Friday, March 29, 2024

हरिद्वार धर्मसंसद और जेनोसाइड वॉच की चेतावनी

हरिद्वार धर्म संसद में घृणावादी और भड़काऊ बयान देने वाले यति नरसिंहानंद को उत्तराखंड पुलिस से गिरफ्तार कर लिया है। पर यह गिरफ्तारी इस घृणासभा में भड़काऊ बयान देने के मामले में नहीं, बल्कि महिलाओं के प्रति अपमानजनक टिप्पणियों के लिए की गयी है। अभी तक हरिद्वार के धर्म संसद वाले मामले में कोई कार्यवाही नही की गई है। यह स्थिति न केवल सरकार की चुप्पी को दर्शाती है, बल्कि वह इस संबंध में पुलिस ढिलाई को भी उजागर करती है। जो भाषण सोशल मीडिया पर वायरल हैं, उसके अनुसार, उस धर्म संसद में भड़काऊ भाषण देने वाले सभी व्यक्तियों को राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम एनएसए में भी निरुद्ध किया जाना चाहिए। यह घटना भले ही हरिद्वार में कुछ लोगों द्वारा की गयी हो, पर भारत में हाल के कुछ वर्षों में, धार्मिक कट्टरता के बढ़ते ग्राफ को, दुनिया में इसे एक अलग नज़रिए से देखा जा रहा है।

दुनियाभर में धर्म, जाति, नस्ल आदि के आधार पर किये जाने वाली सामूहिक हत्याओं या नरसंहार पर अध्ययन करने वाली एक संस्था है, जेनोसाइड वॉच। इस संस्था के संस्थापक हैं प्रो. स्टैंटन। प्रो ग्रेगोरी एच स्टैंटन ने सोमवार को भारत के लिए एक नरसंहार आपातकालीन चेतावनी की घोषणा करते हुए कहा कि, देश मुस्लिम समुदाय के उत्पीड़न के साथ नरसंहार के आठवें चरण में पहुंच गया है। प्रो स्टैंटन “नरसंहार के 10 चरणों के सिद्धांत के सिद्धांतकार हैं, तथा नरसंहार और सामूहिक हत्या के सभी रूपों पर अध्ययन कर, ऐसी घटनाओं के प्रति सचेत करते हैं तथा, उसके रोकथाम के लिए उपाय भी सुझाते हैं।

प्रो. स्टैंटन ने जस्टिस फॉर ऑल संगठन द्वारा आयोजित एक वर्चुअल कार्यक्रम को संबोधित करते हुए कहा कि, “भारत, नरसंहार, उत्पीड़न के आठवें चरण में पहुंच गया है, जो ‘विनाश’ के चरण में पहुंचने से केवल एक कदम दूर है।” भारत सरकार की चुप्पी पर भी उन्होंने हैरानी जताई है। प्रो स्टैंटन ने, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, आरएसएस को, हिंदू चरमपंथी समूह, के रूप में सम्बोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना भी की है। उनके अनुसार, “देश नरसंहार या जेनोसाइड के चरण दर चरण को पार करते हुए आठवें चरण में आ पहुंचा है, और इसे रोकने की तो बात ही छोड़िये, सरकार ने इस अधोगति पर न तो कोई संज्ञान लिया, और न ही इन सबकी भर्त्सना ही की। आरएसएस के साथ नरेंद्र मोदी के संबंधों को रेखांकित करते हुए, उन्होंने इस संदर्भ में, उनकी खामोशी की आलोचना भी की। उन्होंने कहा, “आरएसएस अपनी स्थापना के बाद से ही नफरत से भरा हुआ है। यह मूल रूप से एक नाजी संगठन है, और वास्तव में, यह हिटलर का प्रशंसक है।”

वर्चुअल रूप से आयोजित इस वैश्विक कार्यक्रम में संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा और अन्य देशों के चार सौ समुदायों और विभिन्न धार्मिक नेताओं ने भाग लिया था। जस्टिस फॉर ऑल यानी ‘सभी के लिये न्याय’, संस्था ने, जेनोसाइड वॉच द्वारा, नरसंहार के बारे में की गयी इस आपातकालीन चेतावनी पर चिंता जताई और उसके निष्कर्षों का समर्थन किया। इसी प्रकार एक और घटनाक्रम में, अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता पर यूएस के मानवाधिकार आयोग की नादिन मेंज़ा ने कहा, “भारत में बहुलतावाद का एक सुंदर इतिहास रहा है। हाल ही में आयोजित एक हिंदू धर्म संसद में दिए गए भाषणों और कार्यवाही, एक “परेशान करने वाली” घटना है।” उन्होंने आगे कहा, “अमेरिकी कांग्रेस को अमेरिका-भारत द्विपक्षीय संबंधों में धार्मिक स्वतंत्रता की चिंताओं को उठाना चाहिए।” जस्टिस फॉर ऑल के सीईओ इमाम अब्दुल मलिक मुजाहिद ने भारत को अतिवाद और फासीवाद से बचाने के प्रयासों का आह्वान किया, “भारत के बहुलतावाद और लोकतंत्र का मॉडल पूरी दुनिया के लिए एक आदर्श रहा है। इसलिए भारत को फासीवाद से बचाने के लिए हम सबको मिलकर काम करना चाहिए। यह कार्य दुनिया के हित में होगा।”

जेनोसाइड वॉच के संस्थापक डॉ. ग्रेगरी स्टैंटन ने 12 दिसंबर को वाशिंगटन डीसी में कश्मीर और एनआरसी पर ग्राउंड रिपोर्ट्स शीर्षक से एक ब्रीफिंग में अमेरिकी कांग्रेस और सरकारी अधिकारियों के एक ग्रुप को संबोधित करते हुए कहा, “भारत में निश्चित रूप से नरसंहार की तैयारी चल रही है।” उन्होंने कहा कि असम और कश्मीर में मुसलमानों का उत्पीड़न “नरसंहार से ठीक पहले का चरण है।” आगे वे कहते हैं, “अगला चरण विनाश है – जिसे हम नरसंहार कहते हैं।”

अब जरा नरसंहार के विभिन्न चरणों पर हम अकादमिक चर्चा कर लेते हैं। डॉ. स्टैंटन ने 1996 में अमेरिकी विदेश विभाग में एक शोध प्रस्तुत करते हुए, विश्व प्रसिद्ध नरसंहारों के अध्ययन पर, “नरसंहार के दस चरणों” की अवधारणा स्थापित और उसे व्याख्यायित किया। डॉ स्टैंटन की अवधारणा के अनुसार, नरसंहार के दस चरण इस प्रकार होते हैं;

● पहला चरण “हम बनाम उनके” का “वर्गीकरण” था। यानी इस चरण में समाज में दो पाले बंटने शुरू हो जाते हैं, यह पहचान, धर्म के आधार पर भी हो सकती है और नस्ल के आधार पर भी।

● दूसरा चरण, “प्रतीकात्मकता” ने पीड़ितों को “विदेशी” नाम दिया। जो पीड़ित पक्ष है, उसे विदेशी कह कर उसे अलग पहचान देने की यह स्टेज होती है।

● तीसरा चरण, “भेदभाव”। “नागरिकता के लिए स्वीकार किए गए समूह से [पीड़ितों] को वर्गीकृत किया गया” ताकि उनके पास “नागरिकों के मानवाधिकार या नागरिक अधिकार” न हों ताकि, उनके साथ “कानूनी रूप से भेदभाव” किया जा सके। इस चरण में, पीड़ितों के नागरिक होने पर ही सवाल खड़ा कर दिया जाता है और उनसे नागरिक होने के सुबूत मांगे जाते हैं। नागरिकता पर संशय उठाते ही, पीड़ितों के संवैधानिक नागरिक अधिकारों का क्षरण शुरू हो जाता है।

● चौथा चरण, अमानवीकरण। “जब नरसंहार सर्पिल रूप में नीचे की ओर जाने लगता है। आप दूसरों को अपने से बदतर रूप में वर्गीकृत करते हैं। आप उन्हें ‘आतंकवादियों’ या जानवरों जैसे नाम देने लगते हैं। उन्हें राजनीतिक शरीर में कैंसर के रूप में संदर्भित करना शुरू कर देते हैं। आप उनके बारे में एक ऐसी बीमारी के रूप में बात करते हैं जिससे किसी तरह निपटा जाना चाहिए।” यानी पीड़ितों का समाज से बहिष्करण की यह स्टेज होती है, जिसमें वे बिल्कुल अलग थलग कर दिए जाते हैं।

● पांचवां चरण, नरसंहार करने के लिए एक “संगठन” का होना ज़रूरी होता है। अलग-थलग कर देने के बाद, नरसंहार को अंजाम देने के लिये एक कोर संगठन की ज़रूरत होती है। इस चरण में ऐसा ही एक संगठन खड़ा किया जाता है। पहले के चार चरण, पीड़ितों या नरसंहार के लिये लक्षित या टारगेटेड समूह पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव डाल कर उन्हें हतोत्साहित करते हैं, और यह पांचवां चरण, उस नरसंहार के कृत्य को पूरा करने के लिये एक संगठन का गठन करता है।

● छठा चरण “ध्रुवीकरण” का होता है। मनोवैज्ञानिक रूप से नरसंहार की अपरिहार्यता बनाये जाने के बाद, दुष्प्रचार की भूमिका और महत्वपूर्ण हो जाती है। इसे आप गोएबेलिज़्म कह सकते हैं। यह प्रचार के संगठित तंत्र द्वारा प्राप्त किया जाता है।

● सातवां चरण था “तैयारी” का होता है।

● आठवां चरण “उत्पीड़न” का कहा गया है। जहां ऐसे टारगेटेड धार्मिक या नस्ली समूह, जिनका नरसंहार या खात्मा किया जाना है, का लगातार, जानबूझकर उत्पीड़न किया जाता है और उत्पीड़न के नए नए बहाने ढूंढे जाते हैं। यहां पर बचपन में पढ़ी गयी, झरने के ऊपर खड़ा मेमना और झरने के नीचे खड़े भेड़िये की कहानी प्रासंगिक हो जाती है, जिसमें भेड़िया, यह जानते हुए भी पानी, नीचे से ऊपर नहीं बह सकता है, पर यही अकल्पनीय तर्क देकर, मेमने को हड़प जाता है।

● नौवां चरण “विनाश” का है।

● दसवां चरण “इनकार” का है, जब नरसंहार को रोकने के लिये उठने वाली हर आवाज़, नकार दी जाती है।

फिर जो होता है, वह वैसा ही होगा, जैसा कि कभी जर्मनी में हिटलर के समय यहूदियों का हुआ था और कुख्यात रेडियो रवांडा के कारण रवांडा में हुआ था। डॉ. स्टैंटन ने, नरसंहार पर, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों का भी मसौदा तैयार किया है, जिस आधार पर, रवांडा मामले में, अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायाधिकरण और बुरुंडी जांच आयोग का गठन किया गया। इन दोनों स्थानों पर भयानक नरसंहार हुए थे। इंटरनेशनल एसोसिएशन ऑफ जेनोसाइड स्कॉलर्स के एक पूर्व अध्यक्ष ने, कंबोडिया, रवांडा और रोहिंग्याओं में नरसंहार पर एक बेहद महत्वपूर्ण शोध किया है, जिसे दुनियाभर के मानवाधिकार संगठनों ने मान्यता दी है।

देश की सरकार भले ही हरिद्वार धर्म संसद की भड़काऊ बयानबाजी पर चुप हो या देश में पांच राज्यों की विधानसभाओं में इस मामले में की जाने वाली विधिक कार्यवाही का चुनावी गणित के दृष्टिकोण से गुणा भाग कर रही हो लेकिन, दुनियाभर में भारत के इस नवआतंकी स्वरूप पर हैरानी जताई जा रही है। देश के लगभग सभी क्षेत्रों में, चाहे वह सेना का क्षेत्र हो, या वकीलों बुद्धिजीवियों का, या मैनेजमेंट के सबसे कुशाग्र विद्यार्थियों की जमात हो, हर जगह इस आतंकी शब्दावली, नरसंहार के आह्वान, संविधान विरोधी शपथ की न केवल भर्त्सना की जा रही है, बल्कि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री को चिट्ठियां लिखी गयी हैं, और सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिकायें दायर की गयीं हैं। सुप्रीम कोर्ट ने उस याचिका पर संज्ञान भी लिया है और, सुनवाई भी शुरू कर दी है। सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई का ही यह परिणाम है कि उत्तराखंड पुलिस हरकत में आयी है और अब कुछ गिरफ्तारियां शुरू हुयी हैं।

एक और याचिका, सशस्त्र बलों के तीन सेवानिवृत्त अधिकारियों ने भी सुप्रीम कोर्ट में दायर कर के यह मांग की है कि, “हरिद्वार और दिल्ली के धर्म संसदों में मुसलमानों के खिलाफ दिए गए नफरती भाषणों की जांच के लिए विशेष जांच दल (एसआईटी) का गठन किया जाए।” इन तीन याचिकाकर्ताओं के नाम मेजर जनरल एसजी वोम्बटकेरे, कर्नल पीके नायर और मेजर प्रियदर्शी चौधरी हैं। अमूमन सेना के पूर्व अधिकारी इस तरह के मामलों में नहीं पड़ते हैं। पर उल्लेखनीय है कि, सबसे पहले, धर्म संसद को हेट कॉन्क्लेव यानी घृणासभा सम्बोधित करते हुए, पांच पूर्व सेनाध्यक्षों ने ही, सशस्त्र सेनाओं के सर्वोच्च कमांडर, राष्ट्रपति को इस मामले की गम्भीरता से अवगत कराया है। उनके साथ अन्य सुरक्षा बलों के वरिष्ठ अफसर भी इस मुहिम में शामिल हैं। इस पत्र की प्रतिलिपि प्रधानमंत्री को भी भेजी गयी है। इसके बाद तो ऐसे पत्रों का सिलसिला ही शुरू हो गया।

इन तीन पूर्व सैन्य अफसरों द्वारा दायर इस जनहित याचिका में कहा गया है कि, “देशद्रोही और विभाजनकारी भाषणों ने न केवल देश के आपराधिक कानून का उल्लंघन किया, बल्कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 पर भी हमला किया है। यह भाषण राष्ट्र के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने पर दाग लगाते हैं और पब्लिक ऑर्डर (लोक व्यवस्था) पर प्रतिकूल प्रभाव डालने की गंभीर क्षमता रखते हैं।” याचिका में यह एक गम्भीर बिंदु उठाया गया है कि, इससे लोकव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। दरअसल आईपीसी की जिन धाराओं में यह मुक़दमे दर्ज किए गए हैं, वे सज़ायाबी या अपराध की गंभीरता को देखते हुए गम्भीर कानूनी धाराएं नहीं हैं, पर उन भाषणों और शपथ के भड़काऊपन से समाज में वैमनस्यता फैल सकती है, हिंसक प्रतिक्रिया हो सकती है, जिससे पब्लिक ऑर्डर या लोकव्यवस्था भंग हो सकती है। ऐसे मामलों में एनएसए यानी, राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के अंतर्गत कार्यवाही की जानी चाहिए जो अब तक नहीं की गयी है।

याचिकाकर्ताओं ने कहा है कि, “अगर ऐसी घटनाओं पर ध्यान नहीं दिया जाता है तो इससे सशस्त्र बलों के सैनिकों के मनोबल और देश की एकता व अखंडता पर गंभीर दुष्प्रभाव पड़ सकता है, क्योंकि सेना में, विविध समुदायों और धर्मों के सैनिक हैं।”

याचिकाकर्ताओं ने इस बात की ओर भी ध्यान आकर्षित किया है कि, “ऐसे नफरती भाषण हमारे सशस्त्र बलों की लड़ने की क्षमता पर भी दुष्प्रभाव डाल सकते हैं, जिसकी प्रतिक्रियास्वरूप राष्ट्रीय सुरक्षा से समझौता करना होगा।”

याचिका में दिल्ली और हरिद्वार की धर्म संसदों में कही गईं उन पंक्तियों का भी हवाला दिया गया है, जिनमें कथित तौर पर मुसलमानों के जनसंहार का आह्वान करते हुए देश की पुलिस, नेताओं, सेना और हर हिंदू से मुसलमानों के खिलाफ हथियार उठाने की अपील की गई थी। यह अपने आप में ही सेना और सुरक्षा बलों को धर्म के नाम पर भड़काना और उन्हें संविधान की शपथ के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह के लिए उकसाना हुआ। इसे हल्के में लेना या जैसा कि एक केंद्रीय मंत्री ने कहा है कि, इसे नज़रअंदाज़ किया जाना चाहिए, सर्वथा अनुचित होगा। याचिका में यह भी कहा गया है कि, “इस तरह के असंवैधानिक और नीच चरित्र के अभद्र भाषण आज़ादी के बाद शायद पहली बार दिए गए हैं।”

इस प्रकार, दिन प्रतिदिन, हरिद्वार धर्म संसद की घृणावादी रवैये को लेकर, देश और दुनियाभर में आलोचना और इसके आयोजकों के खिलाफ कार्यवाही करने की मांग ज़ोर पकड़ रही है। पुलिस ने मुख्य आयोजक यति नरसिंहानंद को गिरफ्तार भी कर लिया है और एक अन्य आरोपी वसीम रिज़वी उर्फ जितेंद्र त्यागी को पहले ही जेल भेजा जा चुका है। लेकिन संविधान की अवहेलना और निंदा के दुस्साहस का यह भी एक उदाहरण है कि, गिरफ्तारी के समय, यति नरसिंहानंद ने न केवल भारतीय संविधान बल्कि देश की सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ भी, बेहद अपमानजनक और अभद्र भाषा मे न्यायपालिका की शक्तियों और अधिकार तथा संविधान की मूल आत्मा के खिलाफ विषवमन किया। नरसिंहानंद का वह वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल है और उसे देश तथा दुनियाभर में देखा जा रहा है।

इस वीडियो के बाद, एक एक्टिविस्ट शची नेल्ली ने भारत के अटॉर्नी जनरल को पत्र लिखकर, हरिद्वार ‘धर्म संसद’ में भड़काऊ बयान और नरसंहार का आह्वान करने वाले, नेता यति नरसिंहानंद द्वारा की गयी, भारत के संविधान और सर्वोच्च न्यायालय के खिलाफ उनकी एक ‘अपमानजनक टिप्पणी’ पर, संज्ञान लेने और न्यायालय के अवमानना ​​की कार्यवाही शुरू करने के लिए, सहमति मांगी है। उल्लेखनीय है कि अवमानना वाद दाखिल करने की सहमति, भारत के अटॉर्नी जनरल देते हैं। अटॉर्नी जनरल को संबोधित, शची नेल्ली के पत्र में कहा गया है कि, “14 जनवरी को सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ट्विटर पर वायरल हुए, विशाल सिंह को दिए गए एक साक्षात्कार में, यति नरसिंहानंद, जो अपने मुस्लिम विरोधी नफरत भाषणों के कारण इधर चर्चित हो रहे हैं, ने सुप्रीम कोर्ट और भारत के संविधान के लिए अत्यंत आपत्तिजनक और अपमानजनक बातें कहीं हैं। अटॉर्नी जनरल को, इसे देखते हुए, न्यायालय की अवमानना ​​का वाद चलाने की सहमति दी जानी चाहिए।”

शची नेल्ली के पत्र में, इस कथन के पूरे उद्धरण और संदर्भ को इस प्रकार बताया गया है, ” हरिद्वार धर्म संसद में, भड़काऊ भाषण के बारे में, हो रही कानूनी और सुप्रीम कोर्ट में चल रही सुनवाई के मामले मे पूछे जाने पर, यति नरसिंहानंद ने कहा कि “हमें भारत के संविधान और सर्वोच्च न्यायालय पर कोई भरोसा नहीं है। संविधान इस देश के 100 करोड़ हिंदुओं को खा जाएगा। जो इस संविधान को मानते हैं, वे सब मारे जाएंगे। जो इस न्यायिक प्रणाली, इस राजनीतिक सिस्टम, सेना पर भरोसा करते हैं, वे सभी कुत्ते की मौत मरेंगे।”

इसके अतिरिक्त पत्र में उसी बातचीत की एक अन्य क्लिप का उल्लेख किया गया है, जहां यति नरसिंहानंद से जब मामले में पुलिस द्वारा की गई गिरफ्तारी के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने कहा कि, “जब जितेंद्र सिंह त्यागी ने वसीम रिज़वी के नाम से अपनी किताब लिखी, तब इन हिजड़े पुलिसकर्मियों और नेताओं में एक भी ऐसा नहीं था, जिसमें, उसे गिरफ्तार करने का साहस था।”

उक्त पत्र के अनुसार, ” यति नरसिंहानंद द्वारा की गई यह टिप्पणियां एक संवैधानिक संस्था की महिमा और भारत के सर्वोच्च न्यायालय में निहित अधिकार को कमजोर करने की कोशिश कर रही हैं, और इस अपमानजनक बयानबाजी के माध्यम से न्यायिक कार्य में हस्तक्षेप करने का यह एक कुत्सिक और घृणित प्रयास है। यह संविधान और न्यायालय की अखंडता पर हमला है। संस्था की महिमा को नुकसान पहुंचाने और न्यायालय में भारत के नागरिकों के विश्वास को कम करने का कोई भी प्रयास पूरी तरह से अराजकता का कारण बनेगा। यह शायद, अब तक के इतिहास में सर्वोच्च न्यायालय पर सबसे शातिर हमला है। इन टिप्पणियों को बिना किसी समाधान के नज़रअंदाज़ करने की अनुमति देना शीर्ष अदालत के अधिकार को कम करने के इस प्रयास को सफल होने देना होगा।”

पत्र में आगे कहा गया है, “भारत का सर्वोच्च न्यायालय भारत के संविधान का पहला संरक्षक और व्याख्याता है। इस देश के मूलभूत ढांचे के प्रति विश्वास की यह कमी और न्यायालय के अधिकार को यह चुनौती, अदालत की सरासर अवमानना ​​का यह रूप भयावह है। न्यायालय और इसकी क्षमता को कमजोर करने की मंशा बेहद खतरनाक संकेत है। मैंने एजी केके वेणुगोपाल से यति नरसिंहानंद के संविधान और सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ उनके घिनौने बयानों के लिए अदालत की अवमानना ​​की कार्यवाही शुरू करने के लिए सहमति मांगी है। भारत की संस्थाओं के अधिकार को कमजोर करने के किसी भी प्रयास से गंभीरता से निपटा जाना चाहिए।”

नाम भले ही धर्म संसद हो, पर यह धर्मांधता फैलाने और देश के सामाजिक तानेबाने को नष्ट करने की एक सोची समझी साजिश है। हरिद्वार धर्म संसद में जैसे दिए गए हैं, उन्हें देखते हुए इसे घृणासभा ही कहना उचित होगा, के ही आयोजकों ने आगामी 23 जनवरी को उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में एक धर्म संसद के आयोजन का प्रोग्राम घोषित किया है। इस पर प्रदेश के कुछ लेखकों और प्रबुद्ध नागरिकों ने, उस प्रस्तावित धर्म संसद की अनुमति न देने के लिये उत्तर प्रदेश सरकार के मुख्य सचिव को पत्र लिख कर अनुरोध किया है।

आज़ादी के समय, दुनियाभर में अपनी कमज़ोर अर्थव्यवस्था के बावजूद भारत की एक वैश्विक हैसियत रही है। इसका कारण, सनातन उदारवादी और वसुधैव कुटुम्बकम की परम्पराओं के साथ, बुद्ध से लेकर गांधी तक के तमाम महामानवों के विचार और इन सबको समेटे हुए हमारा संविधान रहा है। आज़ादी के बाद जब दुनिया द्विध्रुवीय होकर शीतयुद्ध में बंटी थी तो भारत ने उपनिवेशवाद से मुक्त हुए एशिया और अफ्रीका के नवस्वतंत्र देशों को मिला कर एक नई दुनिया, जिसे तीसरी दुनिया कहा गया था, की भूमिका गढ़ रहा था।

वह युद्ध नहीं, नरसंहार नहीं, नस्ली और धार्मिक भेदभाव नहीं, बल्कि एक ऐसे विश्व की भूमिका रच रहा था जो सामाजिक उत्थान के साथ-साथ जनता के आर्थिक उत्थान और, एक लोककल्याणकारी राज्य के प्रति प्रतिबद्ध हो। कागज़ पर तो हम अब भी अपने को वहीं देखते हैं, पर इधर कुछ सालों से दुनियाभर में फैले आतंकी समूहों का विरोध करते करते हम उन्हीं के नक्शे कदम पर चलते जा रहे हैं। जहाँ तक धर्म की बात है, धार्मिक कट्टरता, सबसे अधिक अपने धर्म के उदात्त और उदार मूल्यों का नाश कर उसे नफरत के एक औजार में बदल देती है और समाज में घृणा और हिंसा उसका स्थायी भाव बन जाता है। सौभाग्य की बात है कि देश के नागरिक जागरूक हैं, अपने देश की अस्मिता के प्रति सचेत, और अपने संविधान के प्रति शपथबद्ध हैं। पर यह भी एक दुखद पक्ष है कि सरकार खामोश बनी हुयी है और सरकार की खामोशी पर, देश और दुनियाभर से सवाल उठ रहे हैं।

(विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं और आजकल कानपुर में रहते हैं।)

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