Friday, April 19, 2024

भारत माता की जय बोलते हैं और धरती का सौदा करते हैं!

कल जब मैं गाजीपुर बॉर्डर पर किसानों से बात कर रहा था तो नानक ताऊजी नाम के एक 90 साल के बुजुर्ग ने बीजेपी और मोदी सरकार पर टिप्पणी करते हुए कहा कि भारत माता की जय बोलते हैं और धरती का सौदा करते हैं। और सब कुछ इनका कांट्रैक्ट पर चल रहा है। इन्होंने हवाई जहाज को कांट्रैक्ट से छीना, स्वास्थ्य को कांट्रैक्ट से छीना, सड़कों को कांट्रैक्ट से ले लिया और रेल को कांट्रैक्ट से छीनने के लिए तैयार हैं और जब सब कुछ कांट्रैक्ट के जरिये ले लिए तो अब धरती मां को छीनने आ गए हैं। वह भी कांट्रैक्ट के जरिये। लेकिन ऐसा कभी नहीं होने दिया जाएगा। ये सेंस ऑफ ओनरशिप है। यानी मालिकाने के हक की भावना। यह सिर्फ और सिर्फ एक किसान में ही पायी जाती है। जो इस धरती का मालिक है और रीयल में खुद को देश का मालिक समझता है। उसमें किसी भी तरह की तब्दीली उसकी जेहनियत पर असर डालता है। कोई चीज बेहतर हुयी तो खुशी और गलत हुआ तो गम का उसे एहसास होता है। यह किसी कारपोरेट में नहीं दिखेगी। यह किसी कर्मचारी में नहीं दिखेगी। या फिर ऐसा कोई तबका जो जमीन से कटा हुआ है उसमें नहीं दिखेगी। लेकिन अब इसी ओनरशिप को छीनने की तैयारी है।

दरअसल यह लड़ाई किसान बनाम कॉरपोरेट है। यह अभी तक के भारत के इतिहास में एक नया पड़ाव है। एक निर्णायक मोड़। जिसमें यह बात तय होने जा रही है कि इस देश पर कॉरपोरेट का कब्जा होगा या फिर किसान और उनके बच्चे इस देश को चलाएंगे। एकबारगी अगर कारपोरेट के हाथ में जमीन चली गयी और उसका मालिकाना हक उसे मिल गया तो आखिर में किसानों को अपनी जमीन पर ही मजदूर बनने के लिए मजबूर हो जाना पड़ेगा। किसी भी पूंजीवादी देश की यही सच्चाई है। अनायास नहीं अमेरिका में महज 5 फीसदी किसान हैं। और सारी खेती मकैनाइज्ड है। और फिर इस देश का मालिक भी कारपोरेट ही हो जाएगा। वह जैसे चाहेगा देश को चलाएगा। और उसके लिए देश और जनता की जरूरतें नहीं बल्कि अपना मुनाफा प्राथमिक होगा। अगर उसे मुनाफा मिला तो पंजाब में गेहूं की जगह वह टमाटर पैदा करना शुरू कर देगा। और इस तरह से देश के सामने खाद्य सुरक्षा का एक दिन संकट खड़ा हो सकता है। 

अमेरिका में कारपोरेट किस कदर मजबूत है उसका सिर्फ एक उदाहरण ही काफी है। अमेरिका में गन कल्चर है। वहां गन का लाइसेंस फ्री है। लिहाजा घर-घर में हथियार हैं। कोई भी चाहे तो हथियार उसे आसानी से मिल सकता है। लेकिन पिछले सालों में जिस तरह से वहां मानसिक विकृति कहिए या फिर अवसाद के शिकार लोगों ने वह स्कूलों में हो या फिर चौक चौराहों पर लोगों की सामूहिक हत्याए की हैं उससे लोग अब इसे खत्म करना चाहते हैं। पार्टियां भी गन लाइसेंस को खत्म करने की बात कर रही हैं। लेकिन मुनाफा कमाने वाली कारपोरेट लॉबी उसको होने ही नहीं दे रही है। यानी समाज की जरूरतों पर कारपोरेट का मुनाफा भारी पड़ गया है। 

देश का एक कैबिनेट मंत्री कह रहा है कि देश में एमएसपी बहुत ज्यादा है। यह उस सरकार का मंत्री बोल रहा है जिसकी पार्टी ने चुनाव से पहले किसानों की आय को दुगुना करने का वादा किया था और इस लिहाज से स्वामीनाथन कमीशन की रिपोर्टों को लागू करने की बात की थी। लेकिन कौन कहे आय को दुगुना करने के किसानों को जो अनाजों पर एमएसपी मिल रही है उसको भी वह ज्यादा लग रही है। इतना ही नहीं इन सज्जन ने कहा कि देश में अनाज बहुत ज्यादा हो गया है। और अतिरिक्त उत्पादन हो रहा है। लिहाजा चावल, गन्ना समेत तमाम फसलों से शराब बनाने की इजाजत मिलनी चाहिए। जिससे देश में मुनाफे की खेती शुरू हो सके। अब कोई इन सज्जन से पूछे कि एक ऐसा देश जहां अभी भूख से मौतें हो रही हैं। और 30 फीसदी के करीब आबादी अभी भी गरीबी की रेखा के नीचे रहती है। और ह्यूमन इंडेक्स में जिस देश का नंबर 119वां है। वहां अगर खाद्य सुरक्षा हटा ली जाए तो हाशिये पर रहने वाले इस तबके का क्या होगा? जिस अनाज भंडारण की बात की जा रही है वह तो खाद्य सुरक्षा है और इस देश में अगर पीडीएस के जरिये लोगों को अनाज मिलना बंद हो जाए फिर तो देश के एक हिस्से के लिए अपना पेट पालना भी मुश्किल हो जाएगा।

हां एक और चीज जो इन कानूनों को लेकर बेहद महत्वपूर्ण है उस पर भी गौर फरमाया जाना चाहिए। कुछ लोगों को लग रहा है कि यह कानून केवल पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोगों को नुकसान पहुंचाएगा और बाकी के लिए इसमें खजाना छुपा हुआ है। तो पहली बात उन्हें और खास कर पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के उन अबसेंटी (अनुपस्थित) जमीन के मालिकों (जो जमीन के मालिक हैं लेकिन उनकी खेती बंटाई या फिर अधिया-तिहाई पर दी गयी है।) को समझ लेनी चाहिए कि कारपोरेट किसी ऐसी जगह पर नहीं जाता है जहां उसे तत्काल मुनाफा न हो। चाहे बैंक हो या कि स्वास्थ्य, रेल हो या कि सेवा का कोई दूसरा क्षेत्र। कोई भी सेक्टर देखिएगा कारपोरेट वहीं तक पहुंचता जहां तक उसको मुनाफे की गुंजाइश होती है। और चूंकि पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अनाज का इतना उत्पादन होता है कि वह तत्काल मुनाफा हासिल करना शुरू कर देगा लिहाजा उसने यहीं से शुरुआत की है। और पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में वह जमीन पर कब्जे के लिए ही जाएगा।

किसी को यह ख्वाब छोड़ देना चाहिए कि कारपोरेट आपका नौकर बन कर आएगा और हमेशा-हमेशा के लिए नौकर ही बनकर रहेगा। एकबारगी शुरुआत भले ही वह नौकर बनकर करे लेकिन अंत में वही जमीन का मालिक होगा। क्योंकि कहीं भी अगर कमजोर और ताकतवर के बीच मुकाबला होता है तो अंत में जीत ताकतवर की ही होती है। और बिहार में रहने वाले जमीन के उन मालिकों को जो शहरों में रह रहे हैं और अपनी जमीन को अधिया या फिर कूत पर दिए हुए हैं, ये ख्वाब देखना छोड़ देना चाहिए कि वो अपनी जमीन कारपोरेट को ठेके पर दे देंगे और फिर कारपोरेट उन्हें मुनाफा कमा कर देगा। शुरू में कुछ दिनों या फिर कुछ सालों के लिए शायद यह संभव भी हो जाए लेकिन आखिर में इस रास्ते जमीन का मालिकाना कारपोरेट के हाथों में जाना तय है। फिर उस सुरक्षा का क्या होगा जो शहर में रहते हुए भी हमेशा जेहन में बना रहता है कि किसी अनहोनी, संकट या फिर नौकरी के जाने पर या सब कुछ खत्म हो जाने पर गांव की जमीन है और उससे जीवन चलाया जा सकता है। यह जो सुरक्षा बोध है वह सिर्फ और सिर्फ उस जमीन से हासिल हो सकता है।

एकबारगी अगर किसी के पास कोई इश्योरेंस पालिसी नहीं है तब भी वह खुद को सुरक्षित महसूस करता है। हालांकि मैं खुद इन चीजों का पैरोकार नहीं हूं। जो लोग जमीन पर काम करते हैं उनका ही उस पर मालिकाना हक होना चाहिए। और असली किसान कहलाने के हकदार भी वही हैं। इसलिए ऐसे लोग जो अबसेंटी हैं और जमीन से उनका रिश्ता तकनीकी भर है उनको न तो किसानों के दर्जे में खड़ा किया जा सकता है और न ही वह किसी किसान की पीड़ा को समझ सकते हैं। ऐसे लोग ज़रूर कारपोरेट के लिए फैसिलिटेटर की भूमिका में खड़े हो गए हैं। और एक ऐसे नाजुक मौके पर जब किसानों और कारपोरेट के बीच लड़ाई चल रही है तो कॉरपोरेट के पक्ष में खड़े होते दिख रहे हैं।

इसलिए जो किसान टिकरी से लेकर गाजीपुर और सिंघु से लेकर शाहजहांपुर के बार्डरों पर बैठे हुए हैं उन्हें यह बात समझ में आ गयी है कि उनकी जमीन जाने वाली है। लिहाजा वह मर जाएंगे लेकिन बॉर्डर नहीं छोड़ेंगे। जीत ही उनकी पहली और आखिरी शर्त है। लेकिन शायद यह बात अभी भी मोदी सरकार नहीं समझ पा रही है। 

(महेंद्र मिश्र जनचौक के संपादक हैं।) 

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