देश की बिगड़ती अर्थव्यवस्था ने देश की जीडीपी को अंध महासागर में धकेल दिया है। सरकार की असफल आर्थिक नीति नहीं बल्कि गलत आर्थिक नीति और अलगाववादी राजनैतिक एजेंडों को पूरी करने की सनक ने देश की अर्थव्यवस्था को तबाही और बर्बादी के उस मुहाने पर लाकर खड़ा कर दिया है जहां से एक-एक कर सारे सरकारी उपक्रम नीलामी की बाजार में सजाने के अलावा सरकार को कोई समाधान सूझ नहीं रहा है।
इसी बीच संसद सत्र 2020 के दौरान वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने एक अति महत्वपूर्ण इशारा करते हुए बतलाया कि वित्त मंत्रालय विवादित वित्तीय समाधान एवं जमा बीमा (FRDI) विधेयक पर काम कर रहा है। अपने भाषण में हालांकि उन्होंने ये नहीं बताया कि – इसे संसद में कब रखा जाएगा। लेकिन स्पष्ट संकेत दे दिया है कि जल्द ही ये बिल संसद के पटल पर होगा। यानि बैंकों के बढ़ते एनपीए और दिवालिया होते बैंकों को बचाने के लिए सरकार जनता के मेहनत की रकम को लूटने की स्कीम पर कार्य करने में शिद्दत से जुट गई है।
मैं अक्सर इस बिल के बारे में नोटबन्दी के बाद से लगातार बतलाता रहा हूं। यह एक ऐसा बिल है जो सबसे बड़ा आर्थिक स्कैम होगा। सरकार के आर्थिक षड्यंत्रों पर नजर रखने वाले कई व्यक्ति भी आज तक इस बिल से अनभिज्ञ हैं। इससे पहले भी जब-जब मैंने इस बिल के बारे में अपनी पोस्ट के जरिये लिखा था तो कई मित्रों ने बताया कि ये बिल वापस हो चुका है, मैंने उस समय भी इसका खंडन करते हुए कहा था कि केवल ठंडे बस्ते में डाला गया है, जब भी सरकार अर्थव्यवस्था पर चौतरफा घिर जाएगी तो इस बिल को वापस लाया जाएगा। वित्त मंत्री महोदया का ताजा संसदीय बयान आज मेरी इस आशंका को सही साबित करती है। आइये एक बार फिर से जानिये इस षड्यन्त्र को जो यक़ीनन नोटबन्दी से भी बड़ा घोटाला व स्कैम साबित होगा भविष्य में।
याद कीजिये सर्वप्रथम 10 अगस्त 2017 को लोकसभा में फाइनेंशियल रेज़्यूलेशन एंड डिपोज़िट इंन्श्योरेंस बिल को तत्कालीन वित्तमंत्री अरुण जेटली जी के द्वारा लाया गत था।
जानिए क्या है फाइनेंशियल रेज़्यूलेशन एंड डिपोज़िट इंन्श्योरेंस बिल (FRDI बिल) ?
● FRDI बिल के तहत सार्वजनिक क्षेत्र (पीएसयू बैंकों) को यह अधिकार दिया जा सकता है कि दिवालिया होने की स्थिति में बैंक खुद ये तय करेगा कि जमाकर्ता को कितने पैसे वापस करने हैं। यानि अगर बैंक डूबता है तो जमाकर्ता के सारे पैसे भी डूब सकते हैं।
● उस समय कुछ बुद्धिजीवी लोगों को इसकी भनक लग गयी थी। ये बात लोगों को पता चलने के बाद ऑनलाइन पेटीशन का दौर भी शुरू हो गया था। विवाद बढ़ता देख तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली की सफाई आई थी कि इस बिल से कम रकम जमा करने वाले उपभोक्ताओं को कोई नुकसान नहीं होगा। जेटली ने कहा कि सरकार इस बात के लिए प्रतिबद्ध है कि वो जमाकर्ताओं के धन की रक्षा करेगी। हालांकि इस बिल के अनुसार स्पष्ट है कि बैंक डूबने की स्थिति में आपको नहीं मिलेगा कोई पैसा। बैंकों में जमा आपका ही पैसा सुरक्षित नहीं रह पाएगा। बैंक आपका पैसा कभी भी जब्त कर सकेगा।
● जानकारी के लिए आपको बता दें कि करीब 63 फीसदी भारतीयों ने अपना पैसा सार्वजनिक या सहकारी बैंकों (पीएसयू बैंकों) में जमा कर रखा है। वैसे भी जब भी कोई व्यक्ति बैंक में पैसा जमा करता है तो उसके बदले में बैंक से किसी भी प्रकार की कोई गारंटी नहीं मिलती है। ये केवल सरकार का व्यवहारिक कर्तव्य माना गया है कि सरकार लोगों की रकम को सुरक्षा प्रदान करे। इस नजर से देखा जाए तो भारतीय असुरक्षित जमाकर्ता हैं। वहीं बात अगर दूसरे देशों की करें तो वहां पर लोग बैंक में कम पैसा जमा करते हैं।
● अगस्त 2017 से पहले की एक रिपोर्ट के अनुसार सरकारी बैंकों की बात करें तो बैंकों के एनपीए (नॉन पर्फॉर्मिंग एसेट) बैड लोन इस समय बढ़ कर छह लाख करोड़ से ज्यादा का हो गया था। भारत के सबसे बड़े सरकारी बैंक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया का एनपीए जून 2017 महीने में एक लाख 88 हजार करोड़ का हो चुका था जो वर्तमान समय में और भी तेजी के साथ बढ़ा है। ये आंकड़े अपने आप में सब कुछ दर्शा देते हैं। इन परिस्थितियों में अगर कोई बैंक डूबता है तो वो खुद को दिवालियापन से उबारने के लिए आम जनता के पैसों का इस्तेमाल करेगा और नए बिल के मुताबिक उसे ये अधिकार मिल सकता है कि वह जमाकर्ता को कितना पैसा वापस करेगा।
● इस बिल के एक नियम के अनुसार (जिसकी पुष्टि वर्ष 2017 में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने भी की थी)। अगर बैंक में आपकी 10 लाख रुपये तक की राशि जमा है और बैंक डूबे तो केवल 1 लाख रुपये तक की राशि वापस मिलेगी। बाकी पैसा बैंक खुद को संभालने के लिए निगल जाएगा। इन सब के बाद आप कोर्ट में केस भी नहीं कर पाएंगे क्योंकि सरकार ने खुद ही बैंक को ये अधिकार दे रखा है।
● बैंक हर जमाकर्ता को एक लाख रुपये तक की गारंटी देता है। ये गारंटी डिपॉजिट इन्श्योरेंस एंड क्रेडिट गारंटी कॉरपोरेशन (डीआईसीजीसी) के तहत मिलती है। इसका मतलब ये है कि अगर जमाकर्ता ने 50 लाख रुपये भी जमा कर रखे हैं और बैंक डूबता है तो सिर्फ एक लाख रुपये ही मिलने की गारंटी है। बाकी रकम असुरक्षित क्रेडिटर्स के क्लेम की तरह डील की जाएगी।
● इस विवादित बिल के चैप्टर 4 सेक्शन 2 के मुताबिक रेज़ोल्यूशन कॉरपोरेशन रेग्यूलेटर से सलाह के बाद ये तय करेगा कि फाइनेन्शियल रेज़्यूलेशन एंड डिपोज़िट इंन्श्योरेंस बिल, दिवालिया बैंक के जमाकर्ता को उसके जमा पैसे के बदले कितनी रकम दी जाए, वो तय करेगा कि जमाकर्ता को कोई खास रकम मिले या फिर खाते में जमा पूरा पैसा।
● यानी अब साजिश के तहत ऐसे सहकारी बैंकों को दिवालिया घोषित कर देश की सम्पत्ति पर कुंडली मारकर कुछ व्यक्ति बैठने वाले हैं। स्वघोषित चौकीदार की चौकीदारी का प्रतिफल सामने आ रहा है।
इस बिल के पारित होने का मतलब क्या होगा इसका आप सहज अंदाजा लगा सकते हैं। इस बिल को अगर नोटबन्दी की घटना से जोड़कर देखें तो बहुत कुछ स्पष्ट हो जाएगा।
याद कीजिये 8 नवंबर 2016 के उस संभावित सबसे बड़े घोटाले के आधिकारिक ऐलान को जब देश के स्वघोषित चौकीदार प्रधानमंत्री ने 500 और 1000 के नोटों को अचानक बंद करने का फैसला लिया था और जनता को बैंकों में अपने पुराने नोट बदलवाने के लिए 30 दिसंबर 2016 तक यानी 50 दिनों की समय सीमा दी गयी थी। उस समय इसे आतंकवाद, कालाधन, नक्सली हिंसा आदि पर मोदी का मैजिकल मास्टर स्ट्रोक बताया गया था।
विश्व भर में विख्यात महान अर्थशास्त्री के रूप में स्थापित पूर्व प्रधानमंत्री माननीय मनमोहन सिंह जी, पूर्व आरबीआई गवर्नर रघुराम जी राजन के अलावा देश के अनेक अर्थशास्त्रियों की चिंता को दरकिनार कर योग गुरु बाबा रामदेव, अरुण जेटली, परेश रावल, रवीना टण्डन, अक्षय कुमार, सहवाग,अनुपम खेर और तत्कालीन आरबीआई गवर्नर माननीय उर्जित पटेल जी के अर्थशास्त्र के ज्ञान को तवज्जो देते हुए नोटबन्दी को ऐतिहासिक बतलाया गया। उस समय पूर्व प्रधानमंत्री व जाने- माने अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह ने नोटबन्दी को स्वतंत्र भारत का सबसे सुनियोजित लूट व घोटाला बताया था। उन्होंने आगाह किया था कि नोटबन्दी के फ़ैसले से देश की जीडीपी 2% तक गिर जाएगी, आज मनमोहन सिंह के बयान का सच सामने आ गया है।
मुंबई के सामाजिक कार्यकर्ता मनोरंजन एस रॉय की आरटीआई के जवाब में सहकारी बैंकों की सर्वोच्च अपीलीय इकाई नाबार्ड के चीफ जनरल मैनेजर एस. सर्वनावेल ने जो जानकारी दी है वह बेहद चौकाने वाली है।
इस आरटीआई के अनुसार 8 नवंबर 2016 को नोटबंदी के ऐलान के बाद 5 दिन के अंदर अहमदाबाद ज़िला सहकारी बैंक में पुराने 500 और 1000 के नोट के रूप में तकरीबन 750 करोड़ रुपये की प्रतिबंधित करेंसी जमा हुई, जो किसी सहकारी बैंक में जमा हुई सर्वाधिक राशि है। और देश के सत्ताधारी दल बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह इस सहकारी बैंक के निदेशक हैं। बैंक की वेबसाइट के मुताबिक अमित शाह अब भी इस बैंक के निदेशक हैं और इस पद पर कई सालों से बने हुए हैं। साल 2000 में वे इस बैंक के अध्यक्ष रह चुके हैं। वित्तीय फर्म के मुताबिक बैंक में कुल 17 लाख खाते हैं, जिसमें सिर्फ 1.60 लाख ग्राहकों ने पुराने नोट जमा किए या बदले, जो कुल जमा खातों का मात्र 9.7 फीसदी है। इनमें से 2.5 लाख रुपये से भी कम पैसे 98.94% खातों में जमा किए गए।
अहमदाबाद के सहकारी बैंक के बाद सबसे ज्यादा प्रतिबंधित नोट राजकोट जिला सहकारी बैंक में जमा हुए, जिसके चेयरमैन जयेशभाई विट्ठलभाई रदाड़िया हैं, जो वर्तमान समय में गुजरात की विजय रूपानी सरकार में कैबिनेट मिनिस्टर हैं। यहां 693.19 करोड़ मूल्य के पुराने नोट जमा हुए थे। नोटबन्दी के बाद गुजरात में बीजेपी नेताओं द्वारा चलाये जा रहे 11 जिला सहकारी बैंकों में नोटबंदी के दौरान सिर्फ 5 दिनों में 14,300 करोड़ रुपये जमा किए गए हैं।
अब जरा याद कीजिये अतीत के उन दिनों को जब सरकार ने पांच दिनों के बाद पुराने करेंसी के जमा करने के नियम में तब्दीली करते हुए निर्देश दिया कि किसी भी सहकारी बैंक में प्रतिबंधित करेंसी नहीं बदली जाएगी। एक चौकाने वाली बात यह भी है कि गुजरात के सबसे बड़े सहकारी बैंक “गुजरात सहकारी बैंक लिमिटेड” में इन दोनों सहकारी बैंकों के मुकाबले बेहद कम (लगभग 1.1 करोड़ रुपये) जमा हुए थे ।
उस समय 30 दिसंबर 2016 को महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता पृथ्वीराज चव्हाण ने आरोप लगाया था कि अहमदाबाद के एक सहकारी बैंक में 500 करोड़ रुपये जमा होने के तीन दिन बाद सरकार ने सहकारी बैंकों द्वारा प्रतिबंधित नोट स्वीकार न करने का फैसला लिया है। उन्होंने यह भी कहा था कि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह इस बैंक के निदेशक हैं लेकिन उस समय इस आवाज को दबा दिया गया।
वर्तमान बजट के दौरान वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने एक अहम घोषणा जरूर किया कि- बैंकों के डूबने की स्थिति में खाताधारकों की पांच लाख तक की रकम सुरिक्षत रहेगी। सवाल उठता है कि आखिर वित्तमंत्री महोदया को ऐसी घोषणा की जरूरत क्यों पड़ी ? क्या वाकई बैंकों की साख तेजी से नीचे गिर रही है ? क्या यह फैसला बैंकों पर जनता के गिरते भरोसे के कारण लेना पड़ा या फिर ये संकेत है कि बैंक डूब रहे हैं ?
और फिर क्या यह घोषणा इस FRDI बिल से सम्बन्ध रखेगी भी या नहीं ? सवाल कई हैं लेकिन जवाब एक भी नहीं। चारों तरफ केवल गिरती अर्थव्यवस्था के बीच आम जनमानस के मेहनत की रकम पर सरकारी डाका पड़ने की आशंकाएं बलबती होती जा रही हैं।
(दयानंद स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)