Wednesday, April 24, 2024

आम बजट (2022-23):फॉर ऑफ एंड बाई द कॉर्पोरेट्स  

मंत्री निर्मला सीतारमण ने 1 फरवरी को वित्त-वर्ष 2022-23 का आम बजट पेश किया। भारतीय संविधान के अनुसार भारत को एक कल्याणकारी राज्य होना था। इसका मतलब यह हुआ कि देश का बजट भी अंतिम पायदान पर खडे़ लोगों के लिए राहत लाने वाला होना चाहिए था। देश की सबसे गरीब जनता भी टैक्स चुकाती है। एक पेंसिल, एक पैकेट नमक या एक टिकिया सल्फास खरीदते वक्त भी लोग सरकार को टैक्स दे रहे होते हैं। ऐसे में लाजमी है कि वे सरकार से बजट में अपने लिए कुछ किए जाने की उम्मीदें रखें। पर अगर इस बजट को देखें तो यह कहीं से भी आम जनता का बजट नहीं दिखता है, बल्कि यह हर तरह से पूंजीपरस्त, देशी-विदेशी कॉर्पोरेट-परस्त और जन-विरोधी बजट है। वैसे तो सभी बजट  देशी-विदेशी पूंजीपतियों का हित साधने वाले होते हैं। पर इस बजट में तो साफ़-साफ़ यह “पूंजीपतियों के लिए, पूंजीपतियों का और पूंजीपतियों द्वारा बनाया गया बजट है” दिखता है। 

बात पहले इसके जनविरोधी होने की करते हैं। पिछले दो वर्षों से कोरोना महामारी का संकट बदस्तूर जारी है। इसके बदतरीन नतीजों की मार सबसे ज्यादा अगर किसी पर पड़ी है, तो वे हैं असंगठित क्षेत्र के मजदूर और कृषि-संकट से त्रस्त किसान। लॉकडाउन की वे तस्वीरें आपके जेहन में (अगर आप जेहन रखने की इच्छा रखते हैं और बदतमीज मीडिया और मक्कार सरकारी प्रोपेगेंडा मशीनरी के द्वारा परोसे गए बेहूदा तथ्यों में ऊभ-चूभ न हो रहे हैं तो) जरूर होंगी,  जब लाखों गरीब मजदूर जानवरों की तरह बड़े-छोटे शहरों से गांवों की तरफ हांक दिए गए थे। रास्ते भर उन भूखे-प्यासे लोगों का स्वागत पुलिसिया सरकारी डंडों से किया जा रहा था। ये नौकरी की उम्मीद और सपने गंवा चुके लोग थे। इनमें से ज्यादातर को आज भी बेरोजगारी की लाठी ने लहूलुहान कर रखा है। इसका मतलब है कि सबसे ज्यादा राहत इसी वर्ग को चाहिए थी पर ठीक उलट दिख रहा है। यहां यह भी याद रखना जरूरी है कि इसी कोरोना काल में जब आम आदमी भूखों मर रहा था तब भारतीय अरबपतियों की संख्या आश्चर्यजनक रूप से बढ़ती जा रही थी। अब जरा उन जरूरी मदों की चर्चा करते हैं, जो आर्थिक रूप से सबसे निचले वर्ग को राहत देते हैं, उन पर इस बजट का आवंटन देखिए।

मनरेगा यह एक महत्त्वाकांक्षी योजना थी, जिसका उद्देश्य ग्रामीण गरीबी को घटाना व शहरों की तरफ पलायन को रोकना था। मनरेगा बड़े पैमाने पर कोविड-19 में लोगों को राहत दे सकता था। 2021-22 में मनरेगा को आवंटित होने वाली रकम का अनुमान 73 हजार करोड़ रूपये था। फिर महामारी को देखते हुए इसे संशोधित करके 98 हजार करोड़ कर दिया गया। पर बजट में इसे सिर्फ 73 हजार करोड़ रूपये ही आवंटित किए गए हैं। यह पिछले अनुमान 98 हजार करोड़ से भी 25.5% कम है। अब आप स्वयं इस बात को आसानी से समझ सकते हैं कि हम इसे जन-विरोधी बजट क्यों कह रहे हैं? और सरकार का, सभी साधनों से वंचित गरीब मजदूरों, किसानों व गरीबों के प्रति क्या रुख है?

जन वितरण प्रणाली 81 करोड़ लोगों का पेट भरने वाली योजना का नाम है जन वितरण प्रणाली। एक ऐसी योजना, जिससे शहरी व ग्रामीण गरीबों को किसी तरह दो वक्त का रूखा-सूखा भोजन नसीब हो जाता है। इन आंकड़ों से इसकी महत्ता साफ हो जाती है। जन वितरण प्रणाली की सभी योजनाओं के मद में 2021-22 के बजट में संशोधित अनुमान 2,10,929 करोड़ था। पर 2022-23 के इस बजट में पीडीएस के मद में केवल 1,45,290 करोड़ रूपये आवंटित किया गया है। यानी सरकार लगातार पीडीएस के मद में आवंटित राशि को घटा रही है। ऐसे में यह साफ तौर पर देखा जा सकता है कि यह सरकार और बजट दोनों ही जन-विरोधी, खास कर गरीब विरोधी है।

खाद्य सहायता खाद्य वस्तुओं की कीमतों को कम रखने के एक उपाय के तौर पर सरकारों द्वारा खाद्य सहायता देने का तरीका अपनाया जाता है, ताकि गरीबों को सस्ते दामों पर खाद्य वस्तुएं उपलब्ध कराई जा सकें। इस मद में भी आवंटन घटाना आम जनता को भूखा मार देने जैसा है। यह पूंजीपतियों के हित-साधन के लिए किया गया है। 2020-21 का बजट अनुमान इस मद में 2,42,836 करोड़ रुपये था, जिसे संशोधित कर 2,86,469 करोड़ रूपये किया गया था। पर इस बजट में सिर्फ 2,06,831 करोड़ रूपये आवंटित किए गए।

खेतीकिसानी कोरोना-वायरस के भीषण संकट में एकमात्र क्षेत्र, जिसने धनात्मक वृद्धि दर जारी रखी थी और जो आज भी भारत की लगभग 70 प्रतिशत से ज्यादा आबादी को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पाल-पोस रहा है, उस खेती-किसानी के साथ इस बजट ने छल किया है। कृषि और संबद्ध कार्यकलापों पर पिछले साल 1,47,764 करोड़ रूपये आवंटित किए गए थे जिसे इस साल बढ़ाकर 1,51,121 करोड़ रूपये कर दिया गया है। मुद्रास्फीति के हिसाब से देखें तो यह पिछले साल के आवंटन से कम ठहरता है। कृषि के लिए कुल आंवटन की बात करें तो वह घटा ही है। 2021-22 में संशोधित बजट अनुमान जहां 4,74,750.47 करोड़ रुपयों का था उसे घटाकर इस साल 3,70,303 करोड़ रूपयों का कर दिया गया। धान और गेहूं की खरीद पर आंवटित रकम भी पिछले साल के मुकाबले 10,000 करोड़ रूपये कम कर दी गई है। हाल ही में इतनी लम्बी लड़ाई लड़ने वाले किसानों की कोई भी मांग नहीं मानी गई है और एमएसपी की गारंटी से संबंधित कानून बनाने के मामले में वित्त मंत्री खामोश हैं।

उर्वरकों पर सब्सिडी पिछले वित्त-वर्ष में उर्वरकों पर जो सब्सिडी 1.4 लाख करोड़ के करीब थी, उसे इस बजट में घटाकर 1.05 लाख करोड़ कर दिया गया है। 2021 के बजट में भोजन, उर्वरक सहित सभी मुख्य मदों (जिसमें निचले तबके को दी जाने वाली सब्सिडी भी शामिल है) में सब्सिडी का बजट अनुमान 3.36 लाख करोड़ और संशोधित अनुमान 4.33 लाख करोड़ था। पर 2022-23 के बजट में इस मद में मात्र 3.18 लाख करोड़ रूपये आवंटित किए गए हैं। यानी कुल जीडीपी का मात्र 1.2 प्रतिशत।

कथित रूप से विशुद्ध किसानों के हित में लागू की जा रही योजनाओं के मद में भी कटौती की गई है। जैसे-‘प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना’ का बजट अनुमान 2021-22 में 16 हजार करोड़ और संशोधित अनुमान करीब 15,989 करोड़ था। पर इस मद में इस बजट मात्र 15,500 करोड़ रूपये आवंटित किए गए हैं। ‘बाजार हस्तक्षेप योजना’ और ‘मूल्य सहायता योजना’ को आश्चर्यजनक रूप से अनुमान से आधे से भी कम बजट का आवंटन किया गया है। 2021-22 में संशोधित अनुमान के अनुसार इस मद में 3,595.61 करोड़ रूपये दिए जाने थे, पर 2022-23 में आवंटन मात्र 1500 करोड़ रूपये कर दिया गया है। यदि मुद्रास्फीति के हिसाब से देखें तो यह आवंटित रकम 1300 करोड़ ही ठहरेगी। यानी, किसानों द्वारा हाल के इतने लंबे और कठोर संघर्ष के बावजूद उन्हें एक बार फिर से बाजार और पूंजीपतियों के हवाले कर दिया गया है। अगर बात ‘प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना’ की करें तो, 2021-22 में संशोधित अनुमान चार हजार करोड़ रूपये का था पर 2022-23 में आवंटन मात्र दो हजार करोड़ रूपये ही हुआ है। ऊपर के आंकड़ों से स्पष्ट है कि यह बजट गरीबों के खिलाफ किसानों और मजदूरों के खिलाफ हैं। साथ ही अगर महंगाई को देखें तो यह ज्यों की त्यों बनी हुई है। इसमें कोई राहत नहीं मिली है।

बेरोजगारी यह डिजिटल बजट है इसका काफी शोर है। यह डिजिटल बजट अगर डिजिटलाइजेशन को बढ़ाएगा तो मानव रोजगार पर इसका उल्टा असर होगा। यानी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और अन्य विकल्प लगातार मानव श्रम को स्थानांतरित करते जाएंगे। भारत जैसे देश के लिए यह खतरनाक तौर पर घातक होगा। सभी क्षेत्रों में रोजगार और भी खत्म होता चला जाएगा।

स्वास्थ्यक्षेत्र 2021-22 में इस मद में बजट-आवंटन 73,931 करोड़ रूपये था। 2022-23 में आवंटित हुए हैं मात्र 86,200.65 करोड़ रूपये। ऊपर से देखने पर यह वृद्धि 16% लगती है पर मुद्रास्फीति के हिसाब से देखने पर यह रकम काफी घट जाएगी। अगर बात पिछले साल की करें तो महामारी के दौरान स्वास्थ्य व्यवस्था की वजह से हमने गंगा में बजबजाती लाशें देखी थीं। लाखों की मौतों को देखते हुए स्वास्थ्य क्षेत्र में बजट का आवंटन कई-कई गुना बढ़ना चाहिए था। एक अनुमान के मुताबिक भारत के मध्य वर्ग के पास से कोरोना के इलाज के रूप में निजी चिकित्सकों व चिकित्सा क्षेत्र को 40,000 करोड़ रूपये पिछले साल गए हैं। इसने 13 से 15% आबादी को गरीबी रेखा से नीचे धकेल दिया है।

शिक्षाक्षेत्र पिछले 2 साल से स्कूल-कॉलेज कोरोना-वायरस के चलते बंद पड़े हैं। छात्र-छात्राओं के इन कीमती दो वर्षों की बर्बादी के मद्देनजर शिक्षा क्षेत्र में आवंटित बजट में बहुत ही मामूली वृद्धि की गई है। इस मद में 2021-22 में बजट अनुमान 93,224 करोड़ रूपए का था। 2022-23 में आवंटित किए गए 1.04 लाख करोड़ रूपये । यह वृद्धि 11.86% ठहरती है। यह रकम भी मुद्रास्फीति को हिसाब में रखने पर काफी घट जाती है।

मध्यवर्ग चौतरफा मार झेल रहे मध्य-वर्ग के लिए, खासकर बेरोजगारी व महंगाई की तबाही से राहत के लिए इस बजट ने कुछ भी नहीं किया  है। टैक्स-स्लैब को ज्यों का त्यों रहने दिया गया है। इसका मतलब गरीबों और मध्यम वर्ग पर टैक्स लादते रहना और अमीरों को छूट पर छूट देना है।

अमीर वर्ग हाल ही में आई ऑक्सफैम की रिपोर्ट में भारत में भयंकर रूप से बढ़ती असमानता का जिक्र किया गया है। रिपोर्ट बताती है कि भारत में 2020 अरबपतियों की संख्या 102 थी जो 2021 में यानि कोविड महामारी के दौर में बढ़कर 142 हो गई। रिपोर्ट इन अमीरों पर टैक्स बढ़ाने का सुझाव देती है और एक अनुमान पेश करते हुए बताती है कि देश के 98 सर्वाधिक अमीर परिवारों पर यदि 4% वेल्थ टैक्स लगाया जाए तो उससे प्राप्त रकम से स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के दो वर्ष का खर्च चलाया जा सकता है, 17 वर्षों तक समूचे देश के स्कूली बच्चों को मिड-डे-मील दी जा सकती है या फिर छः सालों तक समग्र शिक्षा अभियान के खर्चे उठाए जा सकते हैं। इसके मद्देनजर और खासकर कोविड-19 के दौरान अमीरों के द्वारा की गई लूट-खसोट और इनके दौलत में बेशुमार इजाफे के मद्देनजर जहां उन पर टैक्स बढ़ाना था, वहां उनके लांग-टर्म कैपिटल गेन पर अधिकतम टैक्स घटाकर 15% कर दिया गया है।

पूंजीगत-व्यय के मद में आधारभूत संरचनाओं को मजबूत और व्यापक करने के लिए जो 7,50,000 करोड़ रूपये आवंटित किए गए हैं, उनका बड़ा हिस्सा सीधे कॉर्पोरेटों की तिजोरियों में जाएगा। इसका एक नंगा उदाहरण टाटा के हाथों एयर इंडिया को बेचने के क्रम में देखा जा सकता है। उस पर निर्लज्जता से वित्त मंत्री द्वारा संसद में प्रस्तुत बजट भाषण में इसका जिक्र सरकार की उपलब्धि के तौर पर किया गया। टाटा समूह ने इस खरीद को 18,000 करोड़ रुपये में अंजाम दिया है, जिसमें सरकार को उसके द्वारा नकद राशि मात्र 2700 करोड़ रूपये दी जाएगी। 15,300 करोड़ रुपये टाटा समूह पर उधार रहेंगे जिसे टाटा अपने हिसाब से चुकाएगी। मज़े की बात यह है कि एयर इंडिया पर 51,971 करोड़ रुपयों का जो कर्ज था, वह सरकार उसी 7,50,000 करोड़ रुपयों में से चुकाएगी, जिसे आधारभूत संरचनाओं के लिए भारी निवेश बताकर विकास का ढोल पीटा जा रहा है।

सरकार द्वारा लिए गए आर्थिक निर्णयों ने यह बात साफ कर दी है कि यह सरकार अब खुलकर कॉरपोरेटों के साथ खड़ी हो गयी है। यह अपने उस चोले को किनारे रख रही है जिसे इसने जनता को भरमाने के लिए ओढ़ रखा था। सरकार के इन फैसलों ने आर्थिक तौर पर उपभोक्ता के रूप में हमें क्रूर बाजार के हवाले कर दिया है। इस तरह यह बजट इस बात का स्पष्ट संकेत दे रहा है कि आने वाले दिनों में सरकारों की यह कॉर्पोरेट-परस्ती बढ़ती चली जाएगी। एकमात्र संघर्षों और आन्दोलनों के जरिए ही जनता सरकारों की इस कॉर्पोरेट-परस्ती पर लगाम लगा सकती है और अपने हितों की दिशा में सरकारों को झुका सकती है।

इस बजट के दूरगामी राजनीतिक निहतार्थ भी हैं। आर्थिक रूप से पंगु जनता अपने राजनीतिक अधिकारों के प्रति कैसी प्रतिक्रिया दे सकती है, इसका अंदाजा सरकार को जरूर होगा। सत्ता का जो बढ़ता केंद्रीकरण हमें दिखाई दे रहा है वह आने वाले किसी भी प्रतिरोध को कुचलने की तैयारी ही है। आधार (वित्तीय-पूंजी) की रक्षा के लिए अधिरचनाओं(न्यायापालिका, कार्यपालिका, विधायिका व अन्य संस्थाओं) को लगातार पूंजी-परस्त सरकार तोड़-मरोड़ रही है और उन्हें नए सिरे से अपने अनुकूल ढाल रही है। यह जनता के सीमित संवैधानिक अधिकारों पर सीधा हमला है। सत्ता और संपत्ति का यह बढ़ता केंद्रीकरण अपने देश में फासीवादी हुकूमत की आधारशिला को और पुख्ता बना रहा है। पिछले बजटों की तरह इस बजट में भी उठाए गए आर्थिक कदम इसी राजनीतिक हित को पूरा करने की दिशा में संचालित हैं।

(बच्चा प्रसाद सिंह लेखक और एक्टिविस्ट हैं। और आजकल बनारस में रहते हैं।)

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