Friday, March 29, 2024

मोदी सरकार का सुप्रीम कोर्ट के प्रति सद्भाव का नाटक और टकराव का इरादा

केंद्र सरकार एक तरफ जहां सुप्रीम कोर्ट के प्रति सद्भाव दिखाती लग रही है, वहीं दूसरी तरफ वह उसके साथ टकराव पैदा करने वाले फैसले भी ले रही है। पिछले दिनों दो बड़े फैसले ऐसे हुए हैं, जिनसे लगा कि केंद्र सरकार ने शीर्ष अदालत के साथ टकराव का रास्ता छोड़ दिया है। पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सुप्रीम कोर्ट के प्रति लगातार तल्ख टिप्पणियां करने वाले कानून मंत्री किरेन रिजिजू को कानून मंत्रालय से हटाया और उनकी जगह अर्जुन राम मेघवाल को नया कानून मंत्री बनाया। इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट में दो और मद्रास हाईकोर्ट में चार जजों नियुक्ति के प्रस्तावों को हरी झंडी दे दी गई। लेकिन इन दो फैसलों के अलावा एक फैसला ऐसा भी हुआ, जिसे साफ तौर पर सर्वोच्च अदालत को नीचा दिखाने या चिढ़ाने वाला कहा जा सकता है।

सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम की ओर सुप्रीम कोर्ट में दो जजों की नियुक्ति का प्रस्ताव 16 मई को भेजा गया था, जिसे किरेन रिजिजू को कानून मंत्रालय से हटाने के साथ ही महज 48 घंटे में 18 मई को मंजूरी दे दी गई। मद्रास हाईकोर्ट में चार जजों की नियुक्ति का जो प्रस्ताव 21 मार्च से कानून मंत्रालय में दबा पड़ा था, उसे भी नए कानून मंत्री ने तुरत-फुरत मंजूरी दे दी।

इससे पहले हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति के प्रस्तावों को मंजूरी मिलने में महीनों लग रहे थे, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने कई बार नाराजगी जताई थी और यहां तक कह दिया था कि सरकार उसे ऐसा कोई कदम उठाने के लिए मजबूर न करे, जिससे परेशानी हो। इस पर कानून मंत्री की हैसियत से फाइलें निबटाने के बजाय किरेन रिजिजू ने जुबान लड़ाने के अंदाज में कहा था कि यहां कोई किसी को चेतावनी नहीं दे सकता।

दरअसल किरेन रिजिजू दो साल पहले कानून मंत्री बनने के बाद से ही एंग्री यंग मैन के अंदाज में सुप्रीम कोर्ट को उसकी ‘औकात’ जो भी वे समझते रहे, दिखाने पर आमादा नजर आ रहे थे। कोई सार्वजनिक मंच ऐसा नहीं था जहां से उन्होंने सुप्रीम कोर्ट पर गैरजरूरी, नाजायज और अशोभनीय टिप्पणियां न की हों। जजों की नियुक्ति के कॉलेजियम सिस्टम से लेकर जजों के कामकाज के तरीकों और सर्वोच्च अदालत के फैसलों तक पर वे लगातार गंभीर टिप्पणियां करते आ रहे थे।

यह सही है कि कॉलेजियम सिस्टम पारदर्शी नहीं है और उसमें कई खामियां हैं, लेकिन रिजिजू का जोर सिर्फ इस बात पर था कि जजों की नियुक्ति के सिस्टम में केंद्र सरकार की भी भागीदारी होनी चाहिए। उन्होंने कॉलेजियम सिस्टम की आलोचना करते हुए उसे भारतीय संविधान के लिए एलियन यानी सर्वथा अपरिचित चीज कहा था। इस सिलसिले में उन्होंने दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश आरएस सोढ़ी की इस टिप्पणी से भी सहमति जताई थी कि जजों की नियुक्ति के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान का अपहरण कर लिया है।

एक निजी टीवी चैनल के कार्यक्रम में जजों की नियुक्ति के बारे में चर्चा करते हुए रिजिजू ने कहा था, ”सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट कोई सरकार नहीं है। मेरे पास जजों की कई तरह की शिकायतें आती हैं। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति की जो प्रक्रिया है, उससे मेरी असहमति है।’’

इसी साल 27 अप्रैल को समलैंगिक शादी को लेकर सुप्रीम कोर्ट में चल रही सुनवाई को लेकर भी उन्होंने न्यायपालिका को चुनौती देने के अंदाज में कहा था कि शादी जैसे मामले अदालतों के मंच पर नहीं निबट सकते। एक टीवी कार्यक्रम में उन्होंने कहा था कि शादी जैसे मामलों पर फैसला लोगों को करना होता है और लोगों की इच्छा संसद या विधान सभाओं में दिखती है। इसलिए इस मामले में फैसला लेने का काम संसद पर छोड़ दिया जाना चाहिए।

इतना ही नहीं, इससे पहले एक अन्य मीडिया समूह के कार्यक्रम में तो वे इतना आगे बढ़ गए थे और यहां तक कह दिया था कि कुछ सेवानिवृत्त जज भारत विरोधी गैंग का हिस्सा बन गए हैं और उनकी कोशिश रहती है कि भारतीय न्यायपालिका विपक्ष की भूमिका निभाए। ऐसे लोगों को कीमत चुकानी होगी।

कुल मिलाकर कानून मंत्री की हैसियत से न्यायपालिका के खिलाफ उनकी आक्रामक और अशोभनीय बयानबाजी से संदेश यही जा रहा था कि वे जो कुछ भी कह रहे और कर रहे हैं उसे सरकार के शीर्ष नेतृत्व की भी सहमति प्राप्त है, यानी सरकार न्यायपालिका से दो-दो हाथ करने के मूड में है या वह सुप्रीम कोर्ट पर दबाव बना कर उसे अपने अनुकूल बनाना चाहती है।

वैसे न्यायपालिका खास कर सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ इस तरह की बयानबाजी करने वाले किरेन रिजिजू इस सरकार के कोई पहले मंत्री नहीं हैं। उनसे पहले गृहमंत्री अमित शाह और कानून मंत्री रहे रविशंकर प्रसाद भी सुप्रीम कोर्ट पर दबाव बनाने के लिए नसीहत भरे बयान दे चुके हैं। केरल के सबरीमाला स्थित अयप्पा मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर लगे प्रतिबंध के खिलाफ जब सितंबर 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था तो गृहमंत्री अमित शाह ने कहा था कि अदालतें किसी भी मामले में फैसला देते वक्त व्यावहारिक रुख अपनाएं और वैसे ही फैसले दें, जिन पर अमल किया जा सके (27 अक्टूबर 2018)।

इसी तरह अक्टूबर 2015 में जब सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने जजों की नियुक्ति के लिए बनाए गए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम 2014 को असंवैधानिक करार देते हुए उसे अमान्य कर दिया था तब तत्कालीन संचार मंत्री रविशंकर प्रसाद ने सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को संसद की संप्रभुता पर हमला करार देते हुए सुप्रीम कोर्ट को अपनी सीमा में रहने की नसीहत दी थी।

बहरहाल प्रधानमंत्री मोदी ने किरेन रिजिजू को कानून मंत्रालय से हटाकर और जजों की नियुक्ति के प्रस्तावों को मंजूरी दिला कर सुप्रीम कोर्ट के प्रति सद्भाव दिखाने की कोशिश की है। उन्होंने इन फैसलों के जरिए यह जताने की भी कोशिश की है कि सुप्रीम कोर्ट को लेकर रिजिजू की बदजुबानी और जजों की नियुक्ति के प्रस्तावों को मंजूरी में टालमटोल को उनकी या सरकार की सहमति नहीं थी।

सुप्रीम कोर्ट के प्रति सद्भाव दिखाने वाले इन दो फैसलों के अगले ही दिन सरकार ने एक और जो बड़ा फैसला लिया, वह साफ तौर पर सुप्रीम कोर्ट को छकाने और चिढ़ाने वाला रहा। सरकार ने दिल्ली में अधिकारियों की नियुक्ति और तबादले में दिल्ली सरकार को अधिकार देने वाले सर्वोच्च अदालत के फैसले को पलटने के लिए अध्यादेश लागू कर दिया। दिल्ली में राज्य सरकार और उप राज्यपाल के बीच अधिकारियों की नियुक्ति और तबादले के अधिकार को लेकर लंबे समय से विवाद चल रहा था।

दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार का आरोप था कि केंद्र सरकार उप राज्यपाल के माध्यम से दिल्ली सरकार के कामकाज में अनावश्यक रूप से बाधा डाल रही है। इस मामले को लेकर दिल्ली सरकार सुप्रीम कोर्ट गई थी, जिस पर सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने आदेश दिया था कि अधिकारियों के तबादले का अधिकार दिल्ली सरकार को होगा। सर्वोच्च अदालत ने यह आदेश इसी महीने की 11 तारीख को दिया था, लेकिन उप राज्यपाल ने इस आदेश की अनदेखी करते हुए अपनी मनमानी जारी रखी।

दिल्ली सरकार ने फिर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया लेकिन सुप्रीम कोर्ट सुनवाई करती, उससे पहले ही 19 मई को केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के 11 मई के आदेश को बेअसर करने के लिए एक अध्यादेश जारी कर दिया। ‘राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली संशोधन अध्यादेश, 2023’ के जरिए अधिकारियों की नियुक्ति और तबादले के लिए एक प्राधिकरण बना दिया गया, जिसमें मुख्यमंत्री के अलावा दो अधिकारी होंगे और किसी भी मामले में बहुमत से फैसला होगा। प्राधिकरण में विवाद होने पर उप राज्यपाल का फैसला मान्य होगा।

यह अध्यादेश ऐसे समय आया, जब अदालतों में गर्मी की छुट्टियां शुरू हो गई हैं। केंद्र सरकार ने अपने इस कदम से साफ कर दिया है कि सर्वोच्च अदालत का जो भी फैसला उसके इरादों के खिलाफ आएगा, उसे वह इसी तरह अध्यादेश के जरिए पलट देगी। बहरहाल दिल्ली सरकार ने छुट्टियां खत्म होते ही अध्यादेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने का इरादा जताया है।

इस सिलसिले में दिलचस्प बात यह है कि केंद्र सरकार ने जहां एक ओर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए अध्यादेश जारी किया है, वहीं दूसरी ओर उसने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका भी दायर की है। लेकिन सवाल है कि अध्यादेश के बाद इस याचिका का क्या औचित्य है? इस याचिका पर सुनवाई तो तभी हो सकती है जब केंद्र सरकार अपना अध्यादेश वापस ले ले। यानी एक बार फिर केंद्र सरकार को सुप्रीम कोर्ट में मुंह की खानी पड़ सकती है।

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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