गई, विधान परिषद जैसे सदन में जहां विपक्ष बहुमत में है बिना विश्वास में लिये ही आनन-फानन में पास पारित करा लिया गया।

यह सब प्रदर्शित करता है कि कोई निर्वाचित सरकार प्रचंड बहुमत के बल पर कैसे जनविरोधी व अनावश्यक कानूनों का निर्माण कर सकती है। राज्य का यह कदम नौकरशाही में जैसा कि आजकल देखने को मिल भी रहा है’ रूल आफ लॉ’ के प्रति उपेक्षा का भाव पैदा करेगा। जो अंततः संवैधानिक लोकतंत्र के कतई हित में नहीं होगा। संक्षेप में कहें तो यूपीएसएससएफ, यूपी पुलिस का ध्येय वाक्य “आपकी सुरक्षा, हमारा संकल्प” को “आपका जोखिम, हमारा संकल्प” मे तब्दील कर देता है।

(रमेश यादव इलाहाबाद उच्च न्यायालय में प्रतिष्ठित वकील हैं।)

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