Saturday, April 20, 2024

जमीन की लड़ाई में आधी जमीन की पूरी शिरकत

किसान आंदोलन के 43वें दिन किसानों ने 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस पर होने वाले ट्रैक्टर मार्च का शानदार और आकर्षक रिहर्सल किया। ट्रैक्टर मार्च के इस पूर्वाभ्यास में जो सबसे आकर्षक तस्वीरें थीं, वो थीं महिलाओं के ट्रैक्टर चलाने की। शहरों में अब तक हमने महिलाओं को कार-बाइक चलाते देखा है। हाइवे पर महिला किसानों को ट्रैक्टर चलाते पहली बार देखा गया। यह अद्भुत नजारा था और खूबसूरत भी। हालांकि जो लोग औरतों को घूंघट और बुर्के में रखने के हिमायती हैं उन्हें ये तस्वीरें अच्छी नहीं लगेंगी। कंगना रनौत को तो कतई अच्छी न लगी होंगी।

लेखिका और एक्टिविस्ट अमनदीप कौर लिखती हैं, “घर, परिवार और बच्चों के पालन-पोषण से लेकर तमाम कृषक गतिविधियों में औरत के श्रम की भागीदारी उसे एक विलक्षण ओहदा देती हुई नज़र आती है। पारिवारिक ज़िम्मेदारियों के अलावा बुआई, निराई, कटाई, अनाज को सम्हालना, पशुओं की देख-रेख तक के समूचे कृषि प्रधान वातावरण में औरत एक मुख्य कड़ी के रूप में कार्यरत हैं। दर-असल ये औरतें ही हिंदुस्तान की अस्ली वर्किंग वीमेन हैं, जिनके काम के घंटे 9-5 नहीं बल्कि 5-9 हैं।”

हालांकि मौजूदा दौर में महिलाओं के किसानी अधिकारों को लेकर एक लंबी बहस है कि किसान के नाते महिला का ज़मीन पर क्या/कितना हक है और कितना होना चाहिए? एक कृषक के रूप में महिला को सरकार की ओर से क्या-क्या सुविधाएं और योजनाएं मुहैया करवाई गई हैं, इत्यादि।

पंजाब एवं हरियाणा में कृषि कार्य में औरतों की प्रमुख भागीदारी सीधे-सीधे नज़र आती है। पंजाब के मालवा क्षेत्र में तो 60% किसानी औरतों के ही कंधो पर है। इसलिए मालवा बेल्ट से होने वाले प्रदर्शनों और धरनों में औरतें एक प्रमुख और तीव्र आवाज़ के रूप में नज़र आती हैं। उम्मीद है कि मौजूदा आंदोलन की सफलता के बाद महिला किसान के हक में भी एक गंभीर संवाद उभरेगा!

सिंघु बॉर्डर से अमन लिखती हैं, “दिल्ली में आंदोलनरत महिलाएं ये मनाती हैं कि शाहीन बाग की औरतों से उनको प्रेरणा मिलती है और वो सरकार की फासीवादी नीतियों के ख़िलाफ़ एकजुट हुई हैं।”

वह लिखती हैं, “शाहीन बाग की दादी बिलकीस बानो का किसानों के समर्थन में आंदोलन में भागीदारी के लिए प्रदर्शन स्थल पर पहुंचना सियासत को इस कदर नागवार गुज़रा कि उन्हें प्रदर्शन स्थल की दहलीज़ से ही दिल्ली पुलिस की सुरक्षा में वापस भेज दिया गया। आख़िर क्यों? ऐसा क्या डर है सरकार को?”

बीते साल सितंबर को जब कृषि कानूनों के खिलाफ पंजाब में किसानों ने रेल रोको आंदोलन की घोषणा की थी उस समय भी 28 सितंबर को शहीद-ए-आजम भगत सिंह के जन्म दिवस के मौके पर महिला किसान केसरी चुनरी डाल कर फिरोजपुर छावनी रेलवे स्टेशन के नजदीक रेल पटरी पर बैठ गई थीं, यह दृश्य पंजाब के और हिस्सों में भी देखने को मिला था।

जिन लोगों को लगता है कि 70-80 साल की ये महिलाएं सौ-सौ रुपये में घर से निकल आती हैं, उन्हें मानसिक इलाज की जरूरत है और अगर हिम्मत है तो ये बात वे ट्वीट पर न लिख कर सीधा किसानों महिलाओं के बीच आकर कहें। मीडिया में किसान आंदोलन की ख़बरें लगातार सुर्ख़ियों में है, किंतु उनमें किसान आंदोलन में पुरुषों की तरह समान रूप से शामिल इन महिलाओं की ख़बरें नदारद हैं या कभी-कभी कहीं-कहीं देखने को मिल जाती है।

इस किसान आंदोलन के इतना लंबा चलने के पीछे इन महिलाओं की भूमिका बहुत अहम है। उन्हीं की भागीदारी के कारण ही यह आंदोलन और भी मजबूत और महत्वपूर्ण हुआ है। मने यूं कहिए किसान का पूरा परिवार इस आंदोलन में शामिल है, तभी यह आंदोलन इतना लंबा चल रहा है। परिवार से दूर रह कर मनुष्य कमजोर हो जाता है यह मनोवैज्ञानिक सत्य है।

वैसे तो इस आंदोलन को हम बीते 44 दिनों से गिन रहे हैं। यानी 26 नवंबर 2020 से जब किसानों ने हरियाणा में खट्टर सरकार की तमाम रुकावटों और पुलिस की पूरी ताकत, बैरिकेड्स, वाटर कैनन और सड़क पर बीचे कंटीले तार और 10 फुट गड्ढों को लांघ का दिल्ली की सीमाओं पर अपना डेरा डाल लिया था, किन्तु यह आंदोलन इससे भी लंबा है। किसानों के दिल्ली मार्च से दो महीने पहले पंजाब और हरियाणा में किसानों का आंदोलन शुरू हो चुका था।

सीधा-सीधा कहा जाए तो किसानों का यह आंदोलन बीते करीब पांच महीनों से जारी है। ये महिलाएं तब से इस आंदोलन में शामिल हैं। इस आंदोलन में पंजाब, हरियाणा के अलावा मध्य प्रदेश, कर्नाटक, केरल, उत्तराखंड, झारखंड और बिहार समेत देश के अलग-अलग राज्यों से हजारों महिलाएं शामिल हैं। सत्ताधारी बीजेपी सरकार के मंत्रियों और समर्थकों को उनमें भी नक्लसी, खालिस्तानी और देशद्रोही नज़र आते हैं।

खैर, इस आंदोलन की चर्चा न सिर्फ देश में बल्कि विदेशों में भी है और न केवल आज़ाद भारत के बल्कि विश्व के इतिहास में इस आंदोलन ने दर्जा पा लिया है। इस आंदोलन को महिलाओं ने खास और मजबूत बना दिया है। इतना ही नहीं यह शायद आजादी के बाद ऐसा पहला आंदोलन है, जिसमें समाज का हर वर्ग समान रूप से शामिल है। इस आंदोलन में नौजवान भी हैं और दुधमुंहे बच्चे भी हैं।

इस आंदोलन में अब तक 65 से ज्यादा किसान मोदी सरकार की जिद की वजह से शहीद हो चुके हैं, जिनमें चार लोगों ने ख़ुदकुशी की है और अपनी मौत के लिए सीधे-सीधे मोदी को जिम्मेदार ठहराया है। कानून में मृतक का बयान अंतिम माना जाता है, किंतु इन दिनों अदालतों का मिजाज कुछ बदला-बदला नजर आता है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपने परम मित्र डोनाल्ड ट्रंप और उनके परिवार को कोरोना होने पर चिंता होती है। क्रिकेट खिलाड़ी की ऊंगली चोटिल होने पर फ़िक्र होती है। अमेरिका में ट्रंप के समर्थकों द्वारा संसद पर हमले की चिंता भी अच्छी बात है, किन्तु जब अपने देश में बात किसान और मजदूरों की हो तो उन्हें लगता है सब विपक्ष की चाल है।

इसी नरेंद्र मोदी सरकार के नोटबंदी के कारण कई लोगों ने अपनी जान गंवा दी, फिर कोरोना के समय बिना तैयारी के लाखों मजदूरों को सड़क पर ला दिया आपात लॉकडाउन की घोषणा कर और सैकड़ों मजदूर सड़कों पर मारे गए चलते-चलते। रेल से कट गए। दर्द और भूख से बच्चे मारे गए सड़क पर चलते चलते। अदालत और मानवाधिकार आयोग आंख-कान बंद कर बैठे रहे।

महामहिम तो खैर कुछ कहते नहीं, ज्ञापन लेकर रख लेते हैं पर कुछ कह नहीं रहे हैं। मृतक किसानों के लिए न उन्होंने दुःख प्रकट किया है न ही एक शब्द बोले, जबकि विपक्षी दलों ने लगातार इन कृषि कानूनों को वापस लेने की उनसे मिन्नतें की हैं जिन पर महामहिम ने हस्ताक्षर किए थे।

किसान आंदोलन का आज 44वां दिन है और तीनों नये कृषि कानूनों को वापस लिए जाने की किसानों की मांग स्पष्ट होने के बाद भी सरकार और किसान यूनियनों के नेताओं के बीच असफल वार्ताओं का दौर जारी है। आज आठवें दौर की वार्ता होने जा रही है, जबकि आज भी इस वार्ता से कोई हल निकले इसकी उम्मीद बेमानी है।

अपनी जमीन और आने वाली पीढ़ी और देश के भविष्य के लिए तमाम मुसीबतों को झेलते हुए खुले आकाश के नीचे सड़कों पर सर्दी, बारिश, आंसू गैस के गोले, लाठीचार्ज और तमाम झूठे लांछन सह कर भी शांति से बैठे हुए इन अन्नदाताओं को सलाम!

(वरिष्ठ पत्रकार नित्यानंद गायेन का लेख।)

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