दलितों के प्रति मानसिकता के मामले में अभी तक तीन तरह के द्विज-सवर्ण हुए और आज भी हैं। पहले वे जो यह मानते रहे हैं और आज भी मानते हैं कि वर्ण-जाति व्यवस्था में दलितों के लिए जो सबसे निचले दर्जे का स्थान निर्धारित किया है, वे उसी के हकदार हैं और उन्हें सवर्णों की अधीनता में ही रहना चाहिए।
उन्हें हर स्तर पर सवर्णों के साथ समानता के अधिकार की मांग नहीं करनी चाहिए और न ही समानता के अधिकार के लिए संघर्ष करना चाहिए। न ही इसे व्यवहार में बरतने की कोशिश करनी चाहिए। इस मानसिकता के प्रतिनिधि उदाहरण लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक थे।
दूसरे तरह के वे द्विज-सवर्ण रहे हैं और हैं, जो मानते रहे हैं कि द्विज-सवर्णों को दलितों के प्रति उदारता का व्यवहार करना चाहिए। उनके प्रति कृपालु होना चाहिए। उन्हें इंसान समझना चाहिए।
ऐसे लोग एक कदम आगे बढ़कर छुआछूत का भी विरोध करते हैं, इनमें कुछ छुआछूत का व्यवहार भी नहीं करते हैं। ऐसे लोग कई बार दलितों के प्रति दयालु हो जाते रहे हैं और आज भी हो जाते हैं, उनके दुखों और अपमान के प्रति संवेदनशील होते हैं।
उनके कष्टों को दूर करने के लिए कुछ दान-धर्म करते हैं, कुछ उपाय भी सोचते हैं। उनके कुछ अधिकारों का भी समर्थन करते हैं।
कुछ उनके दुख से द्रवित होकर कविता, कहानी और लेख भी लिखते हैं। दलितों के मंदिर प्रवेश, पढ़ाई-लिखाई के अधिकार का भी समर्थन करते हैं। लेकिन हमेशा वे दलितों के प्रति कृपालु-दयालु मानसिकता में रहते हैं।
वे जब दलितों के साथ बैठकर खाना खाते हैं, तो उन्हें लगता है कि वे उन पर ‘कृपा’ कर रहे हैं। जब वे दलितों के टोले में चले जाते हैं, उनकी खाट पर उनके साथ बैठ जाते हैं, तो भी उन्हें लगता है कि वे उनके साथ कृपा कर रहे हैं।
इससे भी आगे बढ़कर वे यदि दलितों के मानवीय अधिकारों के बारे में लिखते हैं, तो लगता है कि वे कृपा कर रहे हैं, यहां तक की वे दलितों के हितों के लिए संघर्ष करते हैं, तो अधिकांश मामलों में कृपा की ही मानसिकता में रहते हैं।
इसके साथ ही वे दलितों से भी उम्मीद करते हैं कि वे उनकी कृपाओं के प्रति अहसानमंद हों, उनकी इन कृपाओं के बदले में उनके प्रति कृतज्ञता जाहिर करें।
इनमें कुछ सवर्ण यह सोचते हैं कि वर्ण-जाति व्यवस्था तो ठीक है, इसमें कोई बुराई नहीं है, लेकिन सभी वर्णों-जातियों के लोगों को आपस में मेल-जोल के साथ रहना चाहिए। समरसता बनाए रखनी चाहिए।
कुछ अन्य वर्ण-जाति व्यवस्था या जाति व्यवस्था को खराब भी मानते हैं, उसका विरोध भी करते हैं।
कृपालु और दयालु मानसिकता के ये दूसरे टाइप के सवर्ण हमेशा दलित के उद्धारक वाली मानसिकता में जीते हैं। लेकिन वे यह नहीं स्वीकार कर पाते कि दलित उनकी कृपा और दयालुता को अस्वीकार करके कहें कि हर स्तर पर बराबरी, हर मामले में बराबर की स्वतंत्रता और हर स्तर पर भाईचारा हमारा हक है, हमारा अधिकार है।
हमारा यह हक और अधिकार आपकी कृपा और दयालुता पर निर्भर नहीं है। हमें आपकी कृपा और दयालुता की जरूरत नहीं है। और आप कौन होते हैं हमारे ऊपर कृपा और दया करने वाले?
किसने आपको हमारे ऊपर कृपा और दया करने का हक दिया? आप ने कृपा-दया करने का यह अधिकार कहां से और कैसे हासिल किया है?
गांधी इस दूसरे टाइप के सवर्णों के प्रतिनिधि व्यक्तित्व थे। उनका डॉ. आंबेडकर से संघर्ष का मुख्य बिंदु यह था कि आबेडकर यह कहते थे कि हम अपने समता और स्वतंत्रता के अधिकार को खुद संघर्ष करके हासिल कर सकते हैं।
अभी तक जितना हासिल किए हैं, वह संघर्ष करके हासिल किए हैं, आगे भी संघर्ष करके ही हासिल करेंगे। हम (दलित) अपने अधिकारों को सवर्णों की कृपा-दया या हृदय परिवर्तन पर नहीं छोड़ना चाहते।
हमारा संघर्ष सवर्णों की कृपा-दया की स्थिति से पूरी तरह मुक्ति का है। हम नहीं चाहते कि दलित इस स्थिति में रहे कि कोई उन पर कृपा और दया करे।
वह चाहे आप (गांधी) ही क्यों न हों? हम आपकी कृपा-दया के मोहताज नहीं हैं, और न बनना चाहते हैं।
दूसरी तरफ गांधी दलितों के अधिकारों और हक-हकूक को द्विज सवर्णों के हृदय परिवर्तन (कृपालु और दयालु होने) पर छोड़ना चाहते थे। द्विज-सवर्ण के रूप में वे खुद को हृदय परिवर्तित सवर्ण का सबसे अच्छा उदाहरण मानते थे।
उन्हें उम्मीद थी कि एक दिन सभी सवर्ण उनके जैसे ही दलितों के प्रति कृपालु और दयालु हो जाएंगे। वे मानते थे कि एक दिन सभी सवर्ण मेरे जैसे हो जाएगें, दलितों की समस्याओं का स्थायी समाधान इसी में निहित है।
मेहनतकश-उत्पादक किसानों, मजदूरों और महिलाओं के हक-हकूक और अधिकारों को भी गांधी जमींदारों, पूंजीपतियों और पुरूषों की कृपालुता-दयालुता छोड़ने के हिमायती थे।
वे उम्मीद करते थे कि जमींदार-भूस्वामी एक दिन इतने कृपालु-दयालु हो जाएंगे और उनका हृदय इतना परिवर्तित हो जाएगा कि वे जिन खेतों के मालिक हैं, खुद को उसका ट्रस्टी समझने लगेंगे।
इस तरह काश्तकारों को जमींदारों-भूस्वामियों से उनका हक प्राप्त हो जाएगा। इस हक के लिए काश्तकारों को उनके खिलाफ संघर्ष करने की कोई जरूरत नहीं है।
इसी तरह गांधी यह सोचते थे कि पूंजीपति एक दिन इतने कृपालु-दयालु हो जाएंगे कि वे खुद को पूंजी का मालिक समझने की जगह उसका ट्रस्टी समझने लगेंगे और मजदूरों को उनका हक-हकूक और अधिकार मिल जाएगा। इसके लिए मजदूरों को पूंजीपतियों के खिलाफ संघर्ष करने की जरूरत नहीं है।
यही वजह थी कि जब भी काश्तकारों ने जमींदारों-भूस्वामियों के खिलाफ संघर्ष किया गांधी ने उसका विरोध किया। इस तरह जब मजदूरों ने पूंजीपतियों के खिलाफ संघर्ष शुरू किया, गांधी ने उसका विरोध किया।
गांधी महिलाओं के मामले में यही सोचते थे कि पुरुष महिलाओं के खिलाफ इतने कृपालु-दयालु हो जाएंगे कि महिलाओं को हक-हकूक और अधिकारों के लिए पुरुषों के खिलाफ किसी तरह का संघर्ष करने की कोई जरूरत नहीं रहेगी।
उनके लिए दशरथ पुत्र राम और सीता का पति-पत्नी का संबंध इसका मूर्त रूप था।
डॉ. आंबेडकर आजीवन गांधी के इस कृपालु-दयालु मानसिकता को चुनौती देते रहे हैं और कहते रहे कि हमें कृपा-दया नहीं, बराबरी चाहिए।
उस स्थिति की समाप्ति चाहिए, जिसमें कोई सवर्ण दलितों पर कृपा और दया की बात सोच भी पाए।
हां तीसरे तरह के कुछ द्विज-सवर्ण हुए हैं, जिनका इस पर पक्का विश्वास था कि दलितों को सवर्णों की कृपालुता-दयालुता पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। ऐसा समाज बनाना चाहिए जिसमें कोई किसी पर दया-कृपा के बारे में सोच भी न पाए।
ऐसे द्विज सवर्ण दो धाराओं से सामने आए। एक वे जिन्होंने हिंदू धर्म-ब्राह्मणवाद को तिलांजलि देकर श्रमण-बहुजन परंपरा के साथ पूरी तरह अपना नाता कायम कर लिया। इनमें कई सारे ने घोषित तौर बौद्ध धम्म स्वीकार लिया।
दूसरे वामपंथी पार्टियों के वे एक्टिविस्ट रहे हैं और हैं, जो जमीन पर दलितों-मेहनतकशों और काश्तकार किसानों के साथ मिलकर संघर्ष करते हैं।
और खुद को पूरी तरह कृपालुता-दयालुता की मानसिकता से मुक्त करते हैं या मुक्त करने की भरपूर कोशिश करते हैं।
दलितों, मेहनतकशों और काश्तकार किसानों के प्रति कृपालुता-दयालुता से मुक्त द्विज-सवर्णों की संख्या बहुत कम है। ज्यादातर द्विज-सवर्ण पहली मानसिकता के हैं।
वे वर्ण-जाति व्यवस्था में पूरा विश्वास करते हैं, उसे जायज मानते हैं और दलितों को दोयम दर्जे की स्थिति को न्यायसंगत मानते हैं।
गांधी दूसरे तरह के सवर्णों के प्रतिनिधि थे, जो दलितों के प्रति कृपालुता-दयालुता रखते हैं। वे कृपालु-दयालु सवर्णों के प्रतिनिधि व्यक्तित्व थे।
आधुनिक भारत का तथाकथित महानतम द्विज-सवर्ण (गांधी) दलितों के प्रति कृपाल-दयालु सवर्ण ही था।
डॉ. आंबेडकर और कोई सच्चा आंबेडकरवादी कृपालुता-दयालुता की इस द्विज-सवर्ण मानसिकता को दलितों के लिए घृणास्पद चीज मानता है।
(डॉ. सिद्धार्थ लेखक और स्वतंत्र पत्रकार हैं)
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