अपनी-अपनी गुलामी चुनने की आज़ादी

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‘बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे/बोल ज़बाँ अब तक तेरी है/तेरा सुतवाँ जिस्म है तेरा/…जिस्म-ओ-ज़बाँ की मौत से पहले/बोल कि सच ज़िंदा है अब तक/बोल जो कुछ कहने हैं कह ले। फैज़ ने जेल में लिखी थी यह नज़्म। उन्होंने यह भी लिखा था कि उनकी कलम छिन जाए तो भी कोई गम नहीं, क्योंकि: “खूने दिल में डुबो लीं हैं उंगलियां मैंने।‘ आज की सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक परिस्थितियों को देखते हुए, बोलने, लिखने की आजादी के कई गहरे अर्थ भी सामने आ रहे हैं। 3 फ़रवरी, 1942, के ‘हरिजन’ में गांधी जी लिखते हैं: “सिर्फ व्यक्तिगत आज़ादी ही समाज को प्रगतिशील बना सकती है। यदि उससे यह छीन ली जाए तो वह बस एक मशीन बन जाता है और समाज बर्बाद हो जाता है। व्यक्ति की आज़ादी छीन कर कोई समाज विकसित नहीं हो सकता। यह इंसान की फितरत के खिलाफ है।”

रूसो कहते थे कि इंसान आजाद ही पैदा हुआ है पर हर जगह वह जंजीरों से बंधा है। एक दिलचस्प कहानी है इस बारे में। इसका नायक एक लम्बे समय से बेड़ियों में बंधा होता है। उसे जंजीरों की आदत ही पड़ जाती है। एक दिन उसे एक लोहार मिलता है और उससे कहता है,’ तुम्हारी ये जंजीरें तो मैं मिनटों में काट कर हटा सकता हूँ’। उसे बड़ा आश्चर्य होता है क्योंकि उसने कभी सोचा ही नहीं था कि बेड़ियाँ हट भी सकती हैं। जैसे ही लोहार उसकी जंजीरों को काट कर अलग करता है वह लोहार के सामने झुक जाता है और कहता है: ‘आपने मुझ पर जो अहसान किया है उसके लिए मैं आजीवन आपका आभारी रहूँगा और आपका गुलाम बन कर आपकी सेवा करता रहूँगा!

आजादी की तलब और परतंत्रता की कामना दोनों ही हमारी चेतना में साथ साथ बसती हैं। अक्सर हम अपने अपने पिंजरों को चुनने की आजादी को ही असली आजादी मान बैठते हैं। यदि आप एक ही पिंजरे में ही हैं तो आप गुलाम हुए और यदि आप के पास कई पिंजरें हों, और आप उनमें से अपना पसंदीदा पिंजरा चुन लें तो आप को आजाद होने का भ्रम हो सकता है। जिन दिनों लोग इंसानों को गुलाम बनाते थे उस समय जो आका अपने गुलामों को खाना दे दे, उसे बड़ा करुणावान माना जाता था, क्योंकि वह उन्हें खाना देता था! तो आजादी के अर्थ देश काल परिस्थितियों पर भी निर्भर करते हैं।

एक स्तर पर आजादी तो सबसे अधिक जरुरी है। राजनीतिक आजादी हर इंसान का जन्मसिद्ध अधिकार है पर यह भी दुनिया के कई देशों में लोगों को नसीब नहीं हुई। कई बदनसीब देशों में एक ही तानाशाह के शासन में कई पीढ़ियों ने अपने जीवन बिता दिए हैं। पर आजादी के गहरे अर्थ हैं और सामाजिक-राजनीतिक आजादी न होने की वजह से ही हम इन गहरे अर्थों की पड़ताल नहीं कर पाते। जिस समाज में करोड़ों लोग सिर्फ अपना दाना पानी जुटाने में पूरी ज़िन्दगी खटते हों, और चंद लोगों के पास, सिर्फ तीन या चार फ़ीसदी लोगों के पास समूची दुनिया का धन और संपत्ति इकट्ठा हो जाये, तो क्या उस समाज को आजाद कहा जाएगा? बिल्कुल भी नहीं।              

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर अजीबो गरीब हालात बने हुए हैं। जिन्हें बोलना चाहिए वे चुप्पीवादी हो गए हैं, और जिनकी जुबान पर ताले लग जाने चाहिए वे लगातार ऊटपटांग बके जा रहे हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ सिर्फ यह शर्त लगायी जा सकती है कि वह हिंसा के रूप में व्यक्त न हो। अभिव्यक्ति के नाम पर कमज़ोर वर्गों, महिलाओं और बच्चों का शोषण न हो। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से। यदि मैं मूढ़ हूँ, मूर्ख हूँ या अतार्किक हूँ तो भी मुझे अपनी बातें कहने का हक़ या नहीं? है| पर वहीं तक जब तक मैं हिंसक तरीके नहीं अपनाता। पर जिस स्वतंत्रता की परिभाषा को शासक तय करें, मालिकान, नियोक्ता तय करें, घर का मुखिया तय करे वह आज़ादी नहीं, एक सौदा है, सुविधा पर आधारित।

मौजूदा सरकार तो यह भी सुनिश्चित करना चाहती है कि लोग क्या पढ़ें, क्या खाएं और कैसे कपड़े पहनें, कैसी फ़िल्में देखें। क्या बोलें, कब और कितना। लोकतंत्र के भीतर ही भीतर एक ऐसी तानाशाही प्रवृत्ति भी पनप रही है जो आने वाले समय में खतरनाक साबित होगी। यह भी माना जा सकता है कि बोलने की आज़ादी के राजनीतिक अर्थ कुछ और हैं, सांस्कृतिक और धार्मिक अर्थ कुछ और। कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि इतिहास में शुरू से ही धर्म और राजनीति बोलने की आज़ादी को परिभाषित करते हैं।

गैलीलियो ने साबित कर दिया कि धरती सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करती है फिर भी चर्च ने उससे लिखवाया कि ऐसा नहीं है। क्योंकि बाइबिल कुछ और कहती है। गैलीलियो ने चर्च के वक्तव्य पर अपने दस्तखत किये और आखिर में लिखा: “फिर भी धरती ही घूमती है।” समाज के सबसे क्रूर शोषक वर्ग का प्रतिनिधित्व धर्मगुरु और राजनेता करते हैं।

ईशनिंदा को लेकर भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक नहीं होनी चाहिए। यह देखना ज़रूरी है कि ईशनिंदा क्या वास्तव में ईश्वर की निंदा है या उनकी निंदा है जो तथाकथित ईश्वर के नाम पर धंधा कर रहे हैं? ईश्वर जैसी कोई सत्ता होगी भी तो उसे निंदा-स्तुति से क्या फ़र्क़ पड़ता होगा? ईशनिंदा तो ईश्वर के बारे में प्रचलित धारणाओं की निंदा है। यह तो हमारा बनाया हुआ ईश्वर है, और एक वैज्ञानिक तरीके से उसके अस्तित्व पर सवाल उठाने की स्वतंत्रता के बिना किसी समाज में प्रगति होना कैसे संभव है? सलमान रश्दी पर हाल ही में जिस तरह से नृशंस हमला हुआ, यह दर्शाता है कि अपनी हजारों साल की धार्मिक परंपराओं के बावजूद हम जाहिल बने हुए हैं। ऐसे हमले किसी भी धर्म की तरफ से हों, और किसी पर भी हों, इस बात से फर्क नहीं पड़ता|  

प्रेस की आज़ादी को लेकर भी कई भ्रम हैं। जो प्रेस की आज़ादी की बात करते हैं, वे यह भूल जाते हैं कि वह अखबार के मालिक द्वारा परिभाषित होती है। अखबार के मालिक की आज़ादी उस राजनीतिक पार्टी से नियंत्रित होती है जिसका वह सदस्य होता है या होना चाहता है। और उस राजनीतिक दल की परिभाषा तय होती है उसकी सत्तालोलुपता से। यह एक दुष्चक्र है जिसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सही-गलत परिभाषाओं के जंगल में खो कर रह जाती है। सत्ता पर बैठे लोगों का भय और लोभ ही आजादी पर रोक लगाने की बात करता है।

कम्युनिस्ट देशों का यही हाल रहा है। स्टालिन के बाद सोवियत समाज के स्टालिनीकरण से मुक्ति की जिम्मेदारी ली थी ख्रुश्चेव ने खुद पर। एक बैठक में जब वह स्टालिन की आलोचना कर रहा था तो किसी ने पूछा: “सर, आपने ये बातें स्टालिन के सामने क्यों नहीं कहीं ?” ख्रुश्चेव ने दहाड़ कर पूछा: ” कौन बोला?” श्रोताओं में चुप्पी छा गयी। थोड़ी देर बार ख्रुश्चेव ने कहा: “जिस वजह से आप अभी नहीं बोल रहे, उसी वजह से मैं उस समय नहीं बोला।”

क्या अतार्किक बातों को कहने की आजादी होनी चाहिए? क्या तांत्रिक ओझा, नीम हकीमों, मुल्लों, बाबाओं को अपनी ऊटपटांग बातें व्यक्त करने की आजादी दी जानी चाहिए? कोई सड़क पर नग्न घूमे तो उस पर अश्लीलता का आरोप लग जायेगा, पर वह यदि नागा सम्प्रदाय का सदस्य हो तो उसे यह आज़ादी मिलनी चाहिए? क्या सलमान रश्दी को अपनी बातें कहने के लिए हिंसा का शिकार होना चाहिए? कोई कहे कि हिन्दुओं के चार पांच या दस बच्चे होने चाहिए, और ऐसा कहते समय वह यह न सोचे कि देश के सीमित संसाधनों, और एक व्यक्ति की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी पर क्या असर पड़ेगा, तो क्या ऐसे वक्तव्य अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तहत आने चाहिए? किसी भी धर्म का नेता दूसरे धर्म के लोगों के खिलाफ आग उगले, तो आवश्यक रूप से उसके खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं की जाती? इस तरह के कई प्रश्न हैं जिनपर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर दुनिया में कई दोहरे मापदंड हैं। होलोकॉस्ट(यहूदियों के नरसंहार) के समर्थन में, या उसे नकारने से सम्बंधित कोई बात आपको यूरोप के 17 देशों में जेल की सजा दिलवा सकती है। फ्रांस जिस हद तक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करता है, ब्रिटेन उस हद तक न जा कर इसमें संयम बरतता है। इस्लाम और उसके प्रतीकों के विरोध या उसका मखौल उड़ाने को लेकर पश्चिमी देश जिस आज़ादी की बात करते हैं, वही मापदंड यहूदी समुदाय पर लागू नहीं होता। यहूदियों के मामले में वे काफी संवेदनशील हैं। कुल मिलाकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मामला काफी उलझ गया है। इसमें धर्म, राजनीति, सत्तासीन दल या शासक, परम्पराएँ और ऐसी ही कई और बातें बीच में आ गई हैं। हम वहीं तक इसका समर्थन करते हैं, जहाँ तक वह उस ज़मीन को न हिलाए जिस पर हम खड़े हैं। बाकी तो पाखंड, दोहरे मापदंड और तरह-तरह के झूठ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ बहुत करीब से जुड़े हैं।

यह भी एक सवाल है कि क्या आजादी किसी चीज़ के सन्दर्भ में, किन्ही ख़ास परिस्थितियों में ही होती है या अपने आप में भी आजादी जैसी कोई शै है?  

(चैतन्य नागर पत्रकार, लेखक और अनुवादक हैं। आप आजकल इलाहाबाद में रहते हैं।)

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