हाल बनारस के बुनकरों का: “न फ्रिक में हैं, न जिक्र में हैं, हम केवल वोट में हैं”

वाराणसी। बनारस में बजरडीहा बुनकर बाहुल्य इलाका है। बुनकरों की बर्बादी, लाचारी, बेबसी और असमय मौत का चलता-फिरता दस्तावेज है ये इलाका। यहां की कच्ची-पक्की गंदगी से भरी गलियों में दड़बेनुमा घरों में हुनरमंद बुनकरों की बिनकारी का दम घुट-घुट कर खत्म हो रहा है। एक ओर कोठीवाल और गिरस्त हैं तो दूसरी तरफ करोड़ों की बुनकर कल्याण योजनाओं के फंदे बुनकरों का गला घोट रहे हैं। राहत योजनाएं यहां छलावा से अधिक कुछ नहीं हैं, आज भी यहां 250 से 350 रुपए मजदूरी पर बुनकर 12 घंटे खट रहा है। कईयों ने बुनकरी से तौबा कर दूसरा काम-धंधा अपना लिया है।

रियाजुद्दीन ने पान की दुकान खोल ली है तो सफीउल्लाह चाय बेच रहे हैं। मंदी और भुखमरी के चलते पलायन तो यहां भी हुआ है और भूख से मौत भी, लेकिन नारों में बदलती काशी में हो रहे विधानसभा चुनावों में ये मुद्दे पूरी तरह से गायब हैं। यहां जनचौक की मुलाक़ात सरफुद्दीन से हुई, जो कहते हैं “अपनी परेशानी कहकर तमाशा बनने से बेहतर है हम चुप ही रहें, वैसे भी हम न तो फिक्र, न तो जिक्र में हैं। हम तो केवल वोट हैं।”

चाय बनाते सफीउल्ला और पान की दुकान पर रियाजुद्दीन।

कड़ाके की ठंड से गुजरकर फरवरी की खिली धूप और सत्ता पर काबिज होने के लिए चल रहे चुनावी जोड़-घटाव के बीच यहां की गलियों में घूमते हुए मरहूम शायर नज़ीर बनारसी का तकरीबन चार दशक पहले कहा गया शेर हर कदम पर सामने खड़ा मिलता है।

 “कौन किसकी हंसी छीन कर शाद है/कौन किसके उजड़ने पर आबाद है/किसके लाश पे कोठी की बुनियाद है/तुम बताओ तुम्हें भी बतायेंगे हम/इस कटौती की मैयत उठायेंगे हम।”

बजरडीहा के अम्बा मोहल्ले में बुनकर रहे सर्फुद्दीन फिलहाल छोटी सी दुकान चला रहे हैं। “बुनकरी क्यों छोड़ा?” पूछा तो जवाब मिला “कमाई नहीं थी”। और कुरेदने पर उन्होंने बताया कि लॉक डाउन में साल भर तक सिर्फ एक वक्त का खाना नसीब हुआ। इन्हीं अभावों में 14 साल की लड़की चल बसी। मदद के नाम पर कुछ नहीं मिला।” सर्फुद्दीन हमसे पूछते हैं “आप ही बताइए दिन में सिर्फ एक वक्त की खुराकी पर कितने दिन चला जा सकता है?”

यहां बहुतेरे ऐसे ही अभावों के चलते असमय ही दुनिया को खुदा हाफ़िज़ कह जाते हैं। सफीउल्लाह की उम्र तकरीबन 60 पार हो चली है। कभी बिनकारी करते थे, अब छोटी सी चाय की दुकान खोलकर परिवार चला रहे हैं। बाकी बच्चे मजदूरी करते हैं। बातचीत शुरू होती है और यह पूछने पर कि बिनकारी क्यों छोड़ दी, तो जवाब देते हैं “इतना नहीं बचता था कि परिवार चला सकें।” अब कैसे गुजर-बसर हो रही है, पूछने पर जबाव देते है “बस किसी तरह लॉकडाउन के बाद ये दुकान खोली है।”

डंप पड़े हथकरघे।

रेहाना और उसकी लड़कियां साड़ियों पर स्टोन वर्क का काम करती हैं। एक साड़ी की मजदूरी 12 रुपए है। दिन भर में चार-पांच साड़ियों पर काम के बदले 48 रूपए मिलते हैं। कैसे चल रहा है इस पर कहती हैं, “बस मत पूछिए कैसे जी रहे हैं?”

हबीबुननिशा के घर पर भी करघा था और काम भी। अब कुछ नहीं है, बेटे मजदूरी करते हैं। पूछने पर कहती हैं, “क्या बताऊं कैसे चल रहा है। राशनकार्ड बनवाने गये थे, वहां सौ रुपए देने को कहा गया। जहां पाई-पाई जोड़कर भी कमाई इतनी नहीं हो पाती कि पेट की क्षुधा मिट सके, वहां सौ रुपए कहां से आए।

यहीं पर अनवर मिल गये, बोले “नौ साल की उम्र से काम कर रहे हैं। फर्क क्या है, हम तो कल भी मजदूर थे आज भी हैं। बुनकर जमील अहमद 35 साल से बिनकारी का काम कर रहे हैं 12 घंटा काम के बदले 250 रुपये की मजदूरी दिन-प्रतिदिन की बढ़ती महंगाई का मुकाबला नहीं कर पा रही है”।

जमील अहमद 35 साल से कर रहे हैं बुनकरी का काम

इस बीच योगी सरकार के द्वारा हर घर में स्मार्ट मीटर को स्थापित करने पर जोर के बाद बुनकरों के लिए बिजली जैसी बुनियादी सुविधा भी उनके लिए एक बड़ी बाधा बन गई थी। अखिलेश यादव के कार्यकाल में हर मशीन के लिए जो 75 रुपये प्रति माह का तय कर दिया गया था, वह लागत पिछले कुछ वर्षों से बढ़कर प्रति मशीन 500 रुपये कर दी गई थी। इस पर उत्तर प्रदेश बुनकर सभा और अन्य संगठनों की ओर से लगातार प्रतिवेदन, आंदोलन और यहाँ तक कि बंद तक का आह्वान किया गया, लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला।

यूपी में चुनावी माहौल पर हैदर से पूछने पर जनचौक संवाददाता ने प्रश्न किया कि, क्या चाहते हैं, तो उनका कहना था “किसको कहें और क्या चाहें हमारी कौन सुनेगा? हम कमजोर लोग हैं। बुनकर आज जहां खड़े हैं वहां एक दिन में नहीं पहुंचे। साल दर साल और सरकार दर सरकारों ने इन्हें वोट समझा। इस दौरान कोऑपरेटिव भी बने और लाखों-करोड़ों की योजनाएं भी आईं। लेकिन मलाई काटी बिचौलियों, कोठीवालों और गिरस्तों ने। हमारे हिस्से में जो अभाव बना हुआ था, वो पहले से कई गुना बढ़ गया है।”

सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक तौर पर कमजोर होने के चलते भी इन्हें जिसने जैसे चाहा नचाया। हुकूमत ने शायद ही कभी इनसे सीधा संवाद बनाया हो। आज इनसे सीधे बातचीत कर इन्हें मदद पहुंचाने की जरूरत है ताकि इस बेजोड़ हस्तशिल्प को बचाया जा सके, वरना यह कला हमेशा-हमेशा के लिए दम तोड़ देगी।

सोगरा बीबी हबीबुनिशा की बेटी हैं

मुश्ताक, कौशर अली, सोगरा बीबी और अनगिनत नाम लिए चेहरे यहां मिलते हैं, लेकिन रोजी और बेहतर जिंदगी की इनकी आस धुंधली पड़ती जा रही है। यहां की नयी पौध अक्षर और स्कूल से दूर है। भविष्य कहां है कोई नहीं जानता। हां इतना तय है कि उंगलियों में छिपा हुनर अपने खात्मे की ओर है।

मुश्ताक।

हमको नहीं भूलना चाहिए कि 80 के दशक तक हथकरघा उद्योग बनारस के लाखों बुनकरों को रोजगार देने के साथ-साथ देश ही नहीं बल्कि दुनियाभर में बनारसी साड़ी के लिए मशहूर था। एक अनुमान के मुताबिक पिछले वर्ष तक इस उद्योग से बनारस में 6 लाख लोग जुड़े थे, जिसमें बड़ी संख्या मुस्लिमों की थी। वहीं साल 2007 के सर्वे के मुताबिक़ बनारस में तकरीबन 5,255 छोटी बड़ी इकाइयां थीं, जिनमें साड़ी ब्रोकेड, ज़रदोज़ी, ज़री मेटल, गुलाबी मीनाकारी, कुंदनकारी, ज्वेलरी, पत्‍थर की कटाई, ग्लास पेंटिंग, बीड्स, दरी, कारपेट, वॉल हैंगिंग, मुकुट वर्क जैसे छोटे मंझोले उद्योग थे। इनमें तक़रीबन 20 लाख लोग काम करते थे। इनके जरिए करीब 7500 करोड़ का कारोबार होता था। इनमें से करीब 2300 इकाइयां पूरी तरह बंद हो चुकी हैं और बाकी बची भी बंद होने की कगार पर हैं।

हथकरघा उद्योग चूंकि घर से ही चलता है, इसलिए इसमें बड़ी संख्या में महिलाओं की भी हिस्सेदारी थी। मुस्लिम श्रमिकों और हिन्दू व्यापारियों और गद्दीदारों के साथ कामकाजी और महीन शोषण की व्यवस्था तो बनी हुई थी, लेकिन इस बीच पिछले 7 वर्षों के दौरान समाज और राजनीति की फिजा भी बदली है, और नागरिकता संशोधन विधेयक के चलते भी एक अनकही उपेक्षा का शिकार इस उद्योग को होना पड़ा है। हिन्दू अखबार के 2009 के एक लेख के अनुसार बनारसी हैण्डलूम का बाजार 4,000 करोड़ रुपये का था, और अधिकांश काम नकदी ही था। साड़ी बाजार में एक समय बनारसी साड़ी की भूमिका सिरमौर थी, और शादी में बनारसी साड़ी का होना शान की बात समझी जाती थी। 

कहा जाता है कि बनारसी साड़ी का प्रचलन 16 वीं शताब्दी में, गुजरात से चलकर यहाँ पहुंचा था, और इसकी डिजाईन में मुग़लकालीन दस्तकारी की झलक मिलती है। लेकिन 90 के दशक में उदारीकरण से इसमें जो गिरावट का सिलसिला शुरू हुआ, उसने पॉवरलूम और बाद के दौर में चीनी सिल्क और सूरत की सिल्क साड़ियों ने रही-सही कसर भी खत्म कर दी थी। सबसे पहले बुनकरों को उद्योगपतियों के द्वारा लगाये जाने वाले पॉवरलूम के आगे हाथ खड़े करने के लिए मजबूर होना पड़ा। फिर इसके बाद आया सूरत से बनने वाली नकली बनारसी साड़ी का दौर। बनारसी साड़ी को बेंगलुरु और चीन से आने वाले रेशम के धागे से तैयार किया जाता है, जबकि सूरत की साड़ियां पेट्रोलियम पदार्थ अर्थात पोलिएस्टर से तैयार किया जाता है। नतीजा यह हुआ कि एक के बाद एक बनारसी साड़ी बाजार में पिटने लगी।

वैसे भी बाजार में आधुनिकतावाद उपभोक्तावाद ने बड़ी संख्या में बेहतरीन कारीगरी और नर्म नाजुक रेशम से निर्मित परिधानों की जगह पर उनके ही जैसे दिखने वाले सस्ते परिधानों के लिए तरजीह देने का काम किया। साथ ही अनुभवी और पारखी आँखों के सिवाय असली और नकली बनारसी साड़ी में पहचान करना लगभग नामुमकिन है।

एक बनारसी साड़ी की लागत ही 5,000 रुपये से लेकर कई गुना हो सकती है, जिस पर 15-20 दिन से लेकर महीने भर की मेहनत लग सकती है। जबकि पॉवरलूम से एक महीने में कई दर्जन साड़ियां तैयार की जा सकती थीं। फिर इसके बाद उसके मुकाबले में बेहद सस्ती सूरत की साड़ी ने करीब-करीब पूरे बाजार पर ही कब्जा जमा लिया। सूरत की नकली बनारसी साड़ी की बढ़ती मांग के चलते पहले से ही बनारसी बुनकर भुखमरी के कगार पर पहुंच गए थे।

आज हालत यह है कि बनारस के बाजार में ही 90 फीसदी सूरत की नकली बनारसी साड़ी भरी पड़ी है। रेशम के दामों में भारी ड्यूटी होने के कारण लागत वृद्धि में इसका भी एक बड़ा योगदान है। बनारस के बजरडीहा, बड़ा बाजार, पीली कोठी, अलईपुर, मदनपुरा, लल्लापुर, कोटवा, लोता, रामनगर, सराय मोहान और आदमपुर के लाखों बुनकरों के सामने भविष्य अंधकारमय है। उत्पादन भी अब पहले की तुलना में एक चौथाई ही बचा है।

नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने और बनारस संसदीय क्षेत्र को अपना निर्वाचन क्षेत्र चुनने की वजह से उम्मीद की जा रही थी, कि बनारस के पांच लाख से अधिक बुनकर परिवारों के लिए कोई ठोस योजना बन सकती है। पीएम बनने के 6 महीने बाद एक घोषणा जिसमें बुनकरों के लिए बड़ा लालपुर में 500 करोड़ रुपये की लागत से ट्रेड फैसिलिटी सेंटर खोलने की घोषणा की गई थी, जिस तक बुनकरों की कोई सीढ़ी पहुँची ही नहीं है।

इतिहास हो गया हथकरघा

ट्रेड फैसिलिटी सेंटर की घोषणा पर नवंबर 2014 में नरेंद्र मोदी के भाषण को याद करें, जिसमें उन्होंने कहा था, “आज पूरे हिंदुस्तान भर में कोई महिला ऐसी नहीं होगी… जिसके कान में ‘बनारसी साड़ी’ ये शब्द न पड़ा हो। हमारे पूर्वजों ने इस काम को जिस साधना के साथ किया, जिस पवित्रता के साथ किया… कि हर मां अपनी बेटी की शादी जो जीवन का सबसे अमूल्य अवसर होता है, उसके मन का एक सपना रहता है कि बेटी को शादी में बनारसी साड़ी पहनाए। यह कितनी बड़ी विरासत हमारे पास है। न हमें कोई मार्केटिंग करने की जरूरत है …। आप कल्पना कर सकते हैं कि भारत की सवा सौ करोड़ जनसंख्या है। आने वाले कुछ वर्षों में कम से कम 20 करोड़ से ज्यादा बेटियों की शादी होगी। मतलब 20 करोड़ साड़ी का मार्केट है।….आपने कभी सोचा है कि इतना बड़ा मार्केट आपके लिए वेट कर रहा है…..।”

किन्तु इस सेंटर तक पहुंच में बिचौलियों और बड़े गद्दीदारों के हाथ में ही इसके संचालन ने इसे सिर्फ एक प्रचार का साधन बना डाला है। ये सारी बातें कितनी हवा-हवाई लगती हैं, इसके लिए आपको बनारस के इन अँधेरे मुहल्लों में झांक कर देखना होगा। जबकि इसके उलट मोदी की नोटबंदी योजना ने सबसे पहले नकदी बनारसी साड़ी को एक बड़ा झटका दिया, उसके बाद जीएसटी और फिर अब निर्णायक रूप से कोरोना काल ने अब करीब-करीब इस उद्योग को पूर्ण बंदी की दहलीज पर लाकर खड़ा कर दिया है।

आज जब देश में बेरोजगारी से लड़ने के लिए सरकारी नौकरी की जगह पर आत्मनिर्भर भारत की बड़ी-बड़ी डींगें भरी जाती हैं, वहां पर पहले से ही विश्व प्रसिद्ध बनारसी साड़ी और उससे जुड़े लाखों हुनरमंद बुनकरों की इस कदर बेकदरी, न सिर्फ बहुमूल्य विदेशी मुद्रा और निर्यात से भारत को मरहूम कर रही है, बल्कि जिस काम से कुछ समय पहले तक 6 लाख परिवार अकेले एक शहर में आबाद थे, उन्हें हाशिये पर धकेल कर वास्तविक मेक इन इंडिया के सपनों को नष्ट किया जा रहा है।

भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश को भी यदि स्वावलंबी और आर्थिक रूप से मजबूत बनाना है, तो उसके लिए हमें अपने ऐतिहासिक तौर पर परंपरागत उद्यमों, दस्तकारी, कारीगरी और बुनकरी को न सिर्फ संरक्षित करने की सबसे पहली जरूरत है, बल्कि उसके लिए दुनियाभर में उसकी पहचान को कायम रखने के लिए एक समग्र नीति की भी महती आवश्यकता है।

(वाराणसी से पत्रकार भास्कर गुहा नियोगी की रिपोर्ट।)

भास्कर सोनू
Published by
भास्कर सोनू