Saturday, April 20, 2024

राम मंदिर का शिलान्यासः ताली-थाली बजाने वाली जनता ने नहीं जलाए दीप

सड़क के किनारे हम सब ने बारहा बार एक तमाशा ज़रूर देखा होगा। एक मदारी सांप और नेवले को पिटारी से निकालता है और उन्हें लड़ाने की बात करता है। इसके बाद वह सारे करतब दिखाता है, लेकिन सांप और नेवले की लड़ाई कभी नहीं दिखाता। नतीजा… अब लोग उसके झांसे में नहीं आते। दो-चार दस फालतू टाइप लोग मजमा ज़रूर लगाते हैं, लेकिन धीरे-धीरे वे भी सरकने लगते हैं।

यह किस्सा इसलिए कि मोदी सरकार के पांच अगस्त के राम मंदिर शिलान्यास के तमाशे का भी असर जनता पर उस तरह नहीं हुआ, जैसा कि संघ और बीजेपी के लोग उम्मीद कर रहे थे। लोगों को समझ में आने लगा है कि अच्छे दिन, एक करोड़ नौकरी, भ्रष्टाचार से मुक्त भारत, सभी के खातों में 15 लाख रुपये, काले धन की वापसी जैसे बड़े वादे सांप-नेवले की लड़ाई सरीखे ही हैं। ये वादे कभी पूरे नहीं होंगे। मदारी की तरह सांप-नेवले का जिक्र भी कभी नहीं होगा। इसके बदले बाकी सारे करतब जारी रहेंगे। 

संघ और बीजेपी ने आशा की थी कि मंदिर के शिलान्यास की रात को पूरे देश में दीपावली मनाई जाएगी, लेकिन देश भर में ऐसा कोई नजारा नहीं दिखा। कुछ लोगों ने दीये और पटाखे ज़रूर फोड़े लेकिन उनकी संख्या इतनी बड़ी नहीं थी कि यह कहा जाए कि शिलान्यास से देश भर में उल्लास का वातावरण रहा।

अब याद कीजिए पिछले साल 9 नवंबर, 2019 का दिन। उस दिन सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने बाबरी मस्जिद-राम जन्म भूमि मामले में अपना फैसला सुनाया था। यह फैसला मंदिर बनाने के पक्ष में गया था। फैसला आने के बाद उस दिन भी देश में कहीं कोई उल्लास का माहौल नहीं दिखा था।

दोनों ही मामलों के पक्ष में तर्क दिए जा सकते हैं। पांच अगस्त को हुए शिलान्यास के बाद देश में छाये सूनेपन को लेकर भक्त कहेंगे कि कोरोना के भय से लोगों ने खुशियां नहीं मनाई। अहम बात यह है कि अपने घरों पर दीये, मोमबत्ती या कुमकुमे जलाने के लिए घर से बाहर निकलने की जरूरत नहीं थी। सोशल डिस्टेंसिंग तोड़े बिना अपने घर की दीवारों और छतों पर दीये जलाने से किसने रोका था! लेकिन ऐसा वातावरण देश भर में कहीं नजर नहीं आया। गोदी मीडिया ने भले सेलेक्टेड घरों के वीडियो फुटेज दिखाकर पूरे देश में दीपावली मनवा दी। 

अब बात करते हैं 9 नवंबर, 2019 के फैसले के दिन का। कह सकते हैं कि उस दिन देश भर में कर्फ्यू का आलम था, खुशी कैसे मनाते। हकीकत यह है कि शाम तक कर्फ्यू के हालात खत्म हो गए थे। दीपक और मोमबत्ती जलाने जैसा उत्सव उस दिन भी कहीं नहीं दिखा था।

मार्क्स ने कहा है कि धर्म अफीम है। वैचारिक विरोध के बावजूद संघ परिवार ने इसे अपनी तरह से आत्मसात कर लिया और बहुसंख्यक आबादी को धर्म की अफीम लगातार चटा रहा है। अफीम के साथ एक मुश्किल भी है। कुछ दिनों बाद इसका नशा उतर जाता है। उसके बाद लोगों को भूख भी लगती है और दूसरी जरूरतें भी याद आती हैं।

शिलान्यास के दिन आम जनता की खामोशी बताती है कि अफीम का असर कम हो रहा है। देश की आर्थिक बदहाली से आई तबाही ने लोगों को बेजार कर के रख दिया है। पिछले कुछ महीनों में ही कई करोड़ लोगों की नौकरी जा चुकी है। बेरोजगारी पिछले बीस सालों में रिकॉर्ड स्तर पर है। लोगों की जेब में पैसे नहीं हैं। बच्चों की फीस तक जमा कर पाने की हैसियत एक बड़ी आबादी की नहीं बची है। यहां तक कि देश चलाने के लिए भी पैसे नहीं हैं। देश को न बिकने देने की बात कहने वाले सब कुछ बेच डालने पर आमादा हैं।

इन दिनों यूपी बोर्ड के फार्म भरे जा रहे हैं। बोर्ड फीस माफ करने के बजाए सरकार ने लगभग सौ रुपये का इजाफा कर दिया है। हमारे एक मित्र सरकारी सहायता प्राप्त इंटर कॉलेज में शिक्षक हैं। उन्होंने बताया कि तमाम अभिभावकों की आर्थिक स्थिति इस कदर खस्ता है कि बोर्ड फीस भरने तक के पैसे नहीं हैं। हाईस्कूल की लगभग पांच सौ और इंटर की तकरीबन छह सौ रुपये फीस है। पांच अगस्त को फार्म भरने की आखिरी तारीख थी। मित्र शिक्षक ने बताया कि सिर्फ तीस फीसदी बच्चों ने अब तक बोर्ड फीस भरी है। यही वजह है कि अब अंतिम तिथि 31 अगस्त तक बढ़ा दी गई है।

जरूरी था कि सरकारें फीस माफ करतीं, ताकि देश के नौनिहाल पढ़ सकते और उनके अभिभावकों को भी थोड़ी राहत मिल पाती। इसके उलट सरकार ने करोड़ों रुपये मंदिर के शिलान्यास की तमाशेबाजी पर खर्च कर दिए। इस तमाशेबाजी से किसका भला हुआ? यह एक बड़ा सवाल है।

केंद्र की मोदी सरकार इवेंट मैनेजमेंट में माहिर है। उसने कोरोना काल में भी लोगों से ताली और थाली पिटवा ली। उस वक्त देश भर के लोगों ने बड़े उत्साह से ताली और थाली पीटी थी। इसके उलट पांच अगस्त को राम मंदिर के शिलान्यास का इवेंट फेल हो गया। अलबत्ता इसके लिए आईटी सेल ने भरपूर कोशिश की थी। पूरा माहौल बनाया गया था। स्टिकर वायरल कराने से लेकर तमाम पोस्टें वाट्सएप और फेसबुक पर फैलाई गई थीं। गोदी मीडिया ने भी कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी, इवेंट के प्रचार-प्रसार में। ऐसा लगता था कि शिलान्यास होते ही देश की सारी समस्याएं खत्म हो जानी हैं।

नेहरू ने कभी कल-कारखानों को आधुनिक भारत का मंदिर बताया था। इस वक्त जब देश में आर्थिक बदहाली चरम पर है। लोगों को नौकरी की जरूरत है ऐसे में कल-कारखानों की जगह मंदिर बनाया जा रहा है। आर्थिक तंगहाली के शिकार करोड़ों लोगों को अब यह बात समझ में आने लगी है कि उनके लिए महत्वपूर्ण क्या है? देश में खुशहाली कैसे आएगी? तमाशेबाजी में लगी सरकार के लिए भी एक मुश्किल है, उसे हर बार एक नया तमाशा खड़ा करना पड़ता है। अब सरकार के तमाशे पहले खत्म होते हैं या जनता का धैर्य, यह जल्द सामने आने वाला है।

  •  कुमार रहमान

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

लोकतंत्र का संकट राज्य व्यवस्था और लोकतंत्र का मर्दवादी रुझान

आम चुनावों की शुरुआत हो चुकी है, और सुप्रीम कोर्ट में मतगणना से सम्बंधित विधियों की सुनवाई जारी है, जबकि 'परिवारवाद' राजनीतिक चर्चाओं में छाया हुआ है। परिवार और समाज में महिलाओं की स्थिति, व्यवस्था और लोकतंत्र पर पितृसत्ता के प्रभाव, और देश में मदर्दवादी रुझानों की समीक्षा की गई है। लेखक का आह्वान है कि सभ्यता का सही मूल्यांकन करने के लिए संवेदनशीलता से समस्याओं को हल करना जरूरी है।

Related Articles

लोकतंत्र का संकट राज्य व्यवस्था और लोकतंत्र का मर्दवादी रुझान

आम चुनावों की शुरुआत हो चुकी है, और सुप्रीम कोर्ट में मतगणना से सम्बंधित विधियों की सुनवाई जारी है, जबकि 'परिवारवाद' राजनीतिक चर्चाओं में छाया हुआ है। परिवार और समाज में महिलाओं की स्थिति, व्यवस्था और लोकतंत्र पर पितृसत्ता के प्रभाव, और देश में मदर्दवादी रुझानों की समीक्षा की गई है। लेखक का आह्वान है कि सभ्यता का सही मूल्यांकन करने के लिए संवेदनशीलता से समस्याओं को हल करना जरूरी है।