Saturday, April 20, 2024

गांधी की दांडी यात्रा-16: और अंततः गिरफ्तार कर लिए गए गांधी

गांधी की दांडी यात्रा और नमक सत्याग्रह, एक प्रतीकात्मक आंदोलन था और उसका उद्देश्य, जनता को सविनय अवज्ञा आंदोलन के लिए एकजुट करना था। 6 अप्रैल, 1930 को, दांडी में ही, नमक कानून तोड़ने के बाद, फ्री प्रेस जर्नल, अखबार से बात करते हुये गांधी ने कहा था कि, “चूंकि नमक कानून का तोड़ना, कानून का एक तकनीकी या औपचारिक उल्लंघन है, जिसे आज किया जा चुका है, तो, अब, यह (नमक कानून का उल्लंघन) किसी के लिए भी खुला है, जो नमक कानून के तहत, मुकदमा चलाने का जोखिम उठाएगा, वह, जहां भी चाहे और जहां भी, उसे सुविधाजनक लगे, नमक का निर्माण करने के लिए आजाद है। मेरी सलाह है कि, एक सत्याग्रही को हर जगह, नमक बनाना चाहिए और जहां वह, साफ नमक बनाना जानता है, उसे इसका उपयोग करना चाहिए और ग्रामीणों को ऐसा करने का निर्देश देना चाहिए, साथ ही ग्रामीणों को यह भी बता देना चाहिए कि उस पर (इस तरह से, नमक बनाने के लिये) मुकदमा भी चलाया जा सकता है।” 

गांधी इस आंदोलन को, एक सप्ताह, 6 अप्रैल 1930 से 13 अप्रैल 1930, तक लगातार चलाये जाने का आह्वान करते हैं और इस अवधि को, वे राष्ट्रीय सप्ताह घोषित करते हैं। 

वे आगे कहते हैं, “इस प्रकार, राष्ट्रीय सप्ताह के दौरान 13 अप्रैल तक, नमक कर के खिलाफ युद्ध जारी रखा जाना चाहिए। जो लोग अब, इस पवित्र कार्य में लगे हुए हैं, उन्हें विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार और खद्दर के उपयोग के, जोरदार प्रचार के लिए खुद को समर्पित कर देना चाहिए। उन्हें भी अधिक से अधिक खद्दर बनाने का प्रयास करना चाहिए। इस संबंध में और मद्य-निषेध के संबंध में मैं भारत की उन महिलाओं के लिए एक संदेश तैयार कर रहा हूं, जिनका मुझे विश्वास हो रहा है कि, वे स्वतंत्रता प्राप्ति में पुरुषों की तुलना में बड़ा योगदान दे सकती हैं। मुझे लगता है कि वे पुरुषों की तुलना में अहिंसा के अधिक योग्य व्याख्याकार होंगी, इसलिए नहीं कि वे (शारीरिक रूप से) कमजोर हैं, जैसा कि, पुरुष अपने अहंकार में उन्हें मानते हैं, बल्कि इसलिए कि, उनमें, अधिक साहस और आत्म-बलिदान की असीम भावना, अपेक्षाकृत अधिक भावना है।” 

(महात्मा गांधी, कलेक्टेड वर्क्स, 49:34-35)

राष्ट्रीय सप्ताह की सोच भी, अनायास नहीं आ गई थी। बल्कि राष्ट्रीय सप्ताह के कालखंड, की दोनों तिथियां, 6 अप्रैल और 13 अप्रैल की तारीखों का, अपना ऐतिहासिक महत्व है। नमक सत्याग्रह की तिथि 6 अप्रैल, इसलिये तय की गई थी कि, 6 अप्रैल 1919 को, रौलेट एक्ट के विरोध में, पहली आम हड़ताल हुयी थी और 13 अप्रैल की तिथि इसलिए तय की गई थी, कि, 13 अप्रैल 1919 को ही अमृतसर के जलियांवाला बाग में, जघन्य नरसंहार हुआ था। इन दोनों ऐतिहासिक तारीखों के बीच की अवधि को राष्ट्रीय सप्ताह के रूप में, गांधी जी ने घोषित किया। यहां यह कहना समीचीन होगा कि, जलियांवाला बाग नरसंहार के बाद ही, न केवल पंजाब बल्कि देशभर में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ जनता का आक्रोश सतह पर आ गया था और इसकी धमक लंदन तक भी पहुंची थी। 

इस नरसंहार पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुये, गांधी के अंग्रेज मित्र और पादरी चार्ल्स एंड्रयूज ने कहा था, “भारत और दुनिया भर में, अंग्रेजी राज ने, अपना सम्मान खो दिया है।” एनी बेसेंट ने इस गोलीबारी की तुलना बेल्जियम में हुए, जर्मन युद्ध अपराधों से की। एमए जिन्ना ने इसे “कसाई द्वारा किया गया हिंसक कृत्य” कहा। यहां तक कि,  नरमपंथी और ब्रिटिश राज के वफादार, तथा गांधी जी से सदैव असहमत रहने वाले, श्रीनिवास शास्त्री ने भी, इस नरसंहार, और उसके बाद होने वाली कोड़े मारने और गिरफ्तारियों को “बर्बर” कहा। इंडियन नेशनल कांग्रेस ने एक बयान जारी कर इस घटना की भर्त्सना की, और कहा, “आधुनिक समय में एक ऐसा कृत्य जिसकी कोई मिसाल नहीं है।”  देश भर में गुस्से में जनसभाएं हुईं।कवि रवींद्रनाथ टैगोर ने विरोध में, ब्रिटिश सम्मान नाइटहुड (सर की उपाधि) वापस लौटा दिया था। यह घटना, स्वाधीनता संग्राम का एक महत्वपूर्ण, परिवर्तन बिंदु था। 

गांधी जी द्वारा, फ्री प्रेस को दिए गए इंटरव्यू के इस अंश से यह स्पष्ट हो जाता है कि, दांडी की यात्रा और नमक सत्याग्रह के द्वारा गांधी, देश का सामूहिक जन जागरण कर के, जनता को, सम्पूर्ण स्वराज्य के लिये उद्वेलित और मानसिक रूप से तैयार करना चाहते थे, और सरकार के इरादे की भी थाह लेना चाहते थे, कि आखिर सरकार, इस सत्याग्रह और जगह-जगह हो रहे आंदोलनों पर, किस तरह की प्रतिक्रिया करती है। देश मे एक भी ऐसा इलाका नहीं बचा था, जहां सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत न हो गई हो। कहीं-कहीं तो यह आंदोलन, स्वत:स्फूर्त भी था। सरकार ने दमन भी किया। गिरफ्तारियां हुईं और कराची में गोली भी चली। गांधी, कलकत्ता और कराची की घटना से मर्माहत भी थे। वे बिल्कुल नहीं चाहते थे, कि, चौरीचौरा जैसी घटना फिर से दुहराई जाय। उनके हर भाषण, हर निर्देश में, अहिंसा का मंत्र, अनिवार्य रूप से शामिल होता था। 

देशव्यापी जनआंदोलन और सरकार के दमन के बीच, गांधी अपनी अगली योजना पर अमल करने की सोच रहे थे। इसी बीच उन्होंने, 17 अप्रैल 1930 को, फ्री प्रेस को पुनः एक साक्षात्कार दिया। इस साक्षात्कार में उन्होंने, कलकत्ता और कराची में हुए दंगों पर अपनी बात कही। वे कहते हैं, “कलकत्ता और कराची में तथाकथित दंगों के बारे में निश्चित रूप से कुछ भी बोलना मेरे लिए अभी जल्दबाजी होगी।  मेरी आंखें, अपने सामने घटने वाली घटनाओं के अत्यधिक अतिरंजित विवरणों और विकृत संस्करणों की अभ्यस्त सी हो गयी हैं।

मैं काफी हद तक, लोगों द्वारा की गई, हिंसा की कहानियों को खारिज करना चाहता हूं।…. मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है कि, इस तरह की हिंसा, हमारे संघर्ष (स्वाधीनता संग्राम) को नुकसान पहुँचाती है, और साथ ही ऐसी हिंसक गतिविधियां,  संघर्ष को, भटकाती भी हैं। अहिंसा को यदि, सरकार के साथ-साथ, जनता की हिंसा से भी लड़ना है, तो, उसे किसी भी कीमत पर, इस दुष्कर कार्य को करना होगा। मुझे इससे बचने का कोई भी रास्ता नहीं दिख रहा है।”

वे आगे कहना जारी रखते हैं, “अभियान (सविनय अवज्ञा आंदोलन) की शुरुआत में ही मैंने, यह घोषणा कर दी थी कि, लोगों की ओर से कुछ हिंसा भड़कने की पूरी संभावना है। ऐसा लगता है कि अब सब (सब्र) टूट गया है, लेकिन, यह (हिंसा का मार्ग) मुझे चोट पहुँचाता है, वह भी, केवल इसलिए कि, यह उद्देश्य (स्वाधीनता प्राप्ति) को चोट पहुँचाता है! (हम सबको) इस लक्ष्य (स्वराज्य प्राप्ति का) को, जीवन से भी अधिक प्रिय समझ कर, थामे रहना है।”

हिंसा के लिये सरकार को दोषी ठहराते हुये, गांधी आगे कहते हैं, “लेकिन मैं यह कहूंगा, कि सरकार ने, शांतिपूर्ण हो रही जनसभाओं को, जहां कोई हिंसा भी नहीं हुई थी, को तितर-बितर करने के लिए बल प्रयोग किया। जनसभाओं और जुलूसों पर पूरी तरह से रोक लगा दी गई। सरकार का यह क़दम, हिंसा को भड़काने वाला है। सरकार ने, जानबूझ और सोच समझ कर, उन नेताओं को उठाया और जेल भेजा, जो, अहिंसा के प्रति अपने दृष्टिकोण के लिये प्रतिबद्ध हैं, और  लोगों पर, यह अपने प्रभाव से, नियंत्रण बनाये रख सकते थे।”

सरकार के इस कदम को भड़काऊ बताते हुए, गांधी आगे कहते हैं कि, 

“यह चमत्कार ही होता, यदि, लोगों की स्वतंत्रता के साथ इस (सरकारी) घोर हस्तक्षेप के कारण, आसानी से भड़क जाने वाले, कुछ लोगों ने, प्रतिशोध नहीं लिया होता तो, और ऐसे लोग, दुनिया के हर समुदाय और  सभी हिस्सों में पाए जाते थे। गुजरात को ही ले लीजिए, धोलेरा और वीरमगाम के पास के रास्ते में, निहत्थे श्रमिकों पर अशोभनीय और निंदनीय अत्याचार किए जाने की बात कही जा रही है। उनका एकमात्र अपराध यह था कि, वे अपने पास रखे गए नमक को, आसानी से नहीं छोड़ रहे थे। मैं नहीं जानता कि, भारत के बाहर, किसी भी सभ्य सरकार के तहत, पुलिस को यह अधिकार दिया गया है कि, वह लोगों से कुछ भी छीन ले, जब तक कि वह (व्यक्ति और वह वस्तु) खतरनाक प्रकृति का न हो।” 

इंटरव्यू में गांधी, सरकार के कानून लागू करने के रवैये पर कहते हैं, 

“(सरकार के पास) कानून का अधिकार होने के कारण, इस प्रकार की अभद्र यातना का प्रदर्शन, पूरी तरह से असहनीय है और लोगों का धैर्य समाप्त करने के लिए, जिम्मेदार है। स्पष्ट तथ्य यह है कि, सरकार शांति नहीं चाहती। मैंने देखा कि, श्री जयरामदास दौलतराम की जांघ में गोली लगी है। मुझे इस बात की खुशी है कि, इस तरह किसी अनजान व्यक्ति के घायल होने के बजाय, श्री जयरामदास दौलतराम, घायल हैं। श्री जयरामदास, पूरे भारत के, महानतम व्यक्तियों में से, एक हैं।  अगर वह भीड़ में होते तो, वह लोगों को हिंसा के लिए नहीं उकसाते, बल्कि, वे हिंसा रोकने की कोशिश करते।”

जयराम दास दौलतराम कराची के एक सत्याग्रही थे जो सागर तट पर नमक बना कर सत्याग्रह कर रहे थे, जो, पुलिस की गोली से घायल हो गए थे। 

सरकार के इस बर्बर दमन पर गांधी आगे कहते हैं, “इस तरह के निर्दोष जनता के खून बहने से, आंदोलन का अंत तो, जल्दी हो जाएगा, लेकिन इस तरह के हताहतों की संख्या, लोगों की बढ़ती आक्रोशित प्रतिक्रिया और उनकी हिंसक अभिव्यक्ति का कारण बनने लगेगी। जिन लोगों तक मेरा यह संदेश पहुंच सकता है, उन्हें मैं चेतावनी देता हूं कि, यदि वे खुद पर नियंत्रण नहीं रख सकते हैं तो, उन्हें इस संघर्ष में नहीं भाग लेना चाहिए। और यदि वे ऐसा करते हैं, तो वे, केवल देश की प्रगति को उसके लक्ष्य (स्वराज्य प्राप्ति) के प्रति बाधा बनेंगे।” 

गांधी जी को अब लगता है कि, अब उनकी गिरफ्तारी आसन्न है। वे इसकी आशंका में कहते हैं, “हालाँकि, मुझे पता है कि, जल्द ही मेरे शब्द, लोगों तक पहुँचना बंद हो जाएंगे।  मेरे पास जितने भी साधन हैं, वे मुझसे छीन लिए गए हैं, लेकिन वे मुझसे एक चीज नहीं छीन सकते हैं और वह है मेरा लक्ष्य और उस पर मेरा अटूट विश्वास। हम अपने सामने जो जन आंदोलन देखते हैं, वह मेरे द्वारा नहीं बल्कि ईश्वर द्वारा नियंत्रित किया जा रहा है। इसका प्रकटीकरण स्वतःस्फूर्त रहा है। इसके लिए, मार्गदर्शन आवश्यक तो है, लेकिन बहुत कम। मैंने जो कुछ गुजरात में घटित होते देखा है यदि वह भारत के अन्य प्रांतों में घटित घटनाओं का सूचक है, तो यह आन्दोलन काफी हद तक स्व-निर्देशित रहा है।  इसलिए, मुझे अभी भी पूरी उम्मीद है कि, संघर्ष के अंत में, हम यह कह सकेंगे कि, भले ही कभी-कभी खेदजनक हिंसा भड़क उठी हो, पर, यह (सविनय अवज्ञा आंदोलन) मुख्य रूप से अहिंसक ही बना रहा।” 

(बॉम्बे क्रॉनिकल, 18-4-1930, 

5 मई 1930 को, गांधी जी ने वायसरॉय को, अपने अगले सत्याग्रह, जो धरासन नमक कारखाने पर छापा और धरना से संबंधित था, की सूचना देने के लिए, एक पत्र तैयार किया जिसमें, सूरत जिले के धरासन और छरसाड़ा के नमक के कारखानों पर धरना देने का अपना स्पष्ट इरादा जाहिर कर दिया। उन्होंने वायसराय को लिखा : “भगवान ने चाहा तो, मेरा इरादा धरासन के लिए निकल कर अपने साथियों के साथ वहां पहुंचने का है और (वहां के) सॉल्ट वर्क्स पर, (जनता के) कब्जे की मांग करना है। जनता को बताया गया है कि, धरासन एक निजी संपत्ति है। यह महज छलावा है कि यह वायसरॉय के आवास के रूप में, सरकार के प्रभावी नियंत्रण में है। वहां, अधिकारियों की पूर्व अनुमति के बिना, एक चुटकी नमक भी नहीं, लिया जा सकता है।’

गांधी इस छापे का समाधान भी वायसरॉय को लिखे अपने पत्र में सुझाते हैं। वे आगे लिखते हैं, “आपके लिए इस छापे को रोकना संभव है, जो मैं, निम्न तीन उपायों में आप को बता रहा हूं, 

1. नमक कर हटाकर;

2. मुझे और मेरे साथ चल रहे सहयोगियों को गिरफ्तार करके, 

3. पूरी तरह से, खुली गुंडई से, जब तक कि, हर घायल सिर के बदले नए सिर आना बंद न कर दें। और मुझे आशा है कि यही होगा।”

गांधी का यहां आशय है कि, यदि बल प्रयोग के दौरान लाठियां चलती हैं तो घायल और टूटे सिर के बजाय शांतिपूर्ण तरीके से नए लोग सामने आ जाएंगे और धरासन सत्याग्रह जारी रखेंगे। गांधी ने यहां यह भी कह दिया कि, उन्हें उम्मीद है कि गुंडई से ही यह धरना रोका जा सकेगा। 

फिर वे अपने, संकल्प का उल्लेख करते हैं, “बिना किसी हिचकिचाहट के यह कार्यक्रम तय किया गया है।  मुझे आशा थी कि सरकार सविनय अवज्ञा आंदोलन के प्रतिरोधों का, सभ्य तरीके से मुकाबला करेगी। अगर सविनय प्रतिरोध करने वालों से निपटने में सरकार, कानून की सामान्य प्रक्रियाओं को लागू करने तक ही संतुष्ट रहती तो, मेरे पास कहने को कुछ भी नहीं होता। इसके (हिंसक दमन के) बजाय, महत्वपूर्ण नेताओं के साथ, उनके प्रतिरोध को, कम से कम, कानूनी औपचारिकता के अनुसार निपटा गया होता। सत्याग्रहियों पर, अक्सर वहशीपन से और कुछ मामलों में यहां तक कि, अभद्रता से हमला किया गया है। अगर ये इक्का-दुक्का मामले होते, तो शायद इन्हें नज़रअंदाज़ कर दिया जाता। लेकिन मेरे पास बंगाल, बिहार, उत्कल, यू.पी. से जो खबरें आई हैं, वे दर्दनाक हैं। 

दिल्ली, बंबई और गुजरात के अनुभव, जिस बर्बरता की पुष्टि करते हैं, उसके पर्याप्त प्रमाण मेरे पास उपलब्ध हैं। कराची, पेशावर और मद्रास में की गई गोलीबारी, अकारण और अनावश्यक प्रतीत होती है। (लोगों की) हड्डियाँ तोड़ दी गई हैं, उनके अंडकोश को निचोड़ लिया गया है ताकि, सत्याग्रही वॉलंटियर्स अपने हाथ में रखे, मूल्यवान नमक, और खुद को, सरकार के हाथों सौंप दें। कहा जाता है कि मथुरा में, एक सहायक मजिस्ट्रेट ने, एक दस वर्ष के बच्चे के हाथों से, राष्ट्रीय ध्वज छीन लिया था। बताया जाता है कि, अवैध रूप से ज़ब्त किए गए झंडे को, वापस करने की मांग करने वाले, लोगों को बेरहमी से पीटा गया। हालांकि बाद में, झंडे को वापस कर दिया गया था, क्योंकि मजिस्ट्रेट को लगा कि, यह (बच्चे के हाथ से झंडा छीन लेना) उनका (मजिस्ट्रेट का) अपराध बोध था। 

बंगाल में ऐसा प्रतीत होता है कि, नमक सत्याग्रह के बारे में, केवल कुछ अभियोग और हमले ही हुए हैं, लेकिन कहा जाता है कि इस कानून को लागू करने के लिये अकल्पनीय क्रूरता का पालन किया गया है। इसने (सरकारी दमन ने) सार्वभौमिक विरोध और सविनय अवज्ञा आंदोलन में, आक्रोश को जन्म दिया है। आप सविनय अवज्ञा आंदोलन की, जितनी चाहे, निंदा कर सकते हैं पर, क्या आप सविनय अवज्ञा आंदोलन की तुलना में, हिंसक विद्रोह को प्राथमिकता देंगे?  यदि आप कहते हैं, जैसा कि, आपने कहा है, कि सविनय अवज्ञा आंदोलन का अंत हिंसा में होगा, तो इतिहास यह फैसला सुनाएगा कि, ब्रिटिश सरकार, उस अहिंसा को न समझने के कारण, सहन न कर सकी और, मानव स्वभाव को, हिंसा की ओर ले गई, जबकि, वह समझ सकती थी और उससे निपट सकती थी। लेकिन मार्गदर्शन के बावजूद, मुझे आशा है कि, भगवान, भारत के लोगों को ज्ञान और शक्ति देंगे, ताकि वे, हिंसा के हर प्रलोभन और उकसावे का सामना कर सकें।”

अंतिम पैरा में गांधी कहते हैं, “इसलिए, आप नमक कर को हटाने और निजी नमक बनाने पर प्रतिबंध हटाने के लिए, कोई मार्ग नहीं ढूंढ सकते हैं तो, मुझे अपने पत्र के शुरुआती पैराग्राफ (धरासन पर छापे की योजना) में अनिच्छा से यात्रा शुरू कर देना चाहिए। 

(यंग इंडियो, 8-5-1930, महत्मा गांधी, कलेक्टेड वर्क्स 49:263)

यह गांधी का घोष था। सरकार को चेतावनी थी और शंखनाद था, एक अहिंसक आंदोलन का। अब यह उत्तरोत्तर स्पष्ट होता जा रहा था कि, सरकार का, यह आकलन कि, नमक सत्याग्रह आंदोलन में, सरकार की हस्तक्षेप न करने की नीति से, आंदोलन, स्वतः ठंडा पड़ जायेगा, सरकार की विफल रणनीतिक आकलन था। सच तो यह है कि, सरकार कभी भी, स्पष्ट रूप से यह तय ही नहीं कर पाई थी कि, इस आंदोलन से निपटने के लिये वह किस मार्ग का अनुसरण करे, और जैसा कि गांधी जी ने भविष्यवाणी भी की थी, कि, सरकार, ‘परेशान और भ्रमित’ थी। सरकार एक अजीब, दुविधा में फंस गई थी, कि, यदि वह गांधी को गिरफ्तार नहीं करती हैं’ तो आंदोलन तेज होता जाएगा और वह खुलेआम, अपने कानूनों की हो रही अवहेलना, देखती रहेगी, और यदि, वह, गिरफ्तार कर लेती है तब तो, और भीषण प्रतिक्रिया होती हैं।

लॉर्ड इरविन का दृष्टिकोण था कि गांधी को गिरफ्तार करने से बेहतर है, उनकी दांडी यात्रा को नज़रअंदाज कर दिया जाय। यह एक ऐसा जोखिम भरा जुआ था कि, सरकार, गांधी को गिरफ्तार करती या न करती, देशव्यापी जनआंदोलन तो होता ही और आगे हुआ भी। यानी, यदि सरकार, अपने कानूनों की खुलेआम अवहेलना करने वाले आंदोलन को नहीं दबा पाती, तो उसके प्रशासनिक अधिकार पर सवाल उठता और यह उसकी अक्षमता होगी, उसका नियंत्रण समाप्त हो जाएगा, उसे कमजोर समझा जाएगा, और अगर, सरकार इस आंदोलन को, दमन से, दबाती है तो इसे, एक क्रूर, जनविरोधी प्रशासन के रूप में देखा जाएगा, जिसने अहिंसक आंदोलनकारियों पर हिंसा का इस्तेमाल किया। “अगर सरकार, बहुत ज्यादा दमन करेगी, तो कांग्रेस “दमन” का रोना रोएगी।  .  .  यदि सरकार, मुरव्वत दिखाएगी, तो कांग्रेस “जीत” का नारा लगाएगी,” मद्रास के एक नागरिक ने 1930 की शुरुआत में इस तरह दुविधा व्यक्त भी की थी।

तेजी से बढ़ रहे आंदोलन ने, सरकार के पास उसके, उदार मुखौटे के पीछे छिपे औपनिवेशिक और साम्राज्यवादी, शक्ति को, प्रदर्शित करने के अलावा कोई विकल्प नहीं छोड़ा। ब्रिटिश सरकार के अधिकारियों, गवर्नरों, और सैन्य प्रतिष्ठान का, वायसरॉय पर, गांधी की गिरफ्तारी के लिये दबाव बढ़ने लगा और 4 मई को वायसरॉय ने, अंततः गांधीजी को गिरफ्तार करने की अनुमति, बंबई के गवर्नर को दे दी। 12 मार्च 1930 को, दांडी यात्रा के प्रारंभ करने के पहले ही, अपनी गिरफ्तारी से आशंकित गांधी, को सरकार ने तब गिरफ्तार करने का फैसला किया जब, वे धरासन स्थित साल्ट वर्क्स पर, धरने और छापे की योजना की घोषणा कर चुके थे। उन्होंने वायसरॉय को भेजे जाने वाले पत्र का मसौदा भी, 5 मई 1930 को, तैयार कर लिया था, पर उसी रात उनकी गिरफ्तारी भी हो गई।

4 मई 1930 को, वायसरॉय लॉर्ड इरविन, दुविधा से निकल कर, गांधी जी की गिरफ्तारी की अनुमति देते हैं और 5 मई 1930 को, आधी रात में, गांधी जी को गिरफ्तार करने के लिए कराडी में एक मजिस्ट्रेट, पुलिस बल के साथ पहुंच जाते हैं। 6 मई 1930 को, बंबई के अखबार, बॉम्बे क्रॉनिकल ने इस गिरफ्तारी का विस्तृत विवरण प्रकाशित किया, जो महात्मा गांधी के कलेक्टेड वर्क्स के खंड 49 के पृष्ठ 270 पर अंकित है। अखबार के अनुसार, एक मजिस्ट्रेट, गांधीजी की कुटिया की ओर बढ़े और उन्हें जगाया और कहा, “मेरे पास आपकी गिरफ्तारी का वारंट है, मिस्टर गांधी,” 

गांधीजी ने विनम्रता से कहा, “मैं, इस सूचना से हैरान नहीं हूं, लेकिन क्या आप मुझे वारंट पढ़कर सुनाएंगे?”

मजिस्ट्रेट ने गांधी जी के इस अनुरोध का अनुपालन किया और, वारंट को पढ़ा जिस पर बंबई के गवर्नर सर फ्रेडरिक साइक्स ने हस्ताक्षर किए थे।

वारंट इस प्रकार था, “जबकि सरकार श्री एम.के. गांधी की गतिविधियों को खतरे की दृष्टि से देखती है। वे निर्देश देते हैं कि उन्हें 1827 के नियम 25 के तहत हिरासत में रखा जाना चाहिए और, सरकार की इच्छानुसार, एमके गांधी को, कारावास का दंड, भुगतना चाहिए और उन्हें, तुरंत यरवदा सेंट्रल जेल भेज दिया जाना चाहिए।”

जब वारंट पढ़ा जा रहा था तब, गांधीजी मुस्कुरा रहे थे। गांधी जी ने कहा, “मैं आपके साथ जाने के लिए तैयार हूं, लेकिन क्या आप मुझे नहाने और अपने दांत साफ करने का अवसर देंगे ?”

“खुशी के साथ,” मजिस्ट्रेट ने कहा। इस बीच, पूरे आश्रम में खलबली मच गई और हर कोई गांधीजी से मिलने और उनसे, विदा लेने के लिए उत्सुक था। गांधी जी, स्नान कर लेने के बाद प्रार्थना करने के लिए कुटिया से बाहर आए। पूरा आश्रम प्रार्थना करने के लिए एकत्र हो गया था, जबकि गिरफ्तार करने आये पुलिस अधिकारी यह सब देखते रहे। प्रार्थना के बाद, गांधी जी ने, अपने कागजात एकत्र किए और उन्हें, अपने एक कार्यकर्ता को, सौंप दिया, जिसे उन्होंने, अपने जेल में रहने के दौरान, अपने सहायक के रूप में चुना था।

धरासन साल्ट वर्क्स पर छापा मारने की योजना ने, निश्चित रूप से सरकार को, गांधी की गिरफ्तारी के लिये मजबूर कर दिया। लेकिन गांधीजी की गिरफ्तारी का, यह समय, गलत ही साबित हुआ। गिरफ्तारी से, हड़ताल और सत्याग्रह के टूटने की कोई संभावना थी भी नहीं। गांधी, यदि बाहर रहते तो, हो सकता था, सत्याग्रहियों पर उनके विश्वास और नियंत्रण से, सरकार कुछ हद तक, कानून व्यवस्था को, संभाल सकती थी। आन्दोलन, जिस उच्च बिंदु पर आ गया था, उसमें,  इस गिरफ्तारी ने, सविनय अवज्ञा आंदोलन को और बढ़ावा देने का ही काम किया, और सरकार के लिए, इससे अंतहीन परेशानी खड़ी हो गई। 

(विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी हैं और आजकल कानपुर में रहते हैं।)

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